अब हमें सबसे विकट डाँडा थोङ्ला पार करना था। डाँडे तिब्बत में सबसे खतरे की जगहें हैं। सोलह-सत्रह हजार फीट की ऊँचाई होने के कारण, उनके दोनों तरफ़ मीलों तक कोई गाँव-गिराँव नहीं होते। नदियों के मोड़ और पहाड़ों के कोनों के कारण, बहुत दूर तक किसी आदमी को देखा नहीं जा सकता। डाकुओं के लिए यही सबसे अच्छी जगह है।
– यात्रा-वृत्तांत “ल्हासा की ओर” से
सन 1928 में, 36 साल का एक भारतीय युवक संस्कृत भाषा में ताड़ के पत्तों पर लिखी मूल बौद्ध पांडुलीपियों की तलाश में तिब्बत की यात्रा पर निकल पड़ा। ये पांडुलिपियां कभी प्राचीन नालंदा और विक्रमशिला विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में रखी होती थीं। मुस्लिम हमलावरों ने जब 12वीं सदी और इसके बाद इन शैक्षिक संस्थानों पर हमले किए थे, तब बौद्ध भिक्षु ये पांडुलीपियां तिब्बत ले गए थे। अब इन्हें वापस लाने का समय आ गया था।
इस कठिन काम का बीड़ा उठाने वाले व्यक्ति और कोई नहीं, बल्कि प्रसिद्ध यायावर और लेखक राहुल सांकृत्यायन थे। यहां तक कि, इस मुहिम के लिए उन्हें नेपाली लिबास भी धारण करना पड़ा था, क्योंकि उस समय अंग्रेज़ अपना साम्राज्य फैला रहे थे, जिसके कारण तिब्बती भारतीयों से चौकन्ने रहते थे।
तिब्बत की चार यात्राओं में ये सांकृत्यायन की पहली तिब्बत यात्रा थी। हालंकि तिब्बत के अलावा भी, उन्होंने अपने जीवनकाल में कई जगहों की यात्राएं की थीं। अपने 70 साल के जीवन-काल में उन्होंने भारतीय उप-महाद्वीप की पूरी लम्बाई और चौड़ाई नाप ली थी। वह लाहौर से केरल और केरल से वाराणसी, और इससे भी आगे यात्रा कर चुके थे । वह नेपाल, श्रीलंका, ईरान, चीन, यूरोप और (पूर्व) सोवियत संघ भी गए थे। इनमें से ज़्यादातर यात्राएं उन्होंने पैदल ही तय की थीं।
सांकृत्यायन को, 20वीं सदी के भारत का दिग्गज माना जाता है और बौद्ध तथा हिंदी साहित्य में उनके योगदान को बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। लेकिन क्या आपको पता है, कि उनके माता-पिता ने उनका नाम राहुल नहीं रखा था? उनके बचपन का नाम केदारनाथ पांडे था और उनका जन्म उत्तर प्रदेश में आज़मगढ़ ज़िले के एक छोटे-से गांव में 9 अप्रैल, सन 1893 में हुआ था। उनके ब्राह्मण पिता संपन्न किसान थे और उन्होंने प्राथमिक शिक्षा के लिए केदारनाथ का एक स्थानीय स्कूल में दाख़िला करवा दिया था । लेकिन केदारनाथ महज़ 14 साल की उम्र में घर से भाग गए।
अपने जीवन के अगले पांच साल उन्होंने लगातार यात्राओं में गुज़ारे और बौद्धिक, दार्शनिक तथा राजनैतिक विषयों का अध्ययन किया। अपने घुमक्कड़ स्वभाव की वजह से वह कभी भी एक जगह ज़्यादा समय तक नहीं रह पाते थे और इसीलिए उन्हें “घुमक्कड़-राज” कहा जाता था। हर चीज़ पर गहरी नज़र रखना केदारनाथ का स्वभाव था। और वह जो कुछ देखते थे, उसे नियमित रुप से अपनी डायरी में लिखा करते थे।
केदारनाथ को भाषाओं में भी गहरी दिलचस्पी थी और अपनी यात्राओं के दौरान उन्हें नई-नई भाषाएं सीखने का मौक़ा भी मिला था। कहा जाता है, कि उन्हें संस्कृत, हिंदी, भोजपुरी, अंग्रेज़ी, तमिल, कन्नड, पाली, उर्दू, सिंहली, तिब्बती और रुसी के अलावा अन्य भाषाओं का अच्छा ज्ञान था।
