भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में, अंडमान की सेलुलर जेल, जिसे कालापानी भी कहा जाता है, स्वतंत्र सेनानियों के संघर्षों, परेशानियों और अदालती कारवाईयों की दुश्वारियों के मामले में पुराणिक कथाओं की तरह लगती है। लेकिन कम ही लोग जानते हैं, कि अंडमान की जेल के अलावा भी इसी तरह बदनाम, एक दूसरी जेल भी थी, जहां स्वतंत्रता सेनानियों को क़ैद किया गया था।
यह पश्चिम बंगाल के अलीपुरदुआर ज़िले में मौजूद बक्सा क़िला है, जो कभी भूटानियों की एक सीमांत चौकी हुआ करता था, और जिसकी भारत की स्वतंत्रता के बाद भी एक महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
बक्सा क़िले का आरंभिक इतिहास रहस्यों से भरा हुआ है। कई दस्तावेज़ों में दावा किया गया है, कि इसे या तो तिब्बतियों या फिर पश्चिमी असम के कामता (4वीं-13वीं शताब्दी) और दुआर क्षेत्र (उत्तरी बंगाल) के शासकों ने बनवाया था। लेकिन 19वीं शताब्दी के ब्रिटिश दस्तावेज़ों के अनुसार यह भूटानियों के उन पहाड़ी क़िलों में से एक था, जिसको बांस और लकड़ियों से, प्रसिद्ध रेशम मार्ग के एक हिस्से पर निगरानी रखने के लिए बनवाया गया था।
16वीं और 17वीं शताब्दी मे जब भूटानी शासक अपने साम्राज्य का विस्तार कर रहे थे , तब पहाड़ों पर कई क़िले बनाये गये थे और कहा जाता है, कि बक्सा क़िला भी उन्हीं में शामिल था, जिसके भीतर एक छोटा सैन्य दस्ता रहता था। इस दौरान दुआर क्षेत्र में कोच और असम में अहोम का भी प्रभाव बढ़ रहा था। मुग़ल बंगाल पहुंच चुके थे, और भूटान और कोच दोनों की मुग़लों से दुश्मनी थी। 17वीं शताब्दी के अंत में मुगलों को नियंत्रण में रखने के लिए दोनों राज्यों ने अहोम से हाथ मिलाया। लेकिन सन 1711 में अपने साम्राज्य को बढ़ाने के चक्कर में भूटानी शासकों ने कोच राज्य पर हमला कर दिया और कोच शासकों ने उन्हें खदेड़ कर वापस भेज दिया।
18वीं शताब्दी के अंत में पूर्वी भारत में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का प्रभाव बढ़ने लगा था। भूटान की भी उस पर निगाहें टिकी हुई थीं। भूटान तब और भी चौकन्ना हो गया, जब उसके पड़ोसी, तत्कालीन कोच महाराजा धर्मेंद्र नारायण (1772-1775) अपने प्रांत पर शासन करने के लिए अंग्रेज़ों को शुल्क देने पर राज़ी हो गया। इससे नाराज़ होकर भूटान ने बक्सा क़िले से अपनी पूरी ताक़त के साथ कोच क्षेत्र पर हमला कर दिया। हमले के नतीजे में, धर्मेंद्र को अंग्रेज़ों के साथ संधि करने के लिए मजबूर होना पड़ा। उनके बीच संधि पांच अप्रैल सन 1773 को हुई। कोच के महाराजा ने ब्रिटिश वर्चस्व को स्वीकार कर लिया, और सालाना शुल्क देने पर सहमत हो गया, जिसके बदले में उसे अंग्रेज़ों की मदद मिली। इस तरह अंग्रेज़ों ने बक्सा क़िले सहित दक्षिणी भूटानी इलाकों पर कब्ज़ा कर लिया।
भूटान को संयोग से युद्ध की बर्बादी नहीं झेलनी पड़ी, क्योंकि दुर्गम इलाक़ों के कारण अंग्रेज़ आगे नहीं बढ़ सके। अंग्रेज़ों को अपने बंदी सैनिकों की रिहाई के बदले भूटान के उन क्षेत्रों को वापस करना पडा, जिन पर उन्होंने कब्ज़ा कर लिया था। लेकिन भूटान के अच्छे दिन ज़्यादा दिन नहीं चले। भूटान में, सन 1864 में, गृह युद्ध छिड़ गया। इसी दौरान भूटान के चंद सरदारों ने शासन की दोहरी व्यवस्था क़ायम कर दी। बंगाल और असम में अंग्रेज़ों की ताक़तवर मौजूदगी को भांपते हुये, उन्होंने अंग्रज़ों के साथ मैत्री-संधि और उनके दरबार में अंग्रेजी रेजिडेंट होने की पेशकश को इंकार कर दिया। अंग्रेज़ों ने भूटान के ख़िलाफ़ युद्ध छेड़ दिया, जो पांच महीने तक चला। आखिरकार अंग्रेज़ों की जीत हुई, और उन्होंने स्थाई रुप से बक्सा क़िले पर कब्ज़ा कर लिया।
