राजस्थान के राजसमंद ज़िले में उदयपुर से क़रीब 50 कि.मी. दूर स्थित है एक छोटा सा गांव मोलेला। पहली नज़र में गांव में ऐसी कोई ख़ास बात नज़र नहीं आती है लेकिन ग़ौर से देखने पर पता चलता है कि ये गांव कोई मामूली गांव नहीं है और ये देश में टेराकोट की परंपरा का गढ़ रहा है।
मोलेला टेराकोटा आयताकार प्लेटें होती हैं जो मिट्टी से बनाई जाती हैं। इन्हें बनाने के बाद उच्च तापमान पर पकाया जाता है। इन प्लेटों पर देवी-देवताओं, ख़ासकार लोक और आदीवासी परंपरा से संबंधित देवी-देवताओं की तस्वीरें अंकित होती हैं। इन देवी-देवताओं का भील, गुज्जर और जाट जैसे लोक तथा आदिवासी समुदायों में ख़ास महत्व है। मोलेला के टेराकोट ने इन तमाम समुदायों को एक घागे में पिरो दिया है क्योंकि ये सभी इन देवी-देवताओं की उपासना करते हैं। इन समुदायों के धार्मिक और सामाजिक जीवन का इस टेराकोट कला से गहरा नाता है।
मोलेला में टेराकोटे का काम पारंपरिक रुप से कुम्हार समुदाय करता है जिनके अमूमन नाम प्रजापत या प्रजापति होते हैं। कुम्हार समुदाय का विश्वास है कि ये कला उनके पुरखों को भगवान देवनारायण ने सिखाई थी जो नैत्रहीन थे। माना जाता है कि भगवान देवनारायण ने, इनके पुरखे के सपने में आकर उन्हें ये कला सिखाई थी।
टेराकोटा की परंपरा 800 साल से ज़्यादा पुरानी है
मोलेला टेराकोट में सबसे ज़्यादा भगवान देवनारायण के ही चित्र देखे जा सकते हैं। माना जाता है कि भगवान देवनारायण गुज्जर योद्धा थे जो दरअसल भगवान विष्णु के अवतार थे। भगवान देवनारायण राजस्थान और मध्यप्रदेश के गड़रिये समुदायों, ख़ासकर गुज्जर के लिए बहुत महत्व रखते हैं। ये समुदाय देवनारायण कथा का भी ख़ूब आयोजन करते हैं। इस कृषक समुदायों के लिये भोपा जागरण का आयोजन करते हैं जिनमें भगवान देवनारायण कथा एक लोकप्रिय विषय होता है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि देवनारायण उनके रक्षक थे,जिन्हें टोराकोट में मूंछे वाले चित्र के साथ घोड़े पर बैठा दिखाया जाता है। माना जाता है कि वह घोड़े पर सवार होकर शैतानों और आफ़तों से गांववालों को बचाने के लिए गांव का फेरा लगाते थे।
ये आदिवासी समुदाय परंपरागत रुप से अपने मंदिरों में टेराकोटा पट्टिका रखते हैं। गुजरात, मध्यप्रदेश और राजस्थान में इन समुदायों के लिए इस पट्टिका का स्रोत मोलेला गांव है। ब्राहमणवादी सामाजिक व्यवस्था के बीच इस टेरीकोटा-कला परंपरा ने ही इनकी लोक कला और आस्था को जीवित रख रखा है। उनसे हमें धर्म और देश के सामाजिक और सांस्कृतिक तानेबाने का पता चलता है जिसके बीच वे अपने धर्म और आस्था के साथ रहते आये हैं ।
भील, गुज्जर, जाट और गारीजाट जैसे आदिवासी और कृषक समुदाय टेराकोटा लेने जनवरी और मार्च के माह में गांव आते हैं। इनमे से कुछ समुदाय टेराकोटा पट्टिका के चुनाव के लिए अपने साथ अपने पुजारी को भी लाते हैं। पारंपरिक रुप से टेराकोटा का भुगतान नक़द या फिर अन्य रुप में किया जाता है। कुम्हारों को पट्टिका के बदले अक्सर अनाज दिया जाता है।
