शंकर अबाजी भिसे: भारत का एडिसन

विज्ञान का भारत के साथ बहुत पुराना सम्बन्ध रहा है, जिसका लोहा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी माना गया हैI दुर्भाग्यवश, कई भारतीय वैज्ञानिकों को उनके योगदान के लिए उतनी कीर्ति नहीं मिल पाई जिसके वो हक़दार थे I इनमें से एक हैं; शंकर अबाजी भिसेI मशहूर अमेरिकी वैज्ञानिक थॉमस एलवा एडिसन के नाम पर ‘भारत के एडिसन’ कहे जाने वाले भिसे ने अनेक क्षेत्रों में आविष्कार करके अमेरिका और ब्रिटेन में धूम मचा दी थी, और उन्होंने भारत को विज्ञान  क्षेत्र में आत्मनिर्भर भी बना दिया था I

मध्य-उन्नीसवीं शताब्दी के दौरान भारत में जब अंग्रेज़ों का शासन था,19वीं शताब्दी के मध्य में, भारत में अंग्रेज़ी शासन के दौरान एक वैचारिक पुनर्जागरण भी हो रहा था, जिसका प्रभाव शिक्षा और विज्ञान के क्षेत्रों में भी देखा गया था I पश्चिम भारत में शिक्षा के माध्यम से समानता पर तवज्जो दी जा रही थी, और पुणे और मुंबई जैसे नगरों में कई विज्ञान संस्थाएं भी खोली जा रही थीं,  जहां पश्चिमी विज्ञान के बारे में विस्तार से जानकारी मिलने लगी थी I

इस बीच 29 अप्रैल, सन 1867 को बम्बई (वर्तमान मुंबई) में भिसे का जन्म हुआ I उनके पिता अबाजी, सूरत की अदालत में कार्यरत थेI भिसे सिर्फ़ पन्द्रह बरस के ही थे, जब उन्होंने अमेरिकी विज्ञान प्रणाली में हुई प्रगति के बारे में पत्रिकाओं के माध्यम से जानकारियां हासिल कर ली थीं और उन्हें अपने आविष्कारों में ढालना शुरू कर दिया थाI उन्हें आभास होने लगा था, कि उनका मन आविष्कारों की दुनिया में ही रमता है, जिसके कारण वे मुख्यधारा की शिक्षा से दूर रहते थेI इस जूनून ने उनके और उनके पिता के बीच में एक दीवार खड़ी कर दी थी I जब पिता ने भिसे को स्कूल की पढाई पूरी करने के बाद क़ानून की पढाई करने के लिए कहा, तो भिसे ने बग़ावत करके मुंबई का रुख किया। मुंबई में अपने आविष्कारों का खर्चा उठाने के लिए, वो सन 1888 से लेकर 1897 तक सरकारी महालेखागार में कार्यरत रहेI

मुंबई में रहकर भिसे ने दृष्टि-सम्बन्धी भ्रम (Optical Illusion) पर शोध किया, जिसके माध्यम से उन्होंने सन 1889 में मुंबई के कांग्रेस अधिवेशन के दौरान एक मूर्ति को प्रज्वलित कियाI वहीँ सन 1893 में उन्होंने एक साइंटिफिक क्लब (विज्ञान क्लब) की स्थापना की। हर माह के रविवार को वैज्ञानिक वहां आकर अपने प्रयोग करते थे I इस तरह के कई आविष्कारों और उनकी महत्व के बारे में भिसे अपनी पत्रिका “विविध कला प्रकाश” में प्रकाशित करते थे I इन सफलताओं की वजह से मुंबई के धनी वर्ग ने, भिसे के क्लब और उनके प्रयोगों के लिए वित्तीय सहायता देनी शुरू कर दी थी I

भिसे की ख्याति अब भारत के कई रजवाड़ों तक पहुँच चुकी थी I बात यहाँ तक आ गई थी, कि बड़ोदा के  सयाजीराव गायकवाड़-तृतीय और पटियाला के महाराजा राजिंदर सिंह ने उन्हें इंग्लैंड जाने के लिए सन 1895 में उनकी सहायता की, जहां उन्होंने मैनचेस्टर में आयोजित एक मेले के दौरान दृष्टि-सम्बन्धी भ्रम से जुड़े अपने आविष्कारों को पेश किया I इसके कारण, भिसे की ख़बरें  यूरोप के अखबारों में छपने लगीं और उन्हें शौहरत मिलने लगी I भिसे ने इंग्लैंड में प्रिंटिंग के क्षेत्र में हुए विकास को समझकर वापस मादरेवतन का रुख किया। उस समय पुणे और उसके आसपास के क्षेत्र में प्लेग फैला हुआ था I जब उन्होंने इस संकट से निपटने के लिए लोगों की  सहायता करने का प्रस्ताव दिया, तो कई रूढ़िवादियों ने इसका विरोध किया। क्योंकि उन दिनों हिन्दू समाज में पानी के जहाज़ से सफ़र करने को ‘अपशकुन’ माना जाता था,और भिसे पानी की यात्रा कर चुके थे। मगर भिसे ने इसके ख़िलाफ़ जाकर एक राहत दल का गठन किया, जिसने दिन-रात एक करके लोगों को क्वारेनटीन (Quarantine) किया और ग़रीबों के पुनर्वास के लिए बहुत काम किया I दिलचस्प बात ये रही, कि जिस रूढ़िवादी संस्थान ने भिसे को विदेश जाने के कारण ‘अछूत’ माना था, उसी ने भिसे को उनके राहत कार्यों के लिए सम्मानित भी किया!

