सन 1928 में इतिहासकार रमेश चंद्र मजुमदार ने पाकिस्तान में, करांची से 65 कि.मी. दूर एक बड़े टीले की खुदाई की थी। वहां उन्हें जो मिला उसे देखकर पुरातत्व से संबंध रखने वाले लोग दंग रह गए। वहां क़िलेबंद शहर के अवशेष मिले थे। खुदाई में ईंटें, बर्तन, अभिलेख, मूर्तियां, सिक्के, मोहर और कांच, लोहे, धातु और हाथी दांत की वस्तुओं के टुकड़े मिले थे। मजुमदार ने खुदाई में 2100 साल पुराना शहर भनभोर खोज निकाला था।
कई इतिहासकारों का मानना था कि ये सिंध के आखिरी हिंदु राजा दहीर की राजधानी देबल के अवशेष थे। क्या वाक़ई ऐसा था? चलिये पता करते हैं।
भनभोर शहर का इतिहास प्रथम सदी ई.पू. का है और यह काफ़ी समय तक आबाद रहा था। यहां तीन सभ्यताओं के अवशेष मिले हैं – स्काइथो-पार्थियन युग (प्रथम सदी ई.पू. से द्वतीय सदी तक ), हिंदू-बौद्ध अवधि (द्वतीय से 8वीं सदी तक) और इस्लामिक अवधि (8वीं सदी से 13वीं सदी तक)।
दूसरी सदी ई.पू. के उत्तरार्ध में स्काइथियन या साका ख़ानाबदोश लोगों ने सिंध से घुसकर दक्षिण एशिया पर हमला किया था। प्रथम सदी ई.पू. में इस क्षेत्र पर पार्थियन यानी पहलवियों का शासन था। उनके बाद प्रथम ईस्वी में कुषाण का शासन हुआ जो बौद्ध धर्म के बड़े संरक्षक थे और जिन्होंने स्थानीय लोगों की आस्था के अनुसार कई इमारतें बनवाईं थीं। परशिया (ईरान) के साम्राज्य सासन ने तीसरी सदी के मध्य में कुषाण साम्राज्य को हरा दिया था। इसके बाद इस क्षेत्र पर गुप्त राजवंश का नियंत्रण हो गया और फिर ये राय तथा उसके उत्तराधिकारी ब्राह्मण राजवंश के हाथों में चला गया।
सन 711 में सिंध पर अरबों ने हमला बोला और इस तरह भारतीय उप-महाद्वीप में इस्लाम का आगमन हुआ। उमय्यद ख़लीफ़ा के मोहम्मद बिन क़ासिम के नेतृत्व में मुस्लिम सेना ने ब्राह्मण राजवंश के तीसरे और अंतिम राजा दहीर को हराकर सिंध पर कब्ज़ा कर लिया। सन 712 से लेकर सन 900 तक सिंध उमय्यद और अब्बासी साम्राज्य के प्रशासनिक प्रांत का एक हिस्सा हुआ करता था।
सिंध के एक हिस्से के रूप में, भनबोर ने भी राजनीतिक उठापटक का गवाह रहा है।
भनभोर की आरंभिक रूप हालंकि जलमग्न हो गया है लेकिन बाहरी हिस्सा अभी भी दक्षिण एशिया में आरंभिक इस्लामिक शहरी रुप को दर्शाता है। मजुमदार के बाद सन 1951 में लेज़ली अलकोक ने भी खुदाई करवाई थी लेकिन भारत-पाक आज़ादी के बाद ही भनभोर को योग्य ध्यान मिला। पाकिस्तान के पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग के पूर्व निदेशक डॉ. एफ़. ए. ख़ान ने सन 1958 से लेकर सन 1965 तक इस स्थान का गहन अध्ययन किया और यहां खुदाई करवाई ।
खुदाई में जो मिला उसका ब्यौरा….
