पिछले दिनों श्री हरमंदिर साहिब परिसर के पश्चिम में जोड़ा घर (गुरूद्वारा साहिब में प्रवेश के पहले जूते रखने का स्थान) और दुपहिया वाहनों की पार्किंग के लिए एक बेसमेंट का निर्माण कार्य शुरू किया गया। खुदाई के लिए जैसे ही कुदाली और फावड़े चले, कुछ ही फुट की गहराई में पुरानी ईंटों के ऐतिहासिक ढांचे प्रकट हो गए।
इस ख़बर के फैलते ही चारों तरफ़ हलचल मच गई। खैर, वहां कर सेवा कर रहा संगठन शुरू में खुदाई के दौरान मिले पुरातन ढांचों को नज़र अंदाज करते हुए, निर्माण को जारी रखना चाहता था, लेकिन शिरोमणि गुरूद्वारा प्रबंधक कमेटी ने लोगों की भावनाओं को देखते हुए जहां से भूमिगत ढांचा प्रकट हुआ; के स्थान पर खुदाई और निमार्ण कार्य को रूकवा दिया। हालांकि, उससे सटे शेष हिस्से में खुदाई और निर्माण के कार्य अभी भी जारी हैं।
कुछ लोगों द्वारा इतिहासिक जानकारी के अभाव के चलते दावा किया जा रहा है, कि खुदाई में मिला भवन एक सुरंग है। वास्तविकता से हट कर दावे ये भी किए जा रहे हैं कि यह सुरंग यहां से लाहौर को जाती होगी। इसे लेकर ये भी कयास लगाए जाने लगे, कि इसका संबंध छठे सिख गुरु हरिगोबिंद साहिब से है। जबकि कुछ अन्य का मानना है, कि सन् 1984 के ब्लू स्टार ऑपरेशन के दौरान आतंकवादियों या सेना ने इसका इस्तेमाल किया होगा। लेकिन एक गहरे और तर्कसंगत दृष्टिकोण से पता चलता है कि ये ढांचा न तो किसी सुरंग का हिस्सा है और न ही इसका निर्माण काल अन्य किसी दावे को सही ठहराता है। दरअसल, ये ढ़ांचें भूमिगत कक्ष हैं, जिनका संबंध श्री हरिमंदिर साहिब की परिक्रमा में मौजूद रहे किसी विशेष ‘बुंगा’ से था। इन बुंगों का पंजाब और विशेष तौर पर श्री हरिमंदिर साहिब के इतिहास में एक प्रमुख स्थान है।
सिख विद्वान भाई काहन सिंह नाभा द्वारा लिखित पंजाबी भाषा के विश्वकोष “महानकोष” (1924) के अनुसार ‘बुंगा’ शब्द फ़ारसी भाषा से आया है, जिसका अर्थ है ‘निवास’। 19वीं सदी के इतिहासकार मोहम्मद ग़यासउद्दीन ने अपनी पुस्तक ‘ग़यास-उल-लुग़ात’ (प्रकाशक-नवल किशोर प्रेस ) में बुंगा के बारे में उल्लेख किया है कि बुंगा वह स्थान है जहां तीर्थ-यात्रियों को ठहराया जाता था।
दरअसल सन् 1577 में गुरु रामदास जी और गुरु अर्जन देव जी ने श्री हरिमिंदर साहिब के आस-पास नवर्निमित अमृतसर शहर के लोगों के लिए झोपड़ियों और मिट्टी के घर बनवाये थे। हालांकि, सन् 1762 में अफ़गान सेना ने इस पवित्र तीर्थ को ध्वस्त कर दिया और साथ ही वहां बनाये गए कच्चे घर और झोपड़ियां भी नष्ट कर दी गईं। परंतु वह एक तरह से परिक्रमा में बुगों के निमार्ण की शुरूआत थी। बाद में उसी स्थान पर परिक्रमा में चारों ओर; और साथ सटे क्षेत्र में सिख मिसलों के सरदारों द्वारा आलीशान और महलनुमा बुंगों का निर्माण किया गया, जो भविष्य में श्री हरिमिंदर साहिब पर होने वाले किसी भी हमले से तीर्थ की सुरक्षा के लिये बेहद जरूरी थे। 19वीं सदी में लाहौर में शेर-ए-पंजाब महाराजा रणजीत सिंह के दरबारी अहमद शाह अपनी पुस्तक ‘तारीख़-ए-पंजाब’ में लिखते हैं, कि अलग-अलग सिख मिसलों के सरदार जब अमृतसर आते थे, तो वे अपने-अपने बुंगों में ठहरा करते थे। वे आगे लिखते हैं, कि प्रत्येक बुंगे की देख-रेख के लिए एक ‘बुंगई’ होता था जो परिसर के साथ-साथ वहां आने वाले मेहमानों और तीर्थ यात्रियों की देखभाल करता था। कुछ दस्तावेज़ों में दावा किया गया है कि अमृतसर में 82 बुंगे हुआ करते थे।
