भारत की संस्कृति में मध्य प्रदेश जगमगाते दीपक के सामान है, जिसकी रोशनी चारों ओर बिखरी हुई है | मध्य प्रदेश भारत के ह्रदय स्थल में होने से इस राज्य में कई संस्कृतियों का अद्भुद संगम देखने मिलता है| पहाड़ों को अपने वक्षस्थल पर लिए मध्य प्रदेश कई नदियों का उद्गम स्थान है, जिनमे ‘नर्मदा’ और ‘चम्बल’ प्रमुख है तथा इन नदियों के किनारे मानव का विचरण तथा पड़ाव सदियों से रहा है| मध्य प्रदेश की जीवन रेखा नाम से पहचाने जाने वाली नदी नर्मदा के किनारों पर नर्मदा घाटी सभ्यता का उदय हुआ और मानवों ने इस नदी के किनारे न जाने कितनी संरचनाओ का निर्माण किया और संस्कृति को नए आयाम दिए| इन्ही सदीयों पुराने किनारों से कई किद्वंतियाँ, कथाये तथा ऐतिहासिक महत्त्व के तथ्य जुड़े है| नर्मदा नदी के किनारे बसे क्षेत्रों में प्रमुख रूप से नर्मदांचल,मालवा, निमाड़, भुवाणा आदि शामिल है जो मध्य प्रदेश की भौगोलिक सीमाओं में आते है|
निमाड़ क्षेत्र का विस्तार विंध्य पर्वतमाला और सतपुड़ा पर्वतमाला के मध्य बहती नर्मदा के किनारों पर फैला है | इतिहास में नर्मदा को अखंड भारत में हिंदुस्तान (उत्तर भारत) तथा दक्खन (दक्षिण भारत) के मध्य स्थित सीमा के रूप में देखा जाता था | नर्मदा के किनारों पर खेती हेतु उपजाऊ मिटटी से भरे खेतों में कोई भी फसल बोई जाये, वो सफल ही होती है | काली मिट्टी वाले इस क्षेत्र का नाम निमाड़ पड़ने के पीछे कई कींद्वंतियां प्रचलित है|
इस क्षेत्र का नाम निमाड़ पड़ने के पीछे एक प्रमुख कारण इसका शाब्दिक अर्थ ‘नीम+आड़’ = निमाड़ अर्थात नीम के आश्रय में बसा क्षेत्र |
गुजरात तथा महाराष्ट्र के सीमावर्ती क्षेत्रों में नीम के पेड़ बहुतायात में पाए जाते थे और इनकी संख्या आज भी काफी हद तक बची हुई है, इस वजह से नीम के पेड़ों से घिरे इस क्षेत्र को निमाड़ कहा जाने लगा|
पौराणिक काल में निमाड़ को ‘अनूप जनपद’ कहा जाता था. विंध्य पर्वत के दक्षिण में तथा सतपुड़ा के उत्तर में स्थित इस विस्तार में नर्मदा घटी सभ्यता के अवशेष महेश्वर के समीप नर्मदा के दक्षिण तट पर नावड़ातोड़ीं में प्राप्त हुए है जिन्हें लगभग ढाई लाख वर्ष पुराना माना गया है | इतिहास, संस्कृति, विरासत तथा परम्पराओं का अनूठा तालमेल इस क्षेत्र में देखने मिलता है | पुरातत्व महत्त्व के स्थानों में मांडू, महेश्वर, ॐकारेश्वर, ऊन, नावड़ातोड़ीं, बुरहानपुर, असीरगढ़ आदि स्थान प्रमुख है| इस क्षेत्र में विभिन्न शासकों ने अपना शासन किया और इस क्षेत्र को पाने के लिए कई युद्ध भी लड़े गए जिससे नर्मदा किनारे रहने वाले समृद्ध किसानों तथा व्यापर के लिए सफ़र कर रहे व्यापारियों से सीमा शुल्क (चुंगी कर) की वसूली की जा सके | लगभग चार हजार वर्ष पूर्व इक्ष्वाकु वंश के राजा मुचकुंद ने अपने पिता मान्धाता की स्मृति में नर्मदा तट पर चट्टानी