जर्मन जनरल वॉल्टर रेन्हार्ट सोम्ब्रे: संघर्ष और त्रासदी की दास्ताँ

जर्मन जनरल वॉल्टर रेन्हार्ट सोम्ब्रे: संघर्ष और त्रासदी की दास्ताँ

18वीं सदी के भारतीय इतिहास में अपने ज़माने की सबसे ताकतवर महिला के रूप में विख्यात सरधना की समरू बेगम के नाम से तो सभी वाकिफ़ हैं, पर जिस शख़्स ने उसे इस मुकाम तक पहुंचाया उसके बारे में बहुत कम चर्चा है। ये शख़्स कोई और नहीं खुद उसका शौहर जर्मनी से हिंदुस्तान अपनी क़िस्मत आज़माने आया यायावर लड़ाका वॉल्टर रेन्हार्ट सोम्ब्रे था। भारतीय ज़ुबान में उसके सहयोगी उससे ‘समरु साहब़’ कहकर बुलाते। इसी वजह से उसकी पत्नी ‘समरु बेगम’ कहलाने लगी जिसका मूल नाम फ़रज़ाना था।

समरू बेगम की ज़िंदगी में वाल्टर रेन्हार्ट की अहमियत पर रौशनी डालते हुए मशहूर इतिहासकार विलियम डेलरिम्पल कहते हैं “दिल्ली और इसके दोआब के बाहरी इलाक़ों में सरधना की समरु बेगम एक ऐसे रियासत पर काबिज़ थी, जिसकी गिनती भारत के दिलचस्प देशी रियासतों में होती है। बेगम के बारे में कहा जाता है, कि वह मूलतः एक अर्ध-कश्मीरी नर्तकी (नाचनेवाली लड़की) थी, जिसकी क़िस्मत उस समय से परवान चढ़ी, जब वह मुगल-सेवा में कार्यरत ‘सोम्ब्रे’ नाम के एक ‘भाग्यशाली’ जर्मन सैनिक वॉल्टर रेन्हार्ट की पत्नी बनी।” (जूलिया किये की पुस्तक ‘फ़रज़ाना’ की भूमिका से)

समरू बेगम

उस समय की भारतीय राजनीतिक स्थितियों में, जब देशी राजे-रजवाड़े वर्चस्व की आपसी लड़ाई में अपनी सेनाओं की मज़बूती के लिए भाड़े पर काम करनेवाले विदेशी लड़ाकों की मदद ले रहे थे, उस दौर में यूरोप के, ख़तरों से खेलने वाले अन्य जांबाज़ों की तरह दिलेर, दुस्साहसी और महत्वाकांक्षी रेन्हार्ट सोम्ब्रे ने भी हिंदुस्तान का रूख़ किया था।

विलियम डेलरिम्पल सहित सोम्ब्रे पर लिखने वाले अन्य इतिहासकारों ने उसे एक ‘भाग्यशाली’ व्यक्ति कहकर संबोधित किया है। यहां भी भाग्य ने उसका साथ दिया। तभी तो फ़्रांस के राजा के यहां और ईस्ट इंडिया कंपनी में महज़ एक साधारण-से सैनिक के रूप में अपनी ज़िंदगी की शुरुआत करने वाला यह शख़्स बंगाल और अवध के नवाब़ों तथा जाट व रोहिल्ला शासकों की सेनाओं में काम करता हुआ मुग़ल बादशाह शाह आलम-द्वितीय के दरबार तक पहुंचा। और, बादशाह का ऐसा चहेता बना, कि सरधना जैसी समृद्ध रियासत का जागीरदार बन बैठा।

