‘‘कमधज बल्लू यूं कहे, सहसूणों सिरदार
बैरे अमर रो बालस्या, मुगला हुनै मार,,
आज आपको मारवाड़ के एक ऐसे शूरवीर की कहानी से रूबरू करवाएगें जिनके एक नहीं,दो नहीं, तीन बार दाह संस्कार हुए। एक ऐसा वीर जो दो बार वीरगति को प्राप्त हुआ तथा जिसका तीन बार दाह संस्कार किया गया।
ऐसे महायोद्धा की रोचक गाथा:
राजस्थान की इस धरती पर एक से बढ़कर एक त्यागी, आत्म-सम्मानी वीर-शूरवीर हुए हैं। उन वीरों की अपूर्व पराक्रम और अपनी मातृभूमि पर मर मिटने की चाह के आख्यान, क़िस्से, लोक गाथाएं यहां के गौरवशाली इतिहास की साक्षी हैं। ऐसे ही एक वीर बल्लू जी चम्पावत, जो स्वामी भक्ति, वचन बद्धता, मानवीय गरीमा, प्रचण्ड साहस, उज्जवल चरित्र और निष्ठा जैसे कई गुणों के प्रतीक थे। उनका जन्म मारवाड़ के हरसोलाव गाँव में, ज्येष्ठ सुदी तीज सन 1648 को, राव गोपालदास जी के यहाँ हुआ था। इनकी माता महाकंवर भटियाणी बीकमपुर के राव गोविन्ददास की पुत्री थीं। उस समय हिन्दूस्तान में मुग़ल सत्ता की जड़ें जम चुकी थीं। वहीं राजपूताना में भी मेवाड़ के अलावा सभी राज्य मुग़ल सत्ता से अपने रिश्ते जोड़ चुके थे।
उस समय मारवाड़ (जोधपुर) पर महाराजा गजसिंह (प्रथम) का शासन था। जब बल्लूजी युवा थे तब उनकी बहादूरी के क़िस्से मारवाड़ दरबार तक पहुंच गए । तब महाराजा ने उन्हें ससम्मान आमंत्रित किया था। उन्हें मारवाड़ में युवराज अमरसिंह और जसवंतसिंह के प्रशिक्षण का कार्य सौंपा गया। लेकिन जब मारवाड़ गद्दी के उत्तराधिकारी की राजकीय घोषणा हुई तो महाराजा ने अपने बड़े पुत्र अमरसिंह के बजाय छोटे पुत्र जसवंतसिंह को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया । अमरसिंह राठौड़ को नागौर की जागीर प्रदान की गई। इससे नाराज़ होकर अमरसिंह दिल्ली के बादशाह शाहजहाँ की सेवा में चले गए । उनके साथ बल्लूजी भी चले गए । मगर कुछ समय बाद बल्लूजी फिर मारवाड़ आ गए और कुछ समय बीकानेर, जयपुर, बूंदी और महाराणा मेवाड़ के यहाँ अपनी सेवाएं देते रहे ।
महाराणा मेवाड़ जगतसिंह ने उन्हें नीलधवल नामक एक प्रसिद्ध घोड़ा भी प्रदान किया था। इन सभी जगहों पर किए गए उत्कृष्ट कार्यों से वहां के अन्य जागीरदारों को बल्लूजी से ईष्र्या होने लगी। इस प्रकार की बातें सुनकर अमरसिंह ने अपने सखा बल्लूजी चम्पावत को दोबारा अपने पास दिल्ली बुला लिया। वह इनकी स्वाभिमान भक्ति से अच्छी तरह परिचित थे। उनके वंशज ठाकुर देवेन्द्रसिंह चम्पावत बताते हैं कि वीर बल्लूजी के शौर्य की कहीनियों से इतिहास भरा पड़ा है। वीर बल्लूजी इतिहास में इसलिए अमर हैं क्योंकि उन्होंने एक उलाहने को सत्य साबित करने के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए थे। यहां की लोक कथाओं में प्रचलित दाह संस्कारों में उनका पहला दाह संस्कार आगरा क़िले के पास हुआ था। आगरा के दरबार में बक़्शी सलावत खां ने वीर अमरसिंह के बारे में अपमानजनक बातें कहीं थीं। वीर अमरसिंह ने उसी समय बक़्शी की हत्या कर दी थी।
