बाजी राउत: सबसे कम उम्र का क्रांतिकारी

बाजी राउत: सबसे कम उम्र का क्रांतिकारी

ये चिता नहीं है दोस्तों!

जब देश अंधेरे में, निराशा में है,

ये हमारी स्वतंत्रता का प्रकाश है!

ये हमारी स्वतंत्रता अग्नि है!

यह पंक्तियां प्रसिद्ध उड़िया कवि सच्चिदानंद राउतराय की हैं। इसी कविता पर उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया गया था। कविता बाजी राउत एक लड़के बाजी राउत के बारे में लिखी गयीं थी , जिसने सिर्फ़ बारह साल की उम्र में भारत की आज़ादी के लिए अपना जीवन बलिदान कर दिया था।

सच्चिदानन्द राउतराय | विकिमीडिया कॉमन्स

बाजी राउत भारत के लिये शहादत देने वाले सबसे कम उम्र के क्रांतिकारी थे। उनकी कहानी स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भारतीय बच्चों के योगदान का एक बड़ा उदाहरण है।  

5 अक्टूबर सन 1926 में ओडिशा के ढ़ेंकनाल ज़िले के नीलकंठपुर गांव में जन्में बाजी का बचपन परेशानियों से भरा रहा। अपने जन्म के कुछ ही वर्षों में उन्होंने अपने पिता को खो दिया था। उनकी देखभाल उसकी मां करती थीं, जो पड़ोस में चावल में से भूसी निकालने का काम करती थीं । यह वह समय था, जब अंग्रेज़ों के वफ़ादार ढ़ेंकनाल के शासक शंकर प्रताप सिंह देव महेंद्र के अत्याचार तमाम हदें पार कर चुके थे। उसने अपनी प्रजा पर वफ़ादारी कर लगा दिया था। जो भी व्यक्ति वह कर नहीं देता था उसे शाही हाथियों से कुचलवा दिया जाता था और उस व्यक्ति की संपत्ति को भी ज़ब्त कर लिया जाता था। बाजी की मां भी शंकर प्रताप सिंह देव महेंद्र के ज़ुल्मों की शिकार हो चुकी थीं। उन्हें अक्सर शाही सैनिक परेशान करते थे, जिसे देखकर बाजी को ग़ुस्सा आता था।  

इसी दौरान 1938 में बैष्णब चरण पटनायक (1914-2013) के नेतृत्व में प्रजामंडल आंदोलन शुरु हो गया। उन्हें बाद में वीर बैष्णबके नाम ले जाना गया। उनका उद्देश्य ढ़ेंकनाल के लोगों के जीवन में सुधार लाना और शासकों की क्रूरता के ख़िलाफ़ लड़ना था।

खिलौनों के साथ खेलने की उम्र में बाजी बानर सेना‘ (रामायण से प्रेरित अवधारणा) के सदस्य के रूप में आंदोलन में शामिल हो गये। उन्हें रात में नीलकंठपुर घाट पर दो नाविक लक्ष्मण मलिक और फागू साहू के साथ नदी के किनारे पर पहरा देने का काम सौंपा गया था, ताकि क्रांतिकारी नदी पार कर सकें और अंग्रेज़ नदी पार न कर सकें।

इस दौरान आंदोलन को ढ़ेंकनाल के भीतर बड़े पैमाने पर समर्थन मिलने लगा। आंदोलन को कुचलने और बैष्णब को पकड़ने के लिये शंकर ने अंग्रेज़ों से मदद मांगी। अंग्रेज़ों ने पुलिस बल भेजा। अंग्रेज़ पुलिस ने 10 अक्टूबर, सन 1938 की आधी रात भुबन गांव पर हमला किया और वैष्णब के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए कुछ लोगों को गिरफ़्तार किया, और उन्हें भुबन पुलिस स्टेशन ले गये। इससे स्थानीय लोगों में ग़ुस्सा पैदा हो गया और वे थाने का घेराव कर अपने गिरफ्तार साथियों की रिहाई की मांग करने लगे। 

मामले तब और बिगड़ गया जब बातचीत किये बग़ैर अंग्रेज़ो ने विरोध करने वाले ग्रामीणों पर गोलियां चला दीं, जिसमें कई लोग मारे गये और कई घायल हुए। जैसे ही प्रदर्शनकारियों की संख्या बढ़ी, अंग्रेज़ो के पास अपनी जान बचाकर भागने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा। उन्होंने अपने मुख्यालय पहुंचने के लिये सबसे छोटा मार्ग नीलकंठपुर घाट चुना।जब ब्रिटिश पुलिस नीलकंठपुर घाट पर पहुंची, तब तक आधी रात हो चुकी थी। वहां बाजी अपने साथियों के साथ चौकसी कर रहे थे, और उनके पास अपनी देशी नाव थी। अंग्रेज़ों ने जब बाजी से उन्हें नदी पार कराने को कहा, तो बाजी और उनके साथियों ने मना कर दिया। इससे नाराज़ होकर पुलिस ने बाजी और उसके साथियों को अपनी बंदूक़ों के कुंदे से उन्हें पीटना शुरू कर दिया।

सुदर्शन पटनायक द्वारा रचित बाजी राउत पर रेत कलाकृति | ओडिशा बाइट्स

बाजी रोये और दर्द से ज़ोरज़ोर से चिल्लाये। उनके रोने की आवाज़ से उनके गांव के लोगों को अंग्रेज़ों की मौजूदगी के बारे में भनक लग गई। लेकिन जब बाजी और ज़ोर से चीख़ने लगे, तो अंग्रेज़ों ने उन्हें गोली मार दी और ख़ुद ही नावों में बैठकर नदी पार कर ली। बाजी का पूरे सम्मान के साथ दाह संस्कार किया गया। उनके शव को ख़ुद बैष्णब ने कंधा दिया और चिता को भी उन्होंने ही अग्नि दी। वैष्णब ने ही बाजी को सबसे कम उम्र के शहीद का ख़िताब दिया। 

बाजी के बलिदान ने प्रजामंडल के कार्यकर्ताओं को प्रेरित किया, और पड़ोसी राज्यों में लोगों ने नो-रेंट अभियान शुरू कर दिया। इसके बाद किसानों, शासकों और राजस्व आयुक्तों के बीच बातचीत हुई, जिसमें कांग्रेस के नेता भी शामिल थे। सन 1947 में भारत के स्वतंत्र हो गया और ढ़ेंकनाल नवगठित राज्य ओडिशा का ज़िला बन गया। ओडिशा के पहले मुख्यमंत्री बीजू पटनायक (1916-1997) बने। उन्होंने राज्य में संघवाद और समाजवाद का माहौल बनाया। तब से  ढ़ेंकनाल में कई प्रशासनिक, राजनीतिक और सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन हुये।

बाजी राउत के नाम पर रखा गया दंगापाला, रेलवे जंक्शन | विकिमीडिया कॉमन्स

बाजी की वीरता प्रसिद्ध उड़िया कवि सच्चिदानंद राउतराय की कविता बाजी राउतमें अमर हो गई, जिसके लिये उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।सन 2018 में  बाजी के बलिदान पर एक लघु फ़िल्म बनाई गई। आज  आई.आई.टी. बॉम्बे में उत्कल कल्चरल एसोसिएशन हर साल उत्कल दिवस (ओडिशा दिवस) पर विज्ञान, सामाजिक कार्य और उद्यमिता जैसे विभिन्न क्षेत्रों में ओडिशा के एक युवा को बाजी राउत सम्मानसे सम्मानित करता है।

मुख्य चित्र: बाजी राउत-ओडिशा बाइट्स

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