समधारा का युद्ध: मुग़लों पर अहोम की पहली विजय

असम में विशाल ब्रह्मपुत्र नदी पर बना कोलिया भोभोरा पुल दो किनारों को जोड़ने वाली एक महत्वपूर्ण कड़ी है, जो इसके उत्तरी तट पर स्थित तेज़पुर शहर को दक्षिण तट पर स्थित नगांव ज़िले से जोड़ता है। इस पुल के महत्वपूर्ण होने का एक कारण ये भी है, कि यहां ब्रह्मपुत्र और भरेली नदी (अब कमेंद नदी) का संगम होता है। इस क्षेत्र के इतिहास में इसका बहुत महत्व है।

ये स्थान बहुत ही सुंदर है और पुल से वाहन में सेर करते समय सूर्यास्त की सुंदरता को निहारा जा सकता है। ये वही क्षेत्र है जहां 17वीं शताब्दी में भयानक युद्ध हुआ था।

यहीं पर इन दो नदियों के तटों पर दो शक्तिशाली साम्राज्यों, अहोम और मुग़ल के बीच पहली बार जंग हुई थी, और यहीं पर समधारा की लड़ाई ( सन 1616 ) में अहोम ने मुग़लों पर अपनी पहली जीत दर्ज की थी।

इस ऐतिहासिक युद्ध का एकमात्र प्रमाण एक विशाल शिलालेख है, जिसे तत्कालीन अहोम जनरल कोलिया भोमोरा बोरफुकन ने बनवाया था, और इस ऐतिहासिक विजय की याद में ही इस पुल का नाम इसी जनरल के नाम पर रखा गया है। पुल के तेज़पुर वाले छोर पर स्थित है ‘भोमोरा गुरी रॉक शिलालेख’,  जो मुग़लों पर अहोम राजा स्वर्गदेव प्रताप सिंघा की जीत और समधारा किले के निर्माण का गवाह है।

समधारा की लड़ाई अहोम और मुगलों के बीच 50 वर्षों के संघर्ष की शुरुआत थी, जो सन 1682 में इटाखुली के युद्ध के साथ समाप्त हुआ।

इससे पहले की कहानी

तत्कालीन कोच साम्राज्य दो साम्राज्यों में बंट गया था, और प्रत्येक साम्राज्य का एक राजा होता था- पूर्वी कोच साम्राज्य, या ‘कोच हाजो’ पर परीक्षित शासन करता था।यह साम्राज्य पश्चिम में संकोश नदी(गदाधर नदी) से पूर्व में भरेली नदी तक फैला हुआ था।

पश्चिमी कोच साम्राज्य या ‘कोच बिहार’ पर महाराजा लक्ष्मीनारायण का शासन था, जो अकुशल शासक था।ये साम्राज्य पश्चिम में तिरहुत से लेकर पूर्व में संकोश नदी तक और दक्षिण में घोरघट से लेकर उत्तर में भूटान तक फैला हुआ था।मुग़ल सम्राट अकबर और जहांगीर के कई हमलों के बाद कोचबिहार साम्राज्य को मुग़ल आधिपत्य स्वीकार करना पड़ा, और वह मुग़लों के मातहात हो गया। लेकिन कोच हाजो के शासक परीक्षित ने हार नहीं मानी।

मुग़लों का आधिपत्य स्वीकार करने के बजाय परीक्षित ने अहोम और मयमनसिंह और दक्षिण सिलहट क्षेत्रों के अफ़ग़ान सरदारों के साथ गठबंधन करने की कोशिश की। अहोम राजा स्वर्गदेव प्रताप सिंघा  काफी चतुर था। उसे लगा कि, कोच हाजो के साथ गठबंधन करने से मुग़ल उसके दरवाज़े तक आ पहुंच जायेंगे, इसीलिए वह सन 1608 तक, यानी परीक्षित की बेटी से शादी करने तक गठबंधन के मामले में टालता रहा ।

