गुमशुदा शहर अग्रोहा और अग्रवाल समुदाय से इसका संबंध

भारत में सत्य और मिथकों के बीच फ़र्क़ करना हमेशा मुश्किल रहा है। इतिहास और किवदंतियां, ख़ासकर समुदायों से संबंधित मुद्दे आपस में इतने गडमड हो जाते हैं कि इन्हें जानना बहुत ज़रुरी हो जाता है। ऐसी ही एक कहानी है सरस्वती नदी के किनारे बसे प्राचीन रहस्मयी शहर और इसके साथ सम्पन्न व्यापारी अग्रवाल समाज के संबंधों की।

इस मामले में शहर के इतिहास से संबंधित लोक-कथा की सच्चाई गुमशुदा शहर की खुदाई के बाद पता चली।

पड़ौस की छोटी-सी परचून की दुकान से लेकर बजाज और मित्तल जैसे उद्योगपति या फिर ओला के भावेश अग्रावल जैसे नये उद्यमी, सूची बहुत लम्बी है… भारतीय व्यापार में अग्रवाल समुदाय का दबदबा रहा है। इस समुदाय की उत्पत्ति को लेकर एक लोक-कथा है जिसका संबंध राजा अग्रसेन नामक शासक से है। अग्रवाल समाज का मानना है कि राजा अग्रसेन, महान महाकाव्य महाभारत काल में व्यापारियों के साम्राज्य पर

इस पौराणिक कथा के अनुसार पांच हज़ार साल पहले अग्रसेन नाम के एक परोपकारी राजा थे जो अग्रेय नामक जनपद (गणराज्य) पर शासन करते थे और उनकी राजधानी अग्रोदका में हुआ करती थी। वह बहुत समझदार थे। उनके साम्राज्य में जो भी बसना चाहता था वह उसे मकान बनाने के लिए ईंटें और कारोबार करने के लिए पूंजी देते थे। जल्द ही अग्रोहा सफल व्यापारियों का एक समृद्ध शहर-राज्य बन गया। लोगों का ये भी मानना है कि राजा अग्रसेन ने ही आगरा शहर बसाया था जिसे उस समय आगरावती कहा जाता था। इसके अलावा लोगों का ये भी मानना है कि नयी दिल्ली में कनाट प्लेस के पास सीढ़ियों वाला कुआं “अग्रसेन की बावड़ी” भी उन्होंने ने ही बनवाई थी।

लोक-कथा के अनुसार राजा अग्रसेन के 18 पुत्र थे और इनमें से हर एक ने एक उप-कुटुंब बनाया था जिसे हम आज अग्रवालों के गोत्र के नाम से जानते हैं। इनमें मित्तल, जिंदल, गोयल और गर्ग शामिल हैं। माना जाता है कि अग्रसेन साम्राज्य सदियों तक ख़ुशहाल रहा था लेकिन फिर हमलों की वजह से अग्रवाल समुदाय के लोग देश के विभिन्न इलाक़ों में चला गया और इस तरह इस साम्राज्य का पतन हो गया।

ये वो लोक कथा है जो मुंह-ज़बानी पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रह है। लेकिन इसे लोकप्रियता और स्वीकारिता तब मिली जब सन 1871 में हिंदी साहित्य के महान रचनाकार भारतेंदु हरीशचंद्र (1850-1885) ने “अग्रवालों की उत्पत्ति” नामक एक निबंध लिखा। इस निबंध के बाद अग्रवाल समाज के आरंभिक इतिहास और इसकी उत्पत्ति से संबंधित कथाओं की सत्यता पता करने के लिये पुरातात्विक साक्ष खोजने की जिज्ञासा पैदा हुई।

शुरु शुरु में अग्रोहा शहर के संभावित स्थान के बारे में कोई एक राय नहीं बन पाई थी। कुछ लोगों का दावा था कि ये राजस्थान या पंजाब में रहा होगा जबकि अन्य का कहना था कि हो सकता है ये आगरा के पास रहा हो । सन 1888-89 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को दिल्ली से क़रीब 190 कि.मी. दूर हिसार ज़िले में अग्रोहा गांव में कई टीले मिले जो 650 एकड़ ज़मीन पर फैले हुए थे। ये गांव सूखी नदी घग्गर के तट पर था। यहां सन 1888-89, सन 1938-39 और सन 1979-85 के बीच तीन चरणों में खुदाई हुई।

