बंगाल की बेगमों का ज़िक़्र आते ही हमारे सामने 18 वीं सदी के दौरान मुर्शिदाबाद के शाही महलों में रहनेवाली, अक़ूत धन-दौलत और ऐश्वर्य के बीच हीरे-जवाहरात से लदी उन बेगमों की छवियां सामने आ जाती हैं, जिन्होंने अपनी बेपनाह खूबसूरती से न सिर्फ़ बंगाल के नवाब़ों के दिलों पर राज किया, बल्कि पर्दे के पीछे से सत्ता की लगाम भी थामी। एक तरह से यह भी कहा जा सकता है, कि बंगाल की इन बेगमों की कहानियों में उस दौर के बंगाल के इतिहास के कई अहम पन्नें समाये हुये हैं।
अगर हम उन बेगमों की ज़िंदगी में झांके, तो इसमें रंगीनियां और चमक-दमक के साथ त्रासदी के स्याह धब्बे भी देखने को मिलेंगे। ऐसे धब्बे जिसने सूब़ा-ए- बंगाल को ही नहीं, हिंदुस्तान के इतिहास को भी ग़ुलामी के मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया था।
मशहूर इतिहासकार जदुनाथ सरकार बंगाल की इन बेगमों की ज़िंदगी के ऐश्वर्य और अवसान की तुलना रोम के सीज़र्स से करते हैं। वह कहते हैं, कि बंगाल के स्वतंत्र राजनीतिक जीवन के इतिहास के अंतिम दौर में हुई ये सच्ची घटनाएं किसी कहानी से भी ज़्यादा हैरान करनेवाली हैं। इन बेगमों के उत्थान और पतन की घटनाओं पर रौशनी डालते हुए इतिहासकार जदुनाथ सरकार और ब्रजेंद्र नाथ बनर्जी की शोधपरक किताब ‘बेगम्स ऑफ बंगाल’ की भूमिका में लिखते हैं, कि कभी बंगाल और बिहार के दूर-दूर तक फैले इलाक़े पर एकछत्र राज करनेवाले नवाब़ सिराजुद्दौला की उम्रदराज़ माता अमीना बेगम की जिंदगी में ऐसा भी मुक़ाम आया, जब वह अपने बेटे के ज़ख़्मों से भरे शव को देखकर बदहाल हो गईं थीं, और पागल भिखारिन की तरह मुर्शिदाबाद की सड़कों पर दौड़ पड़ी थीं, क्यूंकि उनके बेटे को गद्दारों ने क़त्ल कर दिया था। साथ ही धोखेबाज़ी से बंगाल की गद्दी हासिल करनेवालों ने अपने क़रीब़ी रिश्तेदार रहे पूर्व नवाब़ों की बेगमों और बेटियों को भी दरिया में डूबवाकर मौत के घाट उतरवा दिया था। लेकिन बेगम लुत्फ़ुल-उन-निसा ने अपने पति नवाब़ सिराजुद्दौला और अपनी सरज़मीं के प्रति सदा वफ़ादार रहीं।
बेपनाह ख़ूबसूरती और धन-दौलत के ग़ुरूर में डूबी, शह और मात के कुटिल खेल खेलनेवाली बंगाल की बेगमों की लम्बी फ़ेहरिस्त में इंसानियत की मिसाल पेश करनेवाली बेगम शर्फ़-उन-निसा का भी नाम शामिल है, जिसने कलकत्ता में बुरे वक़्त में फंसे अंग्रेज़ों के परिवार की महिलाओं-बच्चों को अपने घर में पनाह दी थी।
घसीटी बेगम जैसी बंगाल की बेगमों की जिंदगी में यह भी एक बड़ी विडंबना रही, कि उन्होंने अपने स्वार्थ की और अहं की तुष्टि के लिये जिस ईस्ट इंडिया कम्पनी से हाथ मिलाया था, बाद में उसी ईस्ट इंडिया कंपनी के सामने उन्हें घुटने टेक कर दया की भीख भी मांगनी पड़ी थी। रंगीनियों से भरी इन बेगमों की सफ़ेद-स्याह ज़िंदगी में झांकना एक रोचक विषय है।
