इतिहास गवाह है, कि लैला-मजनूं की सच्ची प्रेम कहानी के मुख्य नायक मजनूँ,जिसका असल नाम क़ैस था, का जन्म सन 734 ईस्वी में यमन (मौजूदा नाम यामिनी रिपब्लिक एवं अल-जम्हूरियत अल-यामनिया) में हुआ था। ख़लिफ़ा हशाम की अमलदारी में क़ैस, उम्मिया घराने का मुखिया था। उधर उसकी मेहबूबा लैला, जिसका असल नाम लैली (साऊदी अरब में लैला को लैईला नाम से पुकारा जाता है) था। उसका जन्म साऊदी अरब के सितारा शहर में अमीर बसरा के परिवार में हुआ था। इस सच्चाई पर भी कोई शक नहीं किया जा सकता, कि लैला- मजनूँ की अमर प्रेम कहानी का अंत साऊदी अरब के अल-अहसा (अल-हुफ़ूफ़) के लैईला-अल अफ़लाज़ शहर में हुआ। इस शहर के क़ब्रिस्तान में मौजूद लैला- मजनूँ की क़ब्रें चीख़-चीख़ कर अपनी प्रेम कहानी की सच्चाई की गवाही देती रही हैं। इस क़ब्रिस्तान की सच्चाई पर साऊदी अरब का पुरातत्व विभाग भी अपनी मोहर लगा चुका है। वहां के पुरातत्वविदों का शोध- कार्य अब भी जारी है।
इस सच्चाई से सभी वाक़िफ़ हैं, कि लैला- मजनूँ की प्रेम कहानी की शुरूआत और अंत भारत से हज़ारों मील दूर साऊदी अरब की धरती पर हुआ, इसके बावजूद, इस प्रेम-प्रसंग को राजस्थान के ज़िला श्रीगंगानगर के शहर अनूपगढ़ के गांव बिंजौर में मौजूद बग़दाद शाह नामी पीर की दरगाह के साथ जोड़ा गया है।
भारत-पकिस्तान सीमा से महज़ दो किलोमीटर दूर बिंजौर में ये पीर बग़दाद शाह की दरगाह है। ये पीर बग़दाद शाह कौन थे,या उनका असली नाम क्या था? इसके बारे में किसी के पास भी कोई पुख्ता जानकारी नहीं है। हां, कुछ लोग यह ज़रूर मानते हैं कि पीर के साथ, बलौचियां गांव में रहने वाले मुरीद का बहुत प्यार था। वह हर सप्ताह पीर से मिलने आया करता था। जब पीर का देहांत हो गया, तब भी वह पीर के मज़ार पर लगातार आता रहा। पीर के साथ उस मुरीद के प्यार के कारण ही इस जगह का नाम लैला- मजनूँ का मजार पड़ गया। जिन लोगों को इतिहासिक सच्चाई का पता नहीं है, उनका दावा है कि लैला-मजनूँ का देहांत इसी जगह पर हुआ था ,और उन्हें यहीं दफ़नाया गया था।
पीर के मज़ार के बाहर लगे कत्बे पर जो इबारत हिन्दी भाषा में लिखी है, वह इस प्रकार है,
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फ़ानूस बन कर जिसकी हिफ़ाज़त हवा करे,
वो शमा क्या बुझे जिसको रौशन ख़ादा करे
मज़ार-शरीफ़, लैला मजनूँ उर्फ़ हज़रत सैयद बग़दाद शाह वली रहमतुल्लाह अलए।
मु.न. 330/426, 330/427 कुल 6 बीघा, चक 6 एम.एस.आर. परिक्षेत्र क़ब्रिस्तान भूमि,बिंजौर।
लैला- मजनूँ के इस कथित मज़ार पर दो क़ब्रें बनी हुई हैं, जिनके साथ रखी दान-पेटी पर ‘लैला- मजनूँ मज़ार’ लिखा हुआ है। इस मज़ार पर लैला- मजनूँ की बरसी पर, हर वर्ष, जून के महीने में दो दिन का बहुत बड़ा मेला लगता है, जहां दूर-दूर से प्रेमी जोड़े, नव-दम्पत्ति और अन्य लोग बड़ी तादाद में पहुँचते हैं। राजस्थान पर्यटन विभाग ने निरंतर बढ़ रही रौनक़ को देखते हुए, पर्यटकों की सुख-सुविधा के लिए यहां लाखों रूपये की लागत से निर्माण कार्य करवाया जा रहा है।
खैर, जहां तक रही लैला- मजनूँ के वास्तविक क़िस्से की बात, तो माना जाता है, कि लैला के बसरा और क़ैस के उम्मिया ख़ानदान में पुरानी दुश्मनी चली आ रही थी, लेकिन इस सब की परवाह किए बग़ैर लैला- मजनूँ का प्यार ज़माने के तानों-तिशनों से बेफ़िक्र परवान चढ़ता रहा, और उनके क़िस्से शहर की हर गली-मुहल्ले में मशहूर हो गए। लैला के बारे में भाई संतोख सिंह ने ‘गुरूप्रताप सूरज ग्रंथ’ में लिखा है, कि लैला दिल्ली के बादशाह की पुत्री थी। जबकि ‘महान कोष’ के पृष्ठ 1072 पर भाई काहन सिंह नाभा ने लैला के पिता के संबंध में तो कोई जानकारी नहीं दी, लेकिन भाई संतोख सिंह की बात को को ग़लत बताते हुए यह ज़रूर लिखा है, कि लैला को दिल्ली के बादशाह की पुत्री लिखना बहुत बड़ी भूल है।
