सन 1947 में, भारत और पाकिस्तान के विभाजन के प्रभावों को चित्रित करने वाली मशहूर तस्वीरों में, किताबों के ढेर और उनके ऊपर रखी ‘इंडिया’ और ‘पाकिस्तान’ की इबारत वाली तख़्तियों के बीच बैठा एक शख़्स भी दिखाई दे रहा है। ये फ़ोटो सोशल मीडिया पर काफ़ी जाना-पहचाना है, लेकिन बहुत कम लोगों को इस बात का एहसास होगा कि फ़ोटो में दिखाई दे रहा यह थका-मांदा आदमी कोई और नहीं बल्कि भारत में बिबलियोग्राफ़ी (संदर्भग्रंथ सूची) के जनक बी.एस केसवन हैं। देश भर में कई पुस्तकालय और उनकी अमूल्य सामग्री इस महान व्यक्ति के जीवनभर की मेहनत का नतीजा है।
बेल्लारी शमन्ना केसवन ने कड़ी मेहनत से कोलकता में नैशनल लाइब्रेरी की स्थापना की, और राष्ट्रीय स्तर पर ग्रंथ सूची प्रोजेक्ट शुरु करने के बारे में सोचा। संदर्भग्रंथ सूची दरअसल भौतिक और सांस्कृतिक के रूप में पुस्तकों का अध्ययन है, और इस क्षेत्र में केसवन का योगदान आज भी भारत और विदेशों के लोगों की उनके शोध में मदद करता है।
10 मई,सन 1909 को जन्में केसवन का पढ़ाई-लिखाई से गहरा रिश्ता रहा। महाराजा कॉलेज, मैसूर से गणित, भौतिकी और रसायन विज्ञान की पढ़ाई के बाद वह लंदन चले गए। सन 1936 में लंदन विश्विद्यालय के स्कूल ऑफ़ लाइब्रेरियनशिप से, अंग्रेज़ी में मास्टर्स डिग्री और पुस्तकालय विज्ञान में डिप्लोमा प्राप्त किया। वापस आने पर उन्होंने महाराजा कॉलेज में लगभग एक दशक तक अंग्रेजी पढ़ाई।
कॉलेज में पढ़ाने के बाद केसवन अपना सपना पूरा करने के लिए सन, 1944 में दिल्ली चले गए, जहां वे वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद में सहायता सचिव (संपादकीय) और फिर इंपीरियल सचिवालय पुस्तकालय (अब केंद्रीय सचिवालय पुस्तकालय) के पुस्तकालय के क्यूरेटर बन गए।
किताबों का विभाजन?
केसवन को दिल्ली में आए अभी तीन साल ही हुए थे, तभी भारत को ब्रिटिश शासन से आज़ादी मिल गई और देश का विभाजन हो गया। इस दौरान एक ऐसी दिलचस्प घटना हुई, जिसने उन्हें पूरे विश्व में मशहूर कर दिया। 18 अगस्त,सन 1947 को प्रसिद्ध फ़ोटो जर्नलिस्ट डेविड डगलस डंकन ने किताबों के ढेर के बीच बैठे केसवन की तस्वीर खींची। किताबों के ढेर के ऊपर तख्तियां थी, जिन पर “भारत” और “पाकिस्तान” लिखा हुआ था। ये तस्वीर अमेरिकी पत्रिका लाइफ़ में छपी जिसका कैप्शन था, ‘सन 1947 की एक तस्वीर: कलकत्ता नेशनल (इंपीरियल) लाइब्रेरी में भारत और पाकिस्तान के बीच किताबों का बंटवारा।’
हाल के दिनों में प्रमुखता प्राप्त करने वाली इस तस्वीर को लेकर कई अनुमान लगाए जा रहे हैं, और उसे कई तरीक़ों से देखा जा रहा है। यहां तक कहा गया है, जिस स्थान पर केसवन की तस्वीर ली गई है, वो उसे ग़लती से कलकत्ता की इंपीरियल लाइब्रेरी (वर्तमान कोलकाता में राष्ट्रीय पुस्तकालय) बताया गया था। दिलचस्प बात यह है, कि जहां तक केसवन के बेटे, प्रसिद्ध शिक्षाविद और निबंधकार मुकुल केसवन के, सन 2016 के एक साक्षात्कार से पता चलता है, कि इस तस्वीर के पीछे का वास्तविक कारण रहस्य में डूबा हुआ है। कहा जाता है कि बंटवारे की विलक्षणता को दिखाने के लिए केसवन को किताबों के ढेर के बीच बिठाकर ये तस्वीर खींची गई थी, यानी ये सब नाटक था। बहरहाल पुस्तकों के बंटवारे का भी प्रस्ताव था, लेकिन उसे लागू नहीं किया गया।
आज़ाद भारत की पहली लाइब्रेरी
विभाजन के बाद भारत को ऐसे नए संस्थानों की आवश्यकता का एहसास हुआ, जो एक नए देश को परिभाषित कर सकें और उन्हीं में एक संस्थान था इंपीरियल लाइब्रेरी ऑफ़ इंडिया।सन 1903 में स्थापित ये लाइब्रेरी कुछ पुरानी लाइब्रेरियों को मिलाकर बनाई गई थी। चूंकि इसका लाइब्रेरियन पाकिस्तान चला गया था, इसीलिए एक नए व्यक्ति की ज़रूरत थी। अंत में, केसवन, जिन्हें भारतीय भाषाओं और पुस्तकालय विज्ञान की अच्छी जानकारी थी, को कलकत्ता भेजा गया। इम्पीरियल लाइब्रेरी (नाम बदला हुआ) एक्ट, सन 1948 के तहत इंपीरियल लाइब्रेरी का नाम बदलकर नेशनल लाइब्रेरी ऑफ़ इंडिया कर दिया गया था, और केसवन को इसके पहले लाइब्रेरियन के रूप में नियुक्त करने के साथ ही इसे कोलकाता के बेल्वेडियर एस्टेट में स्थानांतरित कर दिया गया। आख़िरकार, उन्हें ‘स्वतंत्र भारत के पहले लाइब्रेरियन’ के रूप में भी जाना जाने लगा।