इसी बीच, भिसे ने मुंबई की रेलवे प्रणाली के लिए एक इंडिकेटर का आविष्कार किया, जिससे ट्रेन को अगले स्टेशन के बारे में जानकारी मिल सके। उन्होंने और एक सेफ़्टी-बॉक्स भी तैयार किया, जिसमें यात्री के सामान को ले जाया सके I इन दोनों कामों के लिए भिसे को अंग्रेज़ी सरकार से पेटेंट तो मिले, मगर भारतीय रेलवे ने इस बारे में लिखकर कुछ नहीं दिया ! बिना हार माने भिसे ने काम जारी रखा, और उनको बड़ी सफलता सन 1897 में मिली, जब इंग्लैंड में एक प्रतियोगिता के दौरान, उन्होंने वज़न मापने के लिए एक आटोमेटिक-यंत्र का आविष्कार किया।इसके लिए उन्हें दस पौंड का इनाम मिलाI उनके इस कारनामे से भारत की वैज्ञानिक शोध में एक नई क्षमता का परिचय दियाI

भारत में अब कई कारखाने भिसे के आविष्कारों के आधार पर चल रहे थे, जिसकी वजह से उत्पादन बेहतर हो रहा थाI उनकी शौहरत भारत के हर कोने तक पहुँच रही थी Iभिसे चाहते, कि विलायत उनके आविष्कारों को सही दिशा मिले। इसी इच्छा से भिसे ने सन 1899 में एक बार फिर लन्दन का रुख़ किया, जहां उनकी मुलाक़ात दादाभाई नोरोजी से हुईI भिसे के आविष्कारों से मिले पेटेंट की बढती सूची को देखते हुए, नोरोजी ने भिसे के हर आविष्कार और सफ़र आदि के लिए वित्तीय सहायता देने का निर्णय लिया I

इंग्लैंड में अब भिसे ने अपने अविष्कारों पर काम शुरू कर दिया था, जिसकी शुरुआत उन्होंने किचिन(चोका) में काम आने वाली चीज़ों से कीIमगर सबसे महत्वपूर्ण आविष्कार ऐसा था, जिससे विज्ञापन के क्षेत्र में आगे चलकर बड़ी क्रान्ति आई थी Iसन 1901 में उन्होंने वेर्टोस्कोप’ का आविष्कार किया, जिसको सड़कों पर बड़े बोर्ड पर लगाया जा सकता था, और ये रंगीन इश्तहारों को कम समय में बदलकर प्रदर्शित करती है I भिसे इस मशीन को पेरिस ले गए थे, जहां उन्होंने एक विश्व व्यापार मेले में इसको प्रदर्शित किया, मगर इसके एक पुर्ज़े ने काम करना बंद कर दिया, और भिसे की ये कोशिश नाकाम हो गई I वापस लन्दन आकर भिसे ने एक आटोमेटिक टॉयलेट फ़्लश का आविष्कार कियाI जिसमें मौजूद बटन को दबाने से पानी निकलता था, और उस पानी से टॉयलेट साफ़ हो जाता था I लेकिन लन्दन की नगरपालिका ने पानी ज़्यादा ख़र्च होने के डर से इसे रद्द कर दिया था। आज हर घर और हर होटल में फ़्लश का इस्तेमाल हो रहा है। या यों कहा जाए कि यही फ़्लश जीवन का हिस्सा बन चुका है।

