आपके सामने कोई रोज़ नये लिबास में, नये नये रूप में, नये नये अंदाज़ में,नये नये सुर-ताल और नई नई ख़ुश्बूओं के साथ आये और आपका मन मोह ले,आपको अपने नशे में ग़र्क़ कर दे, आपको अपना दीवाना बना ले…फिर आपको पता लगे कि उसकी उम्र तो पांच सौ, छह सौ साल है….तो आप क्या करेंगे? बेशक आपको विश्वास नहीं होगा…लेकिन यह सच है…….उर्दू ग़ज़ल की यही कहानी है। इतने बरसों में न तो इसके चेहरे पर झुर्रियां पड़ी हैं,न इसके बाल सफ़ेद हुये हैं और न ही यह बीमार पड़ी है । बल्कि बढ़ती उम्र के साथ इसका रंग-रूप निखरता जा रहा है। इसका शबाब बढ़ता जा रहा है। तो आईये सुनते हैं, रात-दिन हमारे आसपास रहनेवाली, हमारी अपनी ग़ज़ल की दास्तान।
दरअसल ग़ज़ल की पैदाइश और परवरिश फ़ारस (ईरान) यानी फ़ारसी ज़बान में हुई थी। ग़ज़ल की शुरूआत क़सीदे से हुई थी।क़सीदे की बुनावट भी ग़ज़ल के अंदाज़ में होती है। लेकिन फ़र्क़ होता है। पहला तो यह कि क़सीदे में शे’रों की कोई सीमा नहीं होती, वह सौ या डेढ़ सौ भी हो सकते हैं। दूसरा, क़सीदे सिर्फ़ बादशाहों की शान और उनकी तारीफ़ में लिखे जाते थे। फ़ारसी शायरी में फ़िरदौसी ( 1020 मत्यू, जन्म का पता नहीं ) और अनवरी ( 1126-1189 )को शायरी का पैग़म्बर माना जाता है। उन्हीं की वजह से शायरी और ख़ासतौर पर ग़ज़ल को शोहरत और पहचान मिली है। भारत में भी उसी के कुछ अर्से बाद अमीर ख़ुसरो ( 1253-1335) ने ग़ज़ल की बुनियाद रख दी थी। उसके बाद ग़ज़ल दक्कन पहुंची।
दक्कन में क़ुली क़ुतुबशाह और वली दक्कनी के हाथों खेलती ही हुई ग़ज़ल पुरे भारत में फैल गई।
फिर मीर,ग़ालिब,इक़बाल,जोश,फ़िराक़ और फ़ैज़ जैसे अनगिनत प्रतिभाशाली शायरों की सोहबत में ग़ज़ल को दिन-दुगनी और रात चौगुनी तरक़्क़ी करने के अवसर मिल गये ।
वक़्त के साथ ग़ज़ल ने कई रूप बदले, उसके ख़ज़ाने में नये मुद्दे आये, नये अल्फ़ाज़ आये, मौसीक़ी आई,गायकी आई, नित- नये आन्दाज़ आये और ग़ज़ल की घिसाई-धुलाई-मंझाई होती गई। ग़ज़ल का हुस्न निखरता गया, वह मालामाल होती गई।
ग़ज़लों के साथ ही उर्दू ज़बान को आज विश्व भर में परोसने का काम ‘रेख़्ता’ कर रही है। जो आज देवनागरी और रोमन में उर्दू ज़बान लोगों तक पहुंचार ही है। लिव हिस्ट्री ने बात सालीम सलीम से जो रेख़्ता की एडिटोरियल टीम का हिस्सा हैं। सालीम हमें बताते है ग़ज़लों ने दक्कन से दिल्ली तक का सफर कैसे तय किया…
ग़ज़ल क्या है ?