अपने कार्यकाल के दौरान, केसवन ने पुस्तकालय में हर प्रमुख भारतीय भाषा के लिए अलग अलग विभागों की स्थापना की। सन 1953 में पुस्तकालय को सार्वजनिक करने के बाद, उन्होंने सन 1955 में सेंट्रल रिफ़रेंस लाइब्रेरी (केंद्रीय संदर्भ पुस्तकालय) की स्थापना की, जो अब राष्ट्रीय संदर्भग्रंथ सूची एजेंसी है। उन्होंने कॉपीराइट अधिनियम के तहत राष्ट्रीय पुस्तकालय द्वारा प्राप्त सभी प्रकाशनों के लिए भारतीय राष्ट्रीय ग्रंथ सूची का प्रकाशन शुरू किया। संदर्भग्रंथ सूची के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए उन्हें सन 1960 में प्रतिष्ठित पद्म श्री सम्मान से नवाज़ा गया।
संदर्भग्रंथ सूची के जनक
सन 1963 में राष्ट्रीय पुस्तकालय में अपना पहला कार्यकाल पूरा करने के बाद,केसवन ने भारत में मुद्रण और लेखन के इतिहास को सनद करने का काम किया। इसका उद्देश्य प्रमुख भारतीय भाषाओं में संदर्भग्रंथ सूची प्रकाशित करना था, जिसमें दर्शनशास्त्र, धर्म, इतिहास और मानविकी के अन्य पहलुओं पर मौलिकता, कल्पनाशीलता और साहित्यिक अंदाज़ के साथ लिखे गए महत्वपूर्ण कार्यों को शामिल किया जा सके।
भाषाओं पर केसवन की महारत और भाषा के विद्वानों और सरकारी निकायों के प्रति दृष्टिकोण की वजह से उन्होंने “द नैशनल बिबिलियोग्रफ़ी ऑफ़ इंडियन लिटरेचर” (भारतीय साहित्य की राष्ट्रीय संदर्भग्रंथ सूची), 1901-1953 (1962-1990) के पांच खंड और 80 तथा 90 के दशक में भारत में छपाई और प्रकाशन के इतिहास के तीन खंड: “ए स्टोरी ऑफ़ कल्चरल रीअवेकनिंग” प्रकाशित किए। उनका ये काम आज भी उन शोधकर्ताओं और विद्वानों के लिए एक मूल्यवान स्रोत है जो भारत में प्रिंट के इतिहास में रुचि रखते हैं। इसी वजह से उन्हें भारतीय राष्ट्रीय संदर्भग्रंथ सूची का जनक कहा जाता है।
केसवन ने इंटरनेशनल फ़ेडरेशन ऑफ़ इंफ़ॉर्मेशन एंड डॉक्यूमेंटेशन और इंडियन लाइब्रेरी एसोसिएशन जैसे राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय निकायों में काम किया जिनका उद्देश्य प्रलेखन तैयार करना, संदर्भग्रंथ सूची बनाना और सूचना प्रबंधन करना था जिसकी वजह से आम आदमी देश के अतीत को संरक्षित करने के लिए इसकी एहमियत समझ सका। उन्होंने विभिन्न राज्य संस्थानों के पुस्तकालयों के पुनर्गठन पर सक्रिय रूप से काम किया और पुस्तकालय विज्ञान के अतिथि प्रोफ़ेसर भी रहे। उन्होंने सन 1970 में एक वर्ष के लिए राष्ट्रीय पुस्तकालय में एक बार फिर काम किया और फिर अपने संदर्भग्रंथ सूची संबंधी कार्यों पर फिर जुट गए। सन 1980 के दशक के दौरान, जब केसवन सत्तर साल के हो चुके थे, उन्होंने भारत में पुस्तक के इतिहास और इसे बनाने में प्रयुक्त सामग्री, लिपियों और दृष्टांतों को समझने पर व्यापक शोध किया। यह शोध किताब के रुप में “दि बुक इन इंडिया: ए कंपाइलेशन” (1986) नामक शीर्षक से सामने आई।
अपने जीवन के पांच दशक समर्पित करने और अपने देश को संदर्भग्रंथ सूची और प्रलेखन से कामों और कौशल से परिचित कराने के बाद, केसवन का 16 फ़रवरी,सन 2000 को, 91 वर्ष की उम्र में निधन हो गया। तेलंगाना में एक धर्मार्थ ट्रस्ट,” केसवन इंस्टीट्यूट ऑफ इंफ़ॉर्मेशन एंड नॉलेज मैनेजमेंट” (केआईआईकेएम) ) का नाम उनके नाम पर ही रखा गया है। आज तक, उनका योगदान भारत और विदेशों में कई विद्वानों और शोधकर्ताओं के लिए ज्ञान का स्रोत बना हुआ है।
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