शानदार ताजमहल देखने के लिए आगरा की यात्रा करना शायद सभी की इच्छा सूची में है। लेकिन जब आप वहां हों, तो इन दो अन्य स्थानों पर भी जाना न भूलें, जो भारतीय इतिहास में समान रूप से महत्वपूर्ण हैं।
आगरा, भारत में मुग़लों की पहली राजधानी थी जो बाबर, अकबर और जहांगीर के शासनकाल में ख़ूब फूलीफूली लेकिन सन 1628 में सत्ता संभालने के बाद शाहजहां के शासनकाल में आगरा में और भी ज़्यादा ख़ुशहाली आई। सन 1638 तक आगरा मुग़ल राजधानी रहा। इसके बाद शाहजहां ने दिल्ली में अपनी राजधानी के लिये शाहजानाबाद बनवाया। इतिहास हमें बताता है कि शाहजहां को इमारतें बनवाने का बड़ा शौक़ था । वह कलाओं प्रेमी भी था। आज हम आपको आगरा की सैर उसके 3 मुख्य स्मारकों के द्वारा करवाते हैं।
1- आगरा का लाल क़िला
सन 1638 तक मुग़ल बादशाह यमुना नदी के तट पर स्थित आगरा क़िले का इस्तेमाल सैन्य ठिकाने और रिहाइश के लिये किया करते थे। सन 1638 में मुग़लों ने आगरा छोड़कर दिल्ली को अपनी राजधानी बना लिया था। शहर के भीतर स्थित क़िले के अंदर भी एक शहर है। क़िले के अंदर की इमारतें फ़ारस और तैमूर शैली की वास्तुकला को दर्शाती हैं। आगरे का क़िला ऐसे समय में बना था जब बाहर से लगातार हमले होते थे । ऐसे हालात में विशाल महल तथा क़िले शक्ति के प्रतीक माने जाते थे।
माना जाता है कि जिस ज़मीन पर आगरे का क़िला बनवाया गया था, उससे पहले वहां बादलगढ़ का पुराना क़िला हुआ करता था जिसे लोधी सुल्तानों ने बनवाया था। लोधी राजवंश ने सन 1451 से लेकर सन 1526 तक दिल्ली पर राज किया था। लोधी वंश के दूसरे शासक सिकंदर लोधी ने सन 1503-04 में आगरा शहर बसाया था। ये शहर गुजरात, बंगाल और राजपूताना के बीच व्यापार मार्ग पर पड़ता था लिहाज़ा ये शहर बहुत जल्द समृद्ध हो गया।
सन 1526 में, पानीपत के युद्ध में बाबर ने सिकंदर लोधी के उत्तराधिकारी इब्राहिम लोधी को हराया था। उसके बादआगरा मुग़लों के नियंत्रण में चला गया। बाबर ने क़िले के अंदर बावड़ी बनवाई थी और यहीं उसके पुत्र हुमांयू की भी ताजपोशी हुई ।
आगरे का सुनहरा समय अकबर के शासनकाल में शुरु हुआ। अकबर ने पुराने बादलगढ़ क़िले को गिरवाकर नया क़िला बनवाया। बताया जाता है कि क़िले को बनाने में क़रीब चार हज़ार मज़दूर लगे थे और इसका निर्माण कार्य सन 1565 से शुरु हुआ था और सन 1573 में पूरा हुआ था। क़िले का निर्माण कार्य क़ासिम ख़ान की देखरेख में हुआ था। क़ासिम अकबर के दरबार में मीर-ए-बहर हुआ करता था। ये क़िला 94 एकड़ भूमि पर फैला हुआ है।
