‘‘आ धरती धोरां री, सतरंगों वाला प्रदेश, यहां की मिट्टी भी रंगीली है
और लोक गीतों में शास्त्रीय संगीत की बंदिशें सांस लेती हैं,
पानी कम है, लेकिन हर बारह कोस पर बदलती बोलियां कंठो से और कानों में मिठास घोलती हैं।“
इसीलिए इसे रंगीला राजस्थान कहा जाता है। आईए, आज राजस्थान स्थापना दिवस (30 मार्च) के अवसर पर कुछ रोचक जानकारी से रूबरू होते हैं।
रंगीलो:- आ धरती गोरा धोरा री, आ धरती मीठा मोरां री, ई धरती रो रूतबो ऊँचो, आ बात कवै कूंचो-कूंचो।
सुरीलो:- मारू थारे देश में, निपजे तीन रतन, एक ढोला, दूजी मारवन, तीजो कसूमल(लाल) रंग, पधारो म्हारे देश।
गर्वीलो:- हूँ लड़यों घणों हूँ, सह्यो घणो मेवाड़ी मान बचावण नैं, हूँ पाछ नहीं राखी रण में, बैरयां रो खून बहावण में।
लोक नृत्य:- म्हारी घूमर छै नखराली ए माय, घूमर रमबा म्हे जास्यां, ओ रजरी घूमर रमबा म्हे जास्यां।
लोकगीत संगीत:- राजस्थान की रंग-बिरंगी लोक संस्कृति के गवाही देते यहां के लोकगीत। य़ह लोकगीत विभिन्न मौसमों में,
लोक परम्पराओं, तीज-त्यौहारों, रिती-रिवाज़ों, लोक गाथाओं, देवी-देवताओं, भक्ति-भाव के साथ-साथ रिश्ते, जीव-जंतु, जल-संस्कृति, पेड़-पौधे, यातायात के साधन, फ़सल और उपज, हस्तशिल्प, औज़ार, फल-सब्ज़ी यानी हर मौक़े और चीज़ से जुड़े होते हैं। विदेशी मेहमानों के स्वागत में भी यह गीत बड़े शौक़ से गाए जाते हैं।
हस्तशिल्प:- हाथां रो हुनर अलबेलो, रूप-रूपालो मोवणौ, सात्यूं सुर सुरीला साजै, रंग सुरंगो सोवणों।
धरोहर:- कुण(नाभि का मेल) तो चिणाया(चिढ़ाना) कुआं बावड़ी ए, पणिहारी जो ए लोय(चंचल), ए मिरगा नैणी जी लोय।
रेगिस्तान:- आ तो सुरगां नै सरमा वै, इण पर देव रमण नै आवै, इण रो जस नर-नारी गावै, धरती धोरां री।
राजस्थान के प्रत्येक भाग में मंदिर, मस्जिद, चर्च, गुरूद्वारे सहित अन्य कई धार्मिक स्थलों के अलावा, गढ़, क़िले, दुर्ग, तालाब, बावड़ियां, कुएं, हवेलियां, छतरियां, सहित कई अन्य धरोहरें स्थापत्य कला की बेजोड़ मिसालें हैं। जिन्हें देखने के लिए देश-विदेश से सैकड़ों पर्यटक यहां आते हैं।
देश के उत्तरी पश्चिमी भाग में स्थित वीरों की धरती राजस्थान का नाम आते ही जिज्ञासु मन में वैदिक सरस्वती का कल-कल बहता नीर, मीरां की भक्ति, राजा-महाराजाओं की तलवारों की झनकार और “पधारो म्हारे देश” जैसे सुरीले गीतों का मधुर स्वर लहरिया कानों में गूंजता सुनाई देता है। यह प्रदेश किसी स्वर्ग से कम नहीं है। यहां कई लोक देवी-देवताओं, महापुरूषों की जन्म व कर्म भूमि रही है। तीर्थराज पुष्कर की शौहरत अन्तराष्ट्रीय स्तर तक फैली हुई है। मगर इस वीर भूमि का नाम राजस्थान कैसे पड़ा और कब प्रचलन में आया.. यह बात इतिहास के गर्भ में छुपी हुई है। प्राचीन ग्रथों और और इतिहास पर एक नज़र डाली जाए तो यह वही राजस्थान है, जिसके अधिकांश स्थानों पर पाषाण काल, सिंधु सभ्यता, ताम्रयुगीन सभ्यता, आहड़, बागोर, कालीबंगा जैसी कई सभ्यताएं फलीफूलीं। आर्यों ने 1300 सदी (ई.