महाकवि भवभूति: ‘उत्तररामचरित’ के श्रेष्ठ रचयिता

महाकवि भवभूति संस्कृत-नाटक तथा काव्य साहित्य के नक्षत्रमंडल में देदीप्यमान नक्षत्र की तरह विराजमान हैं। उन्होंने ना सिर्फ संस्कृत नाट्य साहित्य को गतिप्रद बनाया बल्कि साथ ही उसे एक नये मार्ग की और उन्मुख किया हैं। उनके प्रखर पांडित्य ने उनकी काव्यकला में अनुपम श्रीवृद्धि की हैं। उनके नाटकों में कलातत्व की अपेक्षा भावतत्व, श्रव्य-काव्य की अपेक्षा दृश्य-काव्य की अपूर्व तरलता के कारण उन्हें गीतिनाट्य (Lyrical drama) का प्रणेता माना जाता हैं।

भवभूति कश्यपगोत्र तथा कृष्ण-यजुर्वेद के तैत्तिरीय शाखा के अनुयायी एवं ब्रम्हवादी थे। उदुम्बर उनका उपनाम था। उन्हें ‘श्रीकण्ठ’ उपाधि प्राप्त थी; जिसका अर्थ था कि ‘सरस्वती उनके कण्ठ में निवास करती है’। भवभूति के दादा का नाम भट्टगोपाल और पिता का नाम नीलकंठ था। उनकी माता का नाम जातूकर्णी था। ‘ज्ञाननिधि’ उनके गुरु थे। भवभूति की के पूर्वज दक्षिणपथ में स्थित विदर्भ प्रदेश के पद्मपुर में निवास करते थे। महामहोपाध्याय वा.वि.मिराशी ने अपने संशोधन द्वारा महाराष्ट्र राज्य के गोंदिया ज़िले में ‘पद्मपुर’ नामक ग्राम ही भवभूति का मूलस्थान ‘पद्मपुर’ होने को प्रमाणित किया हैं।

यद्यपि भवभूति का जन्मस्थान पद्मपुर था, लेकिन उन्होंने अपने जीवन का ज़्यादातर समय कान्यकुब्ज (कनौज) में व्यतीत किया। कश्मीर-इतिहास ग्रंथ ‘राजतरंगिणी’ के रचयिता कल्हण (१२ वीं शताब्दी) ने भवभूति और वाक्पतिराज को कान्यकुब्ज के नरेश यशोवर्मन का राजकवि कहा है। इतिहासकारों द्वारा राजा यशोवर्मन का काल आठवीं शताब्दी का पूर्वार्ध माना जाता है। अतः महाकवि भवभूति का काल भी आठवीं शताब्दी का पूर्वार्ध सिद्ध होता हैं।

भवभूति का व्यक्तित्व सबल भावों का अभिव्यंजक हैं। अपने साहसिक प्रयोग द्वारा भवभूति ने संस्कृत नाट्य जगत में एक नव-काव्य विधा का सृजन किया हैं। कलात्मक अभिव्यक्ति की नूतन परंपरा का प्रवर्तन करते हुए संस्कृत नाट्य साहित्य की श्रीवृद्धि में विशेष योगदान दिया है। कवि भवभूति ने अपनी कृतियों के माध्यम से नाट्य साहित्य के क्षेत्र में युग चेतना को एक अभिनव स्वर प्रदान किया है।

महाकवि भवभूति की शैली की प्रमुख विशेषताएँ

महाकवि भवभूति की भाषा सबल, संपुष्ट, परिष्कृत और संतुलित है। उन्होंने अपने नाटकों में संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओं का प्रयोग किया है। भवभूति की शैली की प्रमुख विशेषताए हैं – दृष्टी में पौढ़ीत्व, उदारता तथा अर्थगौरव; और यही तीन गुण पांडित्य तथा विदग्धता की कसौटी होते हैं ऐसा वह मानते थे। महाकवि भवभूति ने सरल और जटिल प्रसंगो के अनुरूप भावाभिव्यक्ति के लिए उसी प्रकार की भाषा और शैली का उपयोग किया है जो उन भावों एवं प्रसंगों के लिए सर्वथा उपयुक्त है।