अपने इस जुनून का ख़र्चा उठाने के लिए वह अपनी यात्राओं के अनुभव अख़बारों तथा पत्रिकाओं में लिखा करते थे। इस तरह भारत में साहित्य की यात्रा-वृत्तांत को लोकप्रियता मिली। इससे पहले किसी ने भी यात्रा- पत्रकारिता इतने जोश-खरोश से नहीं की थी, जैसी केदारनाथ ने की। स्थानों के विश्वस्नीय वर्णन की वजह से वह बहुत जल्द ही लोकप्रिय हो गए। उदाहरण के लिए, उन्होंने अपने यात्रा वृत्तांत “मेरी लद्दाख़ यात्रा” में उन्होंने विवेकपूर्ण तरीक़े से लद्दाख़ के क्षेत्रीय, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक माहौल का ज़िक्र किया। साथ ही लद्दाख के महत्व को भी समझाया।
जल्द ही, उन्होंने कहानियों को लिखना और अनुवाद करना भी शुरू किया। इसके अलावा उन्होंने शोध आधारित पत्रिकाओं में विद्वतापूर्ण लेख भी लिखे। उन्होंने सामाजिक विज्ञान, इतिहास, दर्शन, बौद्ध धर्म, तिब्बती धर्म, कोश-रचना, व्याकरण, मूल ग्रंथ के संपादन, लोक-कथाओं, विज्ञान, नाटक और राजनीति सहित अनेक विषयों पर महारथ के साथ हाथ आज़माए। आज उनकी 120 से ज़्यादा पुस्तकें मौजूद हैं, अर्थात 50 हज़ार से अधिक पृष्ठ।
केदारनाथ कुछ समय के लिए आर्य समाज की गतिविधियों से भी जुड़ गए थे। लेकिन जल्द ही वह इससे अलग हो गए थे। क्योंकि आर्य समाज की समाज-सुधार की विचारधारा उनके स्वतंत्र चिंतन में बाधा लगती थी। वह तार्किक दर्शन की खोज करना चाहते थे, जिसमें समस्त मानव जीवन के हित को देखा जा सके औऱ यही वजह है, कि उनकी दिलचस्पी बौद्ध धर्म में जागी।
बौद्ध धर्म के बारे में औऱ ज़्यादा जानने के लिए उन्होंने श्रीलंका की यात्रा की और पाली भाषा तथा प्राचीन बौद्ध धर्म की अवधारणा को समझने के लिए कई महीने वहां बिताए। उन्होंने त्रिपिटक ग्रंथ पर महारथ हासिल की। वह बौद्ध धर्म से इतना जुड़ गए थे, कि वह भिक्षु ही बन गए। तभी उन्होंने अपना नाम राहुल सांकृत्यायन रखा. भगवान बुद्ध के पुत्र का नाम राहुल था।
लेकिन उन्हें लगा, कि बौद्ध धर्म का पूरा ज्ञान प्राप्त करने के लिए उन्हें बोधिसत्व और आरंभिक बौद्ध भिक्षुओं के कार्य तथा भारत में बौद्ध धर्म के इतिहास को पढ़ना होगा। ये तिब्बत जाकर ही संभव हो सकता था, जहां ये पांडुलीपियां रखी हुई थीं। इस तरह उन्होंने नेपाली और तिब्बती का वेष धारण कर तिब्बत की चार बार यात्राएं की। 25 मई सन 1936 को तीसरी यात्रा के दौरान वह माउंट एवरेस्ट के पास साक्या मठ के एक गुमनाम कमरे में दाख़िल हुए। उन्होंने जब दरवाज़ा खोला तो वहां “धूल का एक बादल उड़ा-सा “ उन्होंने आगे कहा- “हमारे गले धूल से भर गए थे और कमरे के फ़र्श पर एकतिहाई इंच धूल भरी पड़ी थी।” बहुत पहले भुला दी गईं पांडुलीपियों तक पहुंचने के बाद उनकी नज़र ताड़ के पत्तों पर लिखी गई पांडुलीपियों के बंडल पर पड़ी। उस क्षण के बारे में उन्होंने लिखा,“जब मैंने प्रामाणावर्ति की भाष्य के संपूर्ण 25 खंड और प्रामाणावर्तिकी के प्रथम अध्याय पर धर्माकृति की खुद की टिप्पणी देखी, तो मुझे कैसा महसूस हुआ, उसका मैं वर्णन नहीं कर सकता…।” वापसी में वह अपने साथ न सिर्फ़ कुछ बहुमूल्य पांडुलीपियां लाए बल्कि थांगका पेंटिंग्स और मूर्तियां भी लाए। इन्हें आज पटना संग्रहालय में देखा जा सकता है।
सांकृत्यायन हमेशा यात्रा करते रहते थे ,लेकिन ऐसा नहीं कि वह देश में हो रही घटनाओं से अनभिज्ञ रहे हों। ये वो समय था, जब देश में स्वतंत्रता आंदोलन अपने पूरे ज़ोरों पर था।
उन्होंने राजनीति में सक्रिय रूप से दिलचस्पी ली और अंग्रेज़ विरोधी भाषणों (सन 1920 और 1923-1925) तथा बिहार में किसान सत्याग्रह (सन 1939) में हिस्सा लेने और कम्युनिस्ट पार्टी की गतिविधियों में शामिल होने के कारण उन्हें जेल भी जाना पड़ा।