ज़ीनत-उन-निसा
बंगाल की इन बेगमों में सबसे पहले चर्चा करते हैं, बंगाल के पहले स्वतंत्र शासक मुर्शिद क़ुली खां की इकलौती बेटी ज़ीनत-उन-निसा की। सन 1701 में औरंगज़ेब के शासन-काल में बंगाल के दीवान रहे मुर्शिद कुली खां सन 1713 में बंगाल के पहले स्वतंत्र शासक बन बैठे थे। उन्होंने ढ़ाका (वर्तमान बांग्लादेश) की बजाय मुर्शिदाबाद को अपनी राजधानी बनाया था।
जिस तरह मुर्शिद क़ुली खां ने अपनी क़ाबिलियत से बंगाल सल्तनत को मजबूती और समृद्धि प्रदान की, उसी तरह सौम्य, शांत और विवेकपूर्ण स्वभाव वाली उसकी बेटी ज़ीनत-उन-निसा के सहनशील व्यावहार और उसके दूरगामी फ़ैसलों की वजह से बंगाल की मसनद को लम्बी ज़िंदगी मिली।
ज़ीनत की शादी ओडिशा के सूबेदार शुज़ा ख़ां से हुई थी, जो एक कुशल शासक था, लेकिन औरत उसकी बहुत बड़ी कमजोरी थी। इससे नाराज़ होकर जीनत अपने बेटे सरफ़राज़ ख़ां के साथ मुर्शिदाबाद आकर पिता मुर्शिद कुली के साथ रहने लगी।
उम्र के आखिरी पड़ांव में मुर्शिद क़ुली ख़ां ने अपने नवासे सरफ़राज़ ख़ां को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। इससे नाराज़ शुज़ा ख़ां ने तिकड़म बैठाकर, दिल्ली दरबार से अपने नाम का फ़रमान जारी करवाकर, मुर्शिदाबाद की ओर कूच कर दिया। इसके विरोध में सरफ़राज़ हथियार उठाने को तैयार था । लेकिन ज़ीनत इस बात से आश्वस्त थीं, कि उसका पति (शुज़ा ख़ां) अपनी बड़ी उम्र के कारण उसके बेटे सरफ़राज़ को गद्दी से बहुत दिनों तक दूर नहीं रख पायेगा। और, इसी बिना पर उसने सरफ़राज़ को फ़िलहाल बंगाल की दीवानी पद पर संतोष करने के लिये मना लिया। साथ ही पति शुज़ा खां को, अपने करतूत
पर खेद व्यक्त करने के बाद बख़्श भी दिया गया।
ज़ीनत-उन-निसा की ज़िंदगी में सबसे जटिल स्थिति तब पैदा हुई, जब बंगाल की मसनद की लड़ाई में बिहार के सूब़ेदार अलीवर्दी ख़ां ने षड्यंत्र रचकर एक युद्ध में उसके बेटे नवाब़ सरफ़राज़ की हत्या कर दी, और उसके बाद गद्दी पर बैठने के पहले ज़ीनत-उन-निसा से मुआफ़ीनामे की गुज़ारिश की। वैसे भी अलीवर्दी ख़ां शुरू से ही ज़ीनत की बहुत क़द्र करता रहा था। इस वाक़िये को क़ुदरत का क़ानून मानकर ज़ीनत ने बंगाल सूबे के भविष्य के हितों को देखते हुए स्थिति को स्वीकार कर लिया और अलीवर्दी खां को मुआफ़ी दे दी।
ग़ौरतलब है, कि मुश्किल हालात में ज़ीनत-उन-निसा के इन फ़ैसलों ने बंगाल के मसनद को लम्बी ज़िंदगी दी थी।
शर्फ़-उन-निसा
बंगाल की 18 वीं सदी की संभ्रांत मुस्लिम महिलाओं में नवाब़ अलीवर्दी खान की पत्नी बेगम शर्फ़-उन-निसा एक ऐसा नाम है, जिसकी सियासत के साथ समाज पर भी मज़बूत पकड़ थी। चाहे अमन का माहौल हो, या जंग का, वह हमेशा साये की तरह अपने शौहर के साथ खड़ी रही। यही कारण था, कि नवाब़ अलीवर्दी ख़ां के दिल में उसके लिये ख़ास जगह रही थी, और वह उसके हरम की वह इकलौती बेगम थी।
