भारत का दिलेर महाराजा, जो आज भी पोलैंड में जीवित है

पोलैंड में इन्हें ‘गुड महाराजा’ के नाम से जाना जाता है, जिन्होंने 600 पोलिश बच्चों को एक नई ज़िंदगी दी थी। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान नवानगर (अब जामनगर) के महाराजा दिग्विजय सिंहजी जडेजा ने न सिर्फ़ इन बच्चों को आसरा दिया बल्कि उनकी परवरिश अपनी औलाद की तरह की।

महाराज दिग्विजय सिंहजी (शासनकाल 1933-1948) मौजूदा समय के गुजरात राज्य की रियासत नवानगर के शासक हुआ करते थे। दिग्विजय सिंहजी ने राजकोट और लंदन में पढ़ाई की थी। उन्होंने ब्रिटिश इंडियन आर्मी और द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान कई अंतरराष्ट्रीय सैन्य टुकड़ियों में काम किया था। उनके चाचा नवानगर के शासक रणजीसिंह का जब निधन हुआ, तो वह दो अप्रैल सन 1933 में नवानगर के महाराजा बन गए। उनके चाचा की कोई संतान नहीं थी।

सन 1935 में महाराजा को ‘सर’ की पदवी मिली। वह भारतीय राजकुमार मंडल (चैंबर्स ऑफ़ इंडियन प्रिंसेज़) के सदस्य भी थे। वह सन 1937 से लेकर सन 1938 तक भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (BCCI) के अध्यक्ष भी रहे और उन्होंने जामनगर चैंबर्स ऑफ़ कॉमर्स की स्थापना भी की थी। दिग्विजय सिंहजी जहां अपने साम्राज्य का कामकाज देख रहे थे वहीं यहां से बहुत दूर यूरोप की घटनाओं का उनके जीवन पर बहुत गहरा असर पड़ने जा रहा था।

दूसरे विश्व युध्द के दौरान सन 1941 में एडोल्फ़ हिटलर के नेतृत्व में जर्मनी ने अपने सहयोगी सोवियत संघ को धोखा देकर उस पर हमला बोल दिया। इस हमले को ऑपरेशन बारबारोसा कहा जाता है। सोवियत संघ ने अपने दूर-दराज़ के इलाक़ों में पोलिश शरणार्थियों को पनाह दे रखी थी। जर्मन हमले के बाद सोवियत संघ के पास इसके सिवाय कोई और चारा नहीं था, कि या तो वे उन्हें अपने देश से निकाल दें या फिर उन्हें अपनी सेना में शामिल कर लें। जर्मनी से नफ़रत की वजह से, जहां कई पोलिश शरणार्थी सोवियत सेना में शामिल हो गए, वहीं कुछ ने कहीं दूर दूसरे देश में बसने का फ़ैसला किया, क्योंकि उनके देश पोलैंड में जर्मनी और सहयोगी देशों के साथ भयंकर युद्ध चल रहा था। पोलिश परिवार उन शिक्षा-शिविऱों में चले गए, जहां दोबारा शिक्षा दी जा रही थी। वहीं बच्चे अपनी माओ से अलग हो गए।

इसी पृष्ठभूमि में निर्वासित पोलिश सरकार के प्रधानमंत्री व्लादिस्लाव सिकोरस्की ने ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल को एक पत्र लिखकर उनसे पोलैंड की धरोहर यानी पोलिश बच्चों को बचाने का आग्रह किया। उन्होंने इस संबंध में बॉम्बे स्थित पोलिश वाणिज्य दूतावास को भी लिखा, जहां पोलिश राजदूत की पत्नी इन बच्चों को भारत में पनाह दिलवाने के प्रयास कर रहीं थीं।

लेकिन युद्ध अपने चरम पर था और कई देश इन शरणार्थी बच्चों को अपने यहां जगह देने से हिचक रहे थे, ख़ासकर ब्रिटेन को युद्ध में बहुत नुकसान हो चुका था और वित्तीय कारणों से वह इस मामले में मदद करने की स्थिति में नहीं था । औपनिवेशिक भारत के तत्कालीन वाइसराय लॉर्ड लिनलिथगो का सुझाव था कि वित्तीय परेशानी से बचने के लिए इन पोलिश शरणार्थी बच्चों को पहले फोस्टर ब्रिटेन में रखा जाए और फिर भारतीय परिवारों को सौंप दिया जाए या फिर बंगाल में कालिम्पोंग जैसी जगहों पर बसा दिया जाए जहां कई बोर्डिंग स्कूल थे।

