कच्छी समुदाय का मुंबई को योगदान 

मुंबई शहर देश की आर्थिक-शक्ति का सबसे बड़ा केंद्र है। इस शहर का विकास औपनिवेशिक काल में हो चुका था। इसके विकास में कई लोगों और समुदायों का योगदान रहा है। इनमें से कई लोगों और समुदायों के योगदान को सराहा जाता है लेकिन एक समुदाय ऐसा भी है जिसने मुंबई के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी लेकिन उसकी अनदेखी की गई है। ये है इस शहर का कच्छी समुदाय|

कच्छियों को हमेशा गुजराती समुदाय के साथ जोड़कर देखा जाता रहा है क्योंकि कच्छ अब गुजरात का हिस्सा है। हालंकि गुजराती और कच्छ के लोगों में काफ़ी समानताएं हैं लेकिन फिर भी वे कई मामलों में अलग हैं। कच्छी शब्द कच्छ क्षेत्र के लोगों के लिये प्रयोग होता है लेकिन इसमें कई समुदाय आते हैं। कच्छी समुदाय में ही कई धर्मों और जातियों के लोग शामिल हैं।

बॉम्बे के कच्छी समुदाय के बारे में जानने के लिये ज़रुरी है कि पहले उस जगह के बारे में जानें जहां से ये लोग आए थे यानी.. कच्छ। कच्छ का इलाक़ा,शुष्क और बंजर है जो दो तरफ़ से समुद्र से घिरा हुआ है। कच्छ की ज़मीन, अरब सागर से निकली हुई है। यहां सन 1500 के मध्य से राजपूत जाति के जडेजा ख़ानदान के शासकों का राज शुरू हुआ ।

व्यावसायी जयतीर्थ राव ने “ग्लोबोलाइज़ेशन बिफ़ोर इट्स टाइम” नामक किताब में लिखा है कि जडेजा शासकों को पहले ही एहसास हो गया था कि कृषि से कोई ख़ास राजस्व नहीं मिलेगा इसलिये उन्होंने न सिर्फ़ व्यापार को बढ़ावा दिया बल्कि ख़ुद भी व्यापार किया जबकि दुसरे राजपूत राजा व्यापार करना बिल्कुल पसंद नहीं करते थे। राव बताते हैं कि जडेजा शासकों के समय राज्य ने करों को कम रखकर व्यापार और वाणिज्य को बढ़ावा दिया और व्यापार से संबंधित सरल क़ानून बनाये थे। इसके अलावा उनके ही शासनकाल में, 400 साल पहले, मांडवी बंदरगाह भी बनाया गया था|

कच्छी यूरोपीय लोगों के भारत में आने के पहले से ही समुद्री यात्रा करते थे। उनका अफ़्रीक़ा के पूर्वी तट और पश्चिम एशिया में बड़े स्तर पर व्यापारिक सम्बंध थे। वे ओमान, मस्क़त और ज़ंज़ीबार जैसे जगहों में हाथी दांत, मोती, खजूर और हथियार-गोलाबारुद का व्यापार करते थे। वे देश विदेश में भ्रमण करते थे। उनके लिये देश-विदेश में भ्रमण करना सिर्फ़ इसलिये संभव नहीं हुआ था कि वह अरब सागर के किनारे रहते थे और उन्हें शासकों का समर्थन भी मिला हुआ था बल्कि इसलिये भी हुआ था कि कच्छ नाविक अपने काम में माहिर थे। उन्हें समुद्री मार्ग की अच्छी जानकारी थी और उन्हें नाव बनाना भी आता था।

कच्छ की इन्हीं ख़ूबियों की वजह से जब अंग्रेज़ों के शासनकाल में बॉम्बे औद्धोगिक शहर बन रहा था, कच्छी समुदाय इसमें आसानी से खप गया। यहां तक कि कच्छ और बॉम्बे के बीच संबंध उन जगहों के मुक़ाबले ज़्यादा मज़बूत हो गये जो बॉम्बे के करीब थे। इस मामले में हमने बॉम्बे के इतिहास के जानकार वीरचंद धर्मसे से बात की। उन्होंने बताया कि 17वीं और 18वीं सदी में जब बॉम्बे द्वीपों का समूह हुआ करता था और उसका बाहर की जगहों से कोई ख़ास संपर्क नहीं था, तब समंदर से ही बॉम्बे पहुंचा जा सकता था। चूंकि कच्छ के लोगों को समुद्री यात्रा का बहुत अनुभव था इसलिये उन्होंने व्यापार के इस नये केंद्र का भरपूर लाभ उठाया। वह कहते है :