पर इसे इतिहास की विडंबना ही कही जाएगी, कि इस ‘भाग्यशाली’ शख़्स की क़िस्मत हमेशा उस पर समान रूप से मेहरबान नहीं रही और उसके ललाट पर तोहमत की ऐसी लकीरें चस्पां कर दी, कि वह ताज़िंदगी मिटा न पाया। साम्राज्यवाद कालीन भारत का सबसे जघन्य अपराध, जो इतिहास में ‘पटना नरसंहार’ के नाम से दर्ज है, का वह मुख्य दोषी क़रार किया गया और ‘पटना के क़साई’ (बूचर ऑफ़ पटना) के नाम से बदनाम हुआ। बंगाल के नवाब़ मीर क़ासिम और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच चल रहे विवादों के दौरान मीर क़ासिम के आदेश पर रेन्हार्ट सोम्ब्रे (जो उन दिनों मीर क़ासिम की सेना का कमांडर था) ने पटना में क़रीब 50 निहत्थे अंग्रेज़ बंदियों, जिनमें सैन्य अधिकारी, नागरिक और महिला-बच्चे शामिल थे, को अक्टूबर, सन 1763 की रात खाने पर बुलाकर उनकी नृशंसतापूर्वक हत्या कर दी थी। यह लोमहर्षक घटना इतिहास में ‘पटना नरसंहार’ (पटना मासएकर) के नाम से दर्ज है। पटना सिटी के कैथोलिक चर्च ‘पादरी की हवेली’ के निकट सिटी हॉस्पिटल के अहाते में स्थित यूरोपीय शैली में बना मीनारनुमा स्मारक आज भी उस खौफ़नाक घटना की यादों को ताज़ा कर देता है।

अंग्रेजों के सामूहिक नरसंहार की याद में पटना में निर्मित स्मारक का सीताराम द्वारा बनाया चित्र | ब्रिटिश लाइब्रेरी

मज़े की बात है, कि भारत के एक नाज़ुक दौर के गवाह रहे सोम्ब्रे पर अलग से बहुत कुछ नहीं लिखा गया है। पर उसकी मशहूर पत्नी समरु बेगम पर लिखी तक़रीबन दर्जन भर किताबों में कई प्रसंगों में उसके जिक़्र मिलते हैं, जिन्हें जोड़कर उसकी रोमांचक जिंदगी का एक खाक़ा खींचा जा सकता है। ऐसी किताबों में जूलिया किये की ‘फ़रज़ाना: द टेम्पुअस लाईफ़ एंड टाईम्स ऑफ़ बेगम समरु’ (भूमिका: विलियम डेलरिम्पल), माईकल लारनुएल की ‘बेगम समरू ऑफ़ सरधना’ (फ्रेंच से अनुवाद: रंजीत सिन्हा), इम्मा रॉबर्ट्स की ‘सिन्स एंड कैरेक्टर्स ऑफ़ इंडिया विथ स्केचेज़ ऑफ़ एंग्लो इंडियन सोसायटी’, ब्रजेंद्र नाथ बनर्जी की ‘बेगम समरु’ (भूमिका:जदुनाथ सरकार), कृष्णा दयाल भार्गव की ‘ब्राउनी करसपोंडेंट’, प्रो. के.आर. क़ानूनगो की ‘प्रोसिडिंग्स ऑफ़ इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस, सन 1923’, ‘सलेक्ट कमिटी प्रोसिडिंग्स, सन 1765’ की रपट, सईद गुलाम हुसैन ख़ां की ‘सियर-उल-मुताख़रीन’ सहित ‘द जर्नल ऑफ़ बिहार एंड ओडिशा रिसर्च सोसायटी, 1925’ आदि शामिल हैं।

18 वीं सदी के दौर में जब सोम्ब्रे भारत आया था, उस समय अपनी शानों-शौकत और ताक़त के लिए मशहूर मुग़ल सल्तनत तत्कालीन बादशाहों की अदूरदर्शिता, अय्याशी और निष्क्रियता के कारण पतन के रास्ते पर था। इसका फ़ायदा उठाते हुए देशी राजे-रजवाड़े अपना वर्चस्व क़ायम करने की मंशा से सर उठाने लगे थे। कुकुरमुत्ते की तरह उग आए ये रजवाड़े आपसी वैमनस्य और घात-प्रतिघात में अपने प्रतिद्वंदियों को शिक़स्त देने की मंशा से यूरोपीय मॉडल पर प्रशिक्षण दिलाकर अपनी सेना की मज़बूती के लिए विदेशों से आनेवाले लड़ाकों की भर्ती कर रहे थे। इस कारण उन दिनों ख़तरों से खेलने वाले कई यूरोपीय लोगों का भारत आने का सिलसिला तेज़ी से शुरू हो गया था, जिसमें एक नाम वॉल्टर रेन्हार्ट सोम्ब्रे का भी था।