महाराजा दिग्विजय सिंहजी शाही युद्ध मंत्रिमंडल के सदस्य थे, जिसका गठन द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश साम्राज्य के समन्वय तथा युद्ध के बाद की स्थिति से निपटने के लिए किया गया था। उन्हें अपने एक क़रीबी दोस्त यानी मशहूर पोलिश पियानोवादक इग्नेसीजां पेद्रवस्की से पोलिश शरणार्थियों की दुर्दशा के बारे में पता चला। इसके बाद महाराजा ने वाइसराय के फ़ैसले के ख़िलाफ़ जाते हुए पोलिश बच्चों अपने यहां आसरा देने का फ़ैसला किया। इस काम में महाराजा की मदद के लिए पटियाला और बड़ौदा घराने जैसी अन्य रियासतें सामने आईं जिनके साथ नवानगर रियासत के दोस्ताना संबंध थे। फिर कई बड़े व्यापारी घराने भी वित्तीय मदद के लिए आगे आए। भारत में अंग्रेज़ सरकार पहले तो इस मामले में झिझकी, लेकिन फिर बाद में उसे ये योजना माननी पड़ी और उसने निर्वासित पोलिश सरकार को भी इसके लिए राज़ी कर लिया।

बॉम्बे में पोलिश वाणिज्य दूतावास, लंदन में निर्वासित पोलिश सरकार और इंडियन रेड क्रॉस जैसे संगठनों ने शरणर्थियों को ठहराने का इंतज़ाम करवाने में महाराजा की मदद की। हालंकि कुछ शरणार्थी ईरान से केन्या, मैक्सिको और न्यूज़ीलैंड जैसे देशों में चले गए थे, सोवियत संघ ने इन्हें इन देशों में भेजा था। लेकिन महाराजा दिग्विजय सिंहजी के हस्तक्षेप की वजह से उनमें से कुछ लोग भारत आ गए।

फ़रवरी सन 1942 तक क़रीब एक हज़ार पोलिश बच्चे, जिनकी उम्र आठ से चौदह बरस के बीच थी, भारत रवाना हो गए। चूंकि अफ़ग़ानिस्तान और चीन की मार्फ़त अंतर्देशीय मार्ग से इन्हें लाने में राजनयिक औपचारिकताएं पूरी करनी पड़ती जिसमें समय भी लगता, इसलिए उन्हें लाने के लिए अशकाकाबाद (तुर्केमिनिस्तान), मशाद (ईरान) और क्वेटा ( अब पाकिस्तान) के मार्ग को चुना गया। क्वेटा से उन्हें दिल्ली आना था और फिर रेलगाड़ी से बॉम्बे (अब मुंबई) के बांद्रा आना था। बांद्रा में तीन महीने तक पोलिश बच्चे धीरे-धीरे अंग्रेज़ी भाषा सीखते रहे और ख़ुद को भारतीय मौसम के अनुकूल ढालते रहे। भारतीय महाराजा की इस उदारता को देखते हुए, इस मामले में आलसी रहे अंग्रेज़ प्रशासन ने भी कुछ करने का फ़ैसला किया। उन्होंने कुछ बच्चों को वालिवडे (कोल्हापुर के पास), पंचगनी, कराची (अब पाकिस्तान) और माउंट आबू (राजस्थान) जैसी जगहों में रखने का निर्णय किया।

16 जुलाई सन 1942 तक क़रीब 600 पोलिश बच्चे रेल के ज़रिए बांद्रा से नवानगर पहुंचे। शहर में दाख़िल होते ही उन्होंने कुछ सैनिक ट्रक देखे, जो उन्हें मौजूदा समय में जामनगर से 25 कि.मी. दूर बालाचडी ले गए।

महाराजा दिग्विजय सिंहजी ने न सिर्फ़ इन बच्चों को आसरा देने, बल्कि उन्हें गोद लेने का भी फ़ैसला किया। बच्चे शिविरों में रह रहे थे तभी एक दिन महाराजा वहां पहुंचे और उन्होंने उनसे कहा, “भले ही आपका परिवार न हो लेकिन अब मैं तुम्हारा बापू हूं। तुम सब नवानगरवासी हो और इस जगह के हिस्से हो।”

महाराजा ने बालाचडी नामक एक गांव में एक विशेष शिविर लगाने का फ़ैसला किया । ये गांव नवानगर रियासत के बाहरी इलाक़े में था। इनमें से कुछ भवन अब वहीं के सैनिक स्कूल का हिस्सा हैं । महाराजा ने पोलिश बच्चों की सुविधा के लिए साठ भवन बनवाए और पोलिश किताबों की एक लाइब्रेरी भी बनवाई। पोलिश बच्चों के खानपान की आदतों के मुताबिक़ उनके लिए गोवा से ख़ास ख़ानसामें बुलवाए गए। महाराजा ने अपने इन युवा बच्चों की ज़रुरतों को पूरा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इस नेक काम में महाराजा की पत्नी महारानी गुलाब कुंवरबा ने मदद की और बच्चों के स्वास्थ एवं शिक्षा संबंधी ज़रुरतों की ज़िम्मेदारी उठाई। उनके ख़ुद के बच्चे – शत्रुशल्य और हर्षद कुमारी भी अपने पिता के नक़्श-ए-क़दम पर चले और उन्होंने अपने पोलिश भाईयों और बहनों के साथ खेलों तथा मनोरंजक की गतिविधियों में हिस्सा लिया।

