अमृतसर शहर की सुरक्षा और दुश्मन मुग़ल सेना से मुकाबले के लिए फौजी तैयारियों को ध्यान में रखते हुए गुरू हरिगोबिंद साहिब ने सन 1614 में लोहगढ़ क़िले का निर्माण करवाया था। सन 1619 में ‘रामदासपुरा’(पुराना अमृतसर शहर) के कुछ हिस्सों में पक्की दीवार भी बनवाई थी। उनके बाद रामगढ़िया सिलसिले के नेता सरदार जस्सा सिंह रामगढ़िया ने ‘कटड़ा रामगढ़िया’ नाम से आबाद किए अपने कटरे के आसपास तथा शहर के कुछ हिस्सों में सुरक्षा के लिए दीवार बनवाई थी।
यह भी बताया जाता है कि अमृतसर पर क़ाबिज़ भंगी सिलसिले के मुखिया गुज्जर सिंह भंगी ने भी शहर के कुछ हिस्सों में मज़बूत दीवार और कुछ दरवाज़ों का निर्माण करवाया था।शेर-ए-पंजाब महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल में, अमृतसर को अपने अधिकार में लेने के करीब 18 वर्ष बाद शहर की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए सन 1823 (कई इतिहासकारों ने सन् 1821 भी लिखा है) में कटरा महा सिंह के मिस्त्री मोहम्मद यार खां की सलाह पर इमारत-ए-अफ़सर गणेश दास ने दीवार बनाने का काम आरम्भ किया था। शहर की सुरक्षा की मजबूती के लिए शहर के चारों ओर जो 25 फ़ुट चौड़ी दीवार बनाई गई। उसके अंदर 10 गज़ चैड़ी और 8724 गज़ लम्बी धूड़कोट (जिस में रेत और मिट्टी भरी जाती थी और उसे फसील भी कहा जाता था) बनाई गई।
बाहर की (दो गज़ चैड़ी) पक्की दीवार के बाहर गहरी खाई खोद कर पानी से भर दी गई। ‘तवारीख़-ए-पंजाब’ के अनुसार दीवार का घेरा 5100 कर्म था। इसी पुस्तक के लेखक कन्हैया लाल लिखते हैं कि महाराजा ने लाहौर की पक्की व मजबूत दीवार को देखकर यह फ़ैसला लिया था कि अमृतसर के चारों ओर भी एक मजबूत दीवार का निर्माण करवाया जाए। उन्होंने अपने सरदारों और अहल्कारों को तुरंत इस आदेश को पूरा करने का हुक्म भेज दिया था। इस दीवार के निर्माण के लिए सरदार फ़तह सिंह आहलुवालिया, दल सिंह और सरदार देसा सिंह मजीठिया से महाराजा ने एक एक हज़ार राज मिस्त्री मंगवाए। सिख राज्य में इक्का दुक्का ही ऐसा सरदार या अहल्कार रहा होगा जिससे उन्होंने दीवार के निर्माण में हिस्सेदारी न करवाई हो।
बाद में दीवार के निर्माण का काम सरदार देसा सिंह मजीठिया और उनके बाद यह काम उनके पुत्र सरदार लहणा सिंह मजीठिया को सौंपा गया। इसी तरह बाद में दीवार के निर्माण का काम साहूकार रामानंद गोईंका की देख-रेख में चलता रहा।
वे अमृतसर के नामी रईस थे और महाराजा शुरूआत में अमृतसर आने पर उन्हीं की हवेली में ठहरा करते थे। कन्हैया लाल ‘तवारीख़-ए-पंजाब’ में लिखते हैं कि दीवार के काम पर आने वाली लागत में महाराजा ने कई रियासतों के अहलकारों की भी हिस्सेदारी करवाई थी। महाराजा के देहांत तक दीवार का काम जारी रहा तथा उनके देहांत के बाद कुछ समय के लिए कार्य रूकने के बाद शहज़ादा शेर सिंह के गद्दी पर बैठने के बाद काम दोबारा शुरू किया गया।
