आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि भारत में एक हज़ार से ज़्यादा संग्रहालय हैं। लेकिन सवाल यह है कि इनमें से आज कितने संग्रहालय प्रासंगिक हैं? क्या हमने इन्हें फिर से प्रासंगिक बनाने की भरपूर कोशिश की है? दशकों की खोजबीन और खुदाई में मिली प्राचीन वस्तुएं हमारे संग्रहालयों में धूल खा रही हैं। यूनेस्को और भारतीय नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक (CAG) जैसी संस्थाओं ने अपनी रिपोर्ट्स में इस मामले पर तीखी बातें लिखी हैं। कैग ने सितंबर 2020 की अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि भारत के सबसे पुराने संग्रहालयों में से एक कोलकता के भारतीय संग्रहालय की मरम्मत के दौरान आवश्यक संरक्षण प्रक्रिया और उपायों को ध्यान में नहीं रखा गया जिसकी वजह से कई कलाकृतियां ख़राब हो गईं। आख़िर क्यों हमारे संग्रहालय बुरी हालत में हैं? और हम भारत के आधुनिक संग्रहालयों से क्या सीख ले सकते हैं?
हमने हेरिटेज मैटर्स के हमारे कार्यक्रम में “रीइमेजनिंग इंडियाज़ म्यूज़ियम” विषय पर संग्रहालय से जुड़े लोगों और विशेषज्ञों के साथ इस बारे में परिचर्चा की। इस परिचर्चा में हिस्सा लेने वालों में थे- म्यूज़ियम ऑफ़ आर्ट एंड फ़ोटोग्राफ़ी के संस्थापक और ट्रस्टी अभिषेक पोद्दार, जोधपुर के मेहरानगढ़ म्यूज़ियम ट्रस्ट के निदेशक कर्णी सिंह जसोल, एका (EKA)आर्काइविंग सर्विसेज़ के प्रबंध निदेशक प्रमोद कुमार केजी, एका आर्काइविंग सर्विसेज़ की निदेशक दीप्ति शशिधरन और द टाइम्स ऑफ़ इंडिया, दिल्ली, के उप समाचार संपादक मणिमुग्धा एस. शर्मा ।
संग्रहालयों में क्या ख़ामियां हैं?
जिस तरह से हमारे संग्रहालयों का रखरखाव होता है, उनमें वस्तुओं को जैसे दर्शाया जाता है और जिस तरह से लोग संग्रहालयों को देखने जाते हैं, उसे लेकर कई समस्याएं हैं। हमारे विशेषज्ञ इस बात पर एकमत थे कि समस्या का मूल कारण संग्रहालय की अवधारणा को लेकर हमारी समझ है।
जयपुर के अनोखी म्यूज़ियम ऑफ़ हेंड प्रिंटिंग के संस्थापक और कई संग्रहालय परियोजना में सलाहकार के रुप में काम कर चुके प्रमोद के अनुसार, “जब हम भारत के संग्रहालयों की बात करते हैं तो क्या वाक़ई हम जानते हैं कि हम क्या बात कर रहे हैं? ज़रुरी नहीं कि अन्य देशों के संग्रहालयों के लिए जो बात सही हो वो हमारे संग्रहालयों के लिए भी सही हो…मुझे लगता है कि संग्रहालयों को देखने- समझने का हमारा बुनियादी नज़रिया ही ग़लत है।”
भारत में कलाकृतियों का संकलन और इन्हें संरक्षण देने वाले प्रमुख लोगों में से एक अभिषेक पोद्दार का मानना है कि हमारी पहली ज़रूरत यह है कि हम लोगों को संग्रहालय की तरफ़ आकर्षित करें। “भारत में लोगों की कमी नहीं है…समस्या उन लोगों को संग्रहालय की तरफ़ आकर्षित करने की है…हालंकि हमारे कुछ शहर दुनिया के सबसे घनी आबादी वाले शहर हैं..भारत में एक मज़ाक़ बहुत चर्चित है। वह यह कि अगर आपको भीड़ से बचना है तो आप संग्रहालय चले जाएं। हमें ये रवैया बदलना होगा…”