जर्मनी के एक छोटे-से कस्बे में, सन 1720 में, जन्मे वॉल्टर रेन्हार्ट के पिता क़साई थे, जिनके काम में वह हाथ बटाता था। उसके चिड़चिड़े, उदासी में डूबे रहनेवाले और बद दिमाग़ स्वभाव के कारण उसके फ्रेंच सहयोगी उसे ‘सोम्ब्रे’ कहकर बुलाते थे। भारत आने पर यहां की स्थानीय ज़ुबान में वह समरु साहेब कहलाने लगा।

अपने प्रारंभिक जीवन-काल में अपने पिता के क़साईख़ाने में जानवरों के मांस को काटते-काटते ऊब चुका महत्वाकांक्षी सोम्ब्रे साहस से भरा रोमांचक जीवन जीना चाहता था। उसमें बाहर की दुनिया देखने की लालसा थी। इस कारण वह जर्मनी को अलविदा कह फ़्रांस के राजा की सेना में आकर भर्ती हो गया। दस वर्षों तक वहां रहकर कई युद्धों में भाग लिया।

फिर 14 जनवरी सन 1750 को फ्रांस के राजा की नौसेना टुकड़ी के साथ सोम्ब्रे पांडिचेरी आया और इस तरह भारत की सरज़मीं पर पहला क़दम रखा।

लेकिन भारत में सोम्ब्रे का पहला अनुभव कड़वा रहा। उस समय भारत में अंग्रेज़ों और फ़्रांसीसियों के बीच चल रही वर्चस्व की लड़ाई में फ़्रांसीसी सेना के हैदराबाद पर फ़तह के जवाब में अंग्रेजों ने भारी तबाही मचाते हुए श्रीरंगम द्वीप की घेराबंदी कर फ्रेंच जनरल लॉ को आत्मसमर्पण करने पर मज़बूर कर दिया। इस तनावपूर्ण महौल में फ़्रांसीसी सेना में एक अदना सिपाही बनकर ज़िल्लत झेलने के बदले सोम्ब्रे ने यह निर्णय लिया, कि क्यों नहीं भारत के देसी रजवाड़ों के मातहत तलवार चमकाकर क़िस्मत आज़माई जाए।

उसके बाद सोम्ब्रे ने बंगाल जाने का फ़ैसला किया। फ़्रांसीसियों और अंग्रेज़ों की नज़रों से बचते हुए पांडिचेरी से भाग खड़ा हुआ। कई दिनों तक ओडिशा और बंगाल की जंगल-झाड़ियों में भटकते हुए वह किसी तरह एक इंग्लिश कंपनी के कैंप तक आ पहुंचा, जहां उसने अपने को एक डूबे हुए जहाज का नाविक बताकर अंग्रेजों के गढ़ ‘फोर्ट विलियम (कलकत्ता)’ में सिपाही की नौकरी हासिल कर ली। यहां भी अफ़रा-तफ़री मची हुई थी।

फोर्ट विलियम (कलकत्ता) - 1754 | ब्रिटिश लाइब्रेरी

बंगाल के नवाब़ सिराजउद्दौला और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच चल रही तनातनी में सिराज़ ने सन 1756 में कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) पर भीषण हमला कर फ़ोर्ट विलियम पर कब़्जा कर लिया जिससे अंग्रेज़ डरकर कलकत्ता छोड़ने पर मजबूर हुए। सोम्ब्रे ने यहां भी रूकना मुनासिब नहीं समझा। वहां से भागकर भटकते हुए वह फ़्रांसीसियों के गढ़ चन्दरनगर (वर्तमान चंदननगर) पहुंच गया और अपनी पहचान छुपाकर वहां सार्जेंट की नौकरी करने लगा।

उधर सिराजउद्दौला के हमले से मात खाए अंग्रेज़ों ने राबर्ट क्लाईव के नेतृत्व में दोबारा जुटकर एक ज़ोरदार हमला कर कलकत्ते को फिर अपने क़ब़्ज़े में ले लिया। फिर प्लासी की लड़ाई में जीत हासिल कर बंगाल पर अपना प्रभुत्व क़ायम कर लिया। फ़्रासीसियों ने सिराज का साथ देने की पेशकश की थी। इसलिए फ़्रांसीसियों पर अंग्रेज़ों के हमले की आशंका से, सोम्ब्रे चंदननगर से निकलकर बिहार के एक दूरस्थ शहर पूर्णिया आ पहुंचा।