भेट पर मान्धाता ओम्कारेश्वर को बसाया था| मुचकुंद के सौ वर्ष के बाद हैहयवंशी महिष्मान या महिश्मक ने मान्धाता से लगभग चालीस मील पश्चिम में नर्मदा तट पर महिष्मति (महेश्वर) को राजधानी बनाया| महेश्वर के इतिहास में अनेक साम्राज्यों के उत्थान-पतन देखने को मिलते है | महेश्वर को राजा महिष्मान, नील्ध्वज, चेदिवंशी, शिशुपाल, सुबंधु, कार्तवीर्यर्जुन, कलचुरी राजाओं तथा अहिल्या बाई होलकर की राजधानी बनने का गौरव मिला | महाजनपद काल के सोलह महाजनपदों में से एक अवंतिका नामक महाजनपद था, जिसकी दो राजधानियां थी| उत्तरी अवंतिका की उजैन तथा दक्षिणी अवंतिका की महिष्मति। महिष्मति आयत-निर्यात का मुख्या केंद्र हुआ करती थी| यहाँ से व्यापारी अपना माल महेश्वर से नर्मदा में बड़ी नावों और छोटे जहाजो से भृगु कच्छ (भरूच) तक और वहां से पश्चिमी देशों तक पहूँचाते थे |
वर्तमान में महेश्वर नगर यहाँ नर्मदा नदी के किनारे बने भव्य घाटों, किले तथा बुनाई के चलते पुरे भारत भर में जाना जाता है| इन घाटों तथा किले का निर्माण मराठा शासक अहिल्या बाई होलकर ने करवाया था| महेश्वर को अपनी राजधानी बनाने से पूर्व, अहिल्याबाई होलकर ने निमाड़ क्षेत्र में ही नर्मदा के दक्षिण तट पर स्थित मर्दाना नामक स्थान को चुना था, परंतु राजपुरोहितों के कहे अनुसार महेश्वर को प्राथमिकता दी गई | महेश्वर में बना किला पाषाणों में कई किस्से सुना रहा है जिसमे मराठा कालीन शस्त्र, वस्त्र, आभूषण, केश सज्जा आदि से ले कर उस समय में होने वाली गतिविधियों को नक्काशी कर पुरे किला परिसर में अंकित किया गया है | ठोस पत्थर के ऊपर महीन कारीगरी के बाद आज जो किला हमें दिखाई देता है, उसमे कोई भी बदलाव नहीं आया है. परंतु नर्मदा नदी के किनारे सैकड़ों वर्षो से अडिग खड़े रहने के पश्चात नर्मदा के तेज बहाव का पानी किले की नींव में रिस रहा है, जिससे घाटों के अन्दर गुफानुमा गड्ढे बन चुके है | इन गुफा नुमाँ गड्ढों में फंस कर कई लोग अपनी जान गवां चुके है| महेश्वर किले के कुछ हिस्से ऊंचाई पर होने की वजह से वो भाग तो सुरक्षित है, परंतु किले से जुड़े घाट, मंदिर तथा परकोटों के निचे पानी रिसाव होने से नमी बनी रहती है जिससे नींव के पत्थर ढीले हो कर खिसकने का डर हमेशा बना रहता है | महेश्वर ने पर्यटन हेतु पर्यटकों के अलावा भारतीय सिनेमा के दिल में भी अपनी जगह बना ली है | बॉलीवुड के अलावा दक्षिण भारतीय फिल्मों तथा धारावाहिकों की शूटिंग यहाँ होते रहती है |