अपने शुरुआती वर्षों में मराठा आक्रमण के कारण अलीवर्दी खां को कई परेशानियों का सामना करना पड़ा था। ‘रियाज़-उस-सलातीन’ बताता है, कि मराठा हमले के समय अलीवर्दी ख़ां की अनुपस्थिति में शर्फ़-उन-निसा ने बख़ूबी सर्वोच्च राजनीतिक अधिकारी की भूमिका निभाई थी। इतना ही नहीं, धोखेबाज़ अफ़ग़ान सरदारों की पहचान करने और मराठों को अंततः बंगाल से बाहर खदेड़ने की कूटनीतिक योजना बनाने में भी उसने विशेष भूमिका निभाई थी।
बंगाल के शाही समारोहों को एक नई ऊंचाई देनेवाली नफ़ासत पसंद शर्फ़-उन-निसा अंदर से एक रहमदिल औरत थी। अंग्रेज़ों से झड़प के दौरान नवाब़ सिराजुद्दौला के कलकत्ता पर क़ब्ज़ा जमाने के बाद ‘ब्लैक होल कांड’ में जीवित बचे अंग्रेज़ परिवार के सदस्यों को बंदी बनाकर जब मुर्शिदाबाद लाया गया था, (7 जुलाई, 1756), तो बेगम शर्फ़-उन-निसा के हस्तक्षेप से ही उन्हें मुक्ति मिली थी, अन्यथा उनकी मौत तय थी।
शर्फ़-उन-निसा की कुल तीन बेटियां थीं। जिनमें पहली बेटी, घसीटी बेगम थी, जिसने मीर ज़ाफ़र के साथ मिलकर प्लासी की लड़ाई का षड्यंत्र रचा था। दूसरी बेगम थीं अमीना बेगम, जो बंगाल के आख़िरी स्वतंत्र नवाब़ सिराजुद्दौला की माँ थी, जिसने बंगाल के उत्थान और पतन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
घसीटी बेगम
नवाब़ अलीवर्दी खां, और बेगम शर्फ़-उन-निसा की बड़ी बेटी घसीटी बेगम का नाम बंगाल के 18 वीं सदी के इतिहास में एक ऐसी शख़्सियत के रूप में दर्ज है, जिसकी ज़िंदगी से जुड़ी कुछ घटनाओं ने ईस्ट इंडिया कंपनी और नवाब़ सिराजुद्दौला के बीच ऐसा विवाद पैदा किया जिसका अंज़ाम प्लासी की लड़ाई के शक्ल में सामने आया । उसी की वजह से एक तरफ़ सिराज का पतन हुआ, तो दूसरी ओर ब्रिटिश साम्राज्य की आधारशिला सशक्त हुई। ग़ौरतलब है, कि जिस सिराजुद्दौला के खिलाफ़ उसने षड्यंत्र की घातक बिसात बिछाई थी, वो कोई और नहीं उसकी छोटी बहन अमीना का बेटा था।
घसीटी बेगम के शौहर का नाम नवाज़िश मोहम्मद खां था, जो ओडिशा का गवर्नर था। मुर्शिदाबाद की मोतीझील स्थित आलीशान महल की मालकिन होने के कारण वह ‘मोती झील की बेगम’ के नाम से भी जानी जाती थी।
घसीटी बेगम के दिल में सिराजुद्दौला के प्रति सबसे पहले नफ़रत का भाव तब पैदा हुआ, जब उसके पिता नवाब़ अलीवर्दी खां ने सिराज को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था, जबकि इस पद के लिये वह अपने पति के नाम की उम्मीद लगाये बैठी थी। इस विवाद का दूसरा बड़ा कारण घसीटी बेगम के नाज़िर अली नाम के एक मुलाज़िम से अवैध संबंध होना भी था, जिसे सिराजुद्दौला, शाही ख़ानदान की तौहीनी मानता था। वह इस नाजायज़ संबंध का घोर विरोधी था। यहाँ तक कि, सिराज़ ने घसीटी पर नाज़िर अली का सर क़लम करने का दवाब भी बनाया था। लेकिन उसने सिराजुद्दौला का बात नहीं मानी।