पू.) ऋग्वेद के सप्तमंडल की रचना राजस्थान के घग्गर की घाटी में सरस्वती नदी के तट पर की थी। रामायण में भी राजस्थान के पुष्कर महातीर्थ का उल्लेख किया गया है। जैसलमेर के राष्ट्रीय मरू उद्यान में लकड़ी के प्राचीन अवशेष जो वर्तमान में पाषाण रूप में प्राप्त हुए हैं। इनका निर्माण काल जुरासिक काल (18 करोड़ वर्ष पूर्व) माना गया है।
राजस्थान शब्द की उत्पत्ति को लेकर मन में जिज्ञासा पैदा होना स्वाभाविक है। इसके लिए कई विद्वानों ने शोध किए हैं। जिनके अनुसार राजस्थान शब्द का सबसे पहले प्रयोग सिरोही ज़िले के बसंतगढ़ में स्थित माताजी मंदिर के शिला-लेख में पाया गया है। इस लेख में राजस्थानीयादिव्य शब्द उकेरा हुआ है। सिरोही ज़िले के वसंतगढ़ (बसन्तपुर) स्थित खींवज माता (क्षेमंकरी) मंदिर से प्राप्त शिला-लेख में संवत 682 (सन 625) के प्रारम्भिक अंश में देवी क्षेमंकरी की प्रार्थना के बाद विजयचिन्ह से लक्षित वक्षस्थल पर विराजमान लक्ष्मी के आधार वाले, अधिक बलवीर्यमान, भूपति वर्मलातनृपति के नामों के उल्लेख के साथ यह अभिलेख प्रारम्भ होता है। इस लेख में वर्मलात का स्तम्भ राज्जिल, जो वज्रभट (सत्याश्रय) का पुत्र था और अर्बुद देश का स्वामी था। लेख से सामन्त प्रथा पर प्रकाश पड़ता है। इस लेख की भाषा संस्कृत है। इसमें ‘राजस्थानीयादित्य’’ शब्द उकेरा हुआ है। यह क्षेत्र कभी मेवाड़ रियासत का हिस्सा रह चुका था। महाराणा कुम्भा ने यहाँ एक भव्य क़िला भी बनवाया था।
“राजस्थान थ्रू द एजेज़” के लेखक दशरथ शर्मा के अनुसार राजस्थान के सैक्त भू-भाग (जिसके अन्तर्गत मारवाड़ तथा थार रेगिस्तान का भू-क्षेत्र जैसलमेर, बीकानेर, बाड़मेर आदि ज़िले सम्मिलित थे ) के लिए मरू या मरूदेश का उल्लेख हमें ऋग्वेद, महाभारत, वृहत्संहिता आदि प्राचीन ग्रन्थों और रूद्रदमन के जूनागढ़ (गुजरात) अभिलेख तथा पाल वंश के अभिलेखों में भी मिलता है। वहीं शक्ति संगमतंत्र में मरूदेश का बड़ा ही रोचक वर्णन किया हुआ है।
‘गुर्जरात्पर्व भागे त द्वारकातों हि दक्षिणे। मरू देशों महेशानि उष्ट्रोप्पति परायणः” 11 महाभारत में प्रयुक्त कुरू जांगला एवं मरू जांगला उल्लेख से प्रतीत होता है, कि जांगल क्षेत्र हर्ष, नागौर और सांभर के अधीश्वर होने के कारण शाकम्भरी और अजमेर के चौहान नरेशों को प्रायः जांगलेश भी कहा जाता था। तथा इसी जांगल क्षेत्र के अधिपति होने के कारण ही आगे चलकर बीकानेर के शासक जांगलधर पातिसाह कहलाये। राज्य का पूर्वी भाग महाजनपद काल में मत्स्य प्रदेश कहलाता था। महाभारत में मत्स्य राज्य की राजधानी वर्तमान विराटनगर (बैराठ) पाण्डवों का प्रबल पक्षधर के रूप में उल्लेख मिलता है। वहीं प्रसिद्ध पुरातत्वेता कनिंघम के मतानुसार साल्व जनपद की राजधानी साल्वपुर ही वर्तमान में अलवर है। सूरसेन जनपद के अन्तर्गत मथुरा सहित भरतपुर