साहूकार रामानंद के देहांत के बाद उनके खज़ाने में से जो 8 लाख रूपये मिले, उन्हें भी सरकारी खज़ाने में जमा कर दीवार पर खर्च किया गया। उनमें से 5 लाख 82 हज़ार रूपये बाहरी दीवार तथा 1 लाख 18 हज़ार रूपये धूड़कोट वाली दीवार पर खर्च किए गए। महाराजा रणजीत सिंह के समय इस दीवार पर 5 लाख 70 हज़ार रुपये का खर्च आया, जबकि महाराजा शेर सिंह के समय 5 लाख 70 हज़ार 460 रुपये दीवार पर, 72 हज़ार रुपये 12 दरवाज़ों पर, 18 हज़ार रुपये 12 दरवाज़ों की जोड़ियों पर तथा 10 रुपये धूड़कोट दीवार के 7 चोबदार तख्तों पर खर्च हुए। इस दीवार पर कुल 1 लाख 94 हज़ार 601 रुपये की लागत आई।
इस दीवार में 12 दरवाज़े भी बनाए गए। रात को ये दरवाजे़ बंद कर दिए जाते थे। एक से दूसरे दरवाजे़ के बीच 20-20 बुर्जियां बनाई गईं। इनकी कुल संख्या 240 थी। हर दरवाज़े के ऊपर दो-तीन तोपें भी रखी गई थीं और इन दरवाज़ों पर दिन-रात सैनिक पहरा देते थे।
पंजाब पर ब्रिटिश हुकूमत का कब्जा होने के बाद सन1855 में इस ऐतिहासिक दीवार तथा दरवाज़ों के बीच बनी बुर्जियां गिरा दी गईं। धूड़कोट दीवार को गिरा कर उसके पास की गहरी खाई में मिट्टी भर दी गई तथा दीवार के स्थान पर बाग़ बनवा दिए गए। सन1869 में शहर के बाहर वाली खाई भरने में 3000 हज़ार मजदूर लगाए गए और इस कार्य पर 2 लाख 56 हज़ार 568 रूपये खर्च किए गए।
सन 1863 में दीवार की जगह पर अंदरुन सर्कूलर रोड बना दी गई। पुरानी दीवार को तोड़ने में अंग्रेज़ों ने काफ़ी दिलचस्पी दिखाई तथा 19वीं सदी में ही दोबारा 12 गज़ ऊंची नई दीवार बनानी शुरु कर दी गई। नई दीवार और दरवाज़े सन 1866-68 में पब्लिक वर्क्स डिपार्टमैंट द्वारा बनाए गए। नई दीवार लाहौरी दरवाज़े से रामबाग दरवाज़े तक बनाई गई। इसका थोड़ा-सा हिस्सा आज भी मौजूद है।
सन 1876 में अंग्रेज़ सरकार ने ,हाल गेट (नया नाम गांधी दरवाज़ा) के निर्माण के बाद, दरवाज़ा रामबाग (आबादी) की बाहरी ड्योढ़ी को छोड़कर सभी ऐतिहासिक द्वार ध्वस्त करवा दिए थे। महा सिंह गेट को सभी दरवाज़े गिरवाने के बाद सन 1892 में ध्वस्त किया गया। इन दरवाज़ों से निकाले गए क़ीमती सामान को लाहौर सेंट्रल म्यूज़ियम में भेज दिया गया। सन 1892 तक ऐतिहासिक दीवार का नामो-निशान पूरी तरह से मिट चुका था।
नई दीवार के बाहर बाहर, हाथी गेट से ख़ज़ाना गेट तक एक सिंगल रेलवे लाइन बिछाई गई, जिस पर एक कचरा गाड़ी चलती थी। अंग्रेज़ी के ‘वी’ अक्षर के आकार के बने डिब्बों में लोग कचरा फेंकते थे। पहले यह गाड़ी धक्का लगाकर चलती थी लेकिन बाद में इसके आगे एक छोटा इंजन जोड़ दिया गया था।