नवाब़ अलीवर्दी खां की मौत होते ही सिराजुद्दौला ने,न सिर्फ़ घसीटी बेगम के मोती झील महल और पूरी जायदाद पर क़ब़्जा कर लिया, बल्कि उसे अपने हरम में नज़रबंद भी करवा दिया। घसीटी के अनुरोध पर सिराज़ ने पहले तो उसे अपने प्रेमी नाज़िर अली के साथ रहने की इजाज़त दे दी, लेकिन घसीटी के नज़रबंद होते ही नाज़िर का क़त्ल करवा दिया।
सिराजुद्दौला की इन कार्रवाईयों से घसीटी तिलमिलाकर बदले की आग में धधक उठी। और उसकी आंखों पर ऐसा पर्दा पड़ा, कि नवाब़ सिराजुद्दौला को गद्दी से उतारने के लिये उसने न सिर्फ़ अंग्रेज़ों के साथ सांठगांठ की, बल्कि सेनापति मीर ज़ाफ़र और ओमीचंद सरीखे लोगों के साथ मिलकर षड्यंत्र का ऐसा जाल बुना, जिसकी परिणिति प्लासी की लड़ाई के रूप में हुई, जिसके अंज़ाम से सभी वाक़िफ़ हैं।
इसे क़ुदरत का इंसाफ़ ही कहा जायेगा, कि बरबादी का इतना बड़ा प्रपंच रचनेवाली घसीटी को इस ख़तरनाक खेल में कुछ भी हासिल नहीं हुआ। उल्टे उसके सबसे बड़े मोहरे मीर ज़ाफ़र के बेटे मीरन ने उसे न सिर्फ़ ढ़ाका के ज़ंजीरा क़िले में क़ैद कर दिया, बल्कि उसे उसकी माँ शर्फ़-उन-निसा (नवाब़ अलीवर्दी खां की बेगम) और उसकी छोटी बहन अमीना बेगम (नवाब़ सिराज़ उद्दौला की माँ) के साथ गंगा में डूबोकर ज़िदगी से भी मेहरूम कर दिया।
अज़ीम उन-निसा
बंगाल की अन्य महत्त्वपूर्ण बेगमों की बात करने के पहले बंगाल के पहले नवाब़ मुर्शिद क़ुली खां की बेटी और नवाब़ शूज़ाउद्दीन मोहम्मद की बेगम अज़ीम-उन-निसा की चर्चा करते हैं। उसके बारे में यह कहानी प्रचलित थी, कि उसे जवान मर्दों के जिगर खाने की लत लग गई थी। माना जाता है, कि वह रोज़ रात में कम उम्र लड़कों के जिगर खाया करती थी। इसी कारण वह ‘कलेजा-खाकी बेगम’ के नाम से भी जानी जाती थी। इस बात की चर्चा इतिहासकार सुदीप चक्रवर्ती ने भी अपनी मशहूर किताब
‘प्लासी: द बैटल दैट चेंज़्ड द कोर्स ऑफ़ इंडियन हिस्ट्री’ में भी की है।
कहते हैं, कि एक बार जब उसे दिल की कोई बीमारी हुई, तो उसके हक़ीम ने उसे दवा के तौर पर जवान मर्दों (या कम उम्र लड़कों) के जिगर खाने को कहा था। बताते हैं, कि ऐसा करने से उसका मर्ज़ तो ठीक हो गया, लेकिन उसे रोज़ रात एक इंसान का जिगर खाने की लत लग गई।
उसकी इस क्रूर आदत की जानकारी जब उसके शौहर नवाब़ शूज़ा उद्दीन को मिली तो उसने अज़ीम-उन-निसा को क़ब्र में ज़िंदा दफ़्न करवा दिया। मुर्शिदाबाद के हज़ार दुआरी पैलेस के निकट, उसकी क़ब़्र को आज लोग ‘ज़िंदा क़ब़र’ कहकर भी पुकारते हैं।
लुत्फ़-उन-निसा