वर्तमान में निमाड़ अंचल में कई ऐतिहासिक धरोहरे उपेक्षा की शिकार है तथा संरक्षण की बाट जोह रही है| स्थापत्य कला के अलावा निमाड़ क्षेत्र में दूसरी कलाएं भी प्रखर रूप से जीवित है जो सैकड़ों वर्ष पुरानी है| इनमे से एक कला है महेश्वरी साड़ी का बुनाई कार्य जो होलकर राजवंश के आश्रय में रह कर आज भी पारम्परिक रूप से कायम हैं और इस कला से हजारों बुनकरों तथा सम्बंधित कारीगरों का जीवन –यापन जुड़ा हुआ है| इन महेश्वरी साड़ियों ने अपनी बुनाई के कारण अपनी अलग पहचान देश ही नहीं विदेशों तक बनाई है| इस बुनाई का कार्य खरगोन जिले के महेश्वर नगर तथा कसरावद तहसील के कुछ ग्रामों में किया जाता है तथा इस कला को सरकार द्वारा भौगोलिक संकेतक (Geographical Indication tag) मिला हुआ है | इस बुनाई के अलावा, निमाड़ में नर्मदा के दक्षिण तट पर बकावां नामक गाँव भी नर्मदेश्वर शिवलिंग बनाने के लिए प्रसिद्ध है| नर्मदा के लगभग २,६०० किलोमीटर से ज्यादा के दोनों किनारों (१,३०० किलोमीटर एक किनारे की लम्बाई ) के क्षेत्र में या कहा जाये की सम्पूर्ण भारतवर्ष में मात्र बकावां ही एक ऐसा स्थल है जहाँ नर्मदा के पत्थरों को निकाल कर उनसे शिवलिंग तराशे जाते हैं जिन्हें नर्मदेश्वर शिवलिंग कहा जाता है| सिर्फ नर्मदेश्वर शिवलिंग की ही स्थापना घर में की जा सकती है और इसी वजह से इन शिवलिंगों की मांग पुरे भारतवर्ष में है|
भारत के लगभग सभी तीर्थस्थानों पर बिकने वाले शिवलिंग इसी गाँव से बन कर जाते हैं | पीढ़ियों से शिवलिंग के लिए पत्थर नदी से निकालकर तराशने का काम यहाँ के केवट तथा नामदेव परिवार से सदस्य कर रहे हैं|पौराणिक मान्यता तथा पुराणों में उल्लेख होने की वजह से नर्मदेश्वर शिवलिंग की स्थापना घर में करने का बड़ा महत्व मान गया है| भारत के आलावा विदेशों में रहने वाले श्रद्धालुओं द्वारा भी नर्मदेश्वर शिवलिंग मंगवाया जाया है | परंतु यह उद्योग कुछ ही दिन तक चल पाएगा, क्यूंकि ग्राम बकांवा और उसके आसपास के ऐसे कई गाँव मण्डलेश्वर स्थित महेश्वर ताप- विद्युत परियोजना के अंतर्गत बने बांध के डूबक्षेत्र में आने वाले हैं| नर्मदेश्वर शिवलिंग बनाने के लीये नर्मदा में जिन-जिन स्थानों से पत्थर निकाला जाता है, उन स्थानों पर जलभराव होने से पत्थर नहीं निकाला जा सकेगा और इस तरह इस उद्योग और कला के ख़त्म होने के आसार है | कला के अलावा असल नर्मदेश्वर शिवलिंग के नाम पर दुसरे पत्थरों से बने शिवलिंग भी बनाने में आ रहे है, जिससे इसके अस्तित्व तथा प्रमाणिकता पर प्रश्नचिन्ह लग रहा है | डूब प्रभावित गावों को पुनर्वास स्थलों पर जमीने आवंटीत कर मुआवजा प्रदान किया जा रहा है, परन्तु इसमें इन कलाकारों तथा निमाड़ की पहचान बन चुके शिवलिंग की विशेषता तथा कला की गंभीरता से लेने की आवश्यकता |