उर्दू साहित्य में शायरी की कई विधायें हैं जैसे क़सीदा, मर्सिया, मसनवी, रुबाई, क़तआ और ग़ज़ल आदि, लेकिन इनमें उर्दू की सबसे दिलचस्प और सबसे अनौखी विधा है ग़ज़ल। एक ग़ज़ल में सात से लेकर ग्यारह तक शे’र हो सकते हैं । एक शे’र दो मिसरों यानी दो पंक्तियों से बनता है। पहला मिसरा, मिसरा-ए-ऊला और दूसरा मिसरा-ए-सानी कहलाता है। ग़ज़ल के पहले शे’र को मतला कहते हैं। इस पहले शे’र से ही ग़ज़ल का मूड तय हो जाता है।ग़ज़ल के अंतिम शे’र को मक़ता कहते हैं। इसमें शायर अपने तख़ल्लुस अर्थात उपनाम का इस्तेमाल करता है। मक़ता ग़ज़ल को फ़िनिशिंग टच देने का काम करता है।
ग़ज़ल की एक बड़ी ख़ूबी यह होती है कि पूरी ग़ज़ल का विषय एक भी हो सकता है । और हर शे’र का विषय अलग भी हो सका है। बावजूद इसके ग़ज़ल के मूड और माहौल पर कोई असर नहीं पड़ता है।ग़ज़ल अरबी भाषा का शब्द है जिसका मतलब होता है…औरत से बात करना । शायद इसीलिये, आमतौर पर ग़ज़ल को महज़ हुस्न और इश्क़ की शायरी माना जाता है। यह भी सच है कि ग़ज़ल में इश्क़ के साथ हुस्न की पूजा की तमाम सीमायें तोड़ने की कोशिशें भी हुईं हैं लेकिन यह भी सचाई है कि ग़ज़ल ने हमेशा दिल की धड़कन और दिमाग़ की रफ़्तार, दोनों को अपने शिकंजे में कस कर रखा है। ग़ज़ल में हुस्न है, इश्क़ है तो अपनी पूरी पूर्णता के साथ इंसान और समाज भी है। ग़ज़ल में तारीफ़ है, आलोचना है तो बग़ावत भी है । और यह बग़ावत समाज,सियासत, सत्ता और मज़हब के ख़िलाफ़ भी है।
जैसे जन्नत/जहन्नुम या स्वर्ग/नर्क की मान्यता लगभग हर धर्म में है लेकिन ग़ालिब ने उसे मानने से साफ़ इनकार कर दिया था। ग़ालिब का एक बहुत मशहूर शर है :
…और इन्हीं तमाम ख़ूबियों की वजह से ग़ज़ल…ग़ज़ल है। अमीर ख़ुसरू से हुई उर्दू ग़ज़ल की शुरूआत…
अमीर ख़ुसरू (1253-1325 ) के रूप में एक अद्भुत और अनौखी प्रतिभा ने इस धरती पर जन्म लिया।जंगों में भाग लेनेवाले ख़ुसरू न सिर्फ़ संगीत के बड़े ग्याता थे बल्कि सितार जैसे अनेक वाद-यंत्र उन्हीं की ईजाद हैं। ख़ुसरू ने “ ख़ालिक़े बारी” के नाम से, पर्यायवाची शब्दों का पहला शब्द-कोश तैयार किया था । उन्होंने बूझ पहेलियां,अनबुझ पहेलियां, मुकरनी , गीत, क़व्वाली और ग़ज़ल लिखने की परम्परा शुरू की । वह सूफ़ी रिवायत के बहुत बड़े भगत थे। इसीलिये हज़रत निज़ामउद्दीन औलिया के लिये पूरी तरह समर्पित थे और वह भी ख़सरू से बहुत प्यार करते थे।
स्थानीय भाषाओं पर ख़ुसरू का पूरा अधिकार तो था ही वह फ़ारसी के भी माहिर थे। उनके आरंभिक लेखन में स्थानीय भाषाएं हावी थीं। जैसे उनकी एक बहुत मशहूर क़व्वाली है