नवाब़ सिराजउद्दौला | विकिमीडिआ कॉमन्स

उस समय पूर्णिया का फ़ौजदार मुग़ल शासन के लिए अपनी सेना के पुनर्गठन के काम में लगा था। उसने अपने फ़ौजियों को यूरोपीय मॉडल में ट्रेनिंग देने और यूरोपियों की फ़ौज में भर्ती के काम के लिए सोम्ब्रे को कमांडर के पद पर रख लिया। अब तक अदना-से सिपाही के पद पर एड़ियां घसीटने वाले सोम्ब्रे का अचानक इतनी बड़ी बटालियन का कमांडर बनना उसके लिए बहुत बड़ी बात थी। नतीजे में,उसने पूरे उत्साह से अपनी बटालियन में न सिर्फ़ बिहारियों की बल्कि पड़ोसी देश नेपाल के नेपालियों, गोरखाओं और पहाड़ियों के साथ, ही बड़ी संख्या में यूरोपीय और इंडो-यूरोपीय लोगों की भर्ती कर एक मजबूत फौज तैयार की। यहीं उसने बहाई बेगम नाम की औरत से शादी की। समरु बेगम उसकी दूसरी पत्नी थी। पूर्णिया में अपनी बटालियन के प्रबंधन के दौरान सोम्ब्रे के मन में पहली बार ये विचार आया, कि अब अपनी निजी सेना का गठन कर, क़िस्मत आज़माने का समय आ गया है। लेकिन यहां भी सोम्ब्रे की क़िस्मत ने उसे एक बार फिर धोखा दे दिया। अंग्रेज़ों और मुग़लों के बीच चल रहे विवाद में पूर्णिया के फ़ौजदार ने भगोड़े मुग़ल शहज़ादे अली गौहर (जो बाद में शाह आलम-द्वितीय के नाम से मुग़ल तख़्त पर बैठा) के प्रति वफ़ादारी दिखाई थी, इसी वजह से नाराज़ अंग्रेज़ों ने एक झड़प के दौरान पूर्णिया के फ़ौजदार को मौत के घाट उतार दिया। इस तरह सोम्ब्रे एक बार फ़िर से बेरोज़गार हो गया।

शाह आलम-द्वितीय

प्लासी की जीत के बाद अंग्रेज़ों ने बंगाल की मसनद पर नवाब़ सिराजउद्दौला के साथ दग़ाबाज़ी करनेवाले सेनापति मीर जाफ़र को बैठा दिया था। पर जब अंग्रेज़ों को लगा, कि अब नवाब़ मीर ज़ाफर उनकी असीमित व्यापारिक और आर्थिक मांगों की पूर्ति करने में विफल हो रहा है, तो उसके दामाद मीर क़ासिम को बंगाल की नवाब़ी दे दी। लेकिन मीर क़ासिम की भी अंग्रेज़ों के साथ ज़्यादा दिन तक नहीं बन सकी और वह अजिज़आ कर अपनी राजधानी मुर्शिदाबाद से हटाकर अंग्रेज़ों की पहुंच से दूर मुंगेर (बिहार) ले आया। अंग्रेज़ों के मुक़ाबले के लिए सशक्त सेना गठित करने की मंशा से मीर क़ासिम अपने आर्मेनियाई सेनापति ग्रेगरी उर्फ़ गुर्गिन खां के नेतृत्व में यूरोपीय मॉडल पर अपने फ़ौजियों की ट्रैनिंग करवाने लगा।

इसी बीच ही सोम्ब्रे मुंगेर आकर मीर क़ासिम के सेनापति गुर्गिन खां के समक्ष हाज़िर हुआ। अब तक के भारत प्रवास के दौरान सोम्ब्रे ने अपने को भारतीय शैली में ढ़ालकर न सिर्फ यहां के तौर-तरीक़ों, रीति-रिवाजों और पहनावे को अपना लिया था। वह फ़र्राटे से फ़ारसी तथा मूरिश ज़ुबानें बोल लेता था। गुर्गिन खां ने सोम्ब्रे की इन ख़ूबियों के साथ उसके आत्मविश्वास और उसकी निजी सशक्त सैन्य-बल से अत्यधिक प्रभावित होकर उसे मीर क़ासिम के सैनिक दस्ते में शामिल कर लिया और उसे दो बटालियनों का कमांडर बना दिया।