टेराकोटा की बनी देवी-देवताओं की मीर्तियां गांव के मंदिरों में स्थापित की जाती हैं और इनकी तीन से पांच साल तक पूजा की जाती है। इतने समय में ये टूट-फूट जाती हैं और फिर इनकी जगह दूसरी मूर्तियों को स्थापित कर दिया जाता है। कुछ समुदाय हर साल नयी मूर्ति स्थापित करते हैं।
कुछ लोगों को लगता है कि पत्थरों की प्रतिमाओं की लोकप्रियता और टेराकोटा छवियां ज़्यादा मज़बूत न होने की वजह से टेराकोटा छवियों का महत्व ख़त्म हो जाएगा लेकिन ऐसा नहीं है। इन समुदायों के लिए मोलेला टेराकोटा का इतना महत्व है कि अगर वे पत्थरों से भी भव्य मंदिर बनाते हैं तो भी वे टेराकोटा की कम से कम एक छवि तो मंदिर में लगाएंगे ही।
देवनारायण मोलेला टेराकोट के लिए सबसे लोकप्रिय भगवान हो सकते हैं लेकिन वह अकेले भगवान नही हैं। टेराकोटा पट्टिकाओं में देवनारायण के साथ गोगाजी, दुर्गा, चमुंडा और काली जैसे देवी-देवताओं के चित्र भी अंकित होते हैं।
टेराकोट पट्टिकाएं स्थानीय लाल मिट्टी से बनाई जाती हैं। ये मिट्टी बनास नदी से लाई जाती है। टेराकोटा बनाने के लिए मिट्टी बनाने की तैयारी काफ़ी कठिन होती है और इसमें काफ़ी कुशलता की भी ज़रुरत होती है। पहले मिट्टी को धोया जाता है और उसमें से बेकार चीज़ों को निकाल दिया जाता है। इसके बाद हाथों से इसे गूंथा जाता है जो अमूमन परिवार की महिलाएं करती हैं। इसे मज़बूती और चिकनाई प्रदान करने के लिए इसमें गधे की लीद भी मिलाई जाती है। टेराकोटा बनाने में पुरुष और महिलाओं दोनों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। उत्पाद के अंतिम चरण में पुरुषों की भूमिका बढ़ जाती है।
घर के आंगन में पट्टिका तैयार की जाती है लेकिन इसके पहले आंगन को साफ़ किया जाता है। इस पर मिट्टी न चिपके इसके लिए सफ़ाई के वक़्त भी गधे की लीद का इस्तमाल किया जाता है।
मोलेला टेराकोटा की सबसे बड़ी ख़ासियत ये है कि कुम्हार के चक्के का प्रयोग बहुत कम होता है।
जिस पैनल पर हाथ से ही छवि बनाई जाती है वो आयताकार होता है और इसे थाला कहते हैं। इन पैनलों का आकार टेराकोटा की विशेषताओं में से एक है।
आयताकार टेराकोटा पट्टिका पर देवी-देवताओं या फिर किसी दृश्य को उभारा जाता है। छवि के बनने के बाद चेहरे के नैन-नक्श आदि बनाये जाते हैं। टेराकोटा को अंदर से खोखला रखा जाता है ताकि यह वजडन में हल्का रहे। इसके बाद बाद्ल (छैनी) से इसे तराशा जाता है। फिर छैनी से पट्टिका में हवा निकलने के लिये छेद किया जाता है । इसके बाद पट्टिका को 6-7 दिन सूखने के लिए छोड़ दिया जाता है। वैसे पट्टिका बनाते समय भी बीच बीच में इसे सुखाया जाता है।
कुम्हार, सर्दियों में ही टोराकोटा बनाना पसंद करते हैं क्योंकि गर्मी के मौसम में ये जल्दी सूख जाते हैं और इन में दरारें पड़ जाती हैं। उत्पाद तैयार होने के बाद उसे भट्टी में 800 सेल्सियस डिग्री में पकाया जाता है। पकने के बाद इस पर लाल घोल का लेप किया जाता है जो सुरक्षा कवच की तरह भी काम करता है। लाल-भूरा रंग इस टेराकोटा की ख़ासियत है।
टेराकोटा की एक और ख़ासियत ये भी है कि हाथ से निर्मित होने के कारण कोई भी उत्पाद एक जैसा नहीं लगता, सब में थोड़ा बहुत फ़र्क होता ही है।