बंगाल की रसूख़वाली बेगमों की दास्तान में यदि किसी एक ऐसी बेगम का नाम लिया जाये, जिसने समृद्धि के शिखर के साथ ही ज़लालत के भी सबसे कड़वे घूंट पिये, तो वह एक नाम है बंगाल के सबसे शक्तिशाली नवाब़ सिराजुद्दौला की बेगम लुत्फ़-उन-निसा का। लुत्फ़-उन-निसा के चरित्र की सबसे बड़ी ख़ासियत यह रही, कि चाहे बुलंदी के दिन हो या गर्दिश के, उसने हर हाल में अपने पति का साथ दिया।
अपनी ज़िंदगी के शुरुआती दिनों में लुत्फ़-उन-निसा एक हिंदू लड़की थी। उसका नाम राज कुंवर था, जो सिराजुद्दौला की अम्माँ अमीना बेगम की दासी थी। राज कुंवर की ख़ूबसूरती और आकर्षक व्यक्तित्व पर सिराज़ ऐसा फ़िदा हुआ कि उसे अपनी बेगम बना लिया और, वह दासी राज कुंवर से बेगम लुत्फ़-उन निसा बन गयी।
ख़तरनाक सियासी हालात के बीच लड़ी गयी प्लासी की जंग में नवाब़ सिराजुद्दौला की शिकस्त के बाद जब सिराज से क़िस्मत ने मुंह फ़ेर लिया, तो उसने मुर्शिदाबाद से पलायन की योजना बनाई, तो बेगम लुत्फ़-न-निसा भी उसके साथ जाने की ज़िद्द पर अड़ गई। सिराज़ ने उसे लाख समझाया, कि ये हालात चंद दिनों के हैं और वह जल्द एक बड़ी फ़ौज के साथ वापस लौटेगा। लेकिन लुत्फ़-उन-निसा अपने शौहर का साथ छोड़ने को तैयार न हुई।
25 जून, 1757 की अंधेरी रात में सिराजुद्दौला अपनी बेगम लुत्फ़-उन-निसा और बेटी ज़ोहरा बेगम के साथ नाव पर सवार होकर नदी मार्ग से निकल पड़ा। वह लोग तीन दिनों तक लगातार भूखे-प्यासे रह कर यात्रा करते रहे। उसके बाद अपनी बीबी-बच्ची के लिये खाने के इंतज़ाम की मंशा से सिराज़, राजमहल (साहबगंज, झारखंड) के निकट गंगा तट पर उतरा, लेकिन खोजी कुत्तों की तरह उसके पीछे पड़े मीर जाफ़र के भेदियों ने उसे गिरफ़्तार कर लिया। फिर उसे बीबी-बच्ची के साथ बंदी बनाकर मुर्शिदाबाद ले जाया गया। मीर जाफ़र के आदेश से सिराजुद्दौला की बेरहमी से हत्या कर दी गई, और और बेगम लुत्फ़-उन-निसा और बेटी ज़ोहरा को क़ैदख़ाने में डाल दिया गया।
चंद महीनों तक क़ैद में रखने के बाद,सन 1758 में लुत्फ़-उन-निसा और उसकी बेटी ज़ोहरा को ढ़ाका के जंज़ीरा क़िले में बंदी बनाकर रखा गया। इस बीच ऐश-ओ-आराम की ज़िंदगी बसर करने का लालच देकर मीर जाफ़र और उसके बेटे मीरन ने लुत्फ़-उन-निसा के पास शादी के प्रस्ताव भेजे। लेकिन उसूलों की पक्की इस महिला ने शादी का प्रस्ताव ठुकरा दिया।
मीरन के इशारे पर ज़ंजीरा क़िले में क़ैद घसीटी बेगम, शर्फ़-उन-निसा बेगम और अमीना बेगम को बूढ़ी गंगा नदी में डूबोकर मार दिया गया।ले किन अंग्रेज़ों की पहल पर बेगम लुत्फ़-उन-निसा और उसकी बेटी ज़ोहरा बेगम को वापस मुर्शिदाबाद लाया गया।