यहां पानी में डूबा आधा लंगरगाह मिला जिसका आधार पत्थर का था। इसका इस्तेमाल शायद मालवाहक नाव या फिर छोटे समुंद्री जहाज़ों के लिये होता होगा। इससे पता चलता है कि भनभोर मध्यकाल में एक बंदरगाह था जहां से व्यापार की वजह से शहर में समृद्धी आई। सिंधु नदी घाटी में भनभोर की सामरिक स्थिति की वजह से सिंध प्रमुख बंदरगाह बन गया था जहां से चीन और मध्य पूर्व एशिया में कारोबार होता था। इस बात का पता यहां मिले मिट्टी और धातु के सामान से चलता है जो शायद सीरिया, ईरान, ईराक़ और चीन आदि देशों से लाए गए होंगे।
भनभोर में भोगविलास की चीज़ों का आयात ही नहीं बल्कि निर्यात भी होता था। उदाहरण के लिये बंदरगाह के पास ही हाथी दांत के सामान मिले थे जिनका वज़न 40 किलो था। इससे लगता है कि यहां आसापास कोई कारख़ाना रहा होगा। यहां कपड़ा, कांच बनाने, रंग रौग़न और धातु के सामान बनाने के कारख़ानों के भी सबूत मिले हैं। इसे देखकर लगता है कि भनभोर एक समृद्ध बंदरगाह शहर रहा होगा।
व्यापारिक केंद्र के अलावा भनभोर एक सैन्य चौकी भी थी जिसका पता यहां की क़िलेबंदी से चलता है। कारख़ाने शहर के बाहर हुआ करते थे।
मूल शहर ईंट और मिट्टी की 19 फ़ुट ऊंची दीवार से घिरा हुआ था और शहर की सुरक्षा को और मज़बूत करने के लिये बुर्ज थे और तीन मुख्य प्रवेश द्वार थे। क़िलेबंद शहर के बीच एक और दीवार थी जो शहर को दो हिस्सों पश्चिम और पूर्व भाग में बांटती थी। पूर्वी हिस्से में पुरातत्विदों को प्रमुख ढांचों का प्लान मिला था। इनसे पता चलता है कि यहां एक मस्जिद, प्रशासनिक निवास और सराय रही होंगी।
खुदाई के दौरान एक दिलचस्प प्लान का पता चला। खुदाई में एक मस्जिद का सुरक्षित प्लान मिला था। इस प्लान के अनुसार मस्जिद चौड़ाई और लम्बाई 34X35 मीटर थी जिसके बीच में एक खुला अहाता था जिसमें विहार थे। पश्चिमी विहार में नमाज़ पढ़ने की जगह थी और इसकी सपाट छत लकड़ी के 33 खंबों पर टिकी हुई थी जो बालू पत्थर के चबूतरे पर खड़े थे। समय के साथ लकड़ी के खंबे ग़ायब हो गए। विशाल मस्जिद के दो प्रवेश द्वार हैं, एक पूर्व दिशा में और दूसरा उत्तर दिशा में। खुदाई में मस्जिद से पत्थर की तख़्तियां मिली थीं जिन पर कूफ़ी लिपि में अभिलेख अंकित थे। 14 में से दो तख़्तियों पर सन 727 और सन 906 की तारीख़ अंकित है।
यदि 727 सीई को उस तारीख के रूप में लिया जाता है जब मस्जिद का निर्माण किया गया था, तो यह इस मस्जिद को उपमहाद्वीप की सबसे पुरानी ज्ञात मस्जिद बनाती है! मस्जिद में आरंभिक हिंदू ढांचे के नक़्क़ाशीदार पत्थरों के, दोबारा इस्तेमाल के भी सबूत मिले हैं। इससे पता चलता है कि इस क्षेत्र में, सांस्कृतिक और रस्म-ओ-रिवाज के मामले में, बड़े पैमाने पर बदलाव हुये थ।
