अमृता प्रीतम: अपने समय से आगे की कवयित्री

आज मैंने, अपने घर का नम्बर मिटाया है
और गली के माथे पर लगा, गली का नाम हटाया है
और हर सड़क की, दिशा का नाम पोंछ दिया है
पर अगर आपको मुझे ज़रूर पाना है
तो हर देश के, हर शहर की,
हर गली का द्वार खटखटाओ
यह एक शाप है, यह एक वर है
और जहाँ भी, आज़ाद रूह की झलक पड़े,
समझना वह मेरा घर है।

अगर अमृता प्रीतम के व्यक्तित्व को एक वाक्य में बयां करना हो तो कहा जा सकता है कि वह एक ऐसी महिला थीं जिन्होंने ज़िंदगी उसी तरह जी जैसी उन्होंने कल्पना की थी।

पंजाबी की प्रमुख महिला कवयित्री, अमृता ने प्रेम, महिला और भारत के विभाजन पर लिखी कविताओं से लाखों लोगों के दिलों में जगह बनाई। दो टूक और तंज़ों-ओ-मज़ाह से भरी उनकी गंभीर कविताओं के लिये जहां उनकी तारीफ़ हुई वहीं आलोचना भी हुई। उनकी निजी ज़िंदगी को लेकर भी कई तरह की बातें कहीं जाती थीं। उन्होंने शादी किसी और से की, प्यार किसी और से और रहीं किसी तीसरे के साथ। लेकिन इसके बावजूद उन्हें पंजाबी साहित्य में वो मर्तबा मिला जिसकी वो हक़दार थीं। उनके शब्दों ने राजनीतिक, सामाजिक, जातीय और काल की सीमाओं को फ़लांगा है। हम आपको बताने जा रहे हैं एक ऐसी महिला के बारे में जिसने ऐसी किसी सामाजिक परंपरा की परवाह नहीं की जिसमें उनका दम घुटता था। उनके बेबाक और बेख़ौफ़ साहित्य ने 20वीं शताब्दी के भारतीय साहित्य पर एक अमिट छाप छोड़ी है।

अमृता का जन्म 31 अगस्त सन 1919 में पंजाब के गुजरांवाला प्रांत (अब पाकिस्तान में) में हुआ था और उनका नाम अमृता कौर था। उनकी मां राज बीबी स्कूल टीचर थीं और पिता करतार सिंह हितकारी धार्मिक विद्वान थे। अमृता पने माता पिता की आकलौती संतान थीं। लेकिन दुर्भाग्य से अमृता जब सिर्फ़ 11 साल की थीं, तभी उनकी मां का देहांत हो गया। अकेलेपन और ज़िम्मेदारियों के बोझ की वजह से अमृता का रुझान लेखन की तरफ़ चला गया। काग़ज़ पर अपने जज़्बात का इज़हार करने की उन्हें वो आज़ादी मिली जिनका इज़हार वो अपने क़रीबी लोगों से भी नहीं कर पाती थीं।

सन 1936 में जब अमृता 16 साल की हुईं तो उनकी शादी लाहौर में ही, होज़री के दुकानदार वाले के बेटे प्रीतम सिंह से हो गई। शादी के एक साल बाद उनकी कविताओं का पहला संकलन “अमृत लहरें” प्रकाशित हुआ। जल्द ही उनके परिवार में दो बच्चों का जन्म हुआ लेकिन वह शादी से ख़ुश नहीं थीं और वह शायरी की दुनिया डूब गईं थीं। सन1936 और 1943 के बीच उनकी कविताओं के आधा दर्जन संकलन प्रकाशित हो चुके थे।