का सीमावर्ती क्षेत्र सम्मिलित था। शिवि जनपद चित्तौड़ का क्षेत्र था। नगरी, माध्यमिका गाँव से प्राप्त मुद्राओं पर उकेरे गए ‘मज्झिममिकया शिवि जनपदस्य’ से पुष्टि होती है। टोंक के पास रेंढ़ की खुदाई में मिले सिक्कों पर मालव जनपदस्य से प्रतित होता है, कि इस जनपद की राजधानी यही रही होगी। गुर्जर अथवा गुर्जरत्रा नाम से राज्य का दक्षिण-पश्चिमी भू-भाग यात्री हुआन त्सांग ने अपनी यात्रा विवरण में उल्लेख किया है। मेदपाट मेवाड़ का ही पुराना नाम है। जिसे प्राग्वाट के नाम से ही जाना जाता था। मांड नाम जैसलमेर इसके समीपवर्ती क्षेत्र के लिए सम्बद्ध रहा है। यही से राज्य का सुप्रसिद्ध मांड राग लोकप्रिय हुआ है। इनके अलावा यौद्धेय, मालाणी, सप्तशत सहित विभिन्न प्रांतो के विभिन्न नामों से पुकारा जाता है।
7वीं से 12वीं सदी और मध्य काल में यहां के अधिकांश भाग पर राजपूत राजाओं ने शासन किया, अतः यह क्षेत्र राजपूताना कहलाया। इस शब्द का सबसे पहले मौखिक प्रयोग सन 1800 में जॉर्ज थॉमस ने किया था। आयरलैंड के मूल निवासी सैनिक कमांडर जॉर्ज की मृत्यु बीकानेर में हुई थी। राजपूताना शब्द का सबसे पहले लिखित प्रयोग सन 1805 में विलियम फ़्रेंकलिन ने किया था। स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व अंग्रेज़ी शासन काल में यह क्षेत्र राजपूताना के नाम से ही जाना जाता था। सैण्ड्रल एण्ड वेस्टर्न राजपूत स्टेट्स ऑफ़ इंडिया में इस प्रदेश के लिए तीन शब्दों रजवाड़ा, रायथान एंव राजस्थान का प्रयोग किया था। सन 1665 में रचित मुहणोत नैणसी की मशहूर पुस्तक और सन 1731 में वीर भाण कृत ‘राजरूपक’ में भी उक्त शब्द का उल्लेख मिलता है। साहित्यकार राकेश कुमार लिंबा के अनुसार उक्त शिला-लेख और दोनों ग्रंथों में ‘राजस्थान’ शब्द का प्रयोग प्रदेश के रूप में न करके राजाओं के निवास स्थान के संदर्भ में किया गया है। राजस्थान का प्रदेश के रूप में सबसे पहले प्रयोग सुप्रसिद्ध इतिहासकार कर्नल टॉड ने सन 1829 में लिखे गए अपने ग्रंथ ‘एनाल्स एण्ड एंटीक्वीटीज़ आफ़ राजस्थान’ में किया। टॉड ने राजस्थान शब्द की परिभाषा देते हुए उक्त ग्रंथ में कहा है कि राजस्थान भारत के उस भू-भाग का नाम है जहाँ राजपूत राजा राज्य करते हैं। टॉड के पूर्व विलियम फ़्रेंकलिन ने सन 1805 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘’मिलिटेरी मेमोइर्स आफ़ मिस्टर जॉर्ज टामस” में इस प्रदेश का नाम ‘‘राजपूताना’ दिया है।