ये बात भी ध्यान देने योग्य है कि सभी कच्छी व्यापार और वाणिज्य में शामिल नहीं थे। कच्छी भाटिया समुदाय के वरिष्ठ सदस्य हरिदास रायगागा ने लिव हिस्ट्री इँडिया को बताया कि कच्छी समुदाय में छह प्रमुख उप-समुदाय हैं जो व्यापार और कारोबार में शामिल थे। ये समुदाय हैं- हिंदू धर्म को मानते वाले भाटिया और लोहाना, इस्लाम को मानने वाले ख़ोजा और मेमन तथा जैन धर्म को मानने वाले दशा और बिशा ओसवाल ।

ताज्जुब की बात ये है कि वो समुदाय जिसका बॉम्बे को व्यावसायिक शहर बनाने में इतना बड़ा
योगदान रहा हो उसके बारे में बहुत कम शोध हुआ है। उनके बारे मे जो भी जानकारी उपलब्ध है वो आधी अधूरी है। मुंबई यूनिवर्सिटी की इतिहासकार डॉ. छाया गोस्वामी के अनुसार भाटिया समुदाय के जीवराज बालू सबसे पहले बॉम्बे आए थे।उन्होंने सन 1818 में अपनी कंपनी में माकनजी खटाऊ को नौकरी दी थी। इससे लगता है कि जीवराज बालू इससे बहुत पहले बॉम्बे आ चुके थे और सन 1818 तक उन्होंने अपना कोराबर जमा लिया होगा।

डॉ. गोस्वामी के हमे बताया कच्छ के लोग समुद्र के रास्ते अफ़्रीक़ा के पूर्वी तट और पश्चिम एशिया में व्यापार करते थे। इसमें कच्छी व्यापारिक कम्पनियां और उनके परिवार इस व्यापार-नेटवर्क से गहरे रुप से जुड़े हुए थे। बाद में इस नेटवर्क में बॉम्बे भी जुड़ गया। कच्छी व्यापारियों ने शुरुआत में
बॉम्बे में अपनी कंपनियों की ब्रांचें खोली थीं।

कच्छी समुदाय चूंकि अंग्रेज़ों के आने के पहले से ही समुद्र मार्ग से व्यापार करता था इसलिये जब
भारतीय महासागर में अंग्रेज़ों का दबदबा बढ़ा तो कच्छी समुदाय की भी अच्छी पैठ हो गई। जैसा कि पहले भी बताया जा चुका है, जीवराज बालू संभवत: पहले कच्छी भाटिया या पहले कच्छी थे जिन्होंने बॉम्बे में कंपनी खोली थी। उनके बाद कच्छ में खंभालिया से गोकुलदास तेजपाल, रामजी चाटु, कांजी चाटु औऱ फिर थ्रैक्रसे और मुलजी आए।

मुंबई में रहने वाले ज़्यादातर लोग भले ही इन्हें न पहचानते हों लेकिन उन्हें उनके नाम ज़रुर जाने पहचाने लगेंगे। ऐसा इसलिये क्योंकि भले ही वे अब इस दुनिया में न हो लेकिन शहर में उनका योगदान आज भी नज़र आता है।

वीरचंद धर्मसे ने हमे यह भी बताया की न सिर्फ उद्योग बल्कि इस शहर में सांस्कृतिक और साहित्यिक संस्थानों के विकास में भी कच्छी समुदाय के सदस्यों का बड़ा योगदान रहा है:

शहर में कच्छी समुदाय की मैजूदगी के पहले दौर में, कच्छी लोग व्यापार और दुकानदारी का काम किया करते थे। तब कच्छ व्यापारियों को चावल और अनाज का बादशाह कहा जाता था। जब बाम्बे और ज़्यादा विकसित हुआ और यहां उद्योग लगने लगे, तब कच्छी समुदाय ने भी कपड़े और तेल के कारख़ाने लगाए और शिपिंग कंपनियां भी खोलीं। शहर के विकास में भाटिया परीवार की पूंजी का बहुत बड़ा योगदान रहा था। अब एक नज़र डालते हैं कच्छ व्यापारियों और उनके कामों पर जिन्हें दुर्भाग्य से भुला दिया गया है।

गोकुलदास तेजपाल
गोकुलदास तेजपाल एख व्यापारी थे जिनका जन्म सन 1822 में कच्छी भाटिया समुदाय में हुआ था। उन्होंने कई स्कूल, अस्पताल और बोर्डिंग हाउस बनवाए थे। शहर में उनके नाम का गोकुलदास तेजपाल अस्पताल और तोजपाल ऑडिटोरियम है। दुर्भाग्य से उन पर कोई ख़ास शोध नहीं हुआ है और लोग उन्हें, केवल उनके नाम से मौजूद संस्थानों की वजह से हीसे जानते हैं।