नाटककार के रूप में भवभूति के व्यक्तित्व का परिचय ‘महावीरचरित’, ‘मालतीमाधव’ और ‘उत्तररामचरित’ इन तीन कृतियों द्वारा मिलता है। इन तीनों नाटकों का प्रयोग कालप्रियनाथ की यात्रा के प्रसंग पर किया जाता था। महावीरचरित में वीर रस की प्रधानता के कारण ओज गुण का, मालतीमाधव में श्रृंगार रस की प्रधानता के कारण माधुर्य का और उत्तररामचरितम में करुण रस की प्रधानता के कारण प्रसाद गुण का आधिक्य हैं। उत्तररामचरित की भाषा अत्यंत परिमार्जित एवं प्रसंगानुकूल हैं। भवभूति ने भावपूर्ण हृदय की गहन एवं सच्ची अनुभूति की अभिव्यक्ति सरल शब्दों में की हैं।

भवभूति यह मानते थे कि जिस नाटक में प्रवृत्तियों का अंतर्द्वंद्व दिखाया जाता है, वही नाटक उच्च श्रेणी का होता हैं। जिस नाटक में केवल बाहरी घटकों के साथ के विरोध का वर्णन होता हैं, वह नाटक नहीं, इतिहास है। भाषा और भाव दोनों स्तर पर भवभूति नाटकीय द्वंद्व सृजन में निपुण थे।

महावीरचरित

महावीरचरित (महावीर श्रीराम की पराक्रमगाथा) भवभूति की प्रथम नाट्य कृति है जिसमें रामायण के पूर्वार्धि की कथा अंतर्गत रामविवाह, वनवास, सीताहरण, रावण–वध एवं राज्याभिषेक तक की मुख्य घटनाएँ सात अंको में वर्णित हैं। इसमें राम को आदर्श मानव रूप में दिखाने का प्रयत्न किया गया है। यद्यपि इसमें नाट्य कला का पूर्ण परिपाक नहीं हुआ हैं; चरित्रचित्रण, रसपरिपाक, भाषा आदि की दृष्टि से भी यह नाटक उच्चकोटी का नहीं कहा जा सकता, तथापि वीर रस का परिपोष इसमें काफ़ी अच्छा हुआ हैं। महावीरचरित में भाव प्रवणता के विपरीत जीवन के कटु सत्य एवं आदर्शो का निरूपण किया गया हैं।

मालती-माधव

यह दस अंकों का प्रेमकथा पर बृहद् नाटक है। इसमें पद्मावती नरेश की पुत्री मालती तथा विदर्भ राज्य के अमात्य के पुत्र माधव के प्रणय का बहुत रोचक व रहस्यपूर्ण वर्णन है। दोनों के प्रणय व विवाह में अनेक घात-प्रतिघात, उत्थान-पतन तथा सफलता-असफलता की भावोत्तेजक अवस्थाएँ आती हैं। आशा-निराशा के झंझावातों में थपेड़ें खाते दर्शक को अंत में दोनों के विवाह से आनंद प्राप्त होता है। इसमें वीर, रौद्र, बीभत्स आदि विभिन्न रसों के साथ शृंगार का अपूर्व समन्वय है। रोचक कथानक, यथार्थ तथा विशद चरित्र चित्रण एवं सुंदर काव्यात्मक भाषा के कारण यह महावीरचरित की अपेक्षा आलोचकों द्वारा अधिक सम्मानित हुआ है। ‘मालती-माधवम’ श्रृंगाररसयुक्त है किन्तु उसका उद्देश्य प्रणय वासना में लिप्त रहना ही नहीं हैं। अपितु भवभूति ने उसमें भी उत्कट प्रेम, मैत्री एवं त्याग की भावना को आदर्शवत प्रस्तुत किया हैं।

उत्तररामचरित

वाल्मिकी रामायण के उत्तरकांड कथानक पर आधारित यह सात अंको में व्याप्त भवभूति का अंतिम एवं सर्वोत्कृष्ट नाटक हैं। जिसमें उनका कवित्व उच्चतम चरम को प्राप्त हुआ है। आलोचकों की मान्यता है कि उत्तररामचरित में भवभूति की कला कालिदास से भी अधिक विकसित है। दूसरे रामकथा के नाटककारों की अपेक्षा भवभूति ने अपने इस नाटक में राम और सीता के पवित्र एवं कोमल प्रेम व अधिक वास्तविकता से चित्रण किया है। इसीलिए महाकवि भवभूति के प्रति गौरवोद्गार के रूप में यह कहा जाता हैं कि –

