“आगे की ओर अग्रसर भारत इंडोनेशिया पर डच (हालैंड) औपनिवेशिक संप्रभुता को नहीं मानता। अगर मेरे विमान को मार गिराया जाता है, तो जवाबी कार्रवाई में भारतीय आसमान में उड़ने वाले हर डच विमानों को मार गिराया जाएगा।”
ये एक साहसी भारतीय पायलट के शब्द थे, जिसने न सिर्फ़ इंडोनेशिया के भविष्य का उद्धार किया, बल्कि अपने गृह राज्य ओडिशा का निर्माता भी बना।
प्रमुख भारतीय राजनेता बिजयानंद यानी बीजू पटनायक ने विमान चालकों की भावी पीढ़ी के लिए एक नयी मिसाल पेश की थी।
इस जांबाज़ पायलट ने दूसरे विश्वयुद्ध (1939-1945), भारत छोड़ो आंदोलन (1942), इंडोनेशिया स्वतंत्रता संग्राम (1946-1949), कश्मीर युद्ध (1947-48) और चीन-भारत युद्ध (1962) के दौरान महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
5 मार्च, सन 1916 को कटक (ओडिशा) में जन्मे बीजू ने, कटक के रावेनशॉ कॉलेज से पढ़ाई की थी। उनकी विमान उड़ाने में बहुत रुचि थी, और इसीलिये उन्होंने सन 1930 में दिल्ली फ़्लाइंग क्लब में दाख़िला लिया। वहीं से वह एक पायलट के रूप में, सन 1936 में इंडियन नेशनल एयरवेज़ में शामिल हो गए।
दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान भारत में नागरिक उड्डयन पर अस्थायी पाबंदी लगा दी गई थी। नागरिक विमान और पायलट अंग्रेज़ सरकार के अधीन थे। सन 1942 में जब जापान ने पूर्वी एशिया और अंग्रेजों और डच के क़ब्ज़े वाले क्षेत्रों में दख़ल दिया, तो बीजू, अंग्रेज़ नागरिकों को बचाने के लिए विमान से बर्मा (वर्तमान म्यांमार) गये। इन अभियानों के दौरान, उन्होंने म्यांमार में अंग्रेजों के अधीन लड़ रहे भारतीय सैनिकों के लिये भारत छोड़ो आंदोलन और आज़ाद हिंद फौज के पर्चे भी विमान से फ़ेंके।
दिलचस्प बात यह थी, कि छुट्टियों के दौरान बीजू, भारत छोडो आंदोसन में हिस्सा लेने वाले, जयप्रकाश नारायण, लोहिया और अरुणा असफ़ अली जैसे नेताओं को विमान से, एक जगह से दूसरी जगह लेकर गये, ताकि उन्हें अंग्रेजी हुक़ुमत की नज़रों से बचाया जा सके । इसी वजह से जनवरी, सन 1943 में उन्हें गिरफ़्तार भी किया गया था। सन 1946 में रिहा होने पर बीजू ने कलकत्ता में कलिंग एयरलाइंस की बुनियाद डाली, जिसका सन 1953 में इंडियन एयरलाइंस में विलय हुआ।
बीजू के लिये गौरव का क्षण, इंडोनेशियाई स्वतंत्रता संग्राम के दौरान सामने आया।
दूसरे विश्वयुद्ध में आत्मसमर्पण करने के बाद, जापान उन पूर्वी एशियाई देशों से हट गया था, जिन पर उसका क़ब्ज़ा था। इंडोनेशिया भी उन्हीं मुल्कों में शामिल था। इंडोनेशिया ने ख़ुद को स्वतंत्र घोषित कर दिया और सुकर्णों राष्ट्रपति और सुतन शाजिर प्रधानमंत्री बन गये थे। लेकिन युद्ध के बाद इंडोनेशिया को स्वतंत्रता देने का वादा करने वाला डच अपने वादे से मुकर गया, और मई सन 1947 में इंडोनेशिया पर हमला कर सुकर्णों को नज़रबंद कर दिया गया।
यह बात जब भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के कानों तक पहुंची, तो उन्होंने इंडोनेशिया के लिये समर्थन जुटाने के मक़सद से जुलाई, सन 1947 के अंत में एक अंतर-एशिया सम्मेलन आयोजित करने का फ़ैसला किया। सुकर्णों ने इस सम्मेलन में भाग लेने के लिए उप-राष्ट्रपति मोहम्मद हत्ता और शाजिर को चुना। लेकिन वे इंडोनेशिया के बाहर जा ही नहीं सकते थे, क्योंकि सभी रास्तों पर पर डच सरकार का नियंत्रण था। तब प्रधानमंत्री नेहरू ने, उन दोनों को दिल्ली लाने के लिये बीजू को इंडोनेशिया भेजा।
22 जुलाई, सन 1947 को बीजू अपनी विमान चालक पत्नी ज्ञानवती के साथ विमान से जकार्ता पहुंचे। डच सरकार के क़ब्ज़े वाले इंडोनेशियाई हवाई क्षेत्र में प्रवेश करते समय जब बीजू को डच अधिकारियों ने गोली से मार गिराने की धमकी दी, तो उन्होंने कहा, कि भारत इंडोनेशिया में डच शासन को स्वीकार नहीं करता है, और अगर उनके विमान को गिराया गया, तो भारत में उड़ने वाले डच विमानों का भी यही हश्र होगा।