सन 1615 में परीक्षित ने कोचबिहार क्षेत्रों में फिर हमले किये, जिसकी शुरुआत उसके पिता ने की थी। इन हमलों का जवाब देने के लिये महाराजा लक्ष्मीनारायण ने मुग़लों से मदद मांगी। बंगाल के मुग़ल सूबेदार इस्लाम ख़ां ने मुक्करम ख़ां के नेतृत्व में परीक्षित की सेना से लड़ने के लिये एक सेना भेजी। परीक्षित ने इस युद्ध के लिये अहोम के साथ-साथ अफ़ग़ानों से भी मदद मांगी थी, लेकिन इनमें से किसी ने भी उसकी मदद नहीं की। एक तरफ़ जहां अहोम अलग-थलग थे, वहीं सन 1612 में हार के बाद अफ़ग़ान मुग़लों के अधीन हो गये थे।

जैसी कि आशंका थी, परीक्षित की बुरी तरह हार हुई और उसके साम्राज्य पर मुग़लों का कब्ज़ा हो गया। उसके भाई बलीनारायण ने अहोम साम्राज्य में शरण ले ली थी। मुग़लों ने मुकर्रम ख़ां के नेतृत्व में हाजो को अपना मुख्यालय बना लिया था ।

असम में मुग़ल क्षेत्र बरनादी नदी तक फैल चुका था। अहोम मुगलों के साथ व्यापारिक संबंध बनाने के लिए उत्सुक नहीं थे, लेकिन मुग़ल असम के समृद्ध प्राकृतिक संसाधनों- हाथी, हिरण, मुसब्बर-लकड़ी, जड़ी-बूटियां और सुगंधित पौधे, काली मिर्च और तंबाकू हासिल करना चाहते थे।

इन प्राकृतिक संसाधनों के लालच में मुग़ल अहोम साम्राज्य के भीतर भराली नदी तक ग़ैर-क़ानूनी तरीक़े से व्यापार करने लगे, और यही आने वाले वर्षों में अहोम और मुगलों के बीच टकराव का मुख्य कारण बना।

युद्ध का आव्हान

दो शक्तिशाली साम्राज्यों के बीच पहला संगठित संघर्ष अहोम द्वारा अहोम क्षेत्र में अवैध मुग़ल नावों को ज़ब्त करने और मुग़ल व्यापारियों को पकड़ने के बाद शुरू हुआ। अहोम की ये कार्रवाई एक बहुत बड़ी लड़ाई को उकसाने के लिए काफ़ी थी। बंगाल के मुग़ल सूबेदार शेख़ क़ासिम ख़ां ने शाही अधिकारी सैयद हाकिम और अपने भरोसेमंद अधिकारी सैयद अबूबक्र को दस हज़ार घुड़सवार और पैदल सेना तथा दो सौ बंदूक धारियों और चार सौ बड़ी युद्ध-नौकाओं के साथ हाजो भेजा।

शाही सेना का पहला जत्था सन 1615 के मध्य, मानसून में बाज़रापुर (अब बांग्लादेश में) से रवाना हुआ। उसके साथ ढाका के पास रहने वाले एक ज़मींदार का बेटा सत्तरजीत भी था, जिसने परीक्षित के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी, और उसकी सेवाओं के लिए उसे पांडु और गुवाहाटी का थानेदार बनाया गया था। अखेक गोहेन नाम का एक अहोम कमांडर, जिसे कुछ साल पहले सेवा से बर्ख़ास्त कर दिया गया था, भी मुग़लों के साथ था।

मुग़लों के हमले की शुरुआत कलंग/ कोपिली नदी और ब्रह्मपुत्र नदी (वर्तमान में पानी खैती के पास) के संगम पर स्थित सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण अहोम चौकी से हुई। मुग़ल आसानी से जीत गये और अहोम भरेली नदी के मुहाने पर स्थित समधारा वापस चले गये।

स्वर्गदेव प्रताप सिंघा को जैसे ही मुग़लों के आगे बढ़ने की जानकारी मिली, तभी उसने अपने मंत्री बुरागोहेन, बोरगोहेन, सदिया-खोवागोहेन और शाही राजकुमार सरिंग राजा को दुश्मन से लड़ने के लिए भेजा। अधिकारियों की टुकड़ी समधारा क़िले में रुकी, और अपनी सुरक्षा मज़बूत करने लगी। राजा समधारा क़िले के पास कथलबाड़ी क़िले में रुके।