पोलिश बच्चों का तैयार किया गया ऐसा कोई भी नाटक नहीं था, जो महाराजा दिग्विजय सिंहजी ने न देखा हो। वह हमेशा अपने साथ अपने कोट की जेब में टॉफ़ियां भरकर ले जाते थे और बच्चों को अभिनय के पुरस्कार के रुप में देते थे। कभी कभी वह नक़द पैसे भी इनाम में देते थे। क्रिस्मस के मौक़े पर वह सांताक्लॉज़ बनते थे औरइ स मौक़े को यादगार बनाने के लिए. बच्चों के लिए जो किया जा सकता था, करते थे।

अपने वतन से दूर एक अनजानी संस्कृति के बीच पल रहे ज़्यादातर बच्चों ने नए माहौल में ख़ुद को अच्छी तरह ढ़ाल लिया था। जिन बच्चों को फुटबॉल या फिर हॉकी जैसे खेलों में दिलचस्पी थी, उन्हें महाराजा की निगरानी में स्थानीय टीमों के साथ खेलने के लिए प्रेरित किया जाता था।

पश्चिम भारत जहां अपने विदेशी मेहमानों की मेज़बानी कर रहा था, वहीं पूर्वी भारत, बंगाल में पड़े अकाल (1943-1944) से जूझ रहा था। सूखे और अकाल में कई लोगों की जानें गईं लेकिन इसके बावजूद भारत ने पोलिश बच्चों का साथ नहीं छोड़ा, जो महाराजा दिग्विजय सिंहजी की वजह से ही संभव हो पाया था।

दूसरा विश्व युद्ध सन1945 में ख़त्म हुआ और सन 1946 में पोलिश शरणार्थियों को उनके देश रवाना कर दिया गया हालंकि कई पोलिश नागरिक ऑस्ट्रेलिया, कनाडा और दक्षिण अफ़्रीका जैसे देशों में जाकर बस गए।

पोलिश नागरिक उसी मार्ग से बॉम्बे पहुंचे जहां से वे यहां आए थे। बॉम्बे से उन्हें जहाज़ से स्वदेश रवाना होना था। बच्चों को स्वदेश ले जाने के लिए बॉम्बे से पहुंचे पोलिश प्रतिनिधियों ने , जब इस सबके बदले कुछ देने के बारे में पूछा तो महाराजा ने कहा कि वे किसी सड़क या किसी गली का नाम उनके नाम पर रख सकते हैं।

22 जनवरी, सन 1948 को भारत की आज़ादी के बाद महाराजा दिग्विजय सिंहजी ने भारत के साथ विलय की संधि पर हत्ताक्षर किए और इस तरह नवानगर सौराष्ट्र राज्य का हिस्सा बन गया और दिग्विजय सिंहजी इसके राज्यपाल बना दिए गए। इस बीच पोलैंड में कम्युनिस्ट सरकार का शासन हो गया और वहाँ के लोग देश को नए सिरे से बनाने में लग गए थे। तीन फ़रवरी सन 1966 में दिग्विजय सिंहजीं ने अंतिम सांस ली।

उस दौरान महाराजा की उदारता पर पर्दा डालकर रखा गया क्योंकि अगर इसे उजागर कर दिया जाता तो रेड आर्मी के अत्याचार सामने आ जाते। युद्ध की विभीषिका में बचे लोग सन 1954 में पहली बार औपचारिक रुप से मिले क्योंकि उस समय यूनियन बनाने और लोगों से मिलने की इजाज़त नहीं थी। इनके ग्रुप की मुलाक़ात सन 1971 और सन 1978 में हुई। सन 1980 के दशक में ही उन्होंने अपने दूसरे घर भारत में आना शुरु किया। उन्होंने एक ग्रुप “एसोसिएशन ऑफ़ पोल्स इन इंडिया 1942-1948” भी बनाया।

सन 1989 में पोलैंड में नई सरकार के गठन के 23 साल बाद सन 2012 में पोलैंड की सरकार ने महाराजा दिग्विजय सिंहजी के योगदान को माना और सराहा। उन्हें वारसॉ बेदनारस्का हाई स्कूल का मानद संरक्षक बनाकार उनका सम्मान किया गया। महाराजा के योगदान के लिए पोलौंड की राजधानी वारसॉ में एक सार्वजनिक चौराहे का नाम “स्क्वेयर दोबर्गो महारादज़ी” यानी गुड महाराजा चौराहा रखा गया। दिलचस्प बात ये है कि चूंकि पोलिश लोगों के लिए दिग्विजय सिंहजी के नाम का उच्चारण करना मुश्किल होता था, इसलिए उन्होंने सिर्फ़ “महाराजा” का प्रयोग किया गया। उन्हें मरणोंपरांत पोलिश सरकार के कमांडर के क्रॉस ऑफ़ द ऑर्डर आफ़ द मेरिट सम्मान से भी नवाज़ा गया । ये सम्मान उन्हें दिया जाता है जो पोलैंड और उनके अपने देश के बीच संबंध बनाने में योगदान करते हैं।

आज जबकि गुजरात और भारत के ज़्यादातर हिस्सों में दिग्विजय सिंह को लगभग भुला दिया गया है, लेकिन पोलैंड के एक छोटे से हिस्से में“गुड महाराजा” (अच्छा महाराजा) को आज भी याद किया जाता है।

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