सांकृत्यायन को विदेशी विश्विद्यालयों में पढ़ाने के लिए भी आमंत्रित किया गया था, जो एक बड़े गौरव की बात थी क्योंकि उन्होंने कोई औपचारिक शिक्षा तो प्राप्त नहीं की थी। उन्होंने दो बार सन 1937-38 और सन 1947-48 में, लेनिनग्राद विश्विद्यालय (सेंट पीटर्सबर्ग) में भारतीय विद्या का प्रोफ़ेसर बनाया गया। रुस में रहते हुए ही वह मार्कसवादी समाजवाद के अनुयायियों के क़रीब आए और साम्यवाद का अभियान छेड़ा। उसके बाद, उन्हें श्रीलंका के विद्यालंकार विश्वविद्यालय में बौद्ध धर्म के प्रोफ़ेसर के रूप में नियुक्त किया गया।
इन सबके बीच आज सांकृत्यायन को जिस बात के लिए सबसे ज़्यादा याद किया जाता है, वो है उनका साहित्य। “वोल्गा से गंगा” उनकी प्रसिद्ध रचनाओं में से एक है। यह एक कहानी संग्रह है जिसमें, उन्होंने इतिहास को कहानियों के अंदाज़ में लिखा है । इसमें बताया गया है, कि कैसे 6000 ई.पू. से लेकर सन 1942 तक मानव सभ्यता का विकास हुआ। इसमें उन्होंने यूरेशिया के मैदानों से, आर्यों का, वोल्गा नदी के आसपास के क्षेत्रों में आगमन, फिर हिंदकुश के पार और हिमालय तथा उप-हिमालय क्षेत्रों में उनकी आवाजाही, उसके बाद भारतीय उप-महाद्वीप के भारत-गंगा के मैदानी इलाकों में उनके प्रसार को बखूबी से पेश किया है।
“मध्य एशिया का इतिहास” भी उनकी प्रभावशाली रचना है। दो खंडों की इस रचना पर उन्हें सन 1958 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। भारत सरकार ने उन्हें सन 1963 में “पद्म भूषण” से सम्मानित किया गया था।
अपने बाद के जीवन में उन्होंने एक अक़ल्मंद बुज़ुर्ग की हैसियत से, अपने घुमक्कड़ जीवन पर लिखी और उसका नाम रखा “घुमक्कड़ शास्त्र”। इसमें उन्होंने ईसा मसीह,मोहम्मद, शंकराचार्य और बुद्ध जैसे धार्मिक प्रचारकों और समाज सुधारकों को “घुमक्कड़ी” के सर्वश्रेष्ठ उदाहरण के रुप में पेश किया । उनका कहना है कि घुमक्कड़ का जीवन मानवीय सीमाओं से परे हो जाता है। अजीब-ओ-ग़रीब रीति-रिवाजों और लोगों के संपर्क में आने से “घुमक्कड़” विश्व की विविधताओं का आनंद उठाता है, साथ ही अभावों में रहने वालों के दुखों की सच्चाई को साझा करने और उनसे रू-बरू होने से मानवीय तकलीफ़ों की व्यापक्ता का एहसास होता है। एक “घुमक्कड़” में पीढ़ित व्यक्ति के प्रति अपार करुणा और स्नेह होता है।
सांकृत्यायन ने “मेरी जीवन यात्रा” शीर्षक से अपनी आत्मकथा भी लिखी है। इसे पढ़कर लगता है कि कैसे इसके लेखक ने अपने जीवनकाल में एक साथ कई रोल निभाए, एक ब्राह्मण, साधु, आर्य-समाजी, बौद्ध भिक्षु, धर्मनिरपेक्ष, धुमंतु, प्रगतिशील लेखक, विद्वान और वामपंथी की तरह अपना जीवन जिया। उनकी यात्रा शारीरिक हो या दार्शनिक. दोनों रुपों में अनवरत रही । उन्हें नई-नई जगह देखने और विभिन्न विचारधाराओं को जानना-समझना पसंद था।
दुर्भाग्य से एक ऐसे व्यक्ति को, जो कभी एक जगह अधिक समय तक नहीं रह पाया हो, उसे अपने जीवन के अंतिम तीन वर्ष दार्जिलिंग के एक घर में बिताने पड़े। जीवन के अंतिम वर्षों में उन्हें दिल का दौरा पडा, और उनकी याद्दाश्त भी जाती रही थी। 14 अप्रैल, सन 1963 को 70 साल की उम्र में उनका निधन हो गया। लेकिन मृत्यु के पूर्व वह अपने पीछे एक महान विरासत छोड़ गए। उन्हें भारत में यात्रा-वृत्तांत का पितामह कहा जाता है।
उनके सम्मान में सरकार ने उनके नाम पर दो पुरस्कारों की घोषणा की, जो यात्रा-साहित्य में उत्कृष्ट काम के लिए हिंदी के लेखकों को दिए जाते है।
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