अमृता प्रगतिशील लेखक संघ की सदस्य बन गईं और सामाजिक विषयों पर कविताएं लिखने लगीं। अमृता ने अपनी प्रेम कविताएं लिखने की शुरुआत तो निजी जीवन के ख़ालीपन से शुरु की थीं लेकिन प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़ने के बाद वह समाजिक और राजनीति के क्रूर सच के बारे में भी लिखने लगीं। उदाहरण के लिये उनके कविता संकलन “लोक पीड़ ” में उन्होंने सन 1943 में, बागाल में पड़े भयानक सूखे के बाद सामने आई बरबाद अर्थव्यवस्था की जमकर आलोचना की।

सुना है राजनीति एक क्लासिक फ़िल्म है
हीरो: बहुमुखी प्रतिभा का मालिक
रोज़ अपना नाम बदलता है
हीरोइन: हकूमत की कुर्सी वही रहती है
ऐक्स्ट्रा: लोकसभा और राजसभा के मैम्बर
फाइनेंसर: दिहाड़ी के मज़दूर,
कामगर और खेतिहर
(फाइनांस करते नहीं,
करवाये जाते हैं)
संसद: इनडोर शूटिंग का स्थान
अख़बार: आउटडोर शूटिंग के साधन
यह फ़िल्म मैंने देखी नहीं
सिर्फ़ सुनी है
क्योंकि सैन्सर का कहना है —
नॉट फ़ार अडल्स।’

सन 1947 के विभाजन के दौरान लाखों मुस्लिम, हिंदू और सिख परिवारों की तरह अमृता का परिवार भी लाहौर छोड़कर दिल्ली आ गया। विभाजन के दौरान हुए ख़ून ख़राबे का प्रभाव अमृता के मन पर बहुत गहरा पड़ा। इसी दौरान उन्होंने अपनी मशहूर कविता लिखी। अपनी आत्मकथा “ रसीदी टिकट” में वह लिखती हैं, “बाहर घोर अँधेरा किसी इतिहास के समान लग रहा था, हवाओं का शोर ऐसे लग रहा था जैसे वो इतिहास के पहलु में बैठकर रो रहा हो, और मैंने कापते हाटों से यह कविता लिखी…”

आज वारिस शाह से कहती हूँ
अपनी क़ब्र में से बोलो
और इश्क की किताब का
कोई नया वर्क़ खोलो
पंजाब की एक बेटी रोई थी
तूने एक लंबी दास्तान लिखी
आज लाखों बेटियाँ रो रही हैं,
वारिस शाह तुम से कह रही हैं
ऐ दर्दमंदों के दोस्त
पंजाब की हालत देखो
चौपाल लाशों से अटा पड़ा है
चिनाव लहू से भरी पड़ी है…

इस कविता में अमृता “ हीर रांझा ” जैसी कालजयी कविता लिखने वाले ऐतिहासिक कवि वारिस शाह से विनती कर रही हैं। मृता उनसे कह रही हैं कि जब हीर तबाह और बर्बाद हो गई तब उन्होंने उस पर पूरी एक किताब लिख दी। आज पंजाब की लाखों बेटियां तबाह और बर्बाद हैं लेकिन वो क्यों ख़ामोश हैं। अमृता के यह शब्द सीमा पार, दोनों तरफ़ के लोगों के दिलों को छू गये थे, उन लोगों के जिनकी पांच नदियां ख़ून से लाल हो गईं थीं, रैडक्लिफ़ लाइन ने बेरहमी से जिन्हें दो टुकड़ों में बांट दिया था। लोग कविता की इन पंक्तियों को काग़ज़ पर लिखकर, अपनी जेबों में रखकर, अपने साथ ले गए थे ताकि वह अपनी इस बरबादी को कभी भूल न पायें ।

अमृता ने विभाजन पर “ पिंजर “ नाम का एक उपन्यास भी लिखा जो बहुत प्रसिद्ध हुआ। इसमें विभाजन के दौरान हिंसा और तमाम धर्मों की महिलाओं के उत्पीड़न का भयानक वर्णन है।

