हाल ही में यानी सन 2020 में, बंगाल केमिकल्स एंड फ़ार्मास्युटिकल्स लिमिटेड कंपनी कोविड -19 के उपचार के लिए दवा, हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन बनाने का लाइसेंस प्राप्त करने के लिए चर्चा में थी। लेकिन क्या आप जानते हैं, कि यह भारत में मलेरिया की दवा बनाने वाली सार्वजनिक उपक्रम की पहली भारतीय दवा कंपनी है, जिसकी शुरूआत सन 1892 में मशहूर रसायन शास्त्री और ‘भारतीय रसायन विज्ञान के जनक’ आचार्य प्रफुल्ल चंद्र रे ने की थी?
आज भारत में एक मज़बूत दवा उद्योग है, जो अनुसंधान और विकास के क्षेत्र में बहुत आगे बढ़ चुका है। लेकिन 19वीं शताब्दी में तस्वीर बिल्कुल अलग थी। भारत में अंग्रेज़ों का शासन था और यहां बहुत कम दवाएं बनती थीं। ज़्यादातर दवाएं विदेश से मंगवाईं जाती थीं और ये अधिकतर भारतीयों के लिए बहुत महंगी होती थीं। इसी दौरान आर्थिक स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता की आवश्यकता भी महसूस की गई।
टाटा ने, जहॉ सबसे प्रतिकूल परिस्थितियों में इस्पात उद्योग शुरु कर मुख्य उद्योग की नींव रखी, वहीं पी.सी. रे ने स्वदेशी औषिधि उद्योग स्थापित करने की आवश्यकता महसूस की।
भारत में अंग्रेज़ी राज के दौरान, सन 1861 में बंगाल के रारुली गांव में एक संभ्रांत बंगाली परिवार में जन्मे आचार्य प्रफुल्ल चंद्र रे एक निराले व्यक्ति थे, जिन्होंने शिक्षा, अनुसंधान और उद्योग के क्षेत्र में काम किया। उन्होंने एडिनबर्ग से अपनी शिक्षा पूरी की और बाद में कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॉलेज में रसायन विज्ञान के सहायक प्रोफ़ेसर की तरह काम किया ।
जब रे ने दवा कंपनी शुरू करने का फ़ैसला किया, तो उसके कई कारण थे। पश्चिमी देशों में दवा उद्योग वैज्ञानिक खोज पर आधारित थे, जिनका भारत में अभाव था। विडंबना यह है, कि बड़ी मात्रा में प्राकृतिक संसाधनों और कच्चे माल से संपन्न होने के बावजूद भारत में खोज, अनुसंधान और संसाधन की बेहद कमी थी। अपनी आत्मकथा में रे कहते हैं, “बंगाल में तकनीकी संस्थानों की स्थापना की इतनी आवश्यकता नहीं थी, जितनी कि हमारे युवाओं में एक व्यवसायी या उद्यमी या फिर उद्योग को चलाने के लिए जोश, साहस और कुशलता की आवश्यकता थी।”
इसके अलावा भारत की आर्थिक स्वतंत्रता के एक मज़बूत परोकारी होने के नाते रे एक ऐसी देसी कंपनी शुरू करने में पक्का विश्वास रखते थे, जो आत्मनिर्भरता की दिशा में उठाया गया एक क़दम हो, और जिसके तहत समाज के सभी वर्ग को लाभ मिले तथा बंगाली युवाओं में उद्यमशीलता की भावना पैदा हो। इसके अलावा स्वदेशी कंपनी की स्थापना से लोगों के पास औपनिवेशिक नौकरियों का एक विकल्प भी हो।
इस क्षेत्र में एक नौसिखिये लेकिन मुख्य रूप से एक शोधकर्ता होने के नाते उन्होंने उपलब्ध उत्पादों और कच्चे माल तथा बाज़ार में उनकी मांग पर शोध किया। इस उद्देश्य के लिए वे इतने समर्पित थे, कि उन्होंने सभी वित्ती य बाधाओं को नज़रअंदाज कर सन 1892 में 91 अपर सर्कुलर रोड, कोलकाता में एक किराए के घर में, महज़ 700 रुपये की पूंजी से प्रसिद्ध बंगाल केमिकल वर्क्स की स्थापना की।
शुरुआती चरणों में उत्पाद परीक्षण पर ज़्यादातर शुरूआती प्रयोग उनके ख़ाली समय में, प्रेसीडेंसी कॉलेज की प्रयोगशाला में, ब्रिटिश फ़ार्माकोपिया (बी.पी.) के निर्धारित मानकों के अनुरूप किए गए थे। रे के मकान के बाहर एक छोटे-से घर में मानकीकरण के बाद बाज़ार की मांग के अनुसार बड़ी मात्रा में उत्पादन किया गया।
कंपनी के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ तब आया जब रे की कंपनी के साथ चिकित्सा व्यवसायी अमूल्यचरण बोस जुड़ गये, जिनकी विचारधारा रे की तरह ही थी। उस समय, चिकित्सा व्यवसायी और बड़े फ़ार्मा डीलर विदेशी दवाओं को प्राथमिकता देते थे। अमूल्याचरण बोस कारमिचैल मेडिकल कॉलेज के संस्थापकों में से एक, डॉ. राधा गोबिंदा कर सहित अन्य चिकित्सा व्यवसायियों का समर्थन हासिल करने में कामयाब रहे, जिन्होंने मरीज़ों के इलाज के लिये नुस्ख़े में कंपनी के सिरप लिखने शुरु कर दिये।