खटाऊ ग्रुप
खटाऊ ग्रुप एक समय देश के सबसे बड़े व्यापारिक घरानों में से एक हुआ करता था। इस ग्रुप की स्थापना सेठ खटाऊ मकंजी ने सन 1874 में की थी। उनका समेबंध कच्छी भाटिया समुदाय से था।इस ग्रुप ने मुंबई शहर में कई कपड़ा मिल लगावाये थे । वे शिपिंग, सीमेंट, ऑटोमोबील्स के कारोबरा में शामिल थे। आज़ादी के समय खटाऊ ग्रुप देश के बीस बड़े व्यापारिक घरानों में से एक हुआ था।

ठाकरसी परिवार
सर विठ्ठलदास ठाकरसी कच्छी समुदाय के एक प्रतिष्ठित कारोबारी थे लेकिन उन्हें देश की पहली महिला यूनिवर्सिटी “ श्रीमती नाथीबाई दामोदर ठाकरसी महिला विश्वविद्यालय” के लिये याद किया जाता है जो उन्होंने अपनी मां की याद में बनवाई थी। देश में महिलाओं को शिक्षित करने के उद्देश्य से उनके परिवार ने इस विशविद्यालय की वर्षों तक मदद की और सन 1959 में सर विठ्ठलदास ठाकरसी कॉलेज की भी स्थापना की।

यूसुफ़ परिवार
कच्छी मेमन परिवार के यूसुफ़ ने बॉम्बे स्टीम नेवीगेशन कंपनी की स्थापना की थी। यूसुफ़ परिवार समुद्र-व्यापार में सक्रिय था और उसने इस्माइल यूसुफ़ कॉलेज और नैवल कॉलेज ट्रेनिंग शिप रहमान जैसे कई शैक्षिक संस्थान खोले थे। यूसुफ़ परिवार ने वरली में शानदार मा हजियानी दरगाह भी बनवाई थी। इस परिवार ने समाज के लिये और कई बड़े काम किये थे। एक समय यूसुफ़ परिवार के पास बॉम्बे में सबसे ज़्यादा ज़मीनें हुआ करती थीं।

मोरारजी
मोरारजी गोकुलदास कपड़ा-उद्योग के अग्रज माने जाते हैं। उन्होंने मुंबई में मोरारजी गोकुलदास मिल और शोलापुर में मिल शुरू किये थे। उनके पुत्र नरोत्तम मोरारजी, सन1919 में स्थापित सिंधिया स्टीम नेविगेशन कंपनी लिमिटेड के सह-संस्थापक थे। नरोत्तम मोरारजी की बहू सुमति मोरारजी (1909-1998) पहली महिला थीं जिन्होंने भारत में शिपिंग कंपनी शुरू की थी।

प्रेमजी
विप्रो कंपनी के मालिक अज़ीम प्रेमजी का भी संबंध कच्छी समुदाय से। प्रेमजी काफ़ी समय तक भारत के सबसे अमीर व्यक्ति रह चुके हैं। उनके पिता मोहम्मद हाशिम प्रेमजी को बर्मा में चावल-बादशाह कहा जाता था। उन्होंने खाद्य-तेल बनाने के लिये विप्रो कम्पनी की स्थापना की थी। कहा जाता है कि मोहम्मद अली जिन्ना ने अज़ीम प्रेमजी के पिता के सामने पाकिस्तान का वित्त मंत्री बनने का प्रस्ताव रखा था लेकिन उन्होंने ये पेशकश ठुकरा दी थी क्योंकि वह भारत में ही रहना चाहते थे।

कई कच्छी उद्योगपतियों ने मिलकर कंपनिया खोली थीं जैसे खटाऊ और ठाकरे ने कैबल कॉर्पोरेशन ऑफ़ इंडिया कम्पनी बनायी थी।

जैसा कि किसी भी समुदाय के साथ होता है, बॉम्बे का कच्छी समुदाय भी बॉम्बे की भीड़ में खो गया
और उसने भी शहर के रीति-रिवाज अपना लिये हालंकि फिर भी उन्होंने अपनी पहचान बनाए रखी| वीरचंदजी हमे बताते है की कच्छ के व्यंजनो को इस शहर का कूची समुदाय आज भीबहुत शौक से खाते है :

पारसी, पठारे प्रभु, पालनपुर जैन और मारवाड़ियों के काम को तो आमतौर पर सराहा जाता रहा है
लेकिन कच्छी समुदाय के योगदान के बारे में कम ही लोग जानते हैं। साबू सिद्दीक़ी जैसे कई लोग
हैं जिनके बारे में हम नहीं जानते । आज के दिन उनके नाम की इमारतें ही उनकी निशानियां हैं।

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