आज़ादी की लड़ाई में आम आदमी की याद्दाश्त में बोस नाम का एक ही शख्स याद आता है , और वो है नेताजी सुभाष चंद्र बोस. देस-परदेस में अपनी आज़ादी की लड़ाई से जुडी गतिविधियों से माने गए सुभाष को आज़ाद हिंद फ़ौज की बागडोर संभालने के लिए भी याद किया जाता है. मगर इस फ़िराक में, आज़ाद हिन्द फ़ौज के रचियिता राश बिहारी बोस को नज़रंदाज़ कर दिया जाता है. राश बिहारी बोस की बात करें, तो उन का योगदान सिर्फ भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में ही नहीं, बल्कि भारत और जापान के मैत्री सम्बन्ध बढ़ाने में भी रहा है.
भारत और जापान के सम्बन्ध प्राचीन काल से माने गए हैं. 19 वीं शताब्दी में जापान के मुख्य शहरों में से एक कोबे में भारतीय व्यवसायिक जनसंख्या भी बढ़ रही थी, मगर इन संबंधों पर सोने पर सुहागा अगर किसी ने लगवाया है तो वो सिर्फ राश बिहारी बोस ने. मज़े की बात ये है, कि उन्होंने यहां सिर्फ राजनैतिक क्षेत्र में ही नहीं बल्कि पाक-कला में इस कदर अपनी छाप छोड़ी है, जिसका असर आज भी जापान के रेस्टोरेंटों में दिखाई देता है.
बंगाल के फ्रांसीसी उपनिवेश चंदननगर में जन्में राश बिहारी बोस अंग्रेजी सेना में भर्ती होना चाहते थे, मगर नहीं हो पाए. फिर भी, उनको देहरादून के फारेस्ट रिसर्च इंस्टिट्यूट में हेड क्लर्क की नौकरी मिली. उमा मुख़र्जी ने अपनी किताब “टू ग्रेटेस्ट इंडियन रेवोल्यूशानेरीज़: राश बिहारी बोस एण्ड ज्योतिन्द्र नाथ मुख़र्जी” में बताया है , कि 1905 में बंगाल विभाजन ने राश बिहारी पर गहरा असर छोड़ा. इससे आहत होकर उन्होंने अपनी नौकरी को तिलाँजलि दे दी और स्वंत्रता-संग्राम में खुद को झौंक दिया
1912 में दिल्ली में लार्ड हार्डिंग की हत्या की साजिश रचने के बाद, बोस ने बनारस और फिर 1915 में लाहौर में विद्रोह के असफल षड्यंत्र रचने की कोशिश की, जिसमें कामयाबी हाथ नहीं आई. अब अंग्रेजी सरकार ने राश बिहारी के लिए फांसी की सज़ा तय की. राश बिहारी पी एन ठाकुर नाम के एक कवि की फर्जी पहचान के साथ एक साल चंदननगर में गुप्त रूप से रहे, और फिर कलकत्ते से जापान के लिए रवाना हुए. जापान में बंदरगाह-शहर कोबे में राश बिहारी ने जून 1915 में कदम रखा और फिर उन्होंने वहाँ से टोक्यो तक की राह ली, जहां उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम पर अपनी सहानुभूति प्रकट करने वाले एशियाई नेताओं से अपने संबंध बनाए, जिनमें प्रमुख मित्सुरु टोयामा भी थे.
इसी बीच,अंग्रेजी सरकार ने कई ख़ुफ़िया एंजेंसियों की मदद ली. टोक्यो में खोजे जाने पर, उन्होंने जापान की सरकार को बोस को तुरंत स्वदेश भेजने के लिए कहा. मगर बोस अभी टोयामा जैसे प्रभावशाली नेता के घर में ठहरे थे, जिसके कारण उनको गिरफ्तार करना उतना आसान नहीं था. पुलिस की नज़रों से बचाने के लिए, राश बिहारी को शिंजुको में नाकामुराया बेकरी में पनाह मिली, जिनकी बागडोर वहाँ की सोमा परिवार के हाथों में थी. परिवार के मुख्य सदस्य ऐज़ो और कोत्सुको को भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के बारे में जानकारी थी. इसी जानकारी के आधार पर, उन्होंने राश बिहारी को सिर्फ अपने घर के बेसमेंट में ही नहीं रखा, बल्कि बोस को गिरफ्तार करने के खतरे को समझते हुए, उन्होंने राश बिहारी के रहने की जानकारी सिर्फ अपने चंद घरवालों को ही दी.
