पेशावर…..यानी फूलों का शहर। माना जाता है कि इस शहर का नाम पहले पुष्पपुरा रहा होगा है। कटास राज से लेकर लाहौर क़िले तक, पाकिस्तान में ऐसे कई प्रमुख स्थान हैं, जिनका भारतीय इतिहास से गहरा नाता है। सन 1947 से पहले पाकिस्तान अविभाजित भारत का हिस्सा रहा है। पेशावर, पाकिस्तान के मुख्य शहरों में से एक है। हालांकि ये जगह, पिछले एक लम्बे अर्से से आतंकवाद की वजह से खबरों में रही है. लेकिन इसका एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक पहलू भी है। इसी शहर में एक ऐसा मशहूर बाज़ार है जो एक दर्दनाक ऐतिहासिक घटना का गवाह रहा है। इस जगह से कई बड़े फ़नकारों भी निकलें हैं।
ये जगह है क़िस्सा ख़्वानी बाज़ार। पेशावर शहर के बीचोंबीच मौजूद, इस बाज़ार के इर्द-गिर्द आज भी सदियों पुरानी इंडो-इस्लामिक वास्तुकला से सजी कई इमारतें मौजूद हैं। इसकी फ़ज़ाओं में फ़ालूदा, सूखे मेवे, मसालों और रिवायती मिठाईयों की ख़ुशबू आज भी बरक़रार है। अपने चरम काल में कभी, मध्य एशिया और भारतीय उपमहाद्वीप के अन्य देशों के व्यापारियों और यायावरों को इन्हीं चीज़ों ने आकर्षित किया था I इस बाज़ार की खासियत यह है कि यहाँ स्थानीय पख़्तूनों का पसंदीदा क़हवा, जो हर शाम, तरह तरह की क़िस्मों में पिलाया जाता है और जिसकी चुस्कियों के साथ लोग गुफ़्तगू करते हैं और माहौल का आनंद लेते हैं।
दो ऐसे महत्वपूर्ण कारण है, जिसकी वजह से क़िस्सा ख़्वानी बाज़ार का नाम, भारतीय इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज है। ये वही बाज़ार है, जहां हिंदी फ़िल्म जगत के सदाबाहर अभिनेता राज कपूर, दिलीप कुमार और शाहरुख खान का परिवार रहा करता था। ये वह जगह भी है, जहां हुए एक क़त्ल-ए-आम ने इतिहास का रुख ही बदल दिया था। सन 1930 में हुए उस नरसंहार ने भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन को एक नई दिशा भी दी।
कई ऐतिहासिक तथ्यों पता चलता है, कि ये उन बाजारों और सरायों में से एक था, जिसका निर्माण उस दौरान हुआ था जब पेशावर विश्वप्रसिद्ध रेशम मार्ग पर स्थित था। पेशावर रेशम, नील, चीनी, चाय, केसर आदि के लिए मशहूर था और इसकी गलियों में तिजारत और दौलत की रैलपैल थी।
एक ज़माने में, क़िस्सा ख़्वानी बाज़ार में व्यापारियों, विद्वानों, सैनिकों और यायावरों का तांता लगा रहता था। यह तमाम लोग पेशावर से मध्य एशिया, तुर्की, चीन और भारतीय उपमहाद्वीप में आते-जाते थे। अक्सर वो यहाँ पर एक रात या कुछ दिन गुज़ारते थे। क़िस्सा ख़्वानी का मतलब होता है क़िस्सा सुनाना। शाम ढलते ही यहाँ माहिर क़िस्सागो जमा हो जाते थे और इश्क़-मोहब्बत, जंग और ज़िंदगी से जुड़ी तरह तरह की कहानियां या गप्पबाज़ियां सुनाते थे। उनका अंदाज़-ए-बयान इतना दिलचस्प होता था, कि सुननेवाले,सुनते रह जाते थे और साथ ही क़हवे की चुस्कियां लेते जाते थे। इसी वजह से, इस जगह का नाम क़िस्सा ख्वानी बाज़ार पड़ गया। शायद इसी कला या फ़न का असर रहा हो, कि यहां राज कपूर, और दिलीप कुमार जैसे फ़नकार पैदा हुए!