मुग़लों ने कालियाबोड़ के पास ब्रह्मपुत्र नदी की विपरीत दिशा में अपने तंबू गाड़े। नदी के तेज़ बहाव के कारण मुग़लों का,भराली नदी पार करने का पहला प्रयास असफल रहा, और उन्हें अहोम सेना ने खदेड़ दिया। इसके बाद मुग़लों ने भराली नदी के दूसरे छोर पर अपना अड्डा बनाया।

मुग़लों का दूसरा प्रयास सफल रहा, क्योंकि उन्होंने अपने घुड़सवारों को जहाज़ों के ज़रिये नदी के दूसरी तरफ़ पहुँचा दिया था, और कोहरे का फ़ायदा उठाते हुए अहोम सेना को मात दे दी। अहोम बुरी तरह से हार गए, और उन्हें अपने क़िले में वापस लौटना पड़ा। दुश्मनों ने क़िले के एक कमांडर बिंगशा पात्रा को पकड़ लिया।

जवाबी हमला

इस जीत के बाद मुग़लों ने और हमले नहीं किये।जब हार की ख़बर अहोम राजा स्वर्गदेव प्रताप सिंघा तक पहुंची, तो उन्होंने 14,000 सैनिकों की एक और टुकड़ी  भेजी। सेनापतियों ने किले की ओर कूच किया, और किले और उसके प्राचीर की मरम्मत करवाई।लेकिन उन्होंने मुगलों पर हमला नहीं किया। प्रताप सिंघा ने तब कुछ धारदार उपकरणों और संदेश के साथ एकदूत भेजा। जैसा कि, जी.एस.बरुआ के “अहोम बुरांजी” के अनुवाद में उल्लेख किया गया है:

दिव्य राजा ने आदेश दिया है कि, जो कोई युद्ध के मैदान से पीछे हटेगा या भागेगा, उसे कड़ी सजा दी जाएगी।सबके सामने उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिये जाएंगे।

चेतावनी कारगरा साबित हुई, और अधिकारियों ने मुग़ल शिविरों पर हमले की रणनीति तैयार की। भरेली नदी के ऊपर नावों के तीन पुल बनाने का काम शुरू हो गया था, और जासूसों की मुग़ल शिविरों में घुसपैठ करवा दी गई थी। इसके अलावा अतिरिक्त सैनिक भेजने का भी अनुरोध किया गया। भरेली नदी के मुहाने पर स्थित भंडार पर क़ब्ज़ा कर लिया गया था, जो हमलों के लिए एक आधार बन गया था।

जासूस इस जानकारी के साथ वापस आये, कि रेतीली ज़मीन की वजह से मुग़ल क़िला कमज़ोर है, और ठीक से सुरक्षित भी नहीं है। इसके अलावा आसपास के जंगलों को साफ़ नहीं किया गया है। मुग़ल कमांडर ने अहोम सेना की ताक़त को कम करके आंका था, और किसी भी आपात स्थिति के लिए तैयार नहीं था।इस जानकारी से लैस, अहोम सेना ने मुग़ल क़िले के आसपास के जंगलों पर कब्ज़ा कर लिया।वे मुग़ल ठिकानों पर हमला करने के लिए सही समय की प्रतीक्षा करने लगे।

अहोम से माफ़ी का वादा मिलने के बाद, मुग़लों का साथ छोड़ने वाले अखेक गोहेन ने अहोम को रात में हमला कर ने की सलाह दी। इस तरह सन 1616 में जनवरी के मध्य में एक सर्द रात में कोहरे का लाभ उठाते हुए, अहोम सेना ने नाव के तीन पुलों पर भरेली नदी को पार किया, और मुग़ल शिविरों पर हमला कर दिया। इस हमले में मुग़लों की बुरी तरह हार हुई।