दिल्ली आने के बाद अमृता को ऑल इंडिया रेडियों की पंजाब सर्विस में नौकरी मिल गई। लेकिन शहर बदलने की वजह से कुछ सालों से उनके और उनके प्रियतम साहिर लुधयानवी के बीच भौगोलिक दूरियां बढ़ गईं थीं। साहिर से उनकी मुलाक़ात सन 1944 में प्रीतनगर के एक मुशायरे में हुई थी। प्रीतनगर लाहौर और अमृतसर के बीच एक शहर है। अमृता ने अपनी आत्मकथा में लिखा है-“प्रीत नगर में मैंने सबसे पहले उन्हें देखा और सुना था।मैं नहीं जानती कि ये उनके लफ़्ज़ों का जादू था या उनकी ख़ामोश नज़रों का, जिसके कारण मुझपर एक तिलिस्म सा छा गया था…कह सकती हूँ के तक़दीर ने उस रात मेरी मन्न की मिटटी में इश्क़ का बीज बो दिया था”

बाद में उनकी मुलाक़ातों में अमृता को लग गया कि उर्दू के शायर साहिर वही शख़्स हैं जिनकी उन्हें सारी ज़िंदगी तलाश थी। साहिर उनसे बेहतर थे लेकिन उनके संबंध भी ग़ैरमामूली थे। जब वे मिले तो उन्होंने एक दूसरे से बात तक नहीं की थी। अमृता लिखती हैं, “वो (साहिर) चुपचाप मेरे कमरे में सिगरेट पिया करता। आधी पीने के बाद सिगरेट बुझा देता और नई सिगरेट सुलगा लेता। जब वो जाता तो कमरे में उसकी पी हुई सिगरेटों की महक बची रहती. मैं उन सिगरेट के बटों को संभाल कर रखती और अकेले में उन बटों को दोबारा सुलगाती। जब मैं उन्हें अपनी उंगलियों में पकड़ती तो मुझे लगता कि मैं साहिर के हाथों को छू रही हूँ. इस तरह मुझे सिगरेट पीने की लत लगी।”

यह आग की बात है, तूने यह बात सुनाई है
यह ज़िंदगी की वही सिगरेट है, जो तूने कभी सुलगाई थी
चिंगारी तूने दे थी, यह दिल सदा जलता रहा
वक़्त क़लम पकड़ कर, कोई हिसाब लिखता रहा
ज़िंदगी का अब ग़म नहीं, इस आग को संभाल ले
तेरे हाथ की ख़ैर मांगती हूं, अब और सिगरेट जला ले!

लेकिन विभाजन के बाद दोनों लाहौर से चले गए, अमृता दिल्ली और साहिर दिल्ली से 900 मील दूर बंबई। इसी दौरान अमृता की कविताओं में साहिर की यादें झलकने लगीं। औपचारिक कार्यक्रम के अलावा दोनों एक दूसरे से रूबरू तो न हो सके लेकिन अमृता की कविताओं में वह हमेशा साथ रहने लगे। उन्होंने अपनी कविताओं और लेखन में साहिर के प्रति अपने प्रेम का इशारतन इज़हार भी किया। साहिर भी अपनी शायरी में अमृता की मोहब्बत का जवाब दिया करते थे। ये मोहब्बत दोनों की कविताओं में तो दिखी लेकिन दोनों ज़िंदगी में मिल नहीं सके। अमृता को मालूम था कि वह शादीशुदा हैं और साहिर भी कोई ऐसे शख़्स नहीं थे जो शादी के रिश्ते में बध जाएं। उन दोनों की कहानी हमेशा प्रेम के जुनून और दर्द की कहानी रही।

1960 में अमृता ने अपने पति को तलाक़ दे दिया। इसके बाद उनका लेखन स्त्री प्रधान हो गया और उनकी कई कहानियों में शादी के उनके कटु अनुभव की झलक मिलती है। उदाहरण के लिये उनकी किताब ‘धरती, सागर ते सीपियाँ’ (1965) एक ऐसी लड़की की कहानी जो बिना शर्त प्यार करती है और जब सामने वाला प्यार पर शर्त लगाता है तो अपनी मोहब्बत को बोझ न बनने देने का रास्ता भी अपने लिए ख़ुद चुनती है.