बाहर से कई विदेशी सैलानी यहाँ आते है , और कई तो काफी दिन तक यहां रूककर इन कलाकारों से ख़ास ट्रेनिंग भी लेते हैं। ये कलाकार अपनी देखरेख में इनको सिखाते भी हैं। आजकल भारत के भी कई डिजाईन और आर्ट कॉलेज के छात्र भी इसका अध्ययन कर रहे है और सिख रहे है|
टेराकोटा कला के ये विभिन्न नमूने आजकल बाज़ार में बड़े पैमाने पर बिकते हैं। चाहे खादी मेला हो, शिल्पग्राम उत्सव हो या कोई भी छोटा मोटा मेला या इस प्रकार का कोई आयोजन हो और वहां मोलेला का टेराकोटा शिल्प ना पहुंचे ऐसा संभव ही नहीं है।
मोलेला टेराकोटा इतना अनोखा है कि उसे प्रतिष्ठित GI टैग भी मिला हुआ है। इस टैग से पता चलता है कि उत्पाद किस विशेष जगह का है। राजस्थान में इस तरह के 11 उत्पादों को ये टैग मिला हुआ है।
लिव हिस्ट्री इंडिया ने मोलेला गांव के टेराकोटा कारीगर राजेंद्र कुमार से बात की। उन्हें इस क्षेत्र में पुरस्कार भी मिल चुका है और 2016 में उन्हें नैशनल अवार्ड भी मिला था। उनके पिता भी टेराकोटा कला में निपुण थे और उन्होंने कई प्रयोग भी किये थे।
राजेंद्र कुमार के अनुसार उनके पिता ने टेराकोटा पट्टिका पर अंकित छवियों का विषय बदला था। उन्होंने महाभारत, रामायण की कथा और जैन तथा बौद्ध धर्मों के देवी-देवताओं को भी विषय बनाया। मोलेला के टेराकोटा कारीगर अब रोज़ाना की ज़िंदगी को भी अपनी कला में स्थान देने लगे हैं। इस कला में गांव के दृश्य आजकल बहुत लोकप्रिय हैं।
टोराकोटा कारीगर अब लैंप, दिये और अन्य चीज़े भी बना रहे हैं। आधुनिक वास्तुकला में भी सजावट के लिए टेराकोटा पट्टिकाओं का इस्तेमाल हुआ है। इसका उदाहरण उदयपुर का रेल्वे स्टेशन है जिसकी दीवारों पर टेराकोटा कला देखी जा सकती है।
हालंकि मोलेला टेराकोट को देश की महान कला माना गया है लेकिन फिर भी इस कला में शामिल लोगों की संख्या बहुत कम है। गांव में यद्पि 100-150 परिवार हैं लेकिन सिर्फ़ 25-30 लोग ही इस कला से जुड़े हुए हैं। घर की ज़रुरतों को पूरा करने के लिए ज़्यादातर टेराकोटा कारीगर खेतीबाड़ी करते हैं। कुमार को भी लगता है कि उसके बच्चे शायद इस विरासत को आगे ले जाने में दिलचस्पी न दिखाएं।
मोलेला के टेराकोटा कारीगरों को कच्चे माल की कमी का भी सामना करना पड़ रहा है क्योंकि क्षेत्र में ईंट के कई कारख़ाने लग गए हैं। इसकी वजह है यहां की मिट्टी। दुर्भाग्य से कारीगर मोलेला के बाहर अपना उत्पाद नहीं बेच पा रहे हैं क्योंकि टेराकोटा बहुत नाज़ुक होते हैं और लाने लेजाने में इनके टूटने का डर बना रहता है। जब भी वे अपना उत्पाद गांव के बाहर नुमाइश या शो के लिये ले जाते हैं, 20-40 प्रतिशत उत्पाद नष्ट हो जाते हैं।
देश की ये शानदार और वैभवशाली कला धीरे-धीरे मर रही है, और इनमें से एक मोलेला के टेराकोटा भी है मिट्टी की कमी और आर्थिक कारणों से इसमें शामिल लोगों की संख्या दिन प्रतिदिन घटती जा रही है। लेकिन सवाल यह है कि क्या इतनी महान कला को यों ही मरने दिया जा सकता है?
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