पहले भी 44 साल तक चला था किसान आंदोलन

पिछले साल की तरह भी, भारत में किसान आंदोलनों का एक लंबा इतिहास रहा है, जो देश के लगभग हर कोने में हुआ था। लेकिन क्या आप जानते हैं, कि ऐसा ही एक और आंदोलन था, जो क़रीब आधी सदी तक जारी रहा था?

44 साल तक चला राजस्थान का बिजोलिया आंदोलन सामंतों के लगाए गए अंधाधुंध करों के ख़िलाफ़ एक अहिंसक संघर्ष था। तीन चरणों में चले इस आंदोलन को कई इतिहासकार पहला अहिंसक किसान आंदोलन मानते हैं। इस आंदोलन की वजह से रियासतों के किसान एकजुट हो गए थे। उन्हीं रियासतों को मिलाकर बाद में राजस्थान बनाया गया।

ये बात 19वीं सदी के अंत की है, जब देश ब्रिटिश सरकार के शिकंजे में फंसा हुआ था। आज जो राजस्थान कहलाता है, तब वह कई रियासतों में बंटा हुआ था । इन रियासतों में दो प्रकार की कृषि भूमि थी; खालसा भूमि (शासक के अधीन) और जागीर भूमि (ठिकानेदारों या सामंतों के अधीन)। मेवाड़ राज्य में बिजोलिया नाम का क्षेत्र था, जिस में जागीर भूमि थी। बिजोलिया अब भीलवाड़ा ज़िले में है।  सन 1891 के रिकार्ड के हिसाब से वहां लगभग 83 गांव थे, जिनकी आबादी 1, 200 थी । ये क़ानून परंपराओं और रीति-रिवाजों पर आधारित थे। 16वीं सदी के मध्य से  यहां के लोग परमार जागीरदारों के अधीन थे।

 

सन 1894 में नवनियुक्त ठिकानेदार राव सवाई किशन सिंह ने जागीर के प्रशासनिक कर्मचारियों को बदल दिया। राव किशन सिंह ने नए अफ़सरों को किसानों से, कुछ “असाधारण परिस्थितियों” के तहत कुछ अस्थायी करों को पहले से तयशुदा राजस्व के साथ, मनमाने ढंग से लागू करने की छूट दे दी, जिससे किसान नाराज़ हो गए। परमारों के अत्याचार का दौर यहीं से शुरु हुआ। तीन साल बाद यानी सन 1897 में जब राव कृष्ण सिंह ख़ुद मालिक बन गए , तो कर में कमी की आशा रखने वाले किसान निराश हो गए, क्योंकि उनकी समस्याओं को सुना नहीं गया। स्थिति तब और बिगड़ गई, जब कर न चुकाने वाले किसानों पर सरेआम ज़ुल्म किये जाने लगे। यहीं से बिजोलिया आंदोलन की नींव डली।

साधू सीताराम दास के नेतृत्व में संयुक्त बिजोलिया किसानों ने मेवाड़ शासक महाराजा फतेह सिंह से मिलने के लिए अपने प्रतिनिधि ठाकरे पटेल और नानजी पटेल को उदयपुर भेजा। बैठक सफल रही और राव कृष्णा को कुछ कर वापस लेने पड़े। लेकिन किसानों की एकता से परेशान होकर उसने कुछ किसान नेताओं को रिश्वत दी और ठाकरे और नानजी को मेवाड़ से बाहर निकाल दिया। साथ एक नया “चंवरी कर” भी लगा दिया, जो किसी भी किसान को बेटी की शादी के मौक़े पर देना पड़ता था!

किसानों ने इससे नाराज़ होकर खेत जोतने से इनकार कर दिया और अपनी बेटियों की शादियां करनी भी बंद कर दीं। मजबूर होकर कृष्णा को “चंवरी कर” हटाने सहित कुछ और रियायतें देने के लिए मजबूर होना पड़ा।

लेकिन जब सन 1906 में, उनके उत्तराधिकारी राव पृथ्वी सत्ता में आए, तो उन्होंने सभी रियायतें वापस ले लीं और “तलवार बंधन” कर लगा दिया, जो बेऔलाद मरे राव कृष्ण के लिए ‘मुआवज़ा कर’ था! उन्होंने पहले विश्व युद्ध (1914-1919) के दौरान किसानों पर “युद्ध-निधि योगदान” कर भी लगाया, और इस तरह करों की संख्या 86 हो गई!

अब दास ने ‘कोई टैक्स नहीं’ आंदोलन चलाया, जिसके तहत किसान पड़ौसी क्षेत्रों में जाकर खेत जोतने लगे। इससे नाराज़ होकर पृथ्वी ने,सन 1915 में दास और उनके सहयोगियों को बिजोलिया से निकाल दिया और इस तरह आंदोलन का पहला चरण समाप्त हो गया। लेकिन उनकी चालें उनके लिए नुक़सानदेह साबित हुईं, क्योंकि बिजोलिया में खेतों का मालिक ही कोई नहीं रहा।इस वजह से भोजन की कमी के अलावा रियासत के राजस्व में भारी गिरावट आ गई।

इस बीच, दास की मुलाक़ात नाथद्वारा (अब राजसमंद ज़िले में) में एक व्यक्ति से हुई, जो सन 1915 के लाहौर षडयंत्र मामले में उसकी भूमिका के लिए गिरफ़्तारी से बचता फिर रहा था। उसने आंदोलन को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से जोड़ दिया और राजस्थान की रियासतों के किसानों को एकजुट किया। इसका नाम था विजय सिंह पथिक।