कला इतिहासकार और पुरालेखपाल (आर्काइविस्ट) दीप्ति शशिधरन का मानना है कि किसी संग्रहालय के लिए योजनाबद्ध कार्य पद्धति ज़रुरी है। इसमें वस्तुओं की सूची बनाना, दस्तावेज़ तैयार करना और संग्रह करना आदि शामिल है। दीप्ति ने संग्रहालय की वस्तुओं के डिजिटलीकरण की भी बात की और कहा कि काफ़ी देशों ने अपने संग्रहालयों से संबंधित सूचनाएं ऑनलाइन कर दी हैं लेकिन हमारे यहां यह काम नहीं हुआ है। “जहां तक संग्रह और दस्तावेज़ तैयार करने की बात है तो सरकारी और निजी संग्रहालय दोनों ही पिछड़े हुए हैं। दस्तावेज़ तैयार करने या फिर सूचना संग्रह करने के लिए बहुत दक्ष लोगों की ज़रुरत होती है। हमारे यहां ट्रेनिंग और दक्ष पेशेवर लोगों का अभाव है।”
मेहरानगढ़ म्यूजियम के कर्णी के अनुसार संग्रहालय तक पहुंच भी एक बड़ी समस्या है, फिर चाहे वह आम लोग हों, विद्वान हों या शोधकर्ता। कुछ चीज़ों के संकलन या फिर इनके बारे में सूचना मिलना बहुत मुश्किल होता है। “हम सूचना दबाकर बैठे रहते हैं और इन्हें संग्रहालय बनाने वालों या फिर संग्रहालय आने वाले विद्वानों को नहीं देते हैं… कुल मिलाकर बुनियादी समस्या यह है कि संग्रहालय और सांस्कृतिक संस्थानों के बारे में हमारा नज़रिया क्या है।”
संग्रह प्रबंधन, धन और संसाधनों का ग़लत इस्तेमाल या पर्याप्त इस्तेमाल न होना, लेबलों पर ग़लत या फिर अधूरी सूचना होना, गैलरी में ख़राब रौशनी, प्रशिक्षित लोगों की कमी और नए तरीक़ों से लोगों को संग्रहालय से जोड़ने का अभाव, ये सब ऐसी समस्याएं हैं जिससे हमारे संग्रहालय जूझ रहे हैं।
भारतीय संग्रहालयों में लेबल लगाने के मामले में प्रमोद का कहना है कि इससे आगंतुकों को बहुत कम जानकारी मिलती है। “दुनिया भर में प्रबंधकीय दल इसे तुंब स्टोन इनफार्मेशन या समाधि स्तंभ पर लिखी सूचना कहते हैं जैसा कि लेबल में कलाकार या कलाकृति की जन्म या मृत्यु की तारीख़, ये कहां बनी या फिर इसे बनाने में क्या सामान लगा, बस कुल मिलाकर ये ही जानकारी मिलती है जो नाकाफ़ी है। अगर मैं किसी पेंटिग के नीचे सिर्फ़ लिख दूं “पहाड़ी पेंटिंग” और विस्तृत जानकारी न दू तो कोई क्या समझेगा।”
मणिमुग्धा शर्मा ने एक दिलचस्प मगर दुखद बात कही। उन्होंने कहा कि जब स्कूल के बच्चों को संग्रहालय देखने के लिए ले जाया जाता है तो उनके साथ इतिहास के टीचर की बजाय स्पोर्ट्स का टीचर जाता है। इससे हमें पता चलता है कि संग्रहालय किस तरह देखे जाते हैं और इनका अनुभव कैसे होता है।
आगे रास्ता क्या है?