बताते हैं, कि जब लैला के पिता को लैला- मजनूँ के प्यार की ख़बर मिली, तो उन्होंने काफ़ी सख़्ती से लैला को समझाया, लेकिन लैला ने किसी परवाह नहीं की, और मजनूँ से मिलना जारी रखा।उम्म्यिा घराने को नीचा दिखाने के लिए और क़ैस से पीछा छुड़ाने के लिए लैला के पिता ने उसका निकाह अरब देश में ही इब्बन के शहज़ादे से करा दिया। जब यह ख़बर क़ैस के पास पहुँची, तो वह घर-बार छोड़, दीवानों की तरह लैला के महल के आसपास “लैला-लैला” पुकार कर भटकने लगा। उसकी यह हालत देख, वहां के लोगों ने उसे मजनूँ (अरबी भाषा में पागल या दीवाना) कहकर ईंट-पत्थरों से मारना शुरू कर दिया।
इतने उच्च घराने का होने के बावजूद लैला के प्यार में क़ैस ने, मजनूँ बनकर लैला के शहर की गलियों-बाज़ारों में भटकते हुए दम तोड़ दिया। जब लैला को अपने प्रेमी क़ैस के मजनूँ बनकर दर-दर की ठोकरें खाकर मरने का समाचार मिला, तो उसने भी रो-रोकर, अपने महल की दीवारों पर सिर पीट पीटकर जान दे दी।
लैला के पिता का शहर सितारा आज एक छोटे से गांव में तब्दील हो चुका है, और मौजूदा समय में यह साऊदी अरब में वादी-अद दवासिर के रास्ते रियाध सिटी से 300 किलोमीटर दूर है। लंबा-चौड़ा और उबड़-खाबड़ रास्ता तय करने के बाद लैईला-अल अफ़लाज़ शहर में सबसे पहले लैईला झील ही आती है। इस झील के बारे में यहां के स्थानीय इतिहासकारों का कहना है, कि लैला इसी झील में स्नान किया करती थी।उसके देहांत के बाद झील का नाम उसी के नाम पर पड़ गया। हालांकि इस झील का पानी पूरी तरह सूख चुका है, लेकिन इसके आस-पास बनी दीवारें पर बड़ी-बड़ी दरारें और सुराख़ हो चुके हैं। यहाँ दीवारों पर लगे निशानों से साफ़ हो जाता है, कि यहां कभी कोई तालाब या झील ज़रूररही होगी। लैईला-अल अफ़लाज़ शहर आज पूरे 10 किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है, और लैला के पिता का क़स्बा सितारा यहां से 40 किलोमीटर दूर है। यही वो ऐतिहासिक नगर है, जिसकी गलियों में लैला और क़ैस का प्यार परवान चढ़ा था। लैईला-अल अफ़लाज़ शहर के ज़्यदातर रेस्टारेंट, होटलों और सरकारी-ग़ैर सरकारी इमारतों के नाम लैईला से ही जुड़े हैं। यहां तक कि इस शहर से प्रकाशित होने वाले दो स्थानीय समाचार-पत्रों के अरबी भाषा में रखे नाम का अर्थ भी ‘मजनू की लैईला’ है।
नए आबाद हुए लैईला-अल अफ़लाज़ शहर के, पुराने शहर के ज़मीनदोज़ हो चुके ढांचों के खण्डहर आज भी मौजूद हैं। इन पुराने खण्डहरों के पास ही एक बहुत बड़ा क़ब्रिस्तान है, इसका नाम भी लैला के नाम पर लैईला क़ब्रिस्तान रखा गया है। इस क़ब्रिस्तान में पुराने समय की 100 से ज़्यादा बेनाम क़ब्रें मौजूद हैं, उन्हीं में से एक क़ब्र लैला की भी बताई जाती है।
भारतीय साहित्य में लैला-मजनू सहित सभी प्रेमी-जोड़ों, हीर-रांझा, सोहनी-माहिवाल, मिर्ज़ा-साहिबा, सस्सी-पुनू, शीरीं-फ़रहाद आदि को दिल खोलकर सम्मान दिया गया है, और ये लोग संसार छोड़कर जाने के सैंकड़ों-हज़ारों वर्ष बाद भी अपने अमर प्रेम की बदौलत आसमान में ध्रुव तारे की तरह प्रतीत हो रहे हैं। इसीलिए इनसे संबंधित यादगारें और इतिहास, इनके चाहने वालों के लिए बहुत मुक़द्दस है और इनके इतिहास की प्रामाणिकता से छेड-छाड़ करने से हमारे बेशक़ीमती साहित्य का जो नुक़सान होगा, भविष्य में उसकी भरपाई नहीं हो पाएगी।
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