उच्च प्रमुखों के बड़े बुंगों में गर्मी से राहत पाने के लिये तहख़ाने या सर्दख़ाने (भूमिगत कमरे) बनाए गये थे। गुरूद्वारा साहिब की परिक्रमा में स्थित रामगढ़िया बुंगा में आज भी ऐसे भूमिगत कक्ष हैं जो इस बात को साबित करते हैं।
सिख विद्वान ज्ञानी कृपाल सिंह की पुस्तक “श्री हरिमंदिर साहिब जी दा सुनहरी इतिहास (1991)” के अनुसार सन 1781 में अन्य सिख प्रमुखों की तरह शुकरचक्किया मिसल के प्रमुख महा सिंह ने ‘बुंगा शुकरचक्किया सरदारां दा’ नामक एक बुंगा बनवाया। इस बुंगे के एक सिरे पर हरिमंदिर साहिब की परिक्रमा में मौजूद बेरी बाबा बुढा साहिब थी तथा इसके दूसरे सिरे में बहुत लम्बा-चौड़ा क्षेत्र था।
सन 1792 में महां सिंह के गुज़र जाने के बाद उनके 12 वर्षीय बेटे रणजीत सिंह, उनके उत्तराधिकारी बने, जो आगे चलकर पंजाब के महाराजा भी बने। युवा रणजीत सिंह ने बहुत जल्द सभी मिसलों को एकजुट किया और पंजाब में सिख साम्राज्य (1799-1849) की स्थापना की। रणजीत सिंह ने अपने पुश्तैनी बुंगा का विस्तार किया और उसमें आसपास के बुंगे भी शामिल कर लिये गये। इस तरह से बुंगा शुकरचक्किया ने एक विशाल तीन मंज़िला हवेली का रूप ले लिया, जो परिक्रमा में मौजूद सभी शेष बुंगों में सबसे आलीशान था। इसे ‘बुंगा सरकार’ भी कहा जाता था। ये एक महल की तरह था जो महाराजा के निवास के लिये एकदम मुनासिब था।
सन 1849 के दूसरे ऐंग्लो-सिख युद्ध में सिख साम्राज्य के पतन के बाद अंग्रेजों ने सत्ता पर क़ब्जा कर लिया था और बुंगा सरकार और पास के बुंगा नौंनिहाल सिंह और बुंगा लाडोवालिया को ध्वस्त करके, वहां लाल रंग का घंटाघर (रेड् टॉवर) बना दिया गया। वर्षों बाद सन 1945 में शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी ने हरिमंदिर साहिब की परिक्रमा को खुला करने के लिए रामगढ़िया बुंगा, बुंगा अखाड़ा ब्रह्मबूटा जैसे कुछ बंुगों को छोड़ शेष सभी बुंगों को गिरा दिया। इस तरह हरिमंदिर साहिब के लिये एक नयी और खुली परिक्रमा बनाई गई।
हालांकि बुंगों की ऊपरी मंज़िलों को तोड़ दिया गया था लेकिन उनके भूमिगत कक्ष अछूते रह गये थे। जिस पर बाद में नयी इमारतें खड़ी कर दी गयीं और जो आज नज़र आती हैं। हाल की खुदाई में जो ढ़ांचा मिला है, हो सकता है वो उन्हीें भूमिगत कक्षों में से एक हो।
यह भी संभव है कि जिस स्थान पर भूमिगत कक्ष मिले हैं वे गुरूद्वारा परिसर के पश्चिमी भाग में स्थित है; जिसके पास कभी महाराजा रणजीत सिंह का बुंगा सरकार और उसी पंक्ति में सत्ताईस अन्य बुंगा बने हुए थे। इसके अलावा भूमिगत कक्ष काफ़ी ऊंचा भी है। हो सकता है कि यह बुंगा सरकार का ही हिस्सा रहा हो। क्योंकि भूमिगत तहखानों की गहराई भी, रागबाग स्थित महाराजा रणजीत सिंह समर पैलेस के सरदखानों/तहखानों के अनुरूप ही दिखाई पड़ती है।