लेकिन भिसे इतनी जल्दी हार कहाँ मानने वाले थे! उन्होंने एक वेर्टोलाइट साईन लैंप नाम का  बल्ब ईजाद किया, जिसे इंग्लैंड के राजा जॉर्ज पंचम के राज्याभिषेक के दौरान प्रदर्शित किया गया। इसके लिए भिसे को स्वर्ण पदक से नवाज़ा गया था! आगे चलकर उन्होंने “भिसो-टाइप मशीन” का आविष्कार किया, जिसकी किताब और अख़बार छापने की क्षमता उन दिनों की मशीनों के मुकाबले काफ़ी तेज़ थी। ये मशीन कम बिजली, और कम खर्चे पर काम कर सकती थीIइससे भिसे ने एक नया इतिहास रचा। इस मशीन को बनाने की ज़िम्मेदरी नोरोजी के मित्र, हेनरी हायेंडमैन को दी गई। मशीन बनाने के लिए15 हज़ार पौंड इकट्ठा करने की योजना बनाई गईI लेकिन कोई स्थाई आर्थिक सहायता ना मिलने के कारण, भिसे हताश होकर सन 1908 में मुम्बई वापस गए। मुंबई में उनकी मुलाक़ात गोपाल कृष्ण गोखले से हुईI गोखले ने मशहूर उद्योगपति रतनजी टाटा को भिसे के लिए एक वाणिज्यिक संघ की स्थापना करने की सलाह दी। उसी के बाद टाटा के भतीजे शापूरजी सकलाटवाला की मदद से ‘टाटा भिसे इन्वेंशन सिंडिकेट’ का गठन किया I इस सिंडिकेट की वजह से ही भिसे को प्रिंटिंग के क्षेत्र में नई ऊंचाईयों तक पहुँचने का मौक़ा मिला। जहां भीसो-टाइप सहित प्रिंटिंग क्षेत्र में उनके अन्य आविष्कारों ने यूरोप को प्रिंटिंग में आ रही दिक़्क़तों से निजात दिलवाई I मगर भिसे को एक बार फिर संकट का सामना करना पडा।  पहले विश्व-युद्ध (1914-1919) के दौरान भिसो-टाइप के बनाने में दिक़्क़तें आ रही थीं। उन हालात का फ़ायदा उठाकर, सकलाटवाला ने उसमें इस्तेमाल होने वाले सभी पुर्ज़े बेच डाले और कम्पनी पर ताला लगा दिया!

इस त्रासदी से उबरने के लिए भिसे ने न्यू यॉर्क (अमेरिका) का रुख किया, जहां उन्होंने सबसे पहले अपनी टाइप क़ॉस्टर कम्पनी की स्थापना की Iप्रिंटिंग के क्षेत्र में भिसे के महान आविष्कारों  को कोई ख़ास सफलता नहीं मिल पाई। लेकिन आने वाले सालों में, इनके फ़ार्मूलों ने ही प्रिंटिंग कार्य को और आसान बनाया I अब भिसे ने प्रिंटिंग से परहेज़ करके दवाओं के क्षेत्र में क़दम रखा। जहां उन्हें जल्द ही सफलता मिलने लगीI उन्होंने Atomidine दवा का आविष्कार किया, जिससे कम खर्च पर ब्लड प्रेशर, मलेरिया और डायरिया जैसी बीमारियों का इलाज किया जा सकता था I इसका फार्मूला सिर्फ़ अमेरिकी और भारतीय कंपनियों को दिया गया था, और ब्रिटिश कंपनियों को नहीं दिया गया था। साथ ही उन्होंने Shella नाम का कपड़े  धोने का एक केमिकल और मलेरिया से निजात पाने के लिए बेसलाइन (Baseline) नाम की दवा भी ईजाद की थीI दवाओं के क्षेत्र में भिसे अब इतने प्रख्यात हो गए थे कि 29 अप्रैल, 1927 को उनका साठवां जन्मदिन बड़े ज़ोरों-शोरों से मनाया गया था और उन्हें अमेरिका के “सबसे पहले भारतीय वैज्ञानिक” और यहाँ तक ‘भारतीय एडिसन’ के ख़िताब से भी नवाज़ा  गया थाI दिलचस्प बात ये है, कि भिसे का ज़िक्र अब उन पत्रिकाओं में होने लगा था, एक ज़माने में जिन्हें पढ़कर उन्होंने आविष्कारक बनने का सपना देखा था I आगे चलकर, कई अमेरिकी शिक्षण संस्थानों ने भिसे को सम्मानित किया I 7 अप्रैल, सन 1935 को इस महान वैज्ञानिक ने दुनिया को अलविदा कहा I

भिसे ने क़रीब 200 आविष्कार किए थे, जिनमें से सिर्फ़40 को ही पेटेंट मिल सका I हालांकि दुर्भाग्यवश, उनके जितने आविष्कारों को ठुकराया गया था, उनमें से कुछ आज हमारी आम दिनचर्या का हिस्सा बन चुके हैं I आज ये महान आविष्कारक इतिहास के पन्नों में कहीं खो गया है…

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