अपनी ज़िंदगी के इस आख़िरी मुक़ाम पर बेगम लुत्फ़-उन-निसा के बार-बार अर्ज़ी डालने पर भी अंग्रेज़ हुक्मरानों ने उसकी, तक़रीबन 5-6 सौ रुपये की पेंशन को नहीं बढ़ाया। इसी छोटी-सी रक़म से उन्होंने अपनी चार नातियों की परवरिश की। बेज़ार-सी ज़िंदगी गुजारते हुए बंगाल की इस बेगम ने नवम्बर, सन 1790 को अपनी अंतिम सांस ली।
मुन्नी बेगम
मुन्नी बेगम बंगाल के नवाब़ सिराज़ उद्दौला के सेनापति रहे मीर जाफ़र की पत्नी थी। मीर जाफ़र को इतिहास के सबसे बड़े धोखेबाज़ के तौर पर जाना जाता है। प्लासी की लड़ाई में अंग्रेज़ों का साथ देकर नवाब़ सिराजुद्दौला के शिकस्त का प्लॉट रचनेवाली इस जोड़ी को ‘इनाम’ से नवाज़ते हुए अंग्रेज़ों ने जहाँ मीर जाफ़र को बंगाल की गद्दी पर बैठाया, वहीं मुन्नी बेगम को ‘द मदर ऑफ़ द कंपनी’ का ख़िताब दिया था।
मुन्नी बेगम का बचपन ग़रीबी में बीता था, जो तवायफ़ों के एक दल के साथ, एक शादी के जश्न में शिरकत करने मुर्शिदाबाद आयी थी। उसकी बेपनाह ख़ूबसूरती को देख मीर जाफ़र का दिल उस पर इस क़दर आ गया, कि उसे अपने हरम की मुख्य बेगम बना डाला। आगे चलकर अपनी तेज़-तर्रार बुद्धि से उसने शासन पर अपनी ऐसी धाक जमायी कि ‘गद्दीनशीन बेगम’ कहलाने लगी जिसके लिये अलग से वजीफ़े मुक़र्रर किये गये थे।
बंगाल के गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स और लॉर्ड रोबर्ट क्लाईव के साथ उसके नज़दीकी संबंध थे। इसीलिये उसे ‘द मदर ऑफ़ कंपनी’ के ख़िताब से नवाज़ते हुए लॉर्ड क्लाईव ने कहा था, “मैं पूरी संजीदगी से ख़ुद को और अंग्रेज़ों की पूरी इज़्ज़तदार बिरादरी को आपकी (मुन्नी बेगम) संतान मानते हुए पुत्रवत भाव रखता हूँ।”
मीर जाफ़र की बेवा मुन्नी बेगम के लिये अंग्रेज़ों ने 12 हज़ार रुपये का माहवारी वज़ीफ़ा तय कर रखा था। अपनी मृत्यु के वक़्त भी मुन्नी बेगम के पास 15 लाख रुपये से भी ज़्यादा मूल्य की सम्पत्ति थी। इतना ही नहीं, मुन्नी बेगम की मौत पर, गवर्नर जनरल के हुक्म से, कलकत्ता में ‘फ़ोर्ट विलियम’ की प्राचीर पर, उसके सम्मान में झंडे को आधा झुका दिया गया था। आज भी मुर्शिदाबाद पैलेस के नज़दीक, सन 1767 में ,मुन्नी बेगम की बनवाई गई आलीशान चौक मस्जिद उसकी निशानी के रूप में खड़ी है।
तो ऐसी है बंगाल की बेगमों की उतार चढाव वाली दास्तान, इसीलिए ‘बेगम्स ऑफ़ बंगाल’ के लेखक ब्रजेंद्र नाथ बनर्जी की इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता, “भले ही शक्ति और समृद्धि के शिखर पर पहुंचने के बाद ढ़लान से लुढ़ते, बंगाल की सत्ता से दूर होते उत्तराधिकारियों और उनकी बेगमों की कहानियों ने इतिहासकारों को उतना चमत्कृत नहीं किया हो, लेकिन 18 वीं सदी में मुर्शिदाबाद के शाही महलों में पर्दे के पीछे रहनेवाली इन बेगमों की दास्तानों में बंगाल का इतिहास छिपा है।”
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