डच तोपों को चकमा देते हुए बीजू ने इंडोनेशियाई हवाई क्षेत्र में प्रवेश किया और जकार्ता के पास विमान उतार दिया। जापानी सेना के छोड़े गये ईंधन का इस्तेमाल करते हुए वह शाजिर और हत्ता को लेकर दिल्ली आ गये। इस तरह पूरी दुनिया का ध्यान इंडोनेशिया की तरफ़ गया और इस तरह इंडोनेशिया को अमेरिका सहित कई देशों का समर्थन मिल गया। इन देशों ने इंडोनेशिया की अंतरिम सरकार को मान्यता दी, और 27 दिसंबर, सन 1949 को इंडोनेशिया डच शासन से आज़ाद हो गया। सन 1950 में बीजू को इंडोनेशिया के सर्वोच्च नागरिक सम्मान “भूमि-पुत्र” के अलावा उन्हें देश की मानद नागरिकता भी दी गई। सन 1995 में उन्हें “बिन्तांग जासू उतमा” पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया।
बहुत कम लोग जानते हैं, कि बीजू के सुझाव पर ही, प्रसिद्ध कवि कालिदास के दूतकाव्य ‘मेघदूत’ पर सुकर्णों की बेटी का नाम मेगावती सुकर्णोंपुत्री रखा गया था, जो सन 2001-2004 तक इंडोनेशिया की पांचवें राष्ट्रपति थीं। ओडिशा और इंडोनेशिया के बीच पुराने व्यापारिक संपर्क खोजने के लिये बीजू ने भारतीय नौसेना के सहयोग से सन 1992 में सदियों पुरानी प्रसिद्ध “बाली-यात्रा” दोबारा शुरू की थी।
सन 1947 में आज़ादी मिलने के बाद पाकिस्तानी घुसपेठियों ने जम्मू-कश्मीर पर हमला कर दिया था। क्योंकि भौगोलिक रुप से जम्मू-कश्मीर पाकिस्तान के क़रीब था. और धार्मिक कारण भी थे। महाराजा हरि सिंह ने रियासत के, भारत में विलय की रज़ामंदी भी दे दी थी। उसी के बाद, वहां भारतीय सेना भेजी गई थी। बीजू ने दस नवंबर सन 1947 से लगातार उड़ाने भरकर सैनिकों को वहां पहुंचाया और वहां फंसे नागरिकों को निकाला। इसके अलावा उन्होंने इस अभियान के लिये, नागरिक विमानों की ज़रूरतों का इंतज़ाम भी देखा ।
इसी तरह जब सन 1950 के दशक में चीन ने तिब्बत पर कब्ज़ा कर लिया, तब बीजू चीन के ख़िलाफ़ समर्थन जुटाने के लिए, नेहरू के रक्षा सलाहकार के रूप में अमेरिका गए थे। सन 1962 में भारत-चीन युद्ध के दौरान, अरुणाचल प्रदेश में लड़ रहे सैनिकों को रसद और हथियार पहुंचाने के लिए भारतीय वायु सेना के साथ-साथ बीजू के विमान भी काम आए थे।
बीजू ने विशेष सीमांत बल तैयार करने के मक़सद से, तिब्बती सैनिकों को गुप्त रूप से, छाताधारी सैन्य प्रशिक्षण देने की व्यवस्था की थी। इसके लिये उन्होंने सन 1963 में ओडिशा के चारबतिया में एविएशन रिसर्च सेंटर शुरू किया था। इसकी सारी योजना बीजू ने ही बनाई थी। इस यूनिट का गठन भारत-चीन युद्ध के दौरान चीनी गतिविधियों पर नज़र रखने के लिए किया गया था, जिसे अब ‘विकास बटालियन’ के नाम से जाना जाता है।
बाद में बीजू भारत के एक शीर्ष उद्योगपति, और फिर सबसे प्रतिष्ठित राजनेताओं में से एक बनें। वह दो बार ओडिशा के मुख्यमंत्री (1961-63 और 1990-95) रहे। उन्होंने सन 1965 में सुनाबेड़ा (कोरापुट ज़िला) में एच ए एल (हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स कंपनी) कारख़ाना स्थापित किया, जो आज भी भारतीय वायु सेना के मिग और सुखोई लड़ाकू विमानों के इंजन और अन्य कलपुर्ज़ें बनाता है। सन 1997 में उन्होंने अंतिम सांस ली।
इंडोनेशिया में राष्ट्रीय हीरो की हैसियत रखने के बावजूद बीजू को उनके अपने देश में वो सम्मान अभी तक नहीं मिला है, जिसके वे हक़दार थे।
हम आपसे सुनने के लिए उत्सुक हैं!
लिव हिस्ट्री इंडिया इस देश की अनमोल धरोहर की यादों को ताज़ा करने का एक प्रयत्न हैं। हम आपके विचारों और सुझावों का स्वागत करते हैं। हमारे साथ किसी भी तरह से जुड़े रहने के लिए यहाँ संपर्क कीजिये: contactus@livehistoryindia.com