“नाटके भवभूतिर्वा वयं वा वयमेव वा ।

उत्तरे रामचरिते भवभूतिर्विशिष्यते ।।”

कवि ने नाटकीय रूप प्रदान करने के लिए कालिदास के ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ समान इसकी मूल कथा में मौलिक परिवर्तन किए हैं। सीता निर्वासन की परिस्थिति में राम का उत्तरदायित्व समुचित परिप्रेक्ष्य में दिखाकर कवि ने उनके चरित्र को कलंकमुक्त तो किया ही है, और उन्हें एकांत निर्जन वन में अपनी भावना के प्रकाशन का भी अवसर दिया है। रामायण की कथा सीता के पृथ्वीगर्भ में समाने से दुःखान्त है, किंतु भारतीय नाट्य कला के आदर्शानुसार रामसीता का मिलन कराकर कवि ने दुखांत कथा के प्रतिकुल नाटक को सुखांत स्वरुप प्रदान किया हैं।

उत्त्तररामचरित विश्व साहित्य की सर्वश्रेष्ठ कृतियों में से एक है। भवभूति की नाट्यकला कीर्ति का गौरवस्तंभ भी यही है। उनका प्रौढ़ व्यक्तित्व, प्रकांड पांडित्य तथा जीवन दर्शन उनकी नाट्यकृतियों में पूर्णरूप से प्रतिफलित हुए हैं।

भवभूति और कालिदास

हमारी परंपरा भवभूति को कालिदास के बाद सर्वोच्च कवि मानती आयी है। कालिदास जैसे रससिद्ध कवि तथा सर्वश्रुत नाटककार के सामने यदि कोई तुलनीय माना जाता हैं तो वह महाकवि भवभूति हैं। ‘कवय: कालिदासाद्या भवभूतिर्महाकविः‘ ऐसा भी एक प्रचलित सुभाषित है। भवभूति ने उत्कृष्टता में अपने ‘उत्तररामचरित’ द्वारा कालिदास के ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ को भी पीछे छोड़ दिया है।

इन दोनों की उत्कृष्ट प्रतिभा प्रकृतिजात थी। दोनों की कल्पना और पदरचनामें नितांत सरलता, प्रौढ़ता और रसिकता आदि जो महाकवियों के गुण हैं वो पूर्णरूप से दिखाई देते हैं। कालिदास के समान ‘वैदर्भीरीति’ और ‘गौड़ीरीति’ का भी प्रयोग करके भवभूतिने उसे अधिक ऊँचाई पे पहुंचाया है ।

कालिदास के दुष्यंत एवं शकुंतला की वेदना का स्वरुप मुलत: प्रेम मूलक अतृप्ति की वेदना का है इसके विपरीत भवभूति के राम और सीता की विरह व्यथा मुख्य रूप से कर्तव्य एवं त्याग की भावना से आवृत्त है। अतएवः उनके पात्रों की अपेक्षा अधिक व्यापक, स्पष्ट और पवित्र है।

विवहित स्त्री के परित्याग का प्रसंग शाकुंतलम् नाटक में भी है और उत्तररामचरित में भी। दोनों नाटकों में नाटककारों ने समाज की ओछी मनोवृत्तियों पर टिप्पणी की है, किंतु कालिदास की टिप्पणी उतनी तीखी नहीं है जितनी भवभूति की है।

करुण रस का महत्त्व

संस्कृत नाटककारों ने मुख्यत: ‘श्रृंगार रस’ एवं ‘वीर रस’ को प्रधान माना है। इसके विपरीत भवभूति ने करुण रस को न केवल मुख्य रस बनाया बल्कि स्पष्ट रूप से इसे अन्य रसों का मूल बिंदू भी बताया है।

भवभूति ने श्रृंगार रस प्रधान ‘मालती माधव’ और वीर रस प्रधान ‘महावीरचरित’ नाटक लिखने के बाद अपनी मान्यता स्थापित की है कि करुण रस प्रधान नाटक भी लिखा जा सकता है और उसके आदर्श रूप में ‘उत्तररामचरित’ की रचना की।‘एको रस: करुण एव’ इत्यादि श्लोक के माध्यम से भवभूति ने यह स्पष्ट किया है कहा है कि श्रृंगार आदि रस भी करुणरस के ही विवर्त हैं।