अकबर के वज़ीर और इतिहासकार अबुल फ़ज़ल ने अकबरनामा में लिखा है कि क़िला बनवाने में आज के हिसाब से क़रीब छह करोड़ रुपये ख़र्च हुए थे। क़िले का बाहरी हिस्सा लाल बलुआ पत्थर से बना है जो राजस्थान के धोलपुर शहर से लाया गया था। अबुल फ़ज़ल ने ये भी लिखा है कि दीवारें इस तरह बनवाई गई थीं कि जोड़ों के बीच से एक बाल भी नहीं निकल सकता था। दीवारों के जोड़ों को लोहे के सरियों से जोड़ा गया था। क़िले के तीन तरफ़ खंदकें थीं और क़िले के चार दरवाज़े थे जो सुसज्जित थे। इनमें से एक दरवाज़े को ख़िज़री दरवाज़ा (पानी का दरवाज़ा) कहा जाता था जो नदी की तरफ़ खुलता था जहां घाट बने हुए थे। और पढ़ें
2- आगरा के मुग़ल बाग़
बाग़ बनवाने की “ मुग़ल चारबाग़ शैली ” दरअसल फ़ारस ( ईरान) में विकसित हुई थी। इस शैली में बाग़ चौकोर होता था जिसे रास्तों या फिर नहरों से चार हिस्सों में बांटा जाता था। इस शैली का विचार क़ुरान में जन्नत की पेश की गई तस्वीर से आया था। फ़ारसी में इन बाग़ों को फ़िरदौस( जन्नत) कहा जाता है। जन्नत के लिये अंग्रेज़ी शब्द पैराडाइस इसी से बना है। मुख्य इमारत बाग़ों के बीचों-बीच होती थीं। इन बाग़ों के अंदर मक़बरे भी बनाये जाते थे। ऐसा माना जाता था कि इन मक़बरों का गहरा संबंध मरने के बाद के जीवन से है। मुग़ल गार्डन का महत्व इसलिये था कि तब दरबारों की जगह लगातार बदलती रहती थी। शाही ख़ानदान के लोग इन जगहों का इस्तेमाल आराम करने या फिर मनोरंजन के लिये करते थे।
भारत में चारबाग़ डिज़ाइन बाबर के साथ आयी थी । बाबर ने काबुल में अपने शासनकाल के दौरान कई बाग़ बनाये थे। लेकिन बाबर ने भारत में बाग़ सिर्फ़ अपने शौक़ के लिये नहीं बल्कि उपयोगिता के लिये बनाये थे। बाबर ने भीषण गर्मी से बचने के लिये बाग़ बनाने का फ़ैसला किया था और इसीलिये बाबर के बनाये गये बाग़ों के नज़दीक या आसपास बावड़ी और हमाम ज़रूर हुआ करते थे। बाबर के बाद के मुग़ल बादशाहों, ख़ासकर शाहजहां ने अपने सौंदर्यप्रेम के लिये बाग़ बनवाये। इसके लिये उन्होंने या तो बाबर के ज़माने के बाग़ों को दोबारा बनवाया या फिर उनमें फेरबदल किये। लुसी पेक ने अपनी पुस्तक “अगरा: द् आर्किटेक्चरल हेरिटेज” (2008), में लिखा है कि भारत में कहीं भी मौलिक चारबाग़ नहीं हैं।
आख़िर आगरा में कितने बाग़ थे? जयपुर सिटी पैलेस म्यूज़ियम में सन 1720 के नक़्शे के अनुसार आगरा में कम से कम 45 बाग़ हुआ करते थे। इनमें से ज़्यादातर बाग़ नदी किनारे पर हैं और कुछ ताजमहल के सामने हैं। इन बाग़ों की सैर आज भी की जा सकती है हालंकि ज़्यादतर बाग़ उजड़ी हुई हालत में हैं।