अहोम ने एक नौसैनिक हमला भी किया, और मुग़लों को चारों ओर से घेर लिया, जहां से बचके निकलना नामुमकिन था। मुग़ल कमांडर सैयद अबूबक्र भागने की कोशिश में मारा गया। यहां तक ​​​कि, मुग़लों की अतिरिक्त सेना को भी हार का मुंह देखना पड़ा।

युद्ध में मुग़लों के हज़ारों लोगों की जानें गईं। बहारिस्तान-ए-ग़ैबी (बंगाल, बिहार और असम के मुग़ल इतिहास का वर्णन) के अनुसार, 1700 सैनिक मारे गए, 3400 घायल हुए, 3000 जंगलों में छिप गए और 9000 को बंदी बना लिया गया। कुछ कमांडर भागने में सफल रहे।

युद्ध के बाद अहोम के हाथों भारी ख़ज़ाना लगा जिसमें तलवारें, भाले, बंदूकें, जंगी-नावें, हाथी, घोड़े, तोप और युद्ध के अन्य हथियार शामिल थे।जीत की ख़बर मिलने और युद्ध की लूट का आंकलन करने के बाद, अहोम राजा प्रताप सिंघा ने ‘रिक्खवन’  अनुष्ठान करवाया। ताई अहोम अनुष्ठान दीर्घायु के लिये किया जाता था।

प्रताप सिंघा ने अपनी जीत के उपलक्ष्य में समधारा  में एक किले का निर्माण भी करवाया। उसके सेनापति कोलिया भोमोरा बोरफुकन ने एक विशाल शिलालेख बनवाया, जो इस ऐतिहासिक युद्ध का गवाह है।

इस पर लिखा है:

इसका अनुवाद कुछ इस तरह है:

सबका मंगल हो!! मंगल सूचक श्री श्री स्वर्गनारायण देव ने मुग़लों को परास्त कर दिया, फिर पहाड़ियों को काटकर भंडारी गोसाईं ने एक क़िला बनवाया।शक 1538 ।

समधारा की लड़ाई का नतीजा अहोम के लिए फ़ायदेमंद साबित हुआ। भराली नदी से बरनादी नदी तक अहोम साम्राज्य की पश्चिमी सीमा पश्चिम की ओर स्थानांतरित हो गई। परीक्षित के भगोड़े भाई बलीनारायण को ‘धर्मनारायण’ की उपाधि के साथ दरांग का सहायक राजा बना दिया गया। उसका क्षेत्र पूर्व में बरनादी नदी से लेकर पश्चिम में संकोश नदी तक फैला हुआ था।

एक नाटकीय मोड़ में बर्ख़ास्त किए गए अहोम कमांडर अखेक गोहेन को दी गई माफ़ी को रद्दकर, उसे मौत के घाट उतार दिया गया।पादशाह नामा (मुग़ल बादशाह शाहजहाँ का आधिकारिक इतिहास) के अनुसार,  असम में विनाशकारी नुक़सान के कारण, बंगाल के मुग़ल सूबेदार क़ासिम खां को उसके पद से हटा दिया गया था।

हालांकि, अहोम विजयी थे, लेकिन शांति ज़्यादा समय तक नहीं रह सकी।कामरूप क्षेत्र में स्थानीय पहाड़ी सरदारों ने स्थानीय मुग़ल सरकार के ख़िलाफ़ विद्रोह कर दिया, और पांडु के क़िले पर हमला कर दिया। इस तरह अहोम को फिर मुग़लों से भिड़ना पड़ा। यह सरायघाट की निर्णायक लड़ाई थी, जो सन 1671 में प्रसिद्ध जनरल लाचित बोरफुकन के नेतृत्व में लड़ी गई थी, इसमें मुग़लों पर अहोम की निर्णायक जीत हुई।

आज, भोमोरागुरी ऐतिहासिक शिला मुग़लों पर पहली असमिया जीत की एकमात्र निशानी है।

वहां कैसे पहुंचे-

‘भोमोरागुरी ऐतिहासिक शिला’ कोलिया भोमोरा सेतु के तेज़पुर की तरफ़ स्थित है।यह गुवाहाटी से172 किलोमीटर दूर है।

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