एलेक्ज़ेंडर कोसोमा डी कोरोस: हंगरी का बोधिसत्व

एलेक्ज़ेंडर कोसोमा डी कोरोस: हंगरी का बोधिसत्व

“किसी भी विदेशी ने तिब्बती भाषा का अध्ययन उससे अधिक सफलतापूर्वक नहीं किया है…”

ये शब्द एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ बंगाल के पहले भारतीय सांस्कृतिक शोधकर्ता राजेंद्र लाल मित्रा ने हंगरी के विद्वान एलेक्ज़ेंडर कोसोमा डी कोरोस के बारे में कहे थे, जिन्हें तिब्बती अध्ययन का संस्थापक माना जाता है। हंगरी के निवासी उन्हें उस यात्री के रूप में देखते हैं, जिसने हंगरी के लोगों की उत्पत्ति की खोज के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया था। अपने मुहिम में असफ़ल होने के बावजूद  कोसोमा ने अंग्रेज़ी में तिब्बती भाषा के व्याकरण पर पहली किताब तैयार की थी। जिसकी वजह से, दुनिया को तिब्बती बौद्ध धर्म के बारे में जानकारी मिली। संस्कृत, मराठी, और बंगाली सहित लगभग तेरह भाषाओं में निपुण कोसोमा ने कई पुरानी बौद्ध पांडुलीपियों की व्याख्या की थी, जिसकी वजह से भारत में बौद्ध धर्म के इतिहास और इसके वजूद को समझने में मदद मिली।

27 मार्च, सन 1784 को एक ग़रीब परिवार में जन्मे कोसोमा ने नाग्येनयड (रोमानिया) में ट्रांसिल्वेनिया के प्रोटेस्टेंट कॉलेज में पढ़ाई की, जहां छात्र कॉलेज के लिए शारीरिक श्रम करके अपनी शिक्षा की फ़ीस देते थे। यहां उन्होंने तीन साल दर्शनशास्त्र और चार साल धर्मशास्त्र की पढ़ाई की।

एलेग्जेंडर सोमा डी कोरोस | विकी कॉमन्स

18वीं शताब्दी के अंत तक, हंगरी के कई भाषाविदों ने उभरते इंडो-यूरोपीय अध्ययनों के प्रभाव में यूरोपीय भाषाओं में हंगरी भाषा की स्थिति के बारे में सवाल खड़े किये थे। इस अध्ययन में हंगरी को छोड़कर लगभग सभी यूरोपीय भाषाओं को इंडो-यूरोपीय भाषा की शाखा माना गया था। उन्हें लगा, कि उनका एक हिस्सा मध्य एशिया में कहीं “पीछे छूट गया है”। कोसोमा सहित नाग्येनयड के अन्य छात्रों में इसे लेकर जिज्ञासा जगी, और कोसोमा ने इसकी पड़ताल के लिये एशिया की यात्रा पर जाने का फ़ैसला किया। बौद्धिक रूप से खुद को लैस करने के लिए  उन्होंने सन 1815 ईस्वी में एक अंग्रेज़ी प्रोटेस्टेंट मिशन से वज़ीफ़ा लिया, और गोटिंगेन विश्वविद्यालय (जर्मनी) में दाख़िला लेकर अंग्रेज़ी, लातिन, और हिब्रू जैसी भाषाएँ सीखीं।