इसके बाद सन 1701 सावन सुदी 2 (25 जुलाई सन 1644) को, आगरा के इसी क़िले में विश्वासघाती अर्जुन गौड ने, वीर अमरसिंह राठौड़ का वध करके बादशाह के आदेशानुसार उनके पार्थिव देह को क़िले के बुर्ज पर रखवा दिया था। उनकी हाडी रानी ने वीर बल्लूजी को बुलावा भेजा क्योंकि उन्होंने संकट के समय सहायता करने का वचन दिया था । ऐसी विकट परिस्थिति में बल्लूजी ने अपनी सूझबूझ से काम लिया और उन्होंने बादशाह से अपने स्वामी अमरसिंह के अंतिम दर्शन करने की अनुमति माँगी। तब क़िले का मुख्य दरवाज़ा खोला गया। उसी मेवाड़ी घोड़े पर सवार होकर बल्लूजी जब अन्दर गए तो दरवाज़ा बन्द कर क़िले की सुरक्षा बढ़ा दी गई। मगर बल्लूजी ने पहले से ही योजना बना रखी थी। सामने खड़े बादशाह से बल्लूजी ने कहा कि जो होना था वो हो गया अब मैं अपने वतन लौटना चाहता हूँ पर वापसी से पहले अपने स्वामी को प्रणाम करने आया हूँ।
चारों ओर मुग़ल सैनिकों का ज़ोरदार घेरा बनाया हुआ था। बल्लूजी ने घोड़े से उतरकर अमरसिंह जी की देह को प्रणाम किया ओर पलक झपकते ही देह को अपने कंधे पर लादकर घोड़े को बिजली की गति से सरपट दौड़ते हुए क़िले की एक बुर्ज (प्राचीर) से नीचे छलांग लगा दी। चारों ओर हा-हाकार और मुग़ल सैनिकों में हड़कम्प मच गया। फिर उन्होंने अमरसिंहजी की देह उनकी रानियों को सौंपकर अपना वचन पूरा किया। उसके बाद वह, भावसिंहजी कुम्पावत, गिरधरजी व्यास सहित अन्य नागौरी शूरवीरों के साथ मिलकर मुग़ल सैनिकों को अपनी तलवार के जौहर दिखाकर “झुंझार” हो गए। लोक कथाओं के अनुसार सिर कटने के बाद भी दुश्मनों से लड़ने वाले को “झुंझार” कहते हैं। इस प्रकार उस वीर का पहला दाह संस्कार यमुना नदी के किनारे हुआ था। यहाँ उनकी स्मृति में एक स्मारक भी बना हुआ है।
दूसरा दाह संस्कार:
जब मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब ने मेवाड़ पर चढ़ाई की तब उदयपुर के महाराणा जगतसिंह जी से उनकी फौज के साथ देबारी के घाटे पर 4 जनवरी सन 1680 को भीषण युद्ध हुआ। मुग़ल सेना ज़्यादा ताक़तवर होने के कारण मेवाड़ी की फौज कमज़ोर पड़ने लगी तभी महाराणा ने वीर बल्लू चम्पावत को याद किया और भरे नेत्रों से कहा ‘हे रणबांके राठौड़ बल्लूजी आज इस मेवाड़ की इज़्ज़त आपके हाथों में है। उस वचन का क्या होगा जो आपने आपने मुझे दिया था?’ थोड़ी देर बाद ही महाराणा सहित अन्य लोगों ने देखा कि बल्लूजी उसी नीलधवल मेवाड़ी घोड़े पर सवार होकर बादशाही सेना से युद्ध कर रहे थे। इस युद्ध में मुग़ल सेना के छक्के छुड़ाकर बल्लूजी पुनः वीरगति को प्राप्त हुए और यहां उनका दूसरा दाह संस्कार किया गया। इनकी स्मृति में एक छतरी का निर्माण यहां भी करवाया गया था ।
तीसरा दाह संस्कार:
तीसरे दाह संस्कार के संबंध में बड़ी ही हैरतअंगेज़ या आश्चर्यचकित करने वाली दिसचस्प कहानी बताई गई है। बल्लूजी ने एक बार आगरा के एक साहुकार से, अपने सैनिकों के लिए कुछ रूपए उधार लिए थे। उसके बदले में उन्होंने अपनी मूंछ का एक बाल गिरवी रखा दिया था। बल्लूजी की मृत्यू के वर्षों बाद साहूकार, चांदी की डिबिया में, मख़मल के कपड़े में लिपटा, बल्लूजी का वो बाल हरसोलाव गढ़ लेकर आया। बल्लूजी चांपावत की पांचवी पीढ़ी के ठाकुर सूरतसिंह ने उस बाल को ग्रहण कर विधिवत उसका अन्तिम संस्कार किया तथा साहूकार के परिवार को ब्याज सहित रूपए वापस किए।
इस प्रकार मारवाड़ के शौर्य के इतिहास में एक अनोखा प्रेरक प्रसंग इस वीर के तीन बार दाह संस्कार का प्रचलित है। गांव में राव बल्लूजी चम्पावत स्मृति एवं शोध संस्थान हर साल एक समारोह का आयोजन करता है,जहां उन्हें श्रद्वासुमन अर्पित किए जाते हैं ।
‘’बल्लू थारी वीरता, अंजसै कव चित आव
चांपा हरखै चाव सूं, हरखै हरसोलाव,,
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