नर्मदा नदी पर मुख्य रूप से निमाड़ क्षेत्र में तीन बड़े बांधों का निर्माण किया गया है, जो इस प्रकार हैं- इंदिरा सागर बाँध – नर्मदानगर, ओंकारेश्वर बाँध- ओम्कारेश्वर तथा महेश्वर परियोजना – मंडलेश्वर| इन तीनो बंधों का निर्माण नर्मदा नदी में 100 की.मी. के अन्दर ही हुआ है , जिससे इनके जलभराव वाले बैककवाटर में हजारों छोटे- छोटे- गाँव, खिडकिया- हरसूद जैसे ऐतिहासिक शहर, जंगल के क्षेत्र तथा पुरामहत्व के स्थान डूब क्षेत्र में आए हैं | इनमे से कुछ स्थानों पर पांडव कालीन मंदिर, राजपूत तथा भिलाला राजाओं के किले- गढ़ी, मराठा कालीन स्मारक, ऋषियों के आश्रम स्थल आदि भी हैं| हजारों लोगों को पुनर्वास स्थलों पर पलायान करना पड़ा और अपनी पुश्तैनी ज़मीन- घर तथा आवासों को छोड़ना पड़ा |
ऐसे स्थानों के पुनरुत्थान अथवा संरक्षण हेतु जनता द्वारा कई बार आवाज़ उठाई जा चुकी है | जिनमे से कुछ स्थलों को डूब से या तो बचाया गया है, या तो उन धरोहरों को विकसित किया गया | ऐसे ही दो प्रमुख उदाहरण हैं- निमाड़ी लोक संत सिंगाजी महाराज की समाधी जो इंदिरा सागर परियोजना के बेकवाटर में डूबने वाली थी, परंतु पुरे निमाड़ के लोगों की धार्मिक आस्था को ध्यान में रखते हुए तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने डूब में आ रही संत समाधी को एक टापू बनाकर संरक्षित करने का कार्य करवाया| यह मानवनिर्मित टापू मुख्यभूमि से करीब तीन किलोमीटर की दुरी पर है जहां टापू के निचे एक कुंवानुमा ढांचा है, जिसके तल में मुख्य समाधी तथा चरण पादुकाएँ विराजमान हैं जहाँ लिफ्ट के द्वारा पुजारी महंत पहुचते है| जनसाधारण के दर्शनार्थ इसी समाधी के ऊपर नवनिर्मित मंदिर में चरण पादुकाओं की प्रतिकृति विराजित है, जिसके दर्शन हेतु गुरुपूर्णिमा पर्व पर सिंगाजी महाराज की जयंती पर तथा अन्य धार्मिक उत्सवों पर लाखों श्रद्धालु निमाड़-मालवा क्षेत्र से उमड़ते है | यह कृत्रिम टापू चारों तरफ से पानी से घिरा है और यहं पहूँचने हेतु एक पुल का निर्माण किया गया है | इस स्थान का ऐतिहासिक महत्व तो था ही, परन्तु धार्मिक महत्व ज्यादा होने के कारण इस समाधी का संरक्षण किया गया| इसी श्रेणी में इंदिरा सागर बांध और ॐकारेश्वर बांध के मध्य बेकवाटर में पांडव कालीन ‘सात-माता मंदिर समूह’ भी डूबने क्षेत्र में आ रहा था | यह मंदिर समूह भारतीय पुरातत्व विभाग के संरक्षण में होने से तथा इसकी शिल्पकला की वजह से शासन की मदद से इस मंदिर को पहले टुकड़ों में बाँटा गया और प्रत्येक पत्थर को नामांकित कर अलग किया गया| इसके पश्चात डूब क्षेत्र के नजदीक सरकार द्वारा ग्राम मसलाय में आवंटित जगह पर इस मंदिर का पुर्ननिर्माण किया गया है | इस तरह डूब में जा रहे महत्वपूर्ण मंदिर तथा वहां स्थापित सप्तमात्रिकाओं की मूर्तियों का विस्थापन कर उन्हें डूबने से बचा लिया गया |
ऐसा ही एक और उधाहरण है ॐकारेश्वर से मण्डलेश्वर के मध्य मराठा राज के अजय योद्धा श्रीमंत बाजीराव पेशवा प्रथम की समाधी जो रावेरखेड़ी नामक गाँव में नर्मदा के किनारे स्थित इस समाधी पर भी बांध के बेकवाटर में डूब जाने का खतरा मंडरा रहा | १७४० में बाजीराव पेशवा की मृत्य के पश्चात उनकी स्मृति में बनी इस समाधी तथा सराय की देखरेख का जिम्मा तथा स्वामित्व भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के पास है |