पेशावर का हिस्सा होने की हैसियत से क़िस्सा ख्वानी बाज़ार ने मौर्यों से लेकर मुग़लों तक की हुकूमत देखी। लेकिन उन्नीसवीं शताब्दी में इसे तवज्जो तब मिली, जब दूसरे आंग्ल-सिख युद्ध (1848-49) के बाद पेशावर, अंग्रेज़ों के हिस्से वाले उत्तर-पश्चिमी सीमान्त क्षेत्र के तहत आ गयाI इसी वजह से क़िस्सा ख़्वानी बाज़ार में अंग्रेज़ी यायावर और सर्वेक्षकों के आवागमन में तेज़ी आने लगी और ये उनके आकर्षण का केंद्र भी बन गया। लोवेल थॉमस जैसे यायावर और हर्बर्ट एडवर्ड्स जैसे प्रशासकों ने अपने दस्तावेज़ों में इसकी तुलना लन्दन की मशहूर व्यवसायिक गली पिकाडिली से की थी। लेकिन जिस ख़ास वजह से, क़िस्सा ख़्वानी बाज़ार को इतिहास के पन्नों पर जगह मिली, वो है इसका भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से रिश्ता।
इसकी शुरुआत हुई थी सन 1929 में, जब सीमान्त गाँधी के नाम से मशहूर ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार खान ने ‘ख़ुदाई ख़िदमतगार’ नाम की संस्था का गठन किया था। ये संगठन, भारत की आज़ादी के साथ-साथ स्थानीय पश्तून आबादी के बीच आपसी सम्बन्ध सुधारने के लिए काम करती थी। जिस वक़्त ‘ख़ुदाई ख़िदमतगार’ की स्थापना हुई थी, तब अंग्रेज़ सरकार, लड़ाके ख़ानदानों के बहादुर नवजवानों को, अपनीं सेना में भर्ती करती थी। पंजाबियों, जाटों, राजपूतों और गुरखाओं के अलावा पश्तून भी इस जत्थे में शामिल थे। अंग्रेज़ों ने अपने मक़सद को हल करने के लिए जानबूझकर, पश्तून रिहाईशी इलाक़ों में विकास नहीं किया । वहाँ हालात तब और बिगड़ गए जब सन 1901 में, वहां फ्रंटियर क्राइम रेगुलेशन लागू किया गया। इसके तहत किसी भी क़बाईली को, कभी भी गिरफ़्तार किया जा सकता था और उसे किसी भी प्रकार का दंड दिया जा सकता था। ख़ास बात ये थी, कि गिरफ़्तार किए इंसान को किसी भी तरह की न्यायिक सहायता नहीं मिल सकती थी । अंग्रेज़ अधिकारियों को उन्हें माफ़ करने का अधिकार था।
समाज में फैली कुरीतियों से लड़ने के लिए, गाँधीवादी विचारधारा से प्रेरित खान अब्दुल ग़फ़्फ़ार खान ने, शिक्षा पर ज़ोर डालते हुए कई स्कूलों की स्थापना की। लोगों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए उन्होंने कई नए तरीक़े खोजे, जिनमें दूसरों के घरों की सफ़ाई और अपने कपड़े,अपने हाथों से बुनने जैसे क़दम शामिल थे। अहिंसा को अपना मूल आदर्श मानते हुए, ये संगठन किसी भी दुष्कर्म करने वाले सदस्य को बर्ख़ास्त कर देता था और उसके अच्छे व्यवहार को देखकर ही तीन साल बाद उसे वापिस शामिल करता था। लाल वर्दी पहनने वाले इनके कार्यकर्ताओं को ‘सुर्ख़ पोश’ कहा जाता था, और इनमें हिन्दू और सिख भी शामिल थे, जो ‘हम साया’ कहलाए जाते थे। इनकी गतिविधियाँ अंग्रेज़ों के लिए ख़तरे की घंटी बनती जा रही थीं।
इनका संघर्ष अपने चरम पर सन 1930 में तब पहुंचा, जब महात्मा गाँधी ने अंग्रेज़ों के बनाए नमक क़ानून को तोड़ने के लिए दांडी मार्च आन्दोलन शुरू किया। तभी ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान और उनके साथी देशद्रोह के आरोप में फ़्रंटियर क्राइम रेगुलेशन के तहत गिरफ़्तार कर लिए गए। जब यह सूचना कांग्रेस पार्टी तक पहुंची, तब इसकी तहक़ीक़ात करने लिए कांग्रेस कार्यकर्ताओं की एक टीम पेशावर के लिए रवाना हुई।
