सन 1947 में अमृतसर की पवित्र धरती मार्च माह से लेकर अगस्त तक लगातार इंसानी लहू से रंगी हुई थी । जगह जगह इंसानी लाशें साम्प्रदायिक क्रूरता और उन्माद की भयानक तस्वीर पेश कर रहीं थी। 14 अगस्त,सन 1947 की रात पाकिस्तान की स्थापना का ऐलान हो गया था। वह रात अमृतसर सहित पूरे पंजाब के लिए क़यामत से कम नहीं थी। तब पूरे पंजाब में बहुत बड़े पैमाने पर शैतानी खेल खेले गए। बहुसंख्यक लोग अल्पसंख्यक लोगों पर ज़ुल्म ढाते रहे। 15 अगस्त,सन 1947 की सुबह नई दिल्ली में संसद भवन पर तिरंगा लहराया गया, जुलूस निकाले गए, शादियाने बजे, ख़ुशियां मनाई गईं। लेकिन पंजाब के दो टुकड़े हो चुके थे, वह अपने ज़ख़्म सहला रहा था। एक ओर ख़ुशियां मनाई जा रहीथीं तो दूसरी तरफ़ आहत और पीड़ित अमृतसरी अपने प्रियजनों की मृत्यु का शोक मना रहे थे। उनकी सिसकियां आज़ादी की ख़ुशियों और जश्न के शोर-ओ-ग़ुल के बीच दब कर दम तोड़ चुकी थीं।
यह आज़ाद हिंदुस्तान में अमृतसर की अंधकार में डूबी हुई पहली सुबह थी, जिसे अमृतसर के लोग शायद ही कभी भुला पाएंगे। यह सच किसी से छिपा हुआ नहीं है, कि देश के बँटवारे का संताप सबसे ज़्यादा अमृतसर और उस पार लाहौर को झेलना पड़ा था। हालांकि बँटवारे के ज़ख्म के दर्द ने देश के हर समुदाय, हर प्रांत के लोगों को अपनी चपेट में ले लिया था। लेकिन यह ज़ख़्म अमृतसरियों के दिल की गहराइयों तक पहुंच चुका था। क्योंकि सबसे ज़्यादा जान-ओ-माल का नुक़सान अमृतसर का ही हुआ था।
दरअसल, अमृतसर के हिंदुओं-मुसलमानों में नफ़रत की लकीर सन 1925-26 में ही खिंची जा चुकी थी। उससे पहले शहर के अन्दर हिंदू-सिखों और मुसलमानों के सांझे मुहल्ले, बाज़ार और आबादियां हूआ करती थीं, लेकिन साम्प्रदायिक दंगों के बाद बड़ी तादाद में मुसलमान शहरी आबादी से निकल कर, शहर के बाहरी क्षेत्रों जैसे तहसीलपुरा, शरीफ़पुरा, हुसैनपुरा, कोट कक्केझाई (हुसैनपुरा के सामने वाला क्षेत्र), मुस्लिमगंज, इस्लामाबाद, डेमगंज आदि क्षेत्रों में आकर बसना शुरू हो गए। यहां एक अलग क़िस्म के ‘पाकिस्तान’ की अस्थाई नींव रखी जा रही थी। बर्तानवी हुक्मरान जो लम्बे समय से हिंदू-सिखों और मुसलमानों को आपस में धर्म के नाम पर लड़ाकर अलग करने के प्रयास में जुटे हुए थे, इस तरह उन्हें एक बड़ी कामयाबी मिल चुकी थी।
अमृतसर सहित पूरे पंजाब की पुलिस में मुसलमान सिपाहियों की संख्या हिंदू-सिख सिपाहियों के मुकाबले काफ़ी ज्यादा होने के कारण, वे सरेआम हिंदू और सिखों पर अत्याचार करते थे। ग़ुस्से में आकर 12 मार्च,सन 1947 को शहर के हिंदुओं ने टाऊन हाल स्थित सिटी कोतवाली में अपने दफ़्तर में बैठे सिटी मजिस्ट्रेट मुश्ताक अहमद चीमा पर देसी बम फेंक दिया। बम तो फटा नहीं, अलबत्ता मजिस्ट्रेट के सामने रखी मेज़ पर रखा शीशा ज़रूर टूट गया। चीमा उसी दिन लाहौर चला गया और अगले दिन उसने वहां का चार्ज ले लिया। चार्ज लेते ही उसने हिंदुओं के गढ़ माने जाने वाले लाहौर के शाह आलम गेट इलाक़े में आग लगवा दी। हिंदुओं का यह गढ़ आग के भेंट हो गया, तो मुहल्ला