चम्पा की पहचान एक बेहद प्राचीन नगरी के रूप में होती है, जो सोलह महाजनपदों में एक महाजनपद की राजधानी थी। बिहार के भागलपुर ज़िला मुख्यालय से महज़ 4 कि.मी. दूर स्थित चम्पा की प्राचीनता का अंदाज़ा इस बात से लगया जा सकता है, कि इसकी स्थापना मगध साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र से भी पहले हो चुकी थी। इससे पहले मगध की राजधानी रहे राजगृह की नगर-योजना बनाने वाले महागोबिंद ने ही चम्पा की रूपरेखा तैयार की थी। चीनी यात्री ह्वेनसांग के अनुसार चम्पा विश्व के प्राचीनतम नगरों में से एक था।
चम्पा की पहचान गौतम बुद्ध से भी पहले, एक ख़ुशहाल आर्थिक-व्यापारिक केंद्र के तौर पर बन चुकी थी। बौद्ध-काल में इसकी गिनती भारत के छह महानगरों में होती थी। चम्पा के समृद्ध व्यापारी, गंगा के रास्ते ताम्रलिप्ति (पश्चिम बंगाल का वर्तमान तामलुक) पहुंचकर, विदेशी व्यापार किया करते थे। चम्पा के व्यापारियों ने मलय (मलेशिया), कम्बोडिया आदि देशों में चम्पा के नाम से बस्तियॉ भी बसायी थीं।
इतिहास के कालक्रम में अंग (अब भागलपुर-मुंगेर) और इसकी राजधानी चम्पा के राजनीतिक महत्व के कारण इसका संबंध बिम्बिसार, अजातशत्रु, चन्द्रगुप्त, बिन्दुसार से लेकर सम्राट अशोक तक से रहा। बिम्बिसार ने मगध का शासन अपनी राजधानी चम्पा से चलाया था, लेकिन उसका पुत्र उदयिन, मगध की राजधानी को चम्पा से हटाकर पाटलिपुत्र ले गया था। क्योंकि सम्राट अशोक की माता धर्मा (जो शुभद्रांगी भी कहलाती थी) की जन्मभूमि चम्पा थी, इसीलिये उदयिन को चम्पा से ख़ास लगाव था।
बौद्ध और जैन धर्मों सहित ज़्यादातर पुराने ग्रंथों में इस बात के उल्लेख हैं, कि अंग साम्राज्य की राजधानी चम्पा के शासकों, और उनकी रानियों ने समय-समय पर, कई आलीशान महल, तालाब और सरोवर बनवाये। चम्पा की रानी गग्गरा ने सुंदर वृक्षों से ढ़का एक बड़ा तालाब बनवाया था, जो “गग्गरा पुष्करिणी” के नाम से प्रसिद्ध था, जहाँ भगवान बुद्ध ने चम्पा-भ्रमण के दौरान बारिश का मौसम बिताया था। ऐसे उल्लेख भी मिलते हैं, कि महावीर जैन ने भी यहाँ बारिश का मौसम बिताया था । जैन धर्म के 12 वें तीर्थांकर बासुपूज्य की जन्म एवं पंचकल्याणक स्थली (पांच प्रमुख पवित्र आयोजन) भी चम्पा ही रही थी, जिनके पिता यहाँ के राजा थे। जैन ग्रंथों में इस बात की चर्चा है, कि उन दिनों चम्पा एक सुनियोजित और खुशहाल नगरी थी।
चम्पा के सुनहरे इतिहास का प्राचीन ग्रंथ उल्लेख ‘धरिणी कोश’ में मिलता है, जिसमें बताया गया है, कि चम्पा नरेश का एक भव्य राजमहल था, जो सुगंधित लताओं के बीच होने के कारण ‘गंधलता महल’ कहलाता था। समय के साथ, यह महल प्राकृतिक आपदा या अन्य कारणों से ज़मींदोज़ हो गया, और लोगों की यादों से ओझल हो गया। अंगभूमि (भागलपुर) के इस आलीशान महल की पहली प्रामाणिक चर्चा ब्रिटिश विद्वान विलियम फ़्रैंकलिन ने सन 1815 में, लंदन से प्रकाशित अपनी किताब ‘एनशिएंट पोलिबोथरा’ में की है। उन दिनों प्राचीन यूनानी ग्रंथों में वर्णित भारतवर्ष के प्राचीन ख़ुशहाल नगर पाटलिपुत्र की तलाश चल रही थी। यूनानी विद्वानों ने पाटलिपुत्र को ‘पोलिबोथरा’ कहा है। पोलिबोथरा (पाटलिपुत्र-अब पटना) की इस खोज के दौरान फ़्रैंकलिन ने सन 1813 में प्राचीन अंगभूमि यानी भागलपुर ज़िले का विस्तृत दौरा किया था।