हज़ारों की तादाद में ख़ुदाई ख़िदमतगार पेशावर के रेलवे स्टेशन पर कांग्रेस कार्यकर्ताओं का स्वागत करने पहुंच गए। वहां पहुंचकर उन्हें पता चला, कि कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को पंजाब में ही गिरफ़्तार कर लिया गया था। इसके विरोध में, ख़ुदाई ख़िदमतगारों ने अहिंसक विरोध किया और धमकी दी, कि जब तक कांग्रेसी नेताओं को नहीं छोड़ा जाएगा, शराब की दुकानें नहीं खोलने दी जाएंगीं। जवाब में अंग्रेज़ों ने, क़िस्सा ख़ुवानी बाज़ार में निहत्थे प्रदर्शनकारियों पर गाड़ियां दौड़ा दीं और उनपर गोलियां चलाईं। लोगों को बचाने के लिए ख़िदमतगारों ने अंग्रेज़ों की गोलियां खाईं।
ख़िदमतगारों ने अंग्रेज़ों से कहा, कि वो सिर्फ़ अपने मृत साथियों को वहाँ से निकालना चाहते हैं,उसके बाद वह बाज़ार से हट जाएंगे। ख़िदमतगारों ने अपनी ये कार्रवाई शुरू ही की थी कि अंग्रेज़ों ने उनपर अंधाधुंध गोलियां बरसानी शुरू कर दीं। इस घटना में क़रीब 400 निहत्थे प्रदर्शनकारी ख़िदमतगार मारे गए । रॉयल गढ़वाल राइफ़ल्स के सिपाही, जो पहले विश्व युद्ध में अपनी बहादुरी के लिए नाम कमा चुके थे, उन्होंने निहत्थे प्रदर्शकारियों पर गोली चलाने से इनकार कर दिया। अंग्रेजों ने ग़ुस्से में आकर पूरी टुकड़ी को ही बर्ख़्वास्त कर दिया ।
ख़ुदाई ख़िदमतगारों की कुर्बानी बेकार नहीं गई। इस हत्याकांड को लेकर भारतीय उपमहवाद्वीप में ज़बरदस्त विरोध हुआ। तब ब्रिटेन के राजा जॉर्ज-छठे ने औपचारिक जांच के आदेश दिए। नैमतुल्लाह चौधरी के नेतृत्व में गठित समिति ने अपनी 200-पन्नों की रिपोर्ट में अग्रेज़ों की इस हरकत की कड़ी निंदा की। अपनीं जीवनी ‘माय लाइफ़ एंड स्ट्रगल’ में खान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान ने लिखा है, कि उस घटना के बाद अहिंसक पठान, हिंसक पठान से भी कहीं ज़्यादा ख़तरनाक हो चुका था। इसके बाद ख़ुदाई ख़िदमतगार, भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के अभिन्न अंग बने गए और क़िस्सा ख़्वानी बाज़ार उनकी कुर्बानियों का गवाह बन गया।
क़िस्सा ख़िवानी बाज़ार के आसपास मौजूद मोहल्ला ख़ुदादाद और डाकी नाल बंदी में रह रहे बचपन के दो दोस्तों के परिवारों ने देश विभाजन से पहले ही पेशावर छोड़कर मुंबई का रुख कर लिया था । दोनों ने ही हिंदी फ़िल्म जगत में जल्द जगह बना ली थी । इतना ही नहीं, उन दोनों ने एक साथ कुछ फिल्मों में काम भी किया। आगे चलकर ये हिंदी फिल्म जगत के सदाबाहार अभिनेता भी बनें। इन फ़िल्मी हस्तियों के नाम हैं…दिलीप कुमार और राज कपूर।
यहाँ मौजूद शाह वाली काताल के एक घर में ताज मीर मोहम्मद का जन्म हुआ था। उन्होंने उसी इलाक़े में, भारत की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया था। वो शख्स कोई और नहीं, मशहूर अभिनेता शाहरुख़ खान के पिता थे। शाहरुख़ के, कुछ दूर के रिश्तेदार आज भी वहाँ रहते हैं। बताया जाता है, कि बचपन में शाहरुख़ एक बार वहाँ गए थे और वहां कुछ समय बिताया था।
सन 1991 में अफ़ग़ानिस्तान पर रूस के हमलों, फिर सन 2010, 2013, 2014 और 2022 में हुए आतंकी हमलों से पेशावर की ज़मीन बार बार लहू-लुहान हुई। लेकिन आज भी क़िस्सा ख़्वानी बाज़ार की वही शान क़ायम है। इसकी ख़ामोश गलियाँ, इतिहास का एक महत्वपूर्ण गढ़ रही हैं। यहां की भाग-दौड़ वाली ज़िन्दगी में, आज भी इतिहास की महत्वपूर्ण कहानियां छिपी हुई हैं।
हम आपसे सुनने के लिए उत्सुक हैं!
लिव हिस्ट्री इंडिया इस देश की अनमोल धरोहर की यादों को ताज़ा करने का एक प्रयत्न हैं। हम आपके विचारों और सुझावों का स्वागत करते हैं। हमारे साथ किसी भी तरह से जुड़े रहने के लिए यहाँ संपर्क कीजिये: contactus@livehistoryindia.com
Join our mailing list to receive the latest news and updates from our team.