विजय पथिक की भागीदारी किसान आंदोलन के लिए वरदान साबित हुई, जो अपने दूसरे चरण में प्रवेश कर चुका था। बिजोलिया पहुंचने के बाद  विजय पथिक ने एक संगठन “बिजोलिया किसान पंचायत” का गठन किया, जिसने भविष्य के आंदोलनों के आरंभ की भूमिका निभाई। विजय पथिक की सलाह पर, किसानों ने कम करों वाली, पड़त ज़मीन यानी बिना मालिकाना हक़ वाली ज़मीनों पर खेती की और अपनी उत्पादकता की संभावनाओं को बढ़ाने के लिए लघु उद्योग भी शुरू किए। विजय पथिक ने और उनके साथियों ने राजस्व अभिलेखों का अध्ययन किया, और मेवाड़ राजस्व कार्यालय में रिपोर्टों का ढ़ेर लगा दिया।सन 1920 में वह नागपुर गए, और महात्मा गांधी को आंदोलन के बारे में बताया। इसके बाद गांधी जी ने पूरे मामले की जांच के लिए अपने महासचिव महादेव देसाई को बिजोलिया भेजा।

इसके अलावा, विजय पथिक ने अजमेर में सामंती शोषण के ख़िलाफ़ संयुक्त प्रतिरोध के लिए “राजस्थान सेवक संघ” बनाया, जो आंदोलन का पहला केंद्र भी बन गया। इससे मेवाड़ के शासक और अंग्रेज़ों ने उन्हें गिरफ़्तार करने के लिए हाथ मिला लिया। लेकिन सौभाग्य से वह कानपुर भाग गए और वहां से राजस्थान और भारत की अन्य रियासतों में प्रतिरोध की आवाज़ फैलाने के लिए “प्रताप” अख़बार में लेख लिखने लगे तथा उन्होंने “राजस्थान केसरी” और “तरुण राजस्थान” जैसे अख़बार भी निकाले। नतीजे में, चित्तौड़गढ़ में ‘बेगूं आंदोलन’ (1921-23) जैसे आंदोलनों की शुरुआत हुई, जहां किसानों ने आख़िरकार अंधाधुंध करों के ख़िलाफ़ अपने संघर्ष में जीत हासिल की।

राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ती नाराज़गी को देखते हुए, अंग्रेज़ों ने स्थिति को समझने के लिए, गवर्नर जनरल के साथ जुड़े अपने एजेंट हॉलैंड को मेवाड़ भेजा। इसके नतीजे में 11 फ़रवरी,सन 1922 को, किसानों और मेवाड़ राज्य के बीच एक समझौता हुआ , जिसके तहत 84 में से 35 कर समाप्त कर दिए गए।

सन 1922 के समझौते की स्याही अभी सूखी भी नहीं थी, कि ठिकानेदारों ने हालात को वहीं पहुंचा दिया जहां वो पहले थे। बिना मालिकाना हक़ की ज़मीन पर कर बहुत अधिक कर दिए गए। फिर जागीर अधिकारी बिजोलिया किसान पंचायत के मामलों में दख़ल देने लगे। किसानों के ज़ख्मों पर नमक तब और छिड़क दिया गया, जब 10 सितंबर,सन 1923 को अंग्रेज़ों ने आख़िरकार विजय पथिक को गिरफ़्तार कर लिया और उन्हें उदयपुर की जेल में पांच साल के लिए क़ैद कर दिया। इस तरह बिजोलिया आंदोलन का अंतिम चरण, विजय पथिक के सहयोगी माणिक्य लाल वर्मा ने अपनी पत्नी नारायणी के साथ शुरू किया। अफ़सोस की बात यह है, कि रिहाई के बाद विजय पथिक के बिजोलिया में प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया। लेकिन वह आंदोलन के नेताओं के संपर्क में रहे और विभिन्न समाचार-पत्रों में लिखकर सारे देश का ध्यान आंदोलन की तरफ़ खींचते रहे।

आंदोलन में माणिक्य की भागीदारी ने राजस्थान के आम लोगों को सामंती शोषण और नागरिक स्वतंत्रता पर अंकुश के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने के लिए प्रेरित किया। इसके तहत सन 1930 के दशक में राजनीतिक जागरूकता बढ़ाने और रियासत में एक ज़िम्मेदार सरकार बनाने के लिए “प्रजा मंडल” आंदोलन शुरु हुआ। इस आंदोलन की वजह से राजस्थान में आम लोग एकजुट हो गए और जमनालाल बजाज जैसे कई प्रमुख नेता आंदोलन के समर्थन मे आगे आए।

दूसरे विश्व युद्ध (1939-1945) अपने चरम पर पहुंच चुका था, और अब आंदेलन सभी रियासतों में फैल चुका था। शासकों और जागीरदारों के पास किसानों, उनके नेताओं और सहानुभूति रखने वालों के ख़िलाफ़ कार्रवाई की कोई गुंजाइश नहीं बची थी। नवंबर,सन 1941 में मेवाड़ के प्रधानमंत्री टीवी राघवाचार्य के नेतृत्व में 44 साल बाद बिजोलिया आंदोलन आख़िरकार अपने निष्कर्ष पर पहुंच गया और सभी करों को समाप्त कर दिया गया।

बिजोलिया आंदोलन के सफल होने के आठ साल बाद यानी 1947 में जब भारत ने आज़ादी हासिल की, रियासतों को मिलाकर 30 मार्च,सन 1949 को राजस्थान राज्य बना गया। आज बिजोलिया आंदोलन किसानों के अदम्य जज़्बे और उनकी एकता की याद दिलाता है।

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