मुंगेर का पश्चिम का दृश्य - 1804 | ब्रिटिश लाइब्रेरी

मुंगेर में सहसा सोम्ब्रे पर क़िस्मत इस क़दर मेहरब़ान हुई, कि अपनी दक्षता से जल्द ही वह मीर क़ासिम का चहेता बन गया। पर बदक़िस्मती ने यहां भी उसका पीछा नहीं छोड़ा। मुंगेर में मीर क़ासिम के कार्यकाल में ही उसपर पटना नरसंहार के मुख्य दोषी और पटना का क़साई होने के इल्ज़ाम लग गए थे, जिसे वह ताज़िंदगी धो नहीं पाया।

अंग्रेज़ अपनी लूट-खसोट की नीति से बाज़ नहीं आ रहे थे और मुग़ल फ़रमान की आड़ में बंगाल के राजस्व को बेतहाशा क्षति पहुंचा रहे थे। मीर क़ासिम की पेशकश पर अंग्रेज़ों ने बातचीत और सुलह का आश्वासन तो दिया, पर इसपर कभी अमल नहीं किया और न वे अपनी मनमानी से ही बाज़ आए। इससे क्षुब्ध होकर जब मीर क़ासिम ने अंग्रेज़ों के विरुद्ध कुछ सख़्त क़दम उठाए, तो पटना स्थित उनकी फ़ैक्ट्री के तुनकमिज़ाज चीफ़ मि. विलियम ईलीस ने यूरोपियन फ़ौज जुटाकर पटना शहर पर कब़्जा कर लिया। जवाब़ में मीर क़ासिम ने भी भारी भरकम फौज के साथ पटना पर हमला कर, शहर को दोबारा अपने क़ब्ज़े में ले लिया और मि. ईलीस सहित वहां के सभी अंग्रेज़ अधिकारियों, फ़ौजियों और नागरिकों को बंदी बना लिया जिनकी संख्या 50 से 60 बतायी जाती है।

पटना शहर का एक दृश्य - 1814 | ब्रिटिश लाइब्रेरी

कलकत्ता में बैठे ईस्ट इंडिया कंपनी के आक़ाओं को मीर क़ासिम की ये कार्रवाई इतनी नागवार गुज़री, कि उन्होंने मुंगेर पर भीषण हमला कर, वहां भारी तबाही मचाते हुए उसपर क़ब़्ज़ा कर लिया। यह समाचार सुन कर मीर क़ासिम ने अपना आपा खो दिया। उसने अपने कमांडर सोम्ब्रे को मि. ईलीस सहित सभी अंग्रेज़ बंदियों को मौत के घाट उतारने के आदेश दे दिए। सोम्ब्रे ने अपने आक़ा के आदेश पर अमल करते हुए 5 अक्टूबर सन 1763 की रात सभी निहत्थे अंग्रेज़ बंदियों को अपने यहां खाने पर बुलाया और निर्ममतापूर्वक उनकी हत्या कर दी। इस सामूहिक नरसंहार में मरने वालों की संख्या 50 से 60 बताई गई है, जिसमें अंग्रेज़ अधिकारियों तथा फ़ौजियों सहित औरतें और बच्चे शामिल थे। इस नृशंस हत्या को अंज़ाम देने के कारण रेन्हार्ट सोम्ब्रे ‘पटना के क़साई’ के नाम से जो कलंकित हुआ, उससे पूरी ज़िंदगी मुक्त न हो पाया।

मीर कासिम | विकिमीडिआ कॉमन्स

पटना हत्याकांड के बाद सोम्ब्रे को यह बात अच्छी तरह से समझ में आ गई, कि अब वह अंग्रेज़ों का अपराधी बन चुका है और वे किसी भी वक्त उसका खेल तमाम कर सकते हैं। इसलिए वह अक्टूबर, सन 1764 में बक्सर की लड़ाई में मीर क़ासिम की पराजय के बाद सोम्ब्रे ने अंग्रेज़ों के चंगुल से बाहर सुदूर उत्तर की ओर जाना मुनासिब समझा। पैसों के लिए किसी को भी नहीं बख़्शने वाले इस क्रूर व्यक्ति ने गर्दिश में घिरे अपने आक़ा मीर क़ासिम को भी नहीं छोड़ा था। मेहनताने के नाम पर उसने मीर क़ासिम के ख़ज़ाने से अच्छी राशि और शस्त्रागार से हथियार झटक लिए थे, जिससे उसने अपनी सैन्य टुकड़ी को फिर से मज़बूत किया।