NHDC- नर्मदा हाइड्रो इलेक्ट्रिक डेवलपमेंट कारपोरेशन द्वारा इस ईमारत को सहेजने तथा बचाने हेतु एक सुरक्षा दिवार बनाने का प्रस्ताव शासन को दिया गया था, जो अभी तक लंबित | यहाँ के युवाओं द्वारा इस स्मारक को बचाने तथा इसे पर्यटन सूचि में शामिल करने हेतु प्रयास किए जा रहे हैं | यह एक ऐसा स्थान है जहाँ सबसे ज्यादा पर्यटक महाराष्ट्र से आते हैं, परन्तु सुविधाओं के आभाव तथा इसके डूबने के खतरे को लेकर सभी लोग चिंतित हैं | जिला प्रशासन – खरगोन द्वारा इस स्थान को बढ़ावा देने हेतु रूचि ली जा रही , जो आने वाले समय में परिणाम दायक होगी | परन्तु अगर समाधी के न डूबने की बात स्पष्ट हो जाए तो मध्यप्रदेश शासन तथा जनप्रतिनिधियों के सहयोग से यहाँ पर्यटन- प्रवास मनोरंजन से जुडी गतिविधियां शुरू करवाई जा सकती हैं | नर्मदा नदी पर बने सभी बांधों के लिए जलभराव वाले विस्तारों में शासन द्वारा जल- पर्यटन तथा रोमांचक खेलों से जुडी गतिविधियाँ शुरू करवाई गई हैं| यहाँ रावेरखेड़ी में भी आने वाले समय में इन सभी गतिविधियों को शुरू करवाने की आवश्यकता है, बशर्ते समाधी स्थल को संरक्षित कर सिंगाजी समाधी की तरह पूरी तरह बचाया जाए |
इंदिरा सागर परियोजना के पीछे जलभराव में हनुमंतिया नामक स्थान, ॐकारेश्वर परियोजना के पीछे जलभराव में सैलानी टापू तथा सरदार सरोवर बांध के समीप स्टेच्यू ऑफ़ यूनिटी तथा केवड़िया नामक स्थान को पर्यटन हेतु विकसित किया जाना यह उम्मीद जगाता है की श्रीमंत बाजीराव पेशवा की समाधी को भी जलभराव वाली स्थिति में पर्यटन की दृष्टी से अहम माना जाएगा |
नर्मदा पर बनने वाले बांधों से न सिर्फ बिजली का उत्पादन हो रहा है, बल्कि उसकी नहरों से हजारों किसानों की कृषि भूमि सिंचित हो रही है, साथ ही जलभराव वाले विस्तारों में पर्यटन को बढ़ावा देने से आम जनता के व्यापर में भी बढ़ोतरी हुई है इससे इन जगहों पर रोजगार की नयी किरण भी दिखाई पड़ रही है| निमाड़ की गोद में सप्तरंगी सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक धरोहरों के होने के बावजूद अनदेखी तथा प्रोत्साहन के आभाव में इनका क्षरण हो रहा है | जल के आसपास प्रफुल्लित होती मानव सभ्यता के इन प्रमाणों को ध्यान देने पर बचाया जा सकता है और आने वाली पीढ़ियों तक पहुँचाया जा सकता है |
हम आपसे सुनने को उत्सुक हैं!
लिव हिस्ट्री इंडिया इस देश की अनमोल धरोहर की यादों को ताज़ा करने का एक प्रयत्न हैं। हम आपके विचारों और सुझावों का स्वागत करते हैं। हमारे साथ किसी भी तरह से जुड़े रहने के लिए यहाँ संपर्क कीजिये: contactus@livehistoryindia.com
Join our mailing list to receive the latest news and updates from our team.