इस स्थान में क़िलेबंद दीवारों के अंदर और बाहर घरों और सड़कों के अवशेष भी मिले हैं। दीवारों के परे कारख़ानों के अलावा एक विशाल कृत्रिम जलाशय और क़ब्रिस्तान भी मिला है। जलाशय से बंदरगाह में पानी की सप्लाई होती होगी।
ख़ुशहाली शहर भनभोर क़रीब 1300 सालों तक ही क़ायम रहा होगा । ऐसा कोई सबूत नहीं मिलता है जिससे पता चले कि यहां 13वीं शताब्दी के बाद भी जनजीवन रहा होगा। शहर के पतन के कई कारण हो सकते हैं। इनमें से एक कारण सिंधु नदी का दिशा बदलना हो सकता है। नदी की धारा, की दिशा बदलने से खाड़ी में कीचड़ जमा हो गयी होगी। इस वजह से बंदरगाह का इस्तेमाल करना मुश्किल हो गया होगा और लोग शहर छोड़कर चले गए होंगे। दूसरा कारण भूकंप या फिर विदेशी आक्रमण हो सकता है जिसकी वजह से लोग शहर छोड़कर भाग गए होंगे।
कारण जो भी रहा हो, समय के साथ इमारतें ढ़ह गईं और पूरा शहर एक बड़े टीले के रुप में तब्दील हो गया। 20वीं शताब्दी में खुदाई में यही टीला मिला था।
खुदाई में हालंकि भनभोर के बारे में कई जानकारियां मिली हैं लेकिन दुर्भाग्य से इसकी पहचान अभी भी नहीं हो सकी है। विद्वानों का मानना है कि भनभोर कोई पुराना नाम नहीं है, यह नाम शहर को हाल ही में दिया गया होगा लेकिन इसके पहले इसका क्या नाम था? इसके बारे में कुछ पता नहीं है।
जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है, कुछ इतिहासकारों का विश्वास है कि भनभोर दरअसल देबल ही है। सिंध पर अरब की जीत का, 8वीं शताब्दी का ग्रंथ चचनामा के अनुसार देबल एक बंदरगाह था जिसे मोहम्मद बिन क़ासिम ने राजा दहीर को हराकर जीता था। ग्रंथ मे देबल पर हमले का मुख्य कारण दिया गया है। इसमें कहा गया है कि श्रीलंका के राजा ने ख़लीफ़ा को कुछ तोहफ़े भजे थे लेकिन इसके पहले ये ख़लीफ़ा के पास पहुंचते, तोहफ़े से लदे जहाज़ को देबल तट पर लूट लिया गया और तोहफ़े चोरी हो गए। उम्मायद ख़िलाफ़त के गवर्नर अल-हज्जाज-इब्न-यूसुफ़ ने इसके लिये राजा दहीर को ज़िम्मेवार ठहराया और क़ासिम के नेतृत्व में उस पर हमला बोल दिया। सिंधु नदी के तट पर अरोर के युद्ध में क़ासिम और दहीर का आमना सामना हुआ और राजा दहीर मारा गया तथा उसकी राजधानी देबल को नष्ट कर दिया गया।
कुछ इतिहासकारों का मानना है कि भनभोर बारबारीकोन हो सकता है जो एक पुराना बंदरगाह था जिसका उल्लेख पहली शताब्दी की ग्रीको-रोमन किताब पेरुप्लस ऑफ़ द एरीथ्रेइन सी में मिलता है।
साहित्य में देबल और बारबारीकोन दोनों उसी स्थान पर हैं जहां आज भनभोर है। बहरहाल, इन दोनों बंदरगाहों को खोजा नहीं जा सका है और इनकी पहचान भी नहीं हो सकी है। क्या ये दोनों शहर भनभोर के मलबे में दबे हुए हैं? इस बात का पता तो वक़त के साथ और भी शोध होने के बाद ही लगेगा….
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