बक्सर की लड़ाई के बाद सोम्ब्रे ने कुछ दिनों के लिए लखनऊ में पनाह ले ली। पर जब उसे इस बात की भनक लगी, कि अंग्रेज़ अवध पर हमला करने के बाद, वहां के नवाब़ पर दवाब बना कर उसे गिरफ़्तार कर सकते हैं, तो अपनी बटालियन के साथ वह वहां से खिसक लिया। कुछ दिनों तक रोहिल्ला की सेना में काम करने के बाद अप्रैल, सन 1765 में भरतपुर के जाट प्रमुख जवाहर सिंह की फौज में शामिल हो गया। इस समय तक सोम्ब्रे की अपनी निजी सेना के कुल 3500 पैदल और घुड़सवार सैनिक थे जिसमें फ्रांस, जर्मनी, डेनमार्क, आयरलैंड, स्कॉटलैंड आदि देशों के निवासी शामिल थे। इसके अलावा उसके पास अपना तोप, तोपची और गोला-बारूद का ज़ख़ीरा था।

सन 1772 में जवाहर सिंह की मृत्यु के बाद जाट रजवाड़े में उत्तराधिकार के लिए घमासान मच गया जिसका फ़ायदा उठाते हुए दिल्ली के बादशाह शाह आलम-द्वितीय के अमीर-उल-उमरा नजफ़ खां, जाटों पर आक्रमण करने के लिए दीग की ओर बढ़ा। मुग़लों का मुक़ाबला करने के लिए जाट राजा नवल सिंह ने रेन्हार्ट सोम्ब्रे के नेतृत्व में अपनी कई रेजिमेंट भेजीं। दोनों पक्षों के बीच सरधना में हुए मुक़ाबले में सोम्ब्रे और उसके साथ के सैनिकों ने पूरे रणकौशल और साहस के साथ लड़ाई की और दुश्मन के समक्ष अभेद्य दीवार की तरह डटे रहे। लेकिन अंत में जीत नजफ़ खां की हुई। इस मुठभेड़ में नजफ़ खां सोम्ब्रे की बहादुरी का क़ायल हो गया।

अब तक की ज़िंदगी में अपने फ़ौजी जत्थे के साथ एक रजवाड़े से दूसरे रजवाड़े की दौड़ लगाते-लगाते सोम्ब्रे अब खुद को थका-सा महसूस करने लगा था और एक इत्मीनान की ज़िंदगी जीना चाहता था। जाट राजा के साथ लंबे समय तक काम करने में उसे अब कोई फ़ायदा नज़र नहीं आ रहा था। उसने बादशाह शाह आलम-द्वितीय के दिल्ली दरबार में हाज़िरी लगाने का इरादा किया, जिसमें उसको बादशाह के मंत्री नजफ़ खां का सहयोग मिला।

‘वाक़िया-ए-शाह आलम शाही’ बताता है, कि जब सोम्ब्रे बादशाह के दरबार में पेश हुआ तो उसका गर्मजोशी से स्वागत हुआ तथा बादशाह की तरफ़ से एक ‘ख़िलत’ (फ़रमान) जारी कर उसे पानीपत की जागीर के साथ वहां की फ़ौजदारी दी गई। लेकिन शाह आलम-द्वितीय एक कमज़ोर बादशाह था जिसका ख़ज़ाना ख़ाली हो चुका था।