अपनी खोज जारी रखते हुए, सन 1818 ईस्वी में कोसोमा, नाग्येनयड लौटे, और अपने सलाहकारों को क्रोएशिया में स्लाव भाषा सीखने के अपने इरादे के बारे में बताया। सलाहकारों से वित्तीय मदद और हंगेरियन पासपोर्ट मिलने के बाद कोसोमा स्लाव भाषा सीखने के लिए क्रोएशिया गए, और वहां महीनों बिताने के बाद, नवंबर सन 1819 ईस्वी को वे पूर्व की ओर रवाना हो गये। इसके बाद वह अलेक्जेंड्रिया, साइप्रस, एलेप्पो, बग़दाद और तेहरान होते हुये मध्य एशिया चले गये, जहां वह एक ब्रिटिश निवासी के साथ 14 अक्टूबर सन 1820 से लेकर 1 मार्च सन 1821 तक यानी चार महीने रहे। तेहरान में ब्रिटिश इंस्टिट्यूट ऑफ़ परशियन स्टडीज़ की दीवार पर कोसोमा की याद में एक तख़्ती लगी है, जिसमें लिखा है:
“ब्रिटिश समुदाय की मेहमान नवाज़ी का आनंद लेते हुये, तिब्बत विज्ञान के विद्वान अलेक्जेंडर कोसोमा डी कोरोस, 14 अक्टूबर सन 1820 से 1 मार्च, सन 1821 तक तेहरान में रहे।”

ख़ुद को यूरोपीय पोशाक से ईरानी पोशाक में ढालकर, और आर्थिक मदद के साथ कोसोमा 26 जनवरी, सन 1822 ईस्वी को बुख़ारा से होते हुये पेशावर पहुंचे, जहां उनकी मुलाक़ात पंजाब के तत्कालीन महाराजा रंजीत सिंह के फ़्रांसीसी अधिकारियों से हुई, जिन्होंने 17 अप्रैल सन 1822 में उन्हें कश्मीर पहुंचाने में मदद की। लेकिन 9 जून को लेह पहुंचने के बाद उन्हें एहसास हुआ, कि उनके पास पैसे ख़त्म हो गये थे। उन्हें यह भी लगा, कि ख़तरनाक घाटियों की वजह से आगे की यात्रा सुरक्षित नहीं है।

एलेग्जेंडर सोमा डी कोरोस पर जारी किया स्टाम्प | डीक्लेम्प

कोसोमा के जीवन में एक महत्वपूर्ण मोड़ 16 जुलाई, सन 1822 को तब आया, जब वह लाहौर लौटने के इरादे से श्रीनगर (जम्मू-कश्मीर) में रुके, जहां उनकी मुलाक़ात अंग्रेज़ अधिकारी विलियम मूरक्रॉफ़्ट से हुई, जो पशु चिकित्सक और ईस्ट इंडिया कंपनी के घुड़साल की देखरेख करते थे। मुरक्रॉफ़्ट, कंपनी के लिये और घोड़े लाने के लिए अफ़गानिस्तान के रास्ते मध्य एशिया से एक भूमिगत मार्ग खोजना चाहते थे। बातचीत के दौरान कोसोमा को पता चला, कि ब्रिटिश भारत सरकार को उस समय एक ऐसे व्यक्ति की फ़ौरन ज़रुरत थी, जो तिब्बत जाकर तिब्बती भाषा का अध्ययन कर सके। कश्मीर में अपने प्रवास के दौरान  दोनों ने अपनी यात्रा गाइड से फ़ारसी में तिब्बती व्याकरण की मूल बातें सीखीं। तिब्बती का अध्ययन करने और तिब्बती भाषा के व्याकरण और शब्दकोश को संकलित करने के लिए लद्दाख वापस जाने की शर्त पर मूरक्रॉफ़्ट ने कोसोमा को भारत सरकार की मदद की पेशकश की, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया।