यद्यपि करुण रस का प्रयोग तो आदिकवि वाल्मीकि, कालिदास आदि विद्वानों ने किया हैं। तथापि करुण रस का जो स्वरुप हमें भवभूति की रचना ‘उत्तररामचरित’ में दिखाई देता हैं, वह नि:संदेह रूप से अन्यत्र दुर्लभ हैं। भवभूति का अभिप्राय यही है कि रस चैतन्य का स्वात्मपरामर्श है, उसकी गहनता जितनी करुण में संभव है उतनी अन्यत्र नहीं है। करुणरस श्रृंगार, हास्य एवं क्रोध रसों की अपेक्षा अधिक गहन एवं अधिक व्यापक है।

अंतर्दाह से दग्ध होकर, पीड़ा के ताप से घिरे हुए राम का मन भवभूति ने अपने रचना में चित्रित किया हैं। राम विवश होकर कह रहे हैं – हृदय फट रहा हैं, किंतु दो टुकड़े नहीं होता; शरीर मूर्च्छित हो रहा है, किंतु निर्जीव नहीं होता; आतंरीक ज्वाला जला तो रही है पर राख नहीं बना देती; दैव मेरे मर्म पर प्रहार तो करता है, किंतु मेरे प्राण नहीं हरता।

भवभूति ने राम के लोकोत्तर चरित्र को साधारण मानवीय भावनाओं से परिपूर्ण प्रदर्शित किया है। वाल्मीकि रामायण में राम के चारित्रिक दूषण का हरण उनके अवतारी पुरुष होने के आधार पर होता है किंतु इसके विपरीत भवभूति ने उत्तररामचरित में राम की दैवी शक्तियों को मानवीय शक्तियों के रूप में स्थापित किया है। कवि ने ‘महावीर चरितम’ और ‘उत्तर रामचरितम’ दोनों ही नाटकों के नायक राम को अवतारी पुरुष के रूप में वर्णित न करते हुए उन्हें एक सामान्य मानव की कसौटी पर कसा है।

परिवर्तीयों पर प्रभाव

परवर्ती सभी लेखक तथा नाटककार भवभूति की कला से प्रभावित हुए हैं। जिनके साहित्य में भवभूति की प्रभूत प्रशंसा उपलब्ध होती है। बाद के नाटककरों ने उनकी रचनाओं को आदर्श मानकर अपने ग्रंथो का प्रणयन किया है, जिसका प्रमाण हमें भवभूति के पश्चातवर्ती जयदेव, मुरारी, राजशेखर आदि कवियों की रचनाओं में देखने को मिलता है।

सुप्रसिद्ध कवि राजशेखर ने ‘बालरामायण’ में उन्हें वाल्मिकी का अवतार कहा है; स्वयं भी रामकथा-विषयक नाटक की रचना करने से उन्होंने अपने आपको भवभूति का दूसरा रूप कहने में गर्व का अनुभव किया है। सोड्ढ़ल ने अपने ‘उदयसुन्दरीकथा’ में लिखा हैं –“मान्यो जगत्यां भवभूतिरार्य: सारस्वते वत्मनि सार्थवाहः”अर्थात “भवभूति की रचनायें पढ़कर अन्य कविओं ने अपने ग्रंथों की रचना की और उनकी रचनायें भी जगन्मान्य हो गयी। इस तरह भवभूति के ग्रंथ सार्थवाह (मार्गदर्शक) का कार्य करते रहे।”

संस्कृत पंडित सोमदेव ने अपनी रचना ‘रसतिलकचंपू’ में भवभूति को महाकवि संबोधकर व्यास, भास, कालिदास, भारवी, भर्तृहरि के बराबर का स्थान दिया है। वाक्पतिराज ने अपने ‘गौड़वहों’ में भवभूति की बड़ी प्रशंसा करते हुए कहा है कि “भवभूति एक अथांग महासागर के समान हैं। उनके शब्द समुद्रमंथन से निकले मधुर अमृतबिंदू के समान हैं। सुभाषित ग्रथों में भवभुति के द्वारा उद्भावित करूण रस की बहुत प्रशंसा हुई है। यह भी कहा गया है कि अन्य कवियों में भी विशेषताएं मिलती हैं किंतु अनिर्वचनीय आनंद भवभूति ही देते हैं –“तथाप्यन्तर्मोदं कमपि भवभूतिर्वितनुते।”