कक्ष के निर्माण में एक ख़ास वास्तुकला और नानकशाही ईंटों का प्रयोग किया गया है। इसी तरह की ईंटों का प्रयोग, महाराजा रणजीत सिंह के बनवाये अन्य भवनों में भी किया गया था। महाराजा रणजीत सिंह द्वारा बनवाये गये महाराजा रणजीत सिंह समर पैलेस (अब कंपनी बाग गार्डन) में मौजूद उनके शाही महल के कक्षों सहित अन्य भवनों की वास्तुकला भी यहां की वास्तुकला से मिलती-जुलती है।
हालांकि बुंगा सरकार कितने क्षेत्र में फैला हुआ था, इसके बारे में अधिक जानकारी दस्तावेजों में उपलब्ध नहीं है लेकिन यह जरूर पता चलता है कि जब इसे अंग्रेज़ों ने ध्वस्त किया था तो एक बहुत बड़ा मलबा जमा हो गया था जिसे गुरूद्वारा साहिब की पुरानी तस्वीरों में देखा जा सकता है। हो सकता है कि यह परिक्रमा क्षेत्र में न आता हो लेकिन इसे पिछले हिस्से में ज़रुर बहुत बढ़ा दिया गया होगा। इस तरह यह भी संभव है कि यह कक्ष या तो बुंगा सरकार या उसके आस-पास के अन्य बुंगा के ही रहे होंगे।
लेकिन इन कक्षों के संरक्षण में कई बाधाएं हैं। सबसे पहले, जिस क्षेत्र में निर्माण हुआ है वह पंजाब शहरी योजना और विकास प्राधिकरण (पूडा) के अंर्तगत आता है। उक्त विभाग का दावा है कि संबंधित कार सेवा करवाने वाले संगठन ने निर्माण से पहले उनसे अनुमति नहीं ली थी।
अगर इस क़ानूनी पहलू को नज़रअंदाज़ भी कर दिया जाये तो भी खुदाई में जहां कक्ष मिले हैं वहां गुरुद्वारा प्रबंधन पहले से ही अन्य विकास परियोजनाओं को अंतिम रुप दे चुका है। इसी वजह से विभिन्न गुटों में घमासान चल रहा है कि इन कक्षों को संरक्षित किया जाये या नहीं किया जाये।
जहाँ खुदाई की गई है, उस जगह से कुछ दूरी पर स्वर्ण मंदिर प्लाज़ा के निर्माण के लिए लगभग 7-8 साल पहले भी खुदाई की गई थी। उस खुदाई में भी इसी तरह के पुरानी ईंट के कमरे और कुएं मिले थे। स्वर्ण मंदिर प्लाज़ा हरिमंदिर साहिब परिसर के नये मुख्य प्रवेश-द्वार के लिये शहर के हेरिटेज स्ट्रीट परियोजना के तहत बनवाया गया था। तब विकास परियोजनाओं को आगे बढ़ाने के लिए खुदाई में मिले कुएं और कमरों को कंक्रीट से ढ़क दिया गया था। लेकिन इस बार गुरुद्वारा प्रबंधकों ने इस खोज के बारे में शोध की अनुमति देने का विश्वास दिलाया है और इसी लिये वहां फिलहाल निर्माण कार्य रोक दिये गये हैं।
बहरहाल, हरिमंदिर साहिब और इसके आस-पास के क्षेत्र के नीचे इस तरह के कई भुला दिये गए ऐतिहासिक स्मारक दबे पड़े होंगे। यहां बड़े पैमाने पर खुदाई संभव नहीं है क्योंकि उन अवशेषों के ऊपर एक नया शहर बस चुका है। लेकिन यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि जब कभी संयोग से ऐसे स्मारक मिल जाएं तो उनकी क़द्र की जानी चाहिये क्योंकि इसी में इतिहास की भलाई है।
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