भागलपुर ज़िले में अपनी गहन खोज के दौरान फ्रैंकलिन ने भागलपुर ज़िला मुख्यालय से 7 मील पूरब गंगा और कोशी नदियों के संगम-स्थल यानी घोघा नाले के मुहाने पर कुरुछत्तर (अब कुरपट) में चम्पा नरेश के गंधलता के शानदार राजमहल के अवशेष देखे थे।
फ़्रैंकलिन के बाद अंग साम्राजय की इस धरोहर की चर्चा जाने-माने इतिहासकार एन.एल. डे ने सन 1927 में लंदन से प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘ज्योग्राफ़िकल डिक्शनरी ऑफ़ एनशिएंट एण्ड मिडिवल इंडिया’ और भागलपुर ज़िला गज़ेटियर,1962 में भी इस गंधलता महल की चर्चा की गई थी। लेकिन इसके बाद किसी भी पुराविद् और शोधकर्ता ने इसकी ओर ध्यान देने की ज़हमत गवारा नहीं की।
संयोग की बात है, कि 3-4 वर्ष पहले यानी सन 2017-18 में बिहार सरकार के पुरातत्व विभाग ने भागलपुर ज़िले के ऐतिहासिक-पुरातात्विक स्थलों का सर्वेक्षण करवाया था। ठीक इसी तरह, आज से 209 वर्ष पहले, फ़्रैंकलिन ने घोघा नाले के नज़दीक बताये गये स्थान – कुरपट में खुदाई करवाई थी, जहॉ क़रीब 20 एकड़ क्षेत्र में फैले 20 फ़ुट ऊंचे टीले मिले थे। साथ ही वहॉ प्राचीन नगरीय सभ्यता के पुरातात्विक साक्ष्य भी मिले थे।
इस खोज के साथ ही गंधलता महल होने के पुख्ता प्रमाण मिले हैं, जिसका ज़िक्र फ़्रैंकलिन ने किया था। कुरपट भागलपुर के निकट लैलख-ममलखा स्टेशन और सबौर स्टेशन से 3-4 किमी. दूर है। कुरपट, भागलपुर ज़िला मुख्यालय से भी सड़क-मार्ग से भी जुड़ा है।
फ्रैंकलिन ने अपनी पुस्तक ‘एनशिएंट पोलिबोथरा’ में चम्पा नरेश के गंधलता महल का बड़ा ही रोचक विवरण किया गया है। फ़्रैंकलिन बताते हैं, कि यह भव्य महल एक ऊंचे स्थान पर बना था, जो पूरब से पश्चिम 15 किमी और उत्तर से दक्षिण 6 किमी के दायरे में फैला था। बेहतरीन वास्तुकला का नमूना यह शानदार महल चारों तरफ़ से गहरी और चौड़ी खाईयों से घिरा था, जहां पुख्ता नींव पर खड़े 52 बूर्ज (कंगूरे) और 64 दरवाज़े थे। बारीक़ कारीगरी के साथ, मजबूत लोहे से बने इन दरवाज़ों की चौखटोंमें क़ीमती पत्थर, मोती और सीप आदि जड़े हुए थे। प्राचीन ग्रंथ ‘धरणी कोश’ के हवाले से फ़्रैंकलिन बताते हैं, कि चम्पा नरेश यहां अक्सर भगवान हनुमान की पूजा के बड़े बड़े आयोजन करवाते थे। दिलचस्प बात यह है, कि आज भी इस क्षेत्र में बड़ी संख्या में लंगूर (हनुमान) पाये जाते हैं।