खुदाई में पुरातत्वविदों को जो मिला वो चकित करने वाला था। टीलों की हर खुदाई में मानों एक नया साक्ष मिला हो। खुदाई में मिली कलाकृतियों की मदद से पुरातत्वविदों और इतिहासकारों ने कहानी की कड़ियां जोड़ीं जिससे बड़े व्यापारिक शहर अग्रोदका के बारे में जानकारी मिली। खुदाई में एक योजनाबद्ध शहर के बारे में पता चला जहां एक ख़ंदक, ऊंची दीवारें और चौड़ी सड़कें हुआ करती थीं। यहां चौथी-पांचवी सदी(ई.पू.) से लेकर 15वीं सदी तक लोग रहा करते थे। ये शहर तक्षशिला और मथुरा के महत्वपूर्ण व्यापार मार्ग पर सरस्वती नदी के तट पर स्थित था।

खुदाई में पता चला कि अग्रोदका का अस्तित्व शायद हड़प्पा सभ्यता के पहले से था। यहां खुदाई में स्लेटी रंग के मिट्टी के बर्तन, बौद्ध स्तूप तथा मौर्य और शुंग के समय की मूर्तियों के अवशेष मिले। यहां लगातार लोगों के रहने से पता चलता है कि उस समय इस स्थान का कितना महत्व रहा होगा। मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद यहां अग्र अथवा अग्रका क़बीले का शासन हो गया होगा। अग्रोहा में कई सिक्के मिले हैं जिन पर अगोदके अगका जनपद अंकित है। इससे पता चलता है कि अग्रस जनपद कितना समृद्ध था जिसका उल्लेख लोक कथाओं में है।

बाद में इस क्षेत्र पर कुषाण राजवंश और फिर गुप्त राजवंश का शासन हो गया। इस दौरान यहां हिंदू, बौद्ध तथा जैन धर्म ख़ूब पनपे। इसके बिखराव का कारण सरस्वती नदी का पानी सूखना था जिसकी वजह से व्यापार बुरी तरह प्रभावित हुआ था। इस क्षेत्र के पतन का कारण मुसलमानों के आक्रमण नहीं थे जैसा कि लोक कथाओं में कहा जाता है।

शहर का अंतिम ज्ञात उल्लेख 14वीं सदी में तुग़लक़ के शासनकाल से मिलता है। मोरक़्क़ो के यायावर इब्न बतूता ने अपने यात्रा-वृतांत में एक कहानी का उल्लेख किया है जो उन्हें ख़ुरासान के छात्रों ने सुनाई थी। कहानी में बताया गया कि कैसे तुग़लक़ के शासनकाल में अकाल के दौरान उन्हें वीरान अग्रोहा शहर मिला। वे (छात्र) जब एक घर में दाख़िल हुए तो उन्होंने देखा कि एक आदमी आग में एक इंसान का पांव भूनकर खा रहा था। ज़ियाउद्दीन बरनी ने “तारीख़-ए-फ़ीरोज़ शाही” में लिखा कि फ़ीरोज़ शाह तुग़लक़ ने वीरान अग्रोहा में इमारतों और मंदिरों को गिराकर इसके मलबे से नया हिसार शहर बनाया था।

हो सकता है कि अग्रवाल इस गुमशुदा शहर के मूल निवासी हों और सैकड़ों सालों के बाद आज भी जिनके ज़हन में इसकी यादें ताज़ा हों। अग्रवाल समाज के प्रयासों से अग्रोहा में फिर ख़ुशहाली आ रही है। यहां राजा अग्रसेन, महालक्ष्मी देवी के मंदिर तथा स्कूल-कॉलेज हैं जो संपन्न अग्रवाल समाज ने बनवाये हैं।

हो सकता है कि भविष्य में और खुदाईयों के बाद राजा अग्रसेन के रहस्य पर से पर्दा उठे । उनके बारे में और जानकारियां मिलें लेकिन इसके लिये हमें इंतज़ार करना होगा।

क्या आप जानते हैं?

सन 1978 में खुदाई में मिली एक टेरकोटा तख़्ती पर संगीत के सात स्वर नी, ध, प, म, ग, रे, स अंकित हैं। 9वीं शताब्दी की ये तख़्ती भारतीय संगीत के इतिहास का प्रारंभिक पुरातात्विक साक्ष है।

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