जर्मनी के एक गुमनाम-से क़स्बे से यायावर सैनिक के रूप में भारत आकर क़िस्मत चमकाने वाला योद्धा वाल्टर रेन्हार्ट सोम्ब्रे उर्फ़ समरू साहब अपनी दिलेरी, दुस्साहसी और परिस्थितियों से सरधना का जागीरदार बन बैठा था। मुग़ल शहंशाह शाह आलम-द्वितीय ने अतिरिक्त रूप से उसे आगरा का सिविल और मिलिट्री गवर्नर भी बना दिया था। आगरा पर मराठा प्रभुत्व की संभावनाओं को दूर रखने के लिए ऐसा किया गया बताते थे। वह सरधना की जागीर की देखरेख के साथ ही अपनी बेगम को लेकर अकबराबाद में आ बसा था।
समरू की सरधना जागीर, वह जागीर थी जो पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुजफ़्फ़रनगर जनपद के बुढ़ाना क़स्बे से लेकर वर्तमान अलीगढ़, जो तब कोल कहलाती थी, के टप्पल तक, दोआब के उर्वरा और ख़ुशहाल इलाक़े में फैली थी। कम लोग जानते हैं कि सोम्ब्रे और उसकी पत्नी बेगम समरू का आगरा से कितना नज़दीकी रिश्ता था।
दरअसल, आगरा में रहते हुए ही, चार मई सन 1778 को एक संक्षिप्त बीमारी में इस दुस्साहसी जर्मन यायावर योद्धा सोम्ब्रे की साँसें ठहर गईं थीं। यह उसकी आगरा की दूसरी पारी थी। पहले समरू को आगरा क़िले का क़िलेदार बनाया गया था। उसी समय रेन्हार्ट सोम्ब्रे उर्फ़ समरू साहब ने अपने रहने के लिए आगरा में एक निवास बनवाया था। लाल क़िले से दूर यह महलनुमा आवास शहर के शाहगंज इलाक़े के उस भाग में था, जो रास्ता फ़तेहपुर सीकरी की ओर जाता है। महल की बाहर की दीवार अष्ट भुजाकार आकार की थी, जिसमें आठ फाटक थे। मुख्य गेट के दरवाज़े के ऊपर संगमरमर में समरू का कुलचिन्ह अंकित किया गया था। उर्दू शिलालेख में वर्ष 1763 भी लिखा दिखाई देता था। समरू के बाग़ के नाम से मशहूर रहे इस आलीशान महल का कुछ वर्षों पहले केवल दो मंज़िला द्वार ही बचा था, शेष पर अवैध क़ब्ज़े हो चुके हैं। इमारत के चारों ओर जो बुर्जियां थीं, उनमें से सिर्फ़ दो ही बची हैं।
तब उसकी पत्नी फ़रज़ाना ने बेगम समरू बन कर जो राज किया तो वह 58 वर्ष की लंबी अवधि तक अपनी कूटनीति, चातुर्य, साहस और वीरता से इस क्षेत्र को दृढ़ता से संभाले रखने के लिए जानी गई।
अन्य जानकारी के साथ इन तमाम तथ्यों का ख़ुलासा करने के लिए संवाद प्रकाशन, मेरठ से एक किताब प्रकाशित हुई है। दो सौ बहत्तर पृष्ठों की इस किताब का शीर्षक है “बेगम समरू का सच” आगरा में मंडलीय उपनिदेशक, सूचना एवं जनसंपर्क के पद पर कार्य कर चुके लेखक राजगोपाल सिंह वर्मा की बेगम समरू के ज़िदगीनामा के रूप में लिखी गई यह किताब इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है कि इसमें इतिहास की प्रामाणिकता का पूरा ध्यान रखा गया है। वह बताते हैं –
“आगरा में समरू ने जहांगीर द्वारा बनाये गये चर्च की मरम्मत की परियोजना पर बड़े पैमाने पर काम किया। यह चर्च वही था, जिसके लिए अकबर महान ने जगह दी थी, पर बाद में किसी विवाद के कारण इसे गिरा दिया गया था। चर्च के पुनर्स्थापन में ली गई रुचि से समरू का नाम स्थानीय ईसाई समाज में बड़े फ़ख़्र और इज़्ज़त से लिया जाने लगा था।”
ईसाइयों के रीति-रिवाज से सोम्ब्रे को पहले अकबराबाद में उनके विशाल बंगले के बाग़ में ही दफ़नाया गया था। बाद में आगरा के ही पुराने रोमन मिशनरी क़ब्रिस्तान परिसर में उनको ससम्मान दफ़नाया गया। वहां उनका अष्टकोणीय आकृति का मक़बरा बना। उस पर पोर्चुगी और फ़ारसी में उनके लिए इबारतें लिखी गईं, जो आज भी उनकी निशानी के तौर पर मौजूद है।
मृत्यु के लगभग तीन वर्ष बाद, 7 मई सन 1781 को आगरा के रोमन कैथोलिक चर्च की मुख्य अतिथि थीं बेगम समरू। जब बेगम ने आगरा के रोमन कैथोलिक पादरी के सम्मान में अपना सर झुकाया, तब पादरी फ़ादर ग्रेगोरी ने घोषणा की-