अपनी कुरपट-यात्रा के दौरान यहां बिखरी पड़ी पुरातात्विक सामग्री को देखने के बाद फ़्रैंकलिन लिखते हैं, कि यहां एक बड़ा ही सुनियोजित नगर बसा होगा, जो वक़्त के साथ गंगा की धारा की चपेट में आकर नष्ट हो गया होगा। फ़्रैंकलिन ने कुरपट-यात्रा के बाद यह भी बताया था, कि यहां के गांववालों ने जब मिट्टी की खुदाई की थी, तब यहॉ से हिन्दू देवी-देवताओं की कई मूर्तियों और क़ीमती माणिक-पत्थर आदि मिले थे। उन्होंने खुद कुरपट में सुलेमान नाम के एक व्यक्ति से ज़मीन खोदकर निकाले गये कच्चे हीरे के टुकड़े, जमुनिया पत्थर, लाल, काला, हरा और सफ़ेद रंगों के इंद्रगोपमणि (इंद्रगोप यानी बीरबहूटी, लाल रंग का मख़मली कीड़ा) आदि खरीदने की बात भी लिखी है। फ़्रैंकलिन ने अपनी पुस्तक में यह विश्वास व्यक्त किया है, कि अगर यहां बड़े पैमाने पर खोज की जाये, तो और भी बहुत कुछ मिलने की संभावना है।
इतिहास के पन्नों में गुम हुए चम्पा के आलीशान गंधलता राजमहल के अस्तित्व के संकेत फ्रैंकलिन की खोज के 209 साल बाद एक बार फिर सामने आये। सन 2017-18 में, भागलपुर ज़िले में पुरातात्विक सर्वेक्षण कर रही टीम ने, कुरपट में 20 एकड़ के क्षेत्र में फैले क़रीब 20 फ़ुट ऊंचे टीले को खोज निकाला, जिसे स्थानीय लोग कुरपटडीह के नाम से पुकारते हैं। उक्त पुरातात्विक टीम के अगुवा पुराविद् अरविंदो सिन्हा रॉय को सर्वेक्षण के दौरान कुरपटडीह में ईंटों से बने प्राचीन संरचनाओं के अवशेषों के अलावा मिट्टी के बर्तन, पत्थर के बर्तन, लोहे के टुकड़ों के साथ सीवरेज सिस्टम के अवशेष मिले । इन्हीं चीज़ों के आधार पर उन्होंने यहां सुनियोजित नगरीय सभ्यता होने का अनुमान व्यक्त किया है। सिन्हा रॉय बताते हैं, कि कुरपट स्थित प्राचीन सभ्यता और यहां के प्राचीन निर्माणों की भव्यता का अनुमान बस इस एक बात से ही लगाया जा सकता है, कि इसके टीले से ईंटें निकालकर कई गांव वालों ने अपने घर बना लिये हैं।
हाल ही में कुरपटडीह में, शोध-अध्ययन में लगे तिलका मांझी भागलपुर विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास व पुरातत्व विभाग के अतिथि व्याख्याता डॉ. दिनेश कुमार गुप्ता का मानना है, कि यहां के पुरातात्विक अवशेष कुषाण-काल से भी पहले के हो सकते हैं, क्योंकि यहां इंसानी-बस्ती के सबूत लगातार मिल रहे हैं। आज भी यहां खुदाई के दौरान प्राचीन सामान मिलता रहता है।
डॉ. गुप्ता बताते हैं, कि स्थानीय लोगों की मान्यता है, कि कुरपट डीका निर्माण किसी ‘खतरी’ (खत्री) राजा ने करवाया होगा। इसे बनाने में 22 पोखरों की मिट्टी लगी थी। फ़्रैंकलिन ने भी अपने विवरण में खतरी (खत्री) राजा का उल्लेख किया है। आज भी यहां कुरपट टीले के आसपास कतरिया सहित हटिया तालाब, गरैया पोखर जैसे नाम वाले कई तालाब देखे जा सकते हैं।
बिहार सरकार की पुरातात्विक टीम के साथ सहयोग करने वाले क्षेत्रीय इतिहासकार डॉ. (प्रो.) रमन सिन्हा कहते हैं, कि कुरपटडीह के अलावा इस क्षेत्र में कई प्राचीन टीले मिले हैं, जहाँ मानव बस्ती और सभ्यता की निरंतरता के संकेत मिले हैं। उनका कहना है, कि अगर समय रहते कुरपटडीह और उसके आसपास के अन्य टीलों का संरक्षण और खुदाई नहीं कराई गई, तो यहां प्राकृतिक आपदाओं और अतिक्रमण की चपेट में आकर इस बेशकीमती धरोहर का नाम-ओ-निशान ख़त्म हो जायेगा।
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