भारत में संग्रहालयों के रखरखाव और इन्हें प्रासंगिक बनाने के बारे में हमारे विशेषज्ञों की दिलचस्प अंतर्दृष्टि है। इनमें से कई लोग तो ख़ुद इस बात का उदाहरण पेश कर रहे हैं कि संग्रहालय से लोगों को कैसे जोड़ा जाए और संग्रहालयों कैसे प्रासंगिक बनाया।
बंगलुरु में बनने जा रहे म्यूज़ियम ऑफ़ आर्ट एंड फ़ोटोग्राफ़ी के बारे में बात करते हुए अभिषेक पोद्दार ने कहा कि संग्रहालय ने ज़्यादा से ज़्यादा स्कूल बच्चों को शामिल करने की कोशिश की है। वहां कार्यशालाएं और कार्यक्रम केंद्रित शिक्षा प्रयोगशालाएं बनाईं हैं। पोद्दार का मानना है कि मौजूदा संग्रहालयों को बेहतर बनाने के लिए अन्य संग्रहालयों तथा संस्थानों से सहयोग किया जा सकता है।
एका आर्काइविंग सर्विसेज़ के माध्यम से प्रमोद और दीप्ति कई संग्रहालय परियोजना में अपनी सलाह देते रहे हैं। प्रमोद का मानना है कि संग्रहालय में रखी वस्तुओं के बारे में कहानी के रुप में जानकारी देकर लोगों को इस ओर आकर्षित किया जा सकता है।अगर वस्तुओं के बारे में लोगों को दिलचस्प कहानी सुनाई जाए तो लोगों में इस बारे में औऱ जानने की उत्सुकता बढ़ेगी और वे संग्रहालय देखने आएंगे। दीप्ति के अनुसार संग्रहालय जैसे संस्थानों के लिए कारगर प्रशिक्षण कार्यक्रम ज़रुरी हैं। परिचर्चा के दौरान संग्रहालय की समस्याओं को लेकर और भी कई हल सुझाए गए।
अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचने के लिए कई भाषाओं वाले गाइड, आभासी यथार्थ (virtual reality) और संवर्धित यथार्थ (augmented reality) जैसी नई तकनीकों का प्रयोग और लोगों को चीज़ों के बारे में अधिक जानकारी देने के लिए बारकोड स्कैनिंग प्रणाली लगाने जैसे सुझाव दिए गए। आज के समय के कुछ संग्रहालय जैसे बिहार म्यूजियम के उदाहरण से भी सीख ली जा सकती है की कैसे ये संग्रहालय नए तरीकों और तकनीकों से आगे बढ़ रहे हैं।
कर्णी जसोल का कहना है कि संग्रहालय के लिए स्थानीय लोगों से परस्पर संपर्क महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा कि स्थानीय लोगों को इन संग्रहालयों के ज़रिए उनके स्थानीय इतिहास की जानकारी होनी चाहिए। मेहरानगढ़ का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि स्कूल के बच्चों को संग्रहालय लाने के लिए संग्रहालय के प्रबंधन ने जोधपुर के कई स्कूलों से संपर्क किया। बच्चों को सिर्फ संग्रहालय में रखी चीज़े दिखाने के लिए ही नहीं बल्कि यहां के माहौल का अनुभव करने के लिए भी आमंत्रित किया गया था। इस तरह के प्रयोग मेहरानगढ़, जो एक ऐतिहासिक क़िले में है, जैसे संस्थानों के लिए बहुत कारगर साबित हो सकते हैं।
लेकिन मणिमुग्धा शर्मा का मानना है कि संग्रहालयों को बेहतर बनाने के लिए पहले हमारे समाज में विरासत और इतिहास पर और चर्चा तथा संवाद होने चाहिये।
हमारे विशेषज्ञों से बात करने और उनके सुझाव सुनने के बाद हम आशा करते हैं कि भारत में संग्रहालयों का नया जीवन मिलेगा।
ये सत्र अंग्रेज़ी में हमारे चैनल पर दिखाया गया है। आप इस सत्र, “रिइमाजिनिंग इंडियाज़ म्युज़ियम्स” की पूरी परिचर्चा अंग्रेज़ी में यहां देख सकते हैं-
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