17वीं शताब्दी से  ईसाई मिशनरियां मध्य पश्चिमी तिब्बत में बसने लगे थे, और वे लामाओं और उनके अनुष्ठानों, जीवन शैली आदि का विस्तृत इतिहास लिख रहे थे। लेकिन ये इतिहास वृत्तांत न तो पूरी तरह सही थे और न ही तटस्थ भाव से लिखे गए थे। जैसे जैसे अंग्रेज़ों का पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में नियंत्रण होने लगा और एंग्लो-गोरखा युद्ध (1814-1816) जीतने के बाद वे लाहौल, स्पीति, कुमाऊं, गढ़वाल और उत्तरी बंगाल में तिब्बत तक पहुंच गये। उनमें तिब्बत को तटस्था के साथ समझने की इच्छा बढ़ने लगी। कलकत्ता में विलियम जोन्स और जेम्स प्रिंसेप जैसे कई प्राच्यवादियों( ओरियंटलिस्ट्स) ने भारतीय उपमहाद्वीप के अतीत पर काम करना शुरू कर दिया। हंगरी के लोगों की उत्पत्ति की  कोसोमा की खोज  और मूरक्रॉफ़्ट की तिब्बती भाषा के ज्ञान की परिकल्पना अंग्रेज़ों के लिए बेशक़ीमती साबित हुई, और नतीजे में एक नया विज्ञान और तिब्बती-विज्ञान नामक एक पेशे का जन्म हो गया। अपनी योजना को अंतिम रूप देने के बाद,सन  1823 की गर्मियों में कोसोमा और मूरक्रॉफ़्ट लेह रवाना हो गये। वहां पहुंचने के बाद मूरक्रॉफ़्ट ने सिसोमा को कुछ आवश्यक चीज़ें दीं और लेह के मुख्य शाही मंत्री और ज़ांगला मठ (अब करगिल ज़िले में) के प्रमुख लामा सांगे फुंतसोग के नाम एक सिफ़ारिशी चिट्ठी लिखी।

कोसोमा ने ज़ांगला में सोलह महीने (20 जून, 1823 से 22 अक्टूबर, 1824 तक) बिताये और इस दोरान उन्होंने तिब्बती भाषा में महारथ हासिल की, तथा भारत-तिब्बत बौद्ध साहित्य के दो महान विश्वकोशों का अध्ययन किया, जिनमें भारत से लाई गईं बौद्ध धर्म से संबंधित किताबों का अनुवाद था। इस दौरान उन्होंने तिब्बती कग्यूर के 320 खंडों का एक संक्षिप्त विवरण लिखा, जिसकी संस्कृत-तिब्बती शब्दावली महाव्युतपट्टी बनायी गयी, जो 9वीं शताब्दी में संकलित बौद्ध शब्दावली का एक मशहूर शब्दकोश है। ये उनका तीसरा मोनोग्राफ़ था। उन्होंने जो तिब्बती पांडुलिपियां जमा कीं थीं, वे अब हंगेरियन एकेडमी ऑफ़ साइंसेज़ में रखी हुईं हैं। उन्होंने लगभग चालीस हज़ार तिब्बती शब्दों का संग्रह किया और तिब्बती अंग्रेजी शब्दकोश और अंग्रेज़ी में तिब्बती व्याकरण के मसौदे तैयार किये।

सर्दियों में कोसोमा 26 नवंबर, 1824 को सुबाथू (अब हिमाचल प्रदेश में) रवाना हो गये, जहां से वर्तमान में, हिमाचल प्रदेश में भारतीय क्षेत्र शुरू होता है। एंग्लो-गोरखा युद्ध के बाद ये क्षेत्र अंग्रेजों के अधीन था। कोसोमा अपने पेशेवर उद्देश्य के तहत यहां आये थे, लेकिन दुर्भाग्य से उन्हें रूसी जासूस समझ लिया गया। बहरहाल, मूरक्रॉफ़्ट के पत्र, गवाही और कोसोमा के काम तथा उसकी प्रगति-रिपोर्ट के बाद कुछ हद तक कोसोमा को राहत मिली। इस तरह कोसोमा को वहां रहने की इजाज़त मिल गई। उन्हें 50 रुपये का मासिक वज़ीफ़ा भी मिल गया था। कोसोमा ने कड़ी निगरानी के बीच अपना तिब्बती अध्ययन फिर से शुरू किया, जो लगभग छह महीने तक चला।

