19वीं और 20वीं शताब्दी में भारत में विज्ञान के क्षेत्र में ख़ूब विकास और अनुसंधान हुआ। सी.वी. रामन, एस.एस. भटनागर, पी.सी. रे जैसे प्रख्यात वैज्ञानिकों ने विज्ञान के क्षेत्र में जबरदस्त योगदान किया।
लेकिन बीरबल साहनी के बारे में कम ही लोग जानते हैं, जो एक अग्रणी पुरावनस्पतिशास्त्री थे। उन्होंने भारत में पहला पुरावनस्पति(Palaeobotany) विज्ञान संस्थान स्थापित किया था। पुरातत्व, वनस्पति विज्ञान और जीव विज्ञान जैसे विषयों के बारे में तो आमतौर पर लोग जानते ही हैं। लेकिन इनकी तुलना में पुरावनस्पति विज्ञान के बारे में कम ही सुना जाता है। पुरावनस्पति विज्ञान एक वैज्ञानिक शाखा के रूप में 19वीं शताब्दी में ही सामने आयी थी। अगर सीधे शब्दों में कहें, तो इस विज्ञान में पिछले भू-वैज्ञानिक युग के पौधों के अवशेषों का अध्ययन किया जाता है। चट्टानों में बचे हुये पौधों के जीवाश्म (plant fossils) से पौधों के विकास के इतिहास के अध्ययन में महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है। इतना ही नहीं, ये भू-विज्ञान के अतीत के पर्यावरण और आबो-हवा के हालात को दोबारा बहाल करने में भी हमारी मदद करते हैं। दिलचस्प बात यह है, कि ये पौधे जीवाश्म समय के साथ पृथ्वी के वायुमंडल में बदलाव का अध्ययन में भी मदद कर सकते हैं।
बीरबल साहनी के ज़माने में, भारत में इस क्षेत्र में काफी विकास हुआ। सन 1891 ईस्वी में भेरा (वर्तमान में पाकिस्तान में) जन्में साहनी एक समृद्ध परिवार से थे। उनके पिता रुचि राम साहनी एक प्रसिद्ध वैज्ञानिक थे, जिन्होंने प्रख्यात भौतिकविदों अर्नेस्ट रदरफ़ोर्ड और नील्स बोर के साथ काम किया था। साहनी ने सन 1911 ईस्वी में पंजाब विश्वविद्यालय से बी.एस. सी की डिग्री हासिल की थी। उसी साल,उन्होंने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के इमानुएल कॉलेज में दाख़िला लिया। सन 1914 ईस्वी में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से डी.एस. सी पास करने के बाद उन्होंने प्रसिद्ध पुरावनस्पतिशास्त्री, प्रो.ए.सी. सीवार्ड के मार्गदर्शन में शोध कार्य शुरू किया। यही वो समय था, जब साहनी की भारतीय पौधों के जीवाश्मों के प्रति रुचि पैदा हुई थी। सन 1920 ईस्वी में सीवार्ड के साथ साहनी ने भारतीय गोंडवाना वनस्पति के संशोधन पर काम किया।
सन 1921 ईस्वी में उनके जीवन में एक महत्वपूर्ण मोड़ आया। भारत वापसी के कुछ वर्षों बाद, साहनी को नव-निर्मित लखनऊ विश्वविद्यालय के वनस्पति विज्ञान विभाग के पहले प्रमुख के रूप में नियुक्त किया गया। साहनी कहते हैं, “पुरावनस्पति विज्ञान में मेरी रुचि से ये आशा जगाती है, कि मैं इसके प्रति अपने देशवासियों की और अधिक दिलचस्पी पैदा करने में मदद कर सकता हूं, और शायद इस क्षेत्र में मौलिक शोध के लिये बड़ी संख्या में लोगों को प्रेरित करने में सफल हूं।”
जल्द ही लखनऊ भारत में पुरावनस्पति अध्ययन का एक लोकप्रिय केंद्र बन गया, जहां देश भर से छात्र आने लगे। इसी समय के आसपास उन्होंने भारत में किए गए पौधों के जीवाश्मों पर किए गए सभी अध्ययन की समीक्षा की, जो सन 1920 ईस्वी तक किये गये थे। मौजूदा पौधों के जीवाश्मों का अध्ययन करने के अलावा, उन्होंने विशेष रूप से झारखंड में राजमहल पहाड़ियों में भी नयी खोज की, जो कभी उत्तरी गोंडवाना महाद्वीप (सुपर कॉन्टिनेंट) का हिस्सा होता था। दरअसल उनकी सबसे महत्वपूर्ण खोज में से एक सन 1948 ईस्वी में राजमहल पहाड़ी में पाई जाने वाली पैटोक्सिली थी, जिसे जुरासिक काल का झाड़ीदार पौधा माना जाता है।