क्योंकि ग़ज़ल का जन्म ही फ़ारसी भाषा में हुआ था सलिय़े फ़ारसी भाषा से ग़ज़ल की मुक्ति आसान नहीं थी। लेकिन ख़सरू ने यह करिश्मा भी कर दिखाया। यह माना जाता है कि ख़ुसरू ने हिंदी में फ़ारसी का नमक डालकर एक नया ज़ायक़ा पैदा कर दिया। उनकी एक मशहूर ग़ज़ल से उस नये ज़ायक़े का आनंद लिया जा सकता है :
( ओ प्यारे मीत, मेरी विवश हालत से बेख़बर न होकर, मेरी आंखों में बस कर मुझ से बातें करो । मुझ में अब विरह का दुख सहन करने की शक्ति नहीं है। शीघ्र आकर मुझे सीने से क्यों नहीं लगा लेते।)
( विरह की रात, ज़ुल्फ़ों की तरह लम्बी और मिलन के दिन उम्र की तरह छोटे हैं।ऐ सखि यदि मैं प्रिय को देख नहीं सकती तो अंधेरी रातें कैसे काटूंगी।)
अमीर ख़ुसरू ने फ़ारसी के साथ स्थानीय भाषा को मिला कर एक मिश्रण तैयार किया जिसने एक नई भाषा के लिये रास्ता खोल दिया। जो पहले रेख़्ता के नाम से जानी गई और फिर कई उतार-छढ़ावों से गुज़री, एक लम्बा सफ़र तय किया और आज उर्दू के नाम से हमारे सामने मौजूद है। और ग़ज़ल उसकी ख़ास पहचान बन गई है।
दक्कन में ग़ज़ल
हैदराबाद शहर बसानेवाले और चार मीनार बनवाने वाले क़ुली क़ुतुब शाह (1565-1612) एक आला दर्जे के शायर भी थे। वह देश के पहले साहब-ए-दीवान शायर भी माने जाते है। “इश्क़नामा” उनकी ग़ज़लों का संकलन है। क़ुतुब क़ुली शाह ने अमीर ख़ुसरू की जलाई शमा को तक़रीबन तीन सौ साल बाद दोबारा रौशन किया।उनकी ज़बान में भी फ़ारसी के साथ स्थानीय भाषा का मेल था।
वह कहते हैं –
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क़ुली क़ुतुब शाह की वजह से लोगों की शायरी में दिलचस्पी पैदा हुई और ग़ज़ल कहने का माहौल पैदा हो गया।
इसी सिलसिले की अगली कड़ी के रूप में शम्सउद्दीन वलीअल्लाह वली(1667-1707) सामने आये जो पहले “ वली दक्कनी “ और बाद में “वली गुजराती” कहलाये। वली ने बेहद आसान ज़बान में शे’र कहे जो बहुत पसंद किये जाने लगे। वली ने अपनी शायरी में देसी महावरों, देसी मुद्दों और देसी कल्पनओं का इस्तेमाल किया। हालांकि वली, अमीर ख़ुसरू के लगभग 400 साल बाद आये थे लेकिन उन्होंने ख़ुसरू की परम्परा को आगे बढ़ाया और मुकम्मिल उर्दू ग़ज़ल की शुरूआत की। मीर,सौदा, ग़ालिब,मुस्हफ़ी और ज़ौक़ उन्हीं की परम्परा के शायर हैं। वली की शुरूआत की शायरी पर फ़ारसी का असर न के बराबर मिलता है। जैसे:
कुछ वर्षों बाद वली ने दिल्ली का दौरा किया। दिल्ली में उनकी शायरी पसंद तो की गई लेकिन तब दिल्ली में फ़ारसी का बोलबाला था । फ़ारसी का जादू वली के सिर भी चढ़ गया। उनकी बाद की शायरी पर फ़ारसी का भरपूर असर देखा जा सकता है:
वली को उर्दू ग़ज़ल का अगरज माना जाता है। उनकी दिल्ली यात्रा का महत्व यह रहा कि वली पर फ़ारसी भाषा का प्रभाव पड़ा और दिल्ली की अदबी दुनिया पर वली की आसान ज़बान का दूगामी असर पड़ा और फ़ारसी के बजाये उर्दू में ग़ज़ल कहने की परम्परा आरंभ हुई।