आचार्य वामन ने अपने ‘काव्यलंकारसूत्रवृत्ति’ में, आचार्य धनंजय ने अपने ‘दशरूपक’ में, आचार्य महिमभट्ट ने अपने ‘व्यक्तिविवेक’ में, मम्मटाचार्य ने अपने ‘काव्यप्रकाश’ में, महाकवि क्षेमेन्द्र ने अपने ‘औचित्यविचारचर्चा’ में, विद्याकार ने ‘सुभाषितरत्नकोश’ में, श्रीधरदास रचित ‘सदुक्ति-कर्णामृत’ में, शारंगधर ने ‘शारंगधरपद्धती’ में, गदाधर भट्ट ने ‘रसिक जीवन’ में, कुंतक कृत ‘वक्रोक्तिजीवित’, हेमचंद्र कृत ‘काव्यानुशासन’, सोभाकारमित्र कृत ‘अलंकाररत्नाकर’, बल्लाल देव कृत ‘भोजप्रबंध’, धनिक कृत ‘दशरूपावलोक’, अभिनवगुप्त कृत ‘तंत्रलोक’ एवं ‘अभिनवभारती’, राजा भोज कृत ‘शृंगारप्रकाश’ एवं ‘सरस्वतीकण्ठभरण’ में भवभूति के पदों को उद्धृत किया है। विद्याकार, जल्हण, वसुकल्प आदि प्रभुतियों ने भी भवभूति के श्लोकों को उद्धृत किया है। वीर राघव, त्रिपुरारी, जगद्धर, घनश्याम, विश्वनाथ, रामचंद्र, गुणचन्द्र, महिमान, अनंतपंडित, पूर्णसरस्वति आदि संस्कृत पंडितोंने भवभूति के साहित्य पर टीकाग्रंथों की रचना कर उनके साहित्य की प्रशंसा की है।

उनकी कलम स्त्री विषयक अनेक भ्रांत धारणाओं, सड़े-गले मुल्यों, समयातीत सोच, परम्पराओं और रुढ़ियों पर प्रहार करती है।

भवभूति ने प्रेम की विषयवस्तु उठाई और उसमें गांभीर्य और दार्शनिकता का प्रयोग किया। उनका मानना था कि – “योग, सांख्य, वेद, उपनिषद द्वारा प्राप्त ज्ञान का नाट्य के रचना में लाभ ही क्या ? नाटकीय काव्यात्मकता, कल्पना की सृजनता, अभिव्यक्ति का माधुर्य और काव्यार्थ की सधनता ही सच्चे ज्ञान और प्रतिभा के सूचक है।”

भवभूति ने अपने नाटकों में कुछ नये प्रयोग भी किये। उन्होंने एक बार रामायण-कथा की प्रस्तुति वीर और अद्भुत रसों के निदर्शन रूप में की, तो दूसरी बार करुण के। यह एक नयी प्रवृत्ति थी, तथा उनकी सराहना के लिए समय अपेक्षित था। और तत्कालीन विद्वान् और पंडितों ने उनकी कड़ी आलोचना की। इस आलोचना के प्रत्युत्तर में भवभूति कहते हैं –

ये नाम केचिदिह नः प्रथयन्त्यवज्ञां

जानन्ति ते किमपि तान्प्रति नैष यत्नः।

उत्पत्स्यतेऽस्ति मम कोऽपि समानधर्मा

कालो ह्ययं निरवधिर्विपुला च पृथ्वी॥

अर्थात “जो लोग मेरी रचना का उपहास करते हुए मेरी अवज्ञा कर रहे हैं उनका ज्ञान संकुचित है । मैंने मेरी रचना उनके लिए नहीं रची है। मेरा समानधर्मा कोई न कोई गुणग्राही रसिक आगे पीछे कभी न कभी अवश्य ही जन्म लेगा और मेरी रचनाओं का उचित मू्ल्यांकन करेगा, क्योंकि काल भी अनंत हैं और संसार (वसुंधरा) भी विशाल हैं।”

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