पुराने दरवाज़ों को गिराने के बाद ब्रिटिश सरकार ने नए द्वार बनाए जिनमें से अधिकांश आज ग़ायब हो चुके हैं।
1: दरवाज़ा रामबाग: महाराजा रणजीत सिंह द्वारा बनाया गया रामबाग दरवाज़ा तो बच नहीं पाया, लेकिन इस दरवाज़े की ड्योढ़ी आज भी मौजूद है। इसे दोबारा बनवाकर, इसमें अब अजायब-घर क़ायम किया गया है। इस ड्योढ़ी को अंग्रेज़ रामबाग का पुराना क़िला भी कहते थे। जबकि कहीं-कहीं पर आज भी इसे दरवाज़ा रामबाग बताकर गुमराह किया जा रहा है।
2. हाल गेट: हाल गेट अमृतसर के तत्कालीन उपायुक्त कर्नल सी.एच. हाल द्वारा अपने नाम पर, सन 1876 में तैयार करवाया गया था। इसके ऊपर लगी घड़ी और इमारत का डिज़ाइन सन 1873-74 में इंजीनियर जॉन गार्डन ने तैयार किया था। दरवाज़ा बनाने से पहले यहां पुरानी ऐतिहासिक दीवार का बुर्ज हुआ करता था। दरवाज़े पर इसका नया नाम ‘गांधी दरवाज़ा’ भी लिखा गया है।
3.सिकंदरी गेट: यह दरवाज़ा हाल गेट और हाथी गेट के बीच नया रास्ता निकालने के लिए सन 1940 में सर सिकंदर हयात ख़ां के नाम पर बनाया गया, जो इसके निर्माण के कुछ दिन बाद ही देश के बँटवारे के दौरान हुए दंगों में ढ़ह गया।
4.हाथी गेट: अमृतसर के पुराने दस्तावेज़ों में इस दरवाजे का नाम “दरवाजा-ए-ड्योढ़ी शहज़ादा” जैसा ही कुछ लिखा है। कुछ विद्वानों का मानना है कि महाराजा रणजीत सिंह के हाथी इस दरवाज़े के अंदर बांधे जाते थे, इसलिए इसका नाम हाथी गेट पड़ा।
5.लोहगढ़ गेट: इस दरवाजे़ के अंदर गुरु हरगोबिंद साहिब की यादगार क़िला लोहगढ़ के रूप में मौजूद थी। सन 1997 में इसके स्थान पर कार सेवा के चलते संगमरमरी गुरुद्वारा बना दिया गया। महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल के दौरान बनाया गया यह दरवाज़ा अब पूरी तरह से लुप्त हो चुका है।
6. बेरी गेट: सन् 1876 में दरवाज़ा लोहगढ़ और दरवाज़ा लाहौरी के बीच रास्ता बनाने के लिए बेरी गेट बनाया गया। आज इस दरवाजे़ का नाम-ओ-निशन तक नहीं बचा है।
7. लाहौरी दरवाज़ा: उमदत-उत-तवारीख़, सोहन लाल सूरी के अनुसार, सिख शासन के दौरान यहाँ से सीधा रास्ता लाहौर को जाता था। ब्रिटिश शासन के दौरान महाराजा रणजीत सिंह द्वारा बनाए गए इस ऐतिहासिक द्वार को ध्वस्त कर दिया गया और इसकी जगह एक नया दरवाज़ा बनाया गया, जो आज भी मौजूद है।
8. ख़ज़ाना गेट: ख़ज़ाना नामक एक मुसलमान, महाराजा रणजीत सिंह के दरबार में नौकर था।उसका घर ठीक दरवाज़े के पास में ही था। इसी वजह से दरवाज़े का नाम उसी के नाम पर प्रसिद्ध हो गया।