मुग़लिया दौर में ग़ज़ल का उरूज
ग़ज़ल को सबसे ज़्यादा फलने-फूलने का मौक़ा मुग़लों को दौर में मिला। मीर तक़ी मीर ( 1723-1810), मिर्ज़ा रफ़ी सौदा और मीर दर्द जैसे आला दर्जे के शायर उसी दौर की देन हैं। मीर को तो ख़ुदा-ए-सुख़न ( कविता का देवता ) माना जाता है। उर्दू के दूसरे महान शायर रघुपति सहाय फ़िराक़ का कहना है कि मीर ने कुल तेरह हज़ार शे’र कहे हैं जिनमें से साढ़े तीन हज़ार शे’र आला दर्जे हैं। इससे बेहतर रिकार्ड दुनिया में किसी और शायर का नहीं है।
जो ग़ज़ल फ़ारसी के दबाव में आकर मुश्किल होती जा रही थी, मीर ने उसे एक नई जान और नई पहचान दी।उन्होंने मुश्किल से मुश्किल ख़्याल को आसान ज़बान में पेश करने की परम्परा शुरू की :
ख़ूद अपने बारे में मीर कहते हैं:
( यानी मैंने कोई शायरी नहीं की है। मैंने सिर्फ़ अपने दुख-दर्द जमा किये हैं, उसी से मेरा काव्य-संकलन बन गया ।)
मीर का दौर वास्तव में दुख-दर्द का दौर था। मुग़ल साम्राज्य ढ़लान पर था। शाह आलम के ज़माने में ही नादिर शाह ( 1739 ) के हमले ने हुकुमत की कमर ही तोड़ कर रख दी थी। मीर भी दिल्ली छोड़ कर लखनऊ चले गये थे। तभी उन्होंने दिल्ली के बारे में बड़ी तकलीफ़ के साथ लिखा था :
मीर ने प्रेमिका के होंटों और आंखों की तारीफ़ कितनी सादगी और क्लात्मक अंदाज़ में की है:
दिल्ली की बरबादी के बाद शे’र-ओ-शायरी की महफ़िलें लखनऊ और हैदराबाद में जमने लगीं थीं। मीर के समकालीन मिर्ज़ा रफ़ी सौदा और मीर दर्द देहलवी थे जो मुशायरों की महफ़लों की जान हुआ करते थे।
बहादुर शाह ज़फ़र के ज़माने में दिल्ली की महफ़िलें एक बार फिर जवान हो गई थीं।मिर्ज़ा असदउल्लाह ख़ां ग़ालिब( 1797-1869), मुहम्मद इब्राहीम ज़ौक़( 1789-1854),इमाम बख़्श नासिख़( 1772-1838),हैदर अली आतिश,शेख़ ग़ुलाम हमदानी मुसहफ़ी( 1774-1854) और मुहम्मद मोमिन खां मोमिन( 1800-1851) ने ग़ज़ल के मैदान में नये नये फूल खिलाये और नई नई बुलंदियां हासिल कीं।
ग़ालिब को पयाम्बर-ए-शायरी माना गया।क्योंकि ग़ालिब की शायरी न सिर्फ़ समाज का आईना है बल्कि उन्होंने ज़िंदगी के हर अहसास को अपनी शायरी में बड़ी ख़ूबसूर्ती से पिरोया है। ग़ालिब का कमाल यह भी है कि उन्होंने एक लम्बे अर्से तक सिर्फ़ फ़ारसी में शायरी की थी। फिर उन्होंने उस शायरी को रद्द करके उर्दू में शायरी शुरू की। ग़ालिब को ख़ुद अपनी महानता का पूरा अंदाज़ा था। वह ख़ुद अपने बारे में कहते हैं:
लेकिन ग़ालिब ने भी मीर का लोहा माना है:
ग़ालिब के समकालीन मोमिन खां मोमिन का एक मशहूर शे’र है:
ग़ालिब इस शे’र पर इस क़दर रीझ गये थे कि उस शे’र के बदले में मोमिन को अपना पूरा देने के लिये तैयार थे।