“मैं, ग्रेगोरी, आज बेगम फ़रज़ाना समरू ऑफ़ सरधना तथा उनके बेटे ज़फ़रयाब को रोमन कैथोलिक धर्म में लेने की घोषणा करता हूँ। आज से बेगम समरू जोहाना नोबिलिस सोम्ब्रे और बेटा लुई बाल्थ्जर रेन्हार्ट के नाम से जाने जायेंगे।”
फ़रज़ाना अब आगरा में बेगम समरू से जोहाना नोबालिस के रूप में परिवर्तित होकर सरधना लौट आई। यहाँ आकर उसने अपनी प्रजा के लिए अनेक कल्याणकारी काम तो किये ही, अपने जीवन के उत्तरार्ध में सरधना में एक अप्रतिम चर्च बनाने का भी निर्णय लिया।
जनरल समरू की मौत के बाद तक वह सालों-साल शिद्दत से आगरा आती-जाती रहती और अपने मरहूम शौहर की क़ब्र पर उनकी रूह की शांति की दुआ करती। उस दिन ग़रीब लोगों में ख़ैरात बांटती और अपनी रियाया की ख़ुशहाली के लिए मन्नतें मांगती।
बेगम और आगरा के उसके समय को लेकर एक और क़िस्सा हमेशा फैलाया जाता है। कहते हैं कि उसने अपने महल में नौकरानी रहीं उन दो लड़कियों को ज़िंदा दफ़न करा दिया था, जिन्होंने उसकी फ़ौज के दो अधिकारियों से इश्क फ़रमाने की जुर्रत की थी। उन्होंने इश्क में डूबे फौजियों के साथ भागने के लिए आगरा के शाही महल के उस हिस्से में आग लगा दी थी, जहाँ बेगम रहा करती थी। संयोग से उस समय बेगम वहां नहीं थी। पता चलने पर उसने उन दो लडकियों को ढूँढ़ निकलवाया जो आगरा के शाहगंज के बाज़ार में मिलीं थी। उनको कोड़ों से इतना मारा गया कि वे बेहोश हो गईं। फिर उन्हें एक गड्ढा खुदवा कर ज़िंदा ही दफ़न करा दिया गया। जहाँ लड़कियाँ दफ़न की गईं, उस गड्ढे पर मिट्टी डलवाकर बेगम अपना हुक़्क़ा गुड़गुड़ाती रही। कहा गया कि उनकी इस बेदर्द मौत की सज़ा का कारण उन लड़कियों का जनरल पौली के नज़दीक होना था, जो बेगम के भी क़रीबी अफ़सर थे। पर अधिकाँश बातें क़िस्सों-कहानियों की तरह ही थीं, और तथ्यात्मक रूप से मनघडंत थीं। बेगम पर की गई शोध ने इस चर्चित घटना को बे सिर पेर की साबित किया है।
एक बार बेगम को उसके पुत्र ने अपदस्थ कर क़ैद कर लिया था। तब महाद जी सिंधिया के संकेत पर जॉर्ज थॉमस ने उसे दुर्दशा से बाहर निकाला था। लगभग एक साल बाद सरधना का राज-काज पुन: नियंत्रित करने के बाद एक बार बेगम समरू महाद जी से मिलकर उनके उस कृत्य का धन्यवाद देने के लिये विशेष रूप से आगरा पहुंची थी। वह यह बात अच्छे से समझती थी कि अभी दिल्ली का असली शहंशाह महादजी सिंधिया ही हैं, न कि नाम मात्र का मुगल राजा शाह आलम- द्वितीय।
बेगम ने आगरा के चर्च के लिए सरधना जागीर की ओर से वित्तीय सहायता देने की व्यवस्था भी हमेशा जारी रखी। साथ ही बम्बई, कलकत्ता और मद्रास के चर्चों की देखभाल के लिए भी फंड्स उपलब्ध कराने की व्यवस्था बनाये रखी थी। इस व्यवस्था को उन्होंने अपनी मृत्यु के बाद भी चलाते रहने के लिए फंड बनवाया था।
तत्कालीन अकबराबाद यानि आज के आगरा के भोगीपुरा-शाहगंज का इलाक़ा तथा एक विशाल बाग़ान भी बेगम समरू की जागीर में था। बेगम के पास आगरा से सटे भरतपुर के निकट एक बाग़ की भी मिल्कियत थी जो उन्हें भरतपुर रियासत से भेंट में मिली थी। राजस्व रिकॉर्ड के अनुसार उनके सौतेले बेटे ज़फ़रयाब के नाम भरतपुर के डीग में जो 1600 बीघे का बाग़ था, उसका मालिकाना हक़ भी बाद में बेगम को हस्तानांतरित कर दिया गया था।
बेगम समरू के सौतेले बेटे ज़फ़रयाब को अपने पिता रेन्हार्ट सोम्ब्रे की क़ब्र के पास आगरा में ही रोमन कैथोलिक सेमेंट्री में दफ़नाया गया था।
सन 1836 में जब बेगम समरू की सरधना में मौत हुई तो उनकी अथाह परिसम्पत्तियों पर बेगम के दत्तक पुत्र डेविड सोम्ब्रे के दावों को ख़ारिज कर क़ब्ज़ा लेने की कार्यवाही आगरा के लेफ्टिनेंट-गवर्नर सर चार्ल्स मेटकाफ़ ने ही की थी। चूँकि अब सरधना आगरा के अधिकार क्षेत्र में पड़ता था, इसलिए इस प्रकरण में निर्णय लेने के लिए मेटकाफ़ ही सक्षम अधिकारी था।
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