9. गेट हकीमां: गेट हकीमां, महाराजा के शाही हकीमों नूरउद्दीन और चराग़उद्दीन के नाम से प्रसिद्ध हुआ। ये दोनों महाराजा के विदेश मंत्री फ़क़ीर अज़ीज़उद्दीन के पुत्र थे। इसे माझे वाला दरवाज़ा भी कहा जाता था।
10. गेट भगतां वाला: सिख राज के समय इस दरवाज़े का नाम दरवाजा-ए-ड्योढ़ी रंगड़ नंगलीयां था।
11. दरवाज़ा गिलवाली: इस दरवाज़े से सीधा रास्ता गाँव गिलवाली तक जाता होने के कारण इसका नाम दरवाज़ा गिलवाली पड़ा। देश के विभाजन से पहले इसके आसपास की अधिकांश आबादी गुर्जरों की थी। महाराजा द्वारा बनाया गया यह ऐतिहासिक द्वार अब गायब हो चुका है।
12. दरवाज़ा चाटीविंड: प्राचीन अभिलेखों में इस दरवाजे का नाम रामगढ़िया दरवाज़ा पढ़ने में आता है। यहाँ से सीधी सड़क तरनतारन को जाती है। महाराजा के शासनकाल के दौरान बनाया गया यह द्वार अब मौजूद नहीं है लेकिन कुछ वर्ष पहले रामगढ़िया समुदाय द्वारा इसका पुर्नर्निमाण नए ढंग से करवाया गया है।
13. दरवाज़ा सुल्तानविंड: आर.एच. डेविस और अलाउद्दीन ‘इबारतनामा’ में लिखते हैं कि दरवाज़ा सुल्तानविंड , दरवाज़ा तोप वाला,दरवाज़ा-ए-दोबुरजी और दरवाज़ा-ए-दिल्ली नामों से भी प्रसिद्ध था। यहाँ से सीधा रास्ता दोबुरजी क्षेत्र को जाने के कारण इस का नाम ‘दरवाज़ा-ए-दोबुरजी’ पड़ा और इस दरवाजे़ पर दो या तीन बड़ी तोपें रखी होने के कारण इसे दरवाज़ा तोपवाला भी कहा जाता था। अंग्रेज़ों द्वारा पुराने दरवाजे़ को ध्वस्त कर बनाए गए नए दरवाजे़ की बुर्जियां आज भी मौजूद हैं, जिन पर उर्दू में अंकित “दरवाज़ा सुल्तानविंड” आज भी आसानी से पढ़ा जा सकता है।
14. दरवाज़ा घी मंडी: इस दरवाजे़ का पुराना नाम दरवाज़ा आहलूवालिया था, क्योंकि यहाँ से सीधा रास्ता कटड़ा अहलूवालिया को जाता था। इस दरवाज़े के अंदर बने बाज़ार में ब्रिटिश शासन के दौरान घी और तेल की बहुत बड़ी मंडी हुआ करती थी, इसिलिए इसका नाम “दरवाज़ा घी मंडी” प्रसिद्ध हो गया। यह दरवाज़ा भी लुप्त हो चुका है।
15. शेरां वाला गेट: सन 1940 में दरवाज़ा घी मंडी और दरवाज़ा महां सिंह के बीच शेरां वाला गेट बनाया गया। उससे पहले इसे बाजार बक्करवाना कहा जाता था।
16. महा सिंह गेट: महाराजा रणजीत सिंह के पिता के नाम पर बनाए गए इस द्वार का नाम दरवाज़ा-ए-ड्योढ़ी कलां भी पढ़ने में आता है। अंग्रेज़ों द्वारा यह दरवाज़ा शेष सभी दरवाज़ों के बाद, सन 1892 में ध्वस्त किया गया। इस दरवाज़े से लगभग 200 क़दम की दूरी पर पहले क़िला महा सिंह हुआ करता था। जहां अंग्रेज़ों ने पहले पुलिस स्टेशन, फिर अस्पताल और बाद में लड़कियों का स्कूल शुरू किया था। ऐतिहासिक दस्तावेज़ों के अनुसार इस दरवाज़े का नक्शा हू-ब-हू दरवाज़ा रामबाग़ से मिलता जुलता था।
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