लुसी पेक ने ताजमहल के नज़दीक, नदी किनारे के क़रीब बाग़ों की सैर के लिये एक बढ़िया मार्ग पेश किया है। बाग़ों की सैर की शुरुआत होती है बाग़-ए-ज़र-अफ़्शां से जो संभवत: मुग़लों के बनवाए गए आरंभिक बाग़ों में से एक है। कहा जाता है कि इस बाग़ को बाबर ने बनवाया था। दरअसल समरक़ंद में ज़र-अफ़्शां नाम की एक नदी होती थी जो बाबर को बहुत पसंद थी। जहांगीर और नूरजहां ने जब इस बाग़ की मरम्मत करवाई तो इसका नाम बाग़-ए-नूर-अफ़्शां पड़ गया। इसका मौजूदा नाम रामबाग़ है जो आगरा पर मराठा शासन के दौरान पड़ गया था। माना जाता है रामबाग़ आराम बाग़ का ही अपभ्रंश है। और पढ़ें
3- ताजमहल
ताजमहल पूरे विश्व में आज भारत की पहचान है। ताजमहल को यूं ही दुनियां के सात अजूबों में शामिल नहीं किया गया है। इसकी सुंदरता तो बस देखते ही बनती है। ताजमहल को उसकी असाधारण वास्तुकला के लिये ही नहीं बल्कि उसके साथ जुड़े रोचक इतिहास के लिये भी जाना जाता है। मुग़ल बादशाह शाहजहां ने आगरा शहर में अपनी तीसरी पत्नी मुमताज़ महल की याद में ये मक़बरा बनवाया था जिसे मुहब्बत की निशानी भी कहा जाता है। किसी समय ताजमहल परिसर में बाज़ार और सराय भी हुआ करते थे। यहां न सिर्फ़ मुमताज़ महल की क़ब्र है बल्कि शाहजहां भी यहीं दफ़्न हैं। कहा जाता है कि शाहजहां की और दो पत्नियों की भी क़बरे यहीं हैं। इसी तरह के न जाने कितने कहानी-क़िस्से ताजमहल से जुड़े हुए हैं।
इतिहास हमें शाहजहां और मुमताज़ महल की मोहब्बत के बारे में भी बताता है जो सफ़ेद पत्थरों में अमर हो चुकी है। कहा जाता है कि शाहजहाँ अपनी बीवियों में से सबसे ज़्यादा प्यार मुमताज़ महल से करता था। दोनों की मोहब्ब्त का तफ़्सील से ज़िक्र मोहम्मद अमीन क़ज़वीनी जैसे दरबारी लेखकों ने भी किया है। मुमताज़ महल अकसर शाहजहां के साथ उनकी सैन्य मुहिम में साथ जाया करती थीं। सन 1631 में, बच्चे के जन्म के दौरान अचानक मुमताज़ की मृत्यु से शाहजहां पर ग़म का पहाड़ टूट पड़ा था।
लेकिन बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि मुमताज़ महल की मृत्यु आगरा में नहीं हुई थी और उन्हें पहले यहां नहीं दफ़नाया गया था। उनकी मृत्यु आगरा से 900 कि.मी. दूर मध्य प्रदेश के बुरहानपुर शहर में हुई थी। उस समय शाहजहां अहमदनगर के निज़ाम शाहों से लड़ रहे थे और मुमताज़ महल उनके साथ थीं।
मुमताज़ महल को बुरहानपुर में दफ़न नहीं किया जाना था। शाहजहां चाहते थे कि उन्हें राजधानी आगरा में दफ़्न किया जाए और वहां स्वर्ग की तरह का एक शानदार स्मारक बनवाया जाए। लेकिन मुमताज़ को पहले बुरहानपुर के बाग़ ज़ैनाबाद में दफ़्न किया गया। बाद में 14 दिसंबर सन 1631 में मुमताज़ महल के ताबूत को एक जुलूस का शक्ल में आगरा ले जाया गया था। उपलब्ध रिकार्ड के अनुसार जुलूस का नेतृत्व शाहजहां के पुत्र शाह शुजा और परिवार के हकीम वज़ीर ख़ान कर रहे थे। जुलूस में हज़ारों सैनिक भी शामिल थे। मुमताज़ महल का शव सोने के ताबूत में रखा गया था। और पढ़ें
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