चिकित्सक होने के बावजूद बोस और कर का कविराजों (आयुर्वेदिक चिकित्सकों) में विश्वास था और वे दवाओं के सूत्र के लिए उनसे परामर्श करते थे। अंत में उन्होंने एक्वा पिचोटिस (अजवाइन का पानी) और वासाका का सिरप जैसी आयुर्वेदिक दवाएं बनाना शुरु की, जो लोकप्रिय हुईं।
कंपनी के विकास ने रफ़्तार पकड़नी शुरू की, और सन 1898 में, कलकत्ता में आयोजित भारतीय चिकित्सा सम्मेलन में भारतीय दवाओं का एक स्टॉल लगाया। इसने पूरे भारत के चिकित्सा क्षेत्र का ध्यान आकर्षित किया। कंपनी की प्रतिष्ठा बढ़ने लगी और रे ने उत्पादन बढ़ाने के लिये कंपनी में 2 लाख रुपये लगाने में सफ़ल रहे। जल्द ही कंपनी को एक लिमिटेड कंपनी में बदल दिया गया और 12 अप्रैल सन 1901 को इसका नाम बदलकर बंगाल केमिकल एंड फ़ार्मास्युटिकल वर्क्स लिमिटेड कर दिया गया। कलकत्ता के कई प्रमुख कैमिस्टों ने कंपनी के शेयर ख़रीद लिये। यह स्वदेशी कच्चे माल और तकनीक का उपयोग करके गुणवत्ता वाली दवाओं, रसायनों और घरेलू उत्पादों का निर्माण करने वाली पहली भारतीय कंपनी बन गई।
सन 1900 के दशक की शुरुआत में बंगाल केमिकल्स के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ आया। बंगाल ब्रिटिश भारत का एक प्रमुख प्रांत था, और भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की गतिविधियों का एक महत्वपूर्ण केंद्र भी था। जुलाई सन 1905 में जब भारत के तत्कालीन वायसराय लॉर्ड कर्ज़न ने प्रशासन की सुविधा का हवाला देते हुए बंगाल के विभाजन की घोषणा की , तो इसे लेकर भारी असंतोष फैला क्योंकि राष्ट्रवादी नेताओं का मानना था, कि यह फ़ैसला राजनीति से प्रेरित है। इसके बाद अगस्त सन 1905 में, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने स्वदेशी वस्तुओं को बढ़ावा देने और ब्रिटिश सामानों का बहिष्कार करने के उद्देश्य से बंगाल में स्वदेशी आंदोलन शुरू किया, जिसके बाद देश में बहिष्कार आंदोलन शुरू हो गया। आंदोलन की गंभीरता से चिंतित होकर छह साल बाद ही विभाजन को रद्द कर दिया गया, और इससे स्वदेशी आंदोलन को बढ़ावा मिला। इस दौरान बंगाल केमिकल्स जैसी स्वदेशी कंपनियां ख़ूब फूलीफलीं।
कंपनी के विकास को देखते हुए कोलकाता के मानिकतला (1905), पानीहाटी (1920), मुंबई (1938) और कानपुर (1949) में कारख़ाने खोले गये। उस समय के, कम्पनी के कुछ लोकप्रिय उत्पाद: टैल्कम पाउडर, टूथपेस्ट, ग्लिसरीन साबुन, अग्निशामक, शल्य चिकित्सा और अस्पताल के उपकरण और कार्बोलिक साबुन थे।
सन 1908 में वरिष्ठ अंग्रेज़ अधिकारी सर जॉन कमिंस ने रिव्यू ऑफ़ द इंडस्ट्रियल पोज़िशन एंड प्रॉस्पेक्ट्स इन बंगाल में लिखा है, “उद्यम संसाधनशीलता और व्यावसायिक क्षमता के संकेत दिखाता है, जो इस प्रांत के पूंजीपतियों के लिए एक सबक़ होना चाहिए।”
कंपनी ने विश्व युद्ध के दौरान सरकार की आवश्यकताओं के अनुसार दवाएं आदि सप्लाई करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कंपनी ने कुछ बेहतरीन रसायन सफलतापूर्वक तैयार किए जो पहले केवल जर्मनी से ख़रीदे जाते थे। कंपनी ने सरकार को बड़ी मात्रा में नाइट्रिक एसिड सहित अग्निशामक यंत्र, चाय-पावडर से निकाले गए कैफ़ीन और सोडियम थायोसल्फ़ेट की सप्लाई की।
आचार्य रे का बहुत सम्मान और प्रभाव था , जिसकी वजह से गोपाल कृष्ण गोखले, महात्मा गांधी और सुभाष चंद्र बोस सहित स्वतंत्रता आंदोलन के कई उल्लेखनीय नेताओं के रिश्ते या तो उनके साथ थे, फिर बंगाल केमिकल्स के साथ जुड़े थे।
सन 1939-40 के आसपास, आचार्य रे ने अनुसंधान फ़ंड में कमी की वजह से पैदा हुये मतभेदों के कारण बंगाल केमिकल्स से इस्तीफा दे दिया था। पी.सी. रे की सन 1944 में मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु के कुछ वर्षों बाद बंगाल केमिकल एंड फ़ार्मास्युटिकल वर्क्स में गिरावट शुरू हुई, और आख़िरकार सन 1980 में सरकार ने इसका राष्ट्रीयकरण कर, इसको पुनर्जीवित किया गया।
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