भूटान और अंग्रेज़ों के बीच 11 नवम्बर सन 1865 सिंचुला संधि हुई, जिसके तहत औपनिवोशिक सरकार ने पूरा दुआर क्षेत्र और पश्चिमी असम के कुछ हिस्से स्थाई रुप से अपने अधिकार क्षेत्र में ले लिये तथा शाही भूटानी दरबार में अपना एक रेज़ीडेंट बैठा दिया। बक्सा क़िले को दोबारा बनाया गया लेकिन इस बार पत्थरों से बनाया गया। बक्सा क़िले का उपयोग अंग्रेज़ों के प्राशासनिक कार्यालय के रुप में होने लगा था। यहां अंग्रेज़ सैनिकों के बैरेक्स भी हुआ करते थे।
भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन सन 1930 के दशक दौरान बहुत तेज़ हो गया था, अंडमान द्वीप समूह की सेलुलर जेल के बाद बक्सा क़िले को भारत की सबसे बदनाम और एक ऐसी जेल में बदल दिया गया था, जहां किसी का भी पहुंचना असंभव था। कहा जाता है, कि इस जेल की दमघोंटू छोटी-छोटी कोठरियों में तीन या उससे अधिक कैदियों को एक साथ रखा जाता था जिसकी कारण वे बीमार पड़ जाते थे।
यहां सविनय अवज्ञा आंदोलन(1930) में हिस्सा लेने के आरोप में नेताजी सुभाष चंद्र बोस सहित कई स्वतंत्रता सैनानियों को रखा गया था। सुभाषचंद्र बोस को सन1931 में रिहा किया गया था। अनुशीलन समिति (क्रांतिकारी आंदोलन) और भारत छोड़ो आंदोलन से जुड़े कई स्वतंत्रता सेनानियों को भी यहां क़ैद किया गया था । उनमें से कुछ ने एक बार इस जेल से महान कवि रवींद्रनाथ टैगोर को एक पत्र लिखा था, (तारीख अज्ञात)। संगमरमर पर,पत्र की जो नक़लें खुदी हुई हैं, उनमें टैगोर का जवाब आज भी देखा जा सकता है।
आज़ादी मिलने के बाद, सन 1947 में ये क़िला पश्चिम बंगाल राज्य के जलपाईगुड़ी ज़िले के तहत भारतीय संघ का हिस्सा बन गया। सन 1949 में जब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की ज़मीन को लेकर की गई मांग बढ़ने लगी और देश के विभिन्न हिस्सों में सशस्त्र विद्रोह होने लगा, तब कई प्रमुख कम्युनिस्ट नेताओं को गिरफ़्तार कर सन 1951 तक इसी जेल में रखा गया था।
बक्सा क़िले का जेल-परिसर सन 1950 के दशक के अंत में तिब्बती भिक्षुओं के लिए एक शरणस्थल बन गया, जो चीन की कड़ी कार्रवाई के बाद भूटान और सिक्किम (तब एक शाही रियासत) से होकर यहां आए थे। अगस्त सन 1959 तक लगभग 1500 तिब्बती भिक्षुओं ने एक मठवासी अध्ययन केंद्र और शरणार्थी शिविर की स्थापना की थी,जहाँ वे लगभग एक दशक तक रहे। सन 1960 के दशक की शुरुआत में उन्हें कर्नाटक में बसाया गया।
बक्सा क़िला, सन 1971 में बांग्लादेशी शरणार्थियों के लिए फिर से एक शरण स्थल बन गया था।ये शरणार्थी, आम चुनावों में बंगाली नेता शेख मुजीब उर्रहमान की जीत के बाद पश्चिम पाकिस्तानी सरकार के अत्याचार से बचकर यहां आए थे। मुजीब उर्रहमान की जीत के बाद बांग्लादेश (तब के पूर्वी पाकिस्तान) में गृह युद्ध की स्थिति बन गई थी। सन 1971 का बांग्लादेश युद्ध समाप्त होने के बाद इन शरणार्थियों को भारत के विभिन्न हिस्सों में बसाया गया।
एक दशक के बाद बक्सा क़िले को ऐतिहासिक स्मारक घोषित कर दिया गया, और क्षेत्र में बाघों की उपस्थिति के कारण सन 1983 में, बक्सा को “टाइगर रिज़र्व” बनाया गया, जो भारत का 15वां टाइगर रिसर्व क्षेत्र था। अब क़िले में, यहां क़ैद में रखे गये स्वतंत्रता सेनानियों को समर्पित एक स्मारक है। यहां एक छोटे से संग्रहालय में भूटानी सेना, ब्रिटिश सेना और कुछ भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों की पुरानी तस्वीरें और उनकी वस्तुएं भी हैं।
यहाँ कैसे पहुंचे
न्यू अलीपुरदुआर स्टेशन (46 किलोमीटर) और बागडोगरा (हवाई अड्डे, 180 कि.मी.) से बक्सा क़िला पहुंचा जा सकता है। क़िला-परिसर में और उसके आसपास ट्रैकिंग और सफ़ारी के कई कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं।
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