ग़ालिब के बारे में यह भी कहा जाता है कि उन्होंने शायरी को बहुत पैचीदा बना दिया था यानी ग़ालिब ख़ुद लिखें और ख़ुद ही उसे समझें। उसकी मिसाल यह शे’र है:
( जब कुछ नहीं था तो ईश्वर था। कुछ नहीं होता तो भी ईश्वर होता। यानी जो पैदा नहीं हुये हैं वह सब ईश्वर- अंश हैं। ग़ालिब कहते हैं कि वह तो पैदा हो कर बरबाद हो गये वर्ना वह भी ईश्वर-अंश ही होते)
इस मुश्किल-पसंदी के बावजूद आज ग़ालिब ही सबसे मशहूर शायर हैं। अगर उन्हें जनता का शायर कहा जाये तो भी ग़लत नहीं होगा।
ज़ौक़ को ग़ालिब के मुक़ाबले का शायर ही माना जाता था ।ग़ालिब और ज़ौक़ में नौक-झोंक चलती रहती थी और उसकी वजह यह थी कि ज़ौक़ को बहादुर शाह ज़फ़र ने अपना उस्ताद बना लिया था। ग़ालिब इसीलिये नाराज़ थे कि वह मौक़ा उनके हाथ से निकल गया था। यह भी माना जाता है कि शाही दरबार में फ़रमाइशी शायरी करते रहने की वजह से ज़ौक़ की शायरी की धार कम हो गई थी।
1857 के बाद मुग़लिया दौर ख़त्म हो चुका था। दरबार मिट हो चुके थे।बरसों मुशायरों की महफ़िलें सूनी रहीं।
उसके बाद अल्ताफ़ हुसैन हाली(1837-1914) और रतननाथ सरशार( 1846-1903) ने ग़ज़ल को सहारा दिया। अंग्रेज़ों का शासन दरअल बेहद निराशा वाला दौर था। आज़ादी की मुहिम शुरू होने के बाद, शायरों की आवाज़े भी सुनाई देने लगी थी। अलम्मा इक़बाल( 1877-1838 ), रघुपति सहाय फ़िराक़( 1896-1982) हसरत मोहानी( 1880-1951) और जोश मलिहाबादी(1898-1982) की शायरी ने लोगों का ध्यान खींचा था । जोश को आमतौर पर नज़्म का शायर माना जाता है। लेकिन इक़बाल ने अपनी ख़ास जगह बनाई थी।
इक़बाल ने ग़ज़ल के अंदाज़ में ही देश को “ सारे जहां से अच्छा…” जैसा एक लाजवाब तराना दिया । उन्होंने ख़ुदी यानी सैल्फ़ की ताक़त और अहमियत पर अपना नज़रिया भी पेश किया:
फ़िराक़ एक नये अंदाज़ में सामने आये । उनकी शायरी में एक बेहतर समाज के लिये जद्दोजहद,आज़ादी के लिये बेचैनी और रूमानियत साफ़ दिखाई देती थी। फ़िराक़ की रूमानी शायरी की एक छोटी-सी झलक:
प्रगतिशील आंदोलन और ग़ज़ल
प्रगतिशील आंदोलन की वजह से उर्दू शायरी और ख़ासतौर पर उर्दू ग़ज़ल को एक नई ज़िंदगी मिली ।प्रगतिशील लेखक संघ का पहला इज्लास 1935 में लखनऊ में हुआ था। जिसकी अध्यक्षता महान कहानीकार मुंशी प्रेमचंद ने की थी। उस जल्से में अलम्मा इक़बाल, जोश मलिहाबादी, फ़िराक़ गौरखपुरी, हसरत मोहानी, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, अहमद नदीम क़ास्मी, साहिर लुधियानवी, कैफ़ी आज़मी, अली सरदार जाफ़री, मजरूह सुल्तानपुरी और इसरार उलहक़ मजाज़ जैसे अनेक प्रगतिशील शायरों ने शिरकत की थी। उस दौर की शायरी में पहली बार इश्क़-मोहब्बत के साथ आम इंसान यानी ग़रीब,मज़दूर और किसान के दर्द और तकलीफ़ों को महसूस किया गया था। तब की शायरी में देश प्रेम भी था और समाज को बदलने की ललक भी थी।