इस कारण सोम्ब्रे को अपने और अपनी बटालियन के ख़र्च चलाने के लिए उसे गंगा के दोआब में मेरठ से क़रीब 12 मील उत्तर-पश्चिम में स्थित सरधना की जागीर दे दी गई, ताकि इसके लगान से उसे नियमित आय प्राप्त हो सके। शाह आलम-द्वितीय की सेवा में दाख़िल होते ही मानों सोम्ब्रे के मन की सारी मुरादें ही पूरी हो गईं। चंद सिक्कों के लिए मरने-मारने को उतारू रहनेवाला यह घुमक्कड़ कमांडर अलीगढ़ से लेकर मुज़फ़्फ़रनगर के आगे तक फैले, 6 लाख रूपए से ज़्यादा, सलाना राजस्व देनेवाली रियासत का जागीरदार बन गया था। उसने अपनी सामरिक रणकौशल के साथ अपनी प्रशासनिक और प्रबंधकीय दक्षता से सरधना को कुछ इस तरह से संवारा कि इसकी गिनती देश की चुनिंदा रियासतों में होने लगी। लेकिन उसकी चैन की ज़िंदगी की अभी शुरुआत भी नहीं हुई थी, कि उसे सरधना से आगरा का सूबेदार बनाकर भेज दिया गया, जहां 4 मई, सन 1778 को उसकी मृत्यु हो गई। उसके शव को पहले उसके निजी बाग़ में, फिर वहां से हटाकर आगरा चर्च के अहाते में दफ़नाया गया।

सोम्ब्रे की मौत के बाद उसकी विधवा समरू बेगम ने सरधना जागीर की कमान सम्हाली। समरु बेगम ने न सिर्फ़ बखूबी सोम्ब्रे की पलटन का नेतृत्व किया, बल्कि अपनी शख़्सियत की बदौलत अपने ज़माने की सबसे शक्तिशाली महिला के रुप में पहचान बनाई। तत्कालीन दिल्ली की राजनीति में उसका ख़ास दबदबा बन गया था और उसकी जांबाज़ी से खुश होकर बादशाह शाह आलम-द्वितीय ने उसे ‘फर्ज़न्द-ए-अज़ीज़ी’ यानी सबसे प्यारी बेटी के ख़िताब से नवाज़ा था।

बेगम समरू और उनकी गृहस्थी | विकिमीडिआ कॉमन्स

वैसे तो सोम्ब्रे की पहचान एक रूखे, कठोर और हत्यारे व्यक्ति के रूप में थी, लेकिन जिस संजीदगी से उसने नाचनेवाली एक साधारण-सी अनपढ़ लड़की फ़रजाना को तराशकर देश की एक समृद्ध रियासत के तख़्त पर बैठने के क़ाबिल बनाया, वो उसकी शख़्सियत के अंजान पहलूओं को दर्शाता है, जो क़ाबिल-ए-तारीफ़ है।

सोम्ब्रे ने कोठे से से आई एक लड़की से निकाह कर न सिर्फ़ उसे अपना नाम दिया, उसकी इज़्ज़त अफ़ज़ाई की, बल्कि उसे शाही तहज़ीब और नफ़ासत की सीख भी दी। काब़िल हाफ़िज़ से उसे फ़रसी सहित अन्य विषयों की तालीम दिलवाई और खुद उसे घुड़सवारी, तलवारबाज़ी और निशानबाज़ी में पारंगत बनाया। कई युद्ध अभियानों में उसे साथ ले जाकर युद्ध-कौशल के गुर सिखाए।

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता, कि पटना नरसंहार के मूल कारणों में अंग्रेज़ों द्वारा मचाई जा रही बेइंतहा लूट, उनकी उकसाऊ गतिविधियां और लगातार की जा रही वादाख़िलाफ़ी भी शामिल थी, जिससे बौखलाकर नवाब़ मीर क़ासिम ने अपने कमांडर सोम्ब्रे को अंग्रेज़ बंदियों को मौत के घाट उतारने के आदेश दिए थे। लेकिन पश्चिमी इतिहासकारों ने, ख़ासकर साम्राज्यवादी इतिहासकारों ने, इस कांड के लिए सिर्फ़ मीर क़ासिम और सोम्ब्रे को ही ज़िम्मेदार ठहराया है, जिस पर कुछ एक विद्वानों ने असहमति व्यक्त की है। इन्हीं विद्वानों में से एक जूलिया किये समरु बेगम की जीवनी पर आधारित अपनी पुस्तक ‘फरज़ाना’ के ‘बूचर ऑफ़ पटना’ शीर्षक अध्याय में लिखती हैं कि अंग्रेज़ों ने अपने भारतीय साम्राज्य पर कब्ज़ा करने की अप्रिय-सी लगनेवाली दास्तान कमोबेश खुद ही लिखी है, जिसमें उन्होंने क्लाईव और उसके सहयोगियों द्वारा मचाई लूट-खसोट पर ‘विस्मय’ व्यक्त करने की ज़हमत तो उठाई है, पर नवाब़ों के हालात और दम तोड़ती मुग़ल सल्तनत की कसक के प्रति कम से कम रुचि दिखाई है। जूलिया, आगे लिखती हैं कि जिस अराजकता के बीच, ब्रिटिश साम्राज्य का उदय हुआ, उसका आरोप, भारत से बाहर किसी विदेशी पर मढ़ने की मंशा से उन्होंने वॉल्टर रेन्हार्ट जैसे घुसपैठिए को चुना था।