साहनी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। पुरावनस्पति विज्ञान के अलावा, उन्होंने मुद्रा शास्त्र और पुरातत्व जैसे क्षेत्रों में भी योगदान दिया था। सिंधु घाटी सभ्यता में चावल और अनाज की खेती का अध्ययन करके, उन्होंने वनस्पति विज्ञान और पुरातत्व के बीच संबंध भी स्थापित किया। दिलचस्प बात यह है, कि हड़प्पा की यात्रा के दौरान उन्होंने चीढ़ की तरह के पेड़ों (कोनीफ़र) के अवशेषों की खोज की। उनका मानना था, कि पहाड़ी क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के शहरों में रहने वाले लोगों के साथ व्यापारिक संबंध थे।
सन 1936 ईस्वी में रोहतक में उन्होंने इत्तेफ़ाक़ से कोरका कोट में एक प्राचीन लड़ाकू जनजाति यौधेय के समय सिक्कों के कई सांचे खोजे। यह एक महत्वपूर्ण खोज साबित हुई, क्योंकि यौधेय के सिक्के हालांकि पहले पाए गए थे, लेकिन उनकी टकसाल की जानकारी किसी को नहीं थी। साहनी ने पहली बार, उनके टकसाल वाले एक शहर की खोज की थी। उन्होंने आगे प्राचीन भारत में सिक्कों की ढ़लाई के विभिन्न तरीक़ों का विस्तृत अध्ययन किया, और उनकी तुलना रोमन काल के दौरान अन्य देशों में इस्तेमाल की जाने वाली विधियों से की। उन्होंने जर्नल ऑफ़ न्यूमिस्मैटिक सोसाइटी ऑफ़ इंडिया में “प्राचीन भारत में सिक्कों की ढलाई की तकनीक” शीर्षक से एक विस्तृत लेख भी लिखा।
लेकिन जहां एक तरफ़ साहनी ने पुरावनस्पति विज्ञान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया, वहीं दूसरी तरफ़ देश में ऐसा कोई संस्थान नहीं था, जो पूरी तरह से इस क्षेत्र में समर्पित हो। नतीजन, मई 1946 में पैलियोबोटैनिकल सोसाइटी की स्थापना की गई, और जीवाश्म पौधों के संग्रहालय के साथ-साथ पुरावनस्पति विज्ञान को संरचित और संगठित करने के उद्देश्य से एक ट्रस्ट बनाया गया। आख़िरकार, 10 सितंबर, 1946 को, सोसायटी की संचालक संस्था ने लखनऊ विश्वविद्यालय के वनस्पति विज्ञान विभाग में पुरावनस्पति विज्ञान संस्थान की स्थापना की। सन 1949 ईस्वी में तत्कालीन प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू ने नये भवन की आधारशिला रखी। यह भारत में पुरावनस्पति विज्ञान अनुसंधान के लिए समर्पित पहला संस्थान था।
दुर्भाग्य से संस्था की स्थापना के एक सप्ताह बाद ही बीरबल साहनी का देहांत हो गया। उनकी मृत्यु के बाद उनकी पत्नी सावित्री साहनी, जो उनकी अधिकांश यात्राओं और परियोजनाओं में उनके साथ थीं, ने संस्थान की बागडोर संभाली। तब तक संस्थान काफ़ी मशहूर हो चुका था। इसे यूनेस्को ने सन 1951 ईस्वी में अपने तकनीकी सहायता कार्यक्रम में भी शामिल कर लिया था।
सन 1969 ईस्वी में, संस्थान भारत सरकार के विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग के तहत एक स्वतंत्र स्वायत्त अनुसंधान संगठन बन गया, और इसके संस्थापक के सम्मान में इसका नाम बदलकर “बीरबल साहनी इंस्टीट्यूट ऑफ़ पैलियोसाइंसेस” कर दिया गया। व्यापक पुरावनस्पति विज्ञान अनुसंधान के अलावा संस्थान ने पिछली सभ्यताओं, जीवन के विकास और जलवायु का अध्ययन करके विविध क्षेत्रों में योगदान किया।
संस्थान ने तेल और कोयले जैसे जीवाश्म ईंधन की खोज के लिए तेल और प्राकृतिक गैस आयोग (ओ एन जी सी) और भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण जैसे प्रतिष्ठित संगठनों के साथ सहयोग किया है। यह भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को कार्बन डेटिंग और पुरातात्विक अवशेषों का डी एन ए सैम्पल भी उपलब्ध करवाता है।
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