अब जहां बोस और सोमा परिवार के बीच रिश्ता गहरा होता जा रहा था , वहीँ दूसरी ओर ब्रिटिश और जापानी सरकार के रिश्ते अब बिगड़ गए थे. एक ब्रिटिश युद्धपोत ने एक जापानी मर्चेंट जहाज़ पर फायरिंग की थी, जिसकी वजह से दोनों के बीच मैत्री संबंध आगे नहीं बढ़ पाए. अब बोस जापान में खुलकर चल-फिर सकते थे, क्यूंकि जापानी सरकार के उनपर निष्कासन के आदेश वापस ले लिए थे.
बोस ने सोमा परिवार को अपनी पसंदीदा खाने से रूबरू कराया, जो एक करी डिश थी. ये डिश सोमा परिवार को भी भाया. साथ-ही-साथ बोस को सोमा परिवार की बड़ी लड़की तोशिको से प्रेम हुआ और दोनों ने जुलाई 1918 में शादी रचाई. ये शादी उस ज़माने में की गई थी, जब जापानी समाज में बाहरी देश से किसी और व्यक्ति से विवाह करना स्वीकार नहीं था.
मगर प्रेम के पल ज़्यादा वर्षों तक नहीं चल पाए,जब 1925 में तोशिको की टीबी से मृत्यु हुई. मशहूर जापानी इतिहासकार ताकेशी नाकाजिमा ने अपनी किताब “बोस ऑफ़ नाकामुराया” में ज़िक्र किया है कि अपनी बीवी के गुज़र जाने के ग़म में डूबे बोस ने अपने ससुर के साझेदारी की और नाकामुराया बेकरी के ऊपर एक छोटा-सा रेस्टॉरेंट खोला, जहां बोस ने अपनी बीवी और अपनी पसंदीदा डिश की बिक्री में खुद को लगा दिया. इस डिश का नाम इंडो-करी रखा गया , जो गोश्त की करी और चावल के साथ दी जाती थी. रफ्ता-रफ्ता, ये डिश पूरे जापान में लोकप्रिय हो गई, और इसको जापान के स्टॉक एक्सचेंज में भी जगह मिल गई. इस डिश की बिक्री से पाई जाने वाली धनराशि से राश बिहारी ने टोक्यो में “इंडियन क्लब” की स्थापना की, अपने डिश से राश बिहारी “नाकामुराया के बोस” के नाम से मशहूर हुए. अखबारों और रेडियो के माध्यम से राश बिहारी ने ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ अपने संघर्ष के बारे में जापानियों को रूबरू करवाया. इससे प्राप्त हुई धनराशि भारतीय क्रांतिकारियों की मदद के लिए स्वदेश भेजी जाती थी.
राश बिहारी के विचारों को अब पूरा जापान गंभीरता से पढ़ने लगा था. इन्होने भारत में हो रहे राष्ट्रवादी आन्दोलनों के बारे में पल-पल की जानकारी हासिल की. द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान, जब उनको सिंगापुर में 32,000 भारतीय सैनिकों के युद्धबंदी बनने की खबर पता चली, तो उन्होंने बैंकॉक जाकर इंडियन इंडिपेंडेंस लीग की स्थापना की, जिसकी सैन्य दल इंडियन नेशनल आर्मी के नाम से जानी गई. फिर मलया, चीन, जापान और थाईलैंड से और भी भारतीय नेता इस मुहीम में जुड़े. फिर नेताजी सुभाष चंद्र बोस जर्मनी से सिंगापुर पहुंचे जहां उन्होंने फ़ौज की कमान संभाली और फिर आज़ाद हिन्द फ़ौज का गठन किया.
1944 में राश बिहारी टीबी के शिकार हुए और उन्होंने दुनिया को अलविदा कहा. जापान की सरकार ने उनको “आर्डर ऑफ़ दि राइजिंग सन” (द्वितीय श्रेणी) से सम्मान्नित भी किया था.
आज पूरे जापान में राश बिहारी के डिश की धूम उतनी ही है, जितनी पहली थी. तो आप जब कभी भी जापान में किसी भी रेस्टोरेंट में जाएँ और आपको मेनू में नाकामुराया इंडोकरी का ज़िक्र मिले. तो एक महान क्रांतिकारी को याद करते हुए, उसकी इस रचना को चखनाना भूलियेगा!
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