सरीन, ग्वाल मंडी, संत नगर, वच्छूवाली, कृष्णा स्ट्रीट आदि को भी सुपुर्द-ए-ख़ाक कर दिया गया। लाहौर में आग और ख़ून के खेल की शुरूआत होने की खबर अमृतसर पहुँचते ही, यहाँ के हिंदू और सिखों में क्रोध की ज्वाला भड़कने में ज़्यादा देर नहीं लगी। अमृतसर के एक नामी पहलवान ने आक्रोश में आकर तुरंत अपने साथियों को लेकर, मुसलमनों व्यापारियों के गढ, चौक फ़रीद, सहित हाल बाज़ार, कटरा जैमल सिंह आदि मुस्लिम आबादी वाले क्षेत्रों में आग लगवा दी।
मुसलमानों की घनी आबादी वाले, कटरा आहलुवालिया, लोहगढ़ और शरीफ़पुरा के मुसलमानों ने भी वहां रह रहे हिंदूओं पर जबरदस्त क़हर ढाया। इस नफ़रत की आग में कटरा शेर सिंह, चौक फ़रीद, हाथी गेट, बाज़ार बक्करवान और हाल बाज़ार क्षेत्र में शायद ही किसी मुस्लिम व्यापारी की ऐसी दुकान बच पाई होगी जो आग की भेंट न चढ़ी हो। मार्च,सन 1947 में अमृतसर पूरी तरह युद्ध भूमि में तब्दील हो चुका था। कहीं हिंदू और सिख मारे जा रहे थे, तो कहीं मुसलमानों के मारे जाने या जलाए जाने की ख़बरें मिल रही थीं। अमृतसर की हर गली-मुहल्ले में ख़ून की होली खेली जारही थी।
शहर में चारों तरफ़ इमारतें जल रही थीं । अमृतसर में घी मंडी के अंदर बाज़ार बक्करवाना, चौक फ़रीद, कटरा बग्गियां आदि में मुसलमान औरतों को सरेआम र्निवस्त्र कर जुलूस निकाले जा रहे थे। बड़ी तादाद में हिंदू और मुस्लिम औरतों और लड़कियों ने अपनी इज़्ज़त- आबरू बचाने की ख़ातिर कुओं में छलांगें लगा दी थी। बड़ी संख्या में लोगों ने अपनी औरतों और बेटियों को ख़ुद मार डाला, ताकि वे दंगाईयों की हवस का शिकार न बन सकें। अमृतसर के हिंदू मुहल्लों में सरेराह बेगुनाह मुसलमानों को और मुस्लिम मुहल्लों में हिंदू-सिखों को छुरा मारकर निपटाया जा रहा था, लेकिन हुकूमत का कोई अफ़सर उन्हें रोकने की जुर्रत नहीं कर पा रहा था। चारों तरफ़ फ़सादी सरेआम सामान लूट रहे थे और पुलिस यह सब रोकने के बजाए अपनी जेबें भर रहे पर थे।
मार्च 1947 के दूसरे सप्ताह तक अमृतसर के कई क्षेत्र पूरी तरह जलकर राख का ढेर बन चुके थे। बहुत सी सरकारी इमारतें मलबे का ढेर बन चुके थे। शहर की हालत देखकर ऐसा लग रहा था, मानो अमृतसर अपनी आख़िरी सांसें गिन रहा हो। शहर की सड़कें टूट चुकी थीं, बिजली व्यवस्था भी अस्त-व्यस्त हो चुकी थी। जगह-जगह गंदगी के ढेर लगे हुए थे और महामारी फैल रही थी। उसी दौरान जब 20 मार्च,सन 1947 को पंडित जवाहर लाल नेहरू अमृतसर आए, तो उन्हें कटरा जैमल सिंह, बाज़ार पश्चिम वाला, बाज़ार चौक फ़रीद, हाल बाज़ार, लोहगढ़ गेट, कटरा भाईयां आदि क्षेत्र दिखाए गए। उनके साथ कांग्रेस कार्यकर्ताओं के अलावा अमृतसर के डिप्टी कमिश्नर जे.डी. फ़्रेसर भी थे। उन क्षेत्रों में चारों तरफ़ जली हुई इमारतें और मलबे के ढेर देखकर पंडित नेहरू ने ग़ुस्से में कहा था, ”अगर मैं अमृतसर में रहता होता तो कब का शहर छोड़कर भाग गया होता या ख़ुदकुशी कर लेता। आज़ाद भारत में ऐसे गंदे शहर नहीं होंगे।”
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