ब्रिटिश शासकों ने भी अधिकृत रूप से प्रदेश के इसी नाम को स्वीकार किया। उसके बाद सन 1832 में प्रदेश की विभिन्न रियासतों पर नियंत्रण रखने के लिए अजमेर में ‘एजेंट टू दी गवर्नर जनरल’ की नियुक्ति की जिसका पूरा नाम एजीजी फ़ार राजपूताना रखा। उसके बाद सन 1930 में हाई स्कूल और इंटरमिडिएट की परीक्षाओं के लिए एक क्षेत्रीय बोर्ड स्थापित किया, तो उसके साथ ही राजपूताना शब्द जोड़ा गया। सन 1864 में प्रदेश की रियासतों ने मिलकर जयपुर में विश्वविद्यालय की स्थापना की तो उसका नाम ‘‘राजपूताना यूनिवर्सिटी’’और उसी वर्ष ‘‘अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद’’ ने प्रदेश में अपनी शाखा स्थापित की तो उसका नाम राजपूताना प्रांतीय सभा रखा गया। इसके बाद बीजोलिया किसान आंदोलन के सूत्रधार विजयसिंह ‘पथिक’ ने सन 1917 में अपने एक लोक गीत में प्रदेश को राजस्थान के नाम से पुकारा और सन 1920 में उन्होंने रियासतों में चल रहे जन आंदोलनों के मार्ग दर्शन के लिए अजमेर में एक संस्था स्थापित की उसका नाम उन्होंने “राजस्थान सेवा संघ” रखा। देश की आज़ादी के पूर्व राजस्थान और राजपूताना केवल मात्र एक भौगोलिक पहचान थे। राजपूताना एजेंसी के अंतर्गत 19 रियासते, 3 ठिकाने और केन्द्रीय शासित अजमेर-मेरवाड़ा आता था।
स्वतंत्रता प्राप्त करने से पहले अजमेर-मेरवाड़ा एक केन्द्र प्रशासित क्षेत्र था। यहां पर राजपूताना के ए.जी.जी. (एजेंट टू गर्वनर जनरल) का कार्यालय था। राजपूताना एजेंसी की स्थापना सन 1817 में की गई थी। इस क्षेत्र को (प्रोविंस) 25 जून सन 1818 को दौलतराव सिंधिया ने अंग्रेज़ों को दिया गया था। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद 15 अगस्त सन 1947 से 1 नवम्बर सन 1956 तक यह क्षेत्र भारत सरकार के अधीन एक राज्य रहा। इस दौरान यहां की विधानसभा का नाम धारासभा और मुख्यमंत्री का नाम हरिभाऊ उपाध्याय था। राजस्थान एकीकरण के सातवें चरण में इस राज्य का विलय करके अजमेर 26वाँ ज़िला बनाया गया। जब देश स्वतंत्र हुआ तो भारत सरकार के रियासती मंत्रालय (स्टेट्स-मिनिस्ट्री) ने पालनपुर, दांता, ईडर विजयनगर और सिरोही की रियासतों को राजपूताना एजेंसी से हटाकर ‘पश्चिमी भारत एवं गुजरात स्टेट्स एजेंसी’ के अंतर्गत कर दिया। इनमें से वक़्त के साथ में पहली चार रियासतों को तत्कालीन बम्बई राज्य में मिला दिया गया। राजपूताना एजेंसी के अन्तर्गत शेष 19 रियासतों, 2 चीपशिप एवं अजमेर-मेरवाड़ा के एकीकरण से वर्तमान राजस्थान का निर्माण हुआ।
इसका ऐतिहासिक एकीकरण सन 1948 से सन 1956 तक 7 चरणों में पूरा हुआ। उस समय अलवर, भरतपुर, धोलपुर, करोली, कोटा, बूंदी, झालावाड़, शाहपुरा, टोंक, किशनगढ़, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, प्रतापगढ़, मेवाड़ जोधपुर, जैसलमेर, बीकानेर, जयपुर, सिरोही रियासतों और कुशलगढ़ तथा लावा की चीफ़शिप विलय हुई। उन रियासतों में मेवाड़ सबसे पुरानी रियासत थी जो सन 565 स्थापित हुई थी और झालावाड़ सबसे नई रियासत जो सन 1837 में स्थापित हुई थी। तक़रीबन 3 लाख,42 हज़ार 2 सौ 39.74 वर्गं किलोमीटर क्षेत्रफल वाले वृहद राजस्थान का एकिकरण का अधिकांश काम 30 मार्च,सन 1949 को पूरा हो गया था। राजस्थान का नक़्शा पतंग के आकार की तरह लगता है।
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