अमृता ने एक मासिक पत्रिका नागमणि की भी शुरुआत की थी। इसमें नये लेखकों और कवियों के लिये पहचान बनाने ज़रिया बन गई थी । लोग इस पत्रिका को पसंद भी करते थे। इस पत्रिका को चलाने में उनकी मदद एक व्यक्ति ने की जो उनकी ज़िंदगी में आया तीसरा शख़्स था- इंद्रजीत उर्फ़ इमरोज़।

अमृता की मुलाक़ात इमरोज़ से सन 1966 में कभी हुई थी। इमरोज़ इलस्ट्रेटर थे और वह पत्रिका की डिज़ाइन बनाने में अमृता की मदद करते थे। हालंकि अमृता के दिल में तब भी साहिर को लेकर चाहत थी लेकिन इमरोज़ से मिलकर उनके दिल को कुछ सुकून मिला। इमरोज़ अमृता से काफ़ी छोटे थे लेकिन वह अमृता से बहुत प्यार करते थे और उनकी इज़्ज़त भी बहुत करते थे और वह अमृता की अंतिम सांसों तक उनके साथ रहे। वह साये की तरह उनके साथ रहते थे। वह उनके हमराज़ भी थे,भरोसेमंद दोस्त भी थे और आलोचक भी। दोनों बिना शादी किये साथ रहते थे। ये वो समय था जब इस तरह के संबंधों को गुनाह माना जाता था और ऐसे लोगों को सवालों के कठघरे में खड़ा किया जाता था।

इसमें तुम्हारे प्यार की एक बूंद थी,
इसीलिए मैंने जीवन की सारी कड़वाहट पी ली।

अमृता उन लोगों में नहीं थीं जिन्हें समाज की परवाह होती है। अमृता और इमरोज़ 40 से ज़्यादा साल तक साथ रहे। इस दौरान वह अपने करिअर के शीर्ष पर पहुंच गईं थीं। सात दशकों में आत्मकथा सहित उनकी कहानियों, कविताओं, पंजाबी लोक गीतों की 75 से ज़्यादा किताबें प्रकाशित हुईं। उनकी रचनाओं का कई भारतीय और विदेशी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। अमृता पहली महिला लेखिका थीं जिन्हें उनके साहित्यिक योगदान के लिये सन 1956 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। सन 1981 में उन्हें भारतीय ज्ञानपीठ औऱ सन 2004 में पद्म विभूषण सम्मान से सम्मानित किया गया।

अपने बाद के जीवन में वह ओशो की अनुयायी बन गईं थीं और उन्होंने उनकी (ओशो) की कई किताबों की प्रस्तावना लिखी। जटिल जीवन जीने वाली अमृता का एक लंबी बीमारी के बाद 31 अक्टूबर सन 2005 में दोहांत हो गया। लेकिन जो विरासत वो छोड़ गईं हैं वो आने वाले वर्षों में लोगों को प्रेरित करती रहेगी और उम्मीद बंधाती रहेगी।

मैं तुझे फिर मिलूंगी
कहाँ किस तरह पता नही
शायद तेरी तख़य्युल की चिंगारी बन
तेरे केनवास पर उतरुंगी
या तेरे केनवास पर
एक रहस्यमयी लकीर बन
ख़ामोश तुझे देखती रहूंगी
या फिर सूरज कि लौ बन कर
तेरे रंगो में घुलती रहूंगी
या रंगो कि बाहों में बैठ कर
तेरे केनवास से लिपट जाउंगी
पता नहीं कहाँ किस तरह
पर तुझे जरुर मिलूंगी

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