कोसोमा के काम की ख़बर भारत में ब्रिटिश राज की तत्कालीन राजधानी कलकत्ता पहुंची, जहां एशियाटिक सोसाइटी भी हुआ करती थी। सोसायटी के दख़ल से कोसोमा को सभी संदेहों से मुक्त कर दिया, और उन्हें उनके शोध कार्य को आगे बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित किया गया। सन 1825 ईस्वी की गर्मियों में कोसोमा ज़ांस्कर रवाना हो गये, जहां वह प्रसिद्ध फुगताल मठ में रुके। यहां पूरा एक साल रहकर उन्होंने और तिब्बती पांडुलिपियों का अध्ययन किया, और उनके अनुवाद पर काम किया। लेकिन इस बीच तिब्बती लोग उन्हें अंग्रेज़ों का जासूस समझने लगे। इसके बाद कोसोमा और उनके गुरु फुंतसोग 17 जनवरी सन 1827 को सुबाथू वापस आ गये , और कनम (अब हिमाचल प्रदेश के पूह ज़िले में) में रहने लगे, जहां उन्होंने अक्टूबर सन 1830 ईस्वी तक तिब्बती पांडुलिपियों के संग्रहों का अध्ययन किया। फुंतसोग के योगदान और उन्हें श्रद्धांजलि के रूप में कोसोमा ने उनका नाम तिब्बती-अंग्रेज़ी शब्दकोश के मुखपृष्ठ पर दिया।

एशियाटिक सोसाइटी द्वारा निर्मित एलेग्जेंडर सोमा डी कोरोस की प्रतिमा | विकी कॉमन्स

सुबाथू छावनी के कमांडर, कैप्टन चार्ल्स पैट कैनेडी शिमला के संस्थापक माने जाते हैं। उन्होंने भी पहले कोसोमा को शक की नज़र से देखा था, लेकिन उनका काम और उसकी प्रगति देखने के बाद वह कोसोमा के दोस्त बन गये। कोसोमा के काम की प्रगति के बारे में कैनेडी ने, एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ बंगाल के होरेस हेमैन विल्सन को पत्र लिख कर कोसोमा के काम को किताब के रूप में छापने के लिये कहा। विल्सन ने कोसोमा को किताब तैयार करने के लिए आमंत्रित किया, ताकि इसे छपने के लिये प्रेस में भेजा जा सके। सन 1830 ईस्वी के अंत में, कोसोमा अपनी किताब के प्रकाशन का काम देखने कलकत्ता गये। एक तरफ़ जहां प्रकाशन का काम चल रहा था, वहीं कोसोमा ने अपनी मातृभाषा के साथ भाषाई संबंधों की खोज के लिये अपना समय संस्कृत और भारतीय प्रादेशिक भाषाओं को सीखने में लगाया। यूरोपियन होने के बावजूद कोसोमा बेहद सादगी से रहते थे, जो अंग्रेज़ अधिकारियों को अच्छा नहीं लगता थी। इस डर से कहीं वह स्थानीय लोगों का विश्वास न खो बैठें, कोसोमा सोसाइटी के पुस्तकालय के पीछे एक तपस्वी की तरह रहते थे, और वह किताबों और पांडुलिपियों के बक्से से बने नौ फ़ुट की चौकोर जगह पर सोते थे। भोजन के रूप में वह बस थोड़े से चावल खाते थे।