पटना में अंग्रेज़ों के उस नरसंहार की याद में बने स्मारक पर कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस द्वारा प्रकाशित ‘इंसक्राइबिंग कॉलोनियल मॉन्यूमेंटालिटी: अ केस स्टडी ऑफ़ द 1763 पटना मासएकर मेमोरियल’ शीर्षक वाले अपने लेख में रिबेका एम. ब्राऊन कहते हैं, कि इस स्मारक को देखने से स्पष्ट होता है कि इस पर अंकित शिला-लेख के मज़मून में क्रमिक रुप से परिवर्तन किए गए हैं, जो इस बात की गवाही दे रहा रहा है, कि साम्राज्यवाद किस तरह इतिहास के तथ्यों में फेर-बदल करता है।

मीर क़ासिम की सेवा से रूख़सत होने के बाद रेन्हार्ट सोम्ब्रे का पटना नरसंहार के खौफ़ का साया बराबर पीछा करता रहा। जाट राजा जवाहर सिंह और उसके बाद के रजवाड़ों में उसके कार्यकाल के दौरान कई बार अज्ञात हमलावरों ने उसकी जान लेने की कोशिशें की। उसे इस बात का अंदेशा भी लगा रहता था, कि कहीं उसका मालिक राजा दबाव में आकर उसे अंग्रेज़ों के हवाले न कर दे, जो उसकी जान के प्यासे बने हुए हैं। तभी तो मुग़ल बादशाह शाह आलम-द्वितीय की सेवा में जाने के पहले उनके मंत्री नजफ़ खां को पत्र लिखकर उससे यह भरोसा ले लिया था, कि यदि अंग्रेज़ उसे सौंपने की मांग करेंगे, तो इसे नज़रंदाज़ कर दिया जाएगा। सेलेक्ट कमिटी प्रोसेडिंग्स, 10 अगस्त, सन 1765 में इस बात का जिक्र है, कि जब जाट प्रमुख जवाहर सिंह ने अंग्रेज़ों के साथ हाथ मिलाने की पेशकश की थी, तो अंग्रेज़ ब्रिगेडियर जे. चॉरनक ने इसके एवज़ में सोम्ब्रे को उनके हाथों में सौंपने की बात कही थी।

आगरा स्थित सोम्ब्रे की कब्र

वैसे सोम्ब्रे की मौत का कारण निमोनिया बताया जाता है, लेकिन माईकल लारनुएल की किताब ‘बेगम समरू ऑफ़ सरधना’ में दिए गए विवरण से यह स्पष्ट होता कि उसकी मृत्यु किसी हमले से हुई थी। उस पुस्तक में दिए गए विवरण के अनुसार जिस तालाब में रात भर भीगे पड़े रहने से ठंड लगने के कारण सोम्ब्रे की मौत हुई थी, उसकी जांच कराने पर वहां से तीन लाशों के साथ तलवार और मस्कट बरामद हुए थे।

इन तीन लाशों में से दो उस तालाब में तैरते हुए मिलीं जबकि तीसरी किनारे पर, कीचड़ में सनी पड़ीं थीं। इससे अनुमान लगाया गया, कि सोम्ब्रे ने उन हमलावरों से रातभर संघर्ष करने के बाद उन्हें मार गिराया होगा, जिसके बाद उसकी मृत्यु हो गई होगी। ये हमलावर कौन थे, इसका पता नहीं लग पाया था। रेन्हार्ट सोम्ब्रे की ज़िंदगी के अनसुलझे पन्नों में ब्रिटिश साम्राज्य के चंगुल में कराहते भारत देश की टीस छुपी है, जिसपर गहराई से शोध और अध्ययन करने की ज़रूरत है।

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