उस दौर की नई नस्ल में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का नाम सबसे ऊपर आता है। फ़ैज़ ने अपनी ग़ज़लों में रूमानियत और इंक़िलाब का क ऐसा मिश्रण तैयार किया कि जो कान में पड़ते ही रगों में ख़ून की रफ़्तार बढ़ा देता था। फ़ैज़ को शायर-ए- उम्मीद-ए-सहर भी कहा जाता है।
एक ख़ास बात यह रही कि प्रगतिशील आंदोलन से जुड़े ज़्यादातर शायर फ़िल्मी दुनियां में पहुंच गये।
हिंदी फ़िल्मों ने भी ज़िंदा रखा ग़ज़ल को
अंग्रेज़ जा चुके थे। आज़ादी का आंदोलन ख़त्म हो चुका था। शायरों के सामने रोज़ी-रोटी का सवाल भी था।फ़िलमी दुनियां को भी शायरों की ज़रूरत थी। देश के बंटवारे की वजह से उर्दू कुछ नज़र अन्दाज़ भी हो रही थी। ऐसी स्थिति में इससे अच्छा और क्या हो सकता था कि फ़िल्मी दुनिया ने उर्दू के लिये लाल क़ालीन बिछा दिया ।
60/70 या 80 के दशक, के जो फ़िल्मी गीत आज की नई नस्ल को भी अच्छे लगते हैं, उसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि वह सब ग़ज़ल की शैली में ही लिखे गये थे। मजरूह सुल्तानपुरी, साहिर लुधियानवी, कैफ़ी आज़मी. जां निसार अख़तर, अली सरदार जाफ़री यह सभी बेहतरीन ग़ज़ल गौ शायर रहे है और इन्हीं की वजह से हिंदी फ़िल्मों को आला दर्जे के गीत मिले और ग़ज़ल को जिवन-रक्षक आक्सीजन मिली।
उसके बाद की नस्ल यानी निदा फ़ाज़ली और जावेद अख़तर ने उस मशाल को जलाये ऱखा।
गायकी का योगदान
इस में कोई शक नहीं है कि तलत मेहमूद,बेगम अख़्तर, मेहदी हसन, ग़ुलाम अली, जगजीत सिंह की गायकी ने ग़ज़ल को आसमान की बुलंदियों तक पहुंचाया । अगर ग़ज़ल को आवाज़ के इन जादूगरों का साथ नहीं मिलता तो शायद कई बड़े शायर गुमनामी का शिकार हो जाते । हम सबको याद है कि फ़िल्म उमराव जान के लिये आशा भोंसले ने शहरयार की ग़ज़लों को जब अपनी आवाज़ दी तो पूरे देश में एक तूफ़ान सा मच गया था ।उसी दौर में, नौजवान नस्ल के दिलों में उर्दू शायरी और ग़ज़लों नया आकर्षण पैदा हो गया था
ग़ज़ल ने एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि अगर आप में दम हो, चमक-दमक हो, दिल मोह लेने का माद्दा हो तो सहारे ख़ुद-ब-ख़ुद आप तक पहुंच जाते हैं। ग़ज़ल ने अपना सैंकड़ों साल का सफ़र, एक बहते हुये दरिया की तरह, अपने ही दम-ख़म पर तय किया है और पूरा यक़ीन है कि वह आने वाली पिढ़ियों के दिलों को इसी तरह गुदगुदाती रहेगी और अपने मोह-जाल में बांध कर रखेगी।
हिंदी फ़िल्मे और ग़ज़ल यानी चोली-दामन का साथ
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