कोसोमा का पहला आधिकारिक तिब्बती व्याकरण और तिब्बती-अंग्रेजी शब्दकोश, सन 1834 में प्रकाशित हुआ। सन 1841 तक वह बंगाल की एशियाटिक सोसाइटी में मानद सदस्य से लेकर लाइब्रेरियन तक कई पदों पर रहे। उन्होंने नेपाल से एशियाटिक सोसाइटी द्वारा प्राप्त विशाल तिब्बती पांडुलिपियों को भी सूचीबद्ध किया। कोसोमा 58 साल के हो चुके थे, लेकिन उन्होंने तिब्बत की यात्रा शुरू करने का फ़ैसला कर लिया था, जिसकी शुरुआत उन्होंने अपनी मातृभूमि से की थी। लेकिन उनकी मुहिम असफल रही, क्योंकि तराई के दलदलों को पार करते वक़्त उन्हें मलेरिया बुख़ार हो गया, और 11 अप्रैल सन 1842 को दार्जिलिंग में उनकी मृत्यु हो गई। उन्हें दार्जिलिंग में ही दफ़ना दिया गया। तब से यह लगभग ज़रूरी हो गया है ,कि हंगरी का जो भी राष्ट्राध्यक्ष भारत आता है, तो उसे कोसोमा की क़ब्र पर ज़रुर जाना होता है।

कोसोमा की कई अनुवादित पांडुलिपियां छप नहीं पाईं थीं। उन्हें कोसोमा के जीवनी लेखक थियोडोर डुका और प्राच्यविद् एडवर्ड डेनिसन रॉस ने सन 1910-1940  के बीच प्रकाशित करवाया। उनके कामों को यूरोप के सबसे महत्वपूर्ण शैक्षणिक केंद्रों में भेजा गया, जिसकी वजह से विद्वानों को न सिर्फ़ तिब्बत का अध्ययन करने में, बल्कि बौद्ध धर्म के इतिहास को क़रीब से समझने में भी मदद मिली। इसके अलावा कई शिक्षाविदों को कई भाषाओं में कोसोमा के काम के अध्ययन का मौक़ा मिला।

थियोडोर डूका, एलेग्जेंडर सोमा डी कोरोस के जीवनी लेखक | विकी कॉमन्स

तिब्बत-विज्ञान और बौद्ध धर्म के कई संस्थानों के नाम, कोसोमा के नाम पर रखे गये हैं।  कोसोमा को 22 फ़रवरी सन 1933 को ताइशो बौद्ध विश्वविद्यालय, टोक्यो ने बोधिसत्व की उपाधि से सम्मानित किया था। इसके अलावा हंगेरियन ओरिएंटल सोसाइटी की दान की गई ध्यान मुद्रा में उनकी एक मूर्ति जापानी इंपीरियल संग्रहालय में स्थापित की गई है।

दार्जीलिंग में मौजूद एलेग्जेंडर सोमा डी कोरोस की मज़ार | विकी कॉमन्स

बौद्ध धर्म के बारे में गहरी समझ रखने के कारण, अलेक्जेंडर कोसोमा डी कोरोस का नाम, बौद्धों और भारतीयों के बीच  बहुत सम्मान से लिया जाता है। उनकी प्रतिमा को सम्मानजनक स्थान दिया गया है और उनके कमरे को आज भी कोलकाता की एशियाटिक सोसाइटी में संभालकर रखा गया है। उन्हें हंगरी में राष्ट्रीय नायक माना जाता है। हंगेरियन एकेडमी ऑफ़ साइंसेज़ (बुडापेस्ट) में उन्हें समर्पित एक तख़्ती लगी हुई है जिस पर लिखा है:

“वाहवाही या पैसे के परवाह किये बिना एक ग़रीब अकेला हंगेरियन,  लेकिन जिसने उत्साह से प्रेरित होकर हंगरी के मूल देश की तलाश की, मगर अंत में बोझ तले टूट गया।”

हम आपसे सुनने के लिए उत्सुक हैं!

लिव हिस्ट्री इंडिया इस देश की अनमोल धरोहर की यादों को ताज़ा करने का एक प्रयत्न हैं। हम आपके विचारों और सुझावों का स्वागत करते हैं। हमारे साथ किसी भी तरह से जुड़े रहने के लिए यहाँ संपर्क कीजिये: contactus@livehistoryindia.com

आप यह भी पढ़ सकते हैं
Ad Banner
close

Subscribe to our
Free Newsletter!

Join our mailing list to receive the latest news and updates from our team.

Loading