प्राचीन काल में ‘अंगदेश’ के नाम से मशहूर भागलपुर की शोहरत आज अपने उम्दा सिल्क उत्पादों के कारण ‘सिल्क सिटी’ के रूप में है। पटना-हावड़ा लूप रेल रुट पर गंगा के दक्षिणी किनारे पर बसे इस शहर में धार्मिक, आध्यात्मिक और लोक-आस्था से जुड़े कई स्थल हैं । यह शहर पीर-पैग़म्बरों के आस्तानों और समृद्धशाली अतीत के साथ, यहां सदियों से चली आ रही गंगा-जमुनी संस्कृति की मिसाल भी पेश करता है।
पटना-हावड़ा लूप रेल लाईन पर पटना से 223 कि.मी. पूरब भागलपुर रेलवे स्टेशन के पश्चिमी केबिन के निकट स्थित ख़ानक़ाह शाहबाज़िया की शाही मस्जिद और मदरसे के साथ सैयद शाह शाहबाज़ रहमतुल्लाह का नाम जुड़ा हुआ है जिनकी गिनती उन चालीस सूफ़ी संतों में की जाती है जिनके बारे में मान्यता है कि उन्हें ख़ुदा के हुक्म से इस ज़मीं पर भेजा गया है। कहते हैं कि इस पवित्र आस्ताने में सबकी दुआ क़ुबूल होती है और सबकी मुरादें पूरी होती हैं। यही कारण है मुस्लिम समुदाय के साथ हिन्दू तथा हर क़ौम के लोग यहां आकर हाज़िरी देते हैं।
लोगों का ऐसा विश्वास है कि यहां आकर दुआ मांगने से ज़हरीले से ज़हरीले सांप का काटा व्यक्ति भी चंगा हो जाता है।
आज से तक़रीबन 181 वर्ष पूर्व सन 1838 में भागलपुर की यात्रा करनेवाले अंग्रेज़ विद्वान मान्टगोमरी मार्टिन अपनी पुस्तक ‘हिस्ट्री, एंटीक्विटीज़ एण्ड स्टेटिस्टिक्स ऑफ़ इस्टर्न इंडिया’ में लिखते हैं कि यहां ख़ासकर मुसलमानों द्वारा सबसे पवित्र माना जानेवाला स्थान मौलाना शाहबाज़ की दरगाह है। मार्टिन बताते हैं कि यहां रोज़ाना श्रद्धालु चढ़ावा चढ़ाते हैं, लेकिन यहां सबसे ज़्यादा लोग, अश्विन महीने (सितम्बर से अक्टूबर तक) में आते हैं।
यह हज़रत शाहबाज़ मोहम्मद का इक़बाल ही है कि बादशाह शाहजहां और फ़र्रुख़ सियर सहित कई मुग़ल शहज़ादे यहां हाज़िरी दे चुके हैं। बंगाल के नवाब मुर्शिद क़ुली खां और कई बड़ी हस्तियां इनके दर पर मात्था टेक चुकी हैं।
हज़रत शाहबाज़ मोहम्मद एक बड़े पाये के सूफ़ी संत थे जिनका ताल्लुक़ ‘सुहरवर्दी’ सिलसिले से है।
सुहरवर्दी सिलसिले के सूफ़ी संतों की यह ख़ासियत रही कि उन्होंने बिहार के अन्य धर्मोपदेशकों की तरह महज़ क़ुरान के शब्द व उनके शब्दार्थ में उलझे रहने की बजाय उन शब्दों की आत्मा की गहराई में उतर कर उनकी रहस्यवादी तथा आध्यात्मिक व्याख्या करना ज़्यादा मुनासिब समझा, जिसके कारण उनके उपदेश आम-आवाम के दिलों में सीधे उतर गये।
सूफ़ी संतों और फ़क़ीरों की सरज़मीं रही भागलपुर में सुहरवर्दी सिलसिले की दो अन्य हस्तियां भी हुई हैं जिनमें एक हैं शेख़ अलाउद्दीन चिर्मपोश (पुरैनी), जिनके आध्यात्मिक शिष्यों में अम्बर के संत अहमद चिर्मपोश सरीखे नाम शामिल हैं। दूसरे हैं मख़दूम सैयद हुसैन पीर दमड़िया, जिनके पिता मख़दूम सैयद हसन पीर दमड़िया के आशीर्वाद से मुग़ल बादशाह हुमायूं दूसरी बार हिन्दुस्तान के तख़्त पर बैठे। यही वजह रही कि अकबर से लेकर शाह शुजा और औरंगज़ेब तक तमाम शहज़ादों की आस्था उनके प्रति बनी रही। प्रो.एच.एस. असकरी अपनी पुस्तक ‘इस्लाम एण्ड मुस्लिम इन मिडिवल बिहार’ में सूबे के सुहरवर्दी सूफ़ी-संतों की चर्चा करते हुए फ़रमाते हैं कि 17 वीं सदी में बिहार में सुहरवर्दी सिलसिले की दो प्रमुख हस्तियां हुई हैं। इनमें से एक हैं पटना के दीवान शाह अरज़ान और दूसरे हैं भागलपुर के मौलाना मोहम्मद शाहबाज़ जो कि मौलाना यासीन सुहरावर्दी के आध्यात्मिक शिष्य और एक महान परम्परावादी संत थे।
ख़ानक़ाह शाहबाज़िया की मस्जिद के सामने ही मदरसा शाहबाज़िया की इमारत मौजूद है वह सदियों से अरबी और फ़ारसी की मशहूर तालीमगाह रही है। इस मदरसे की स्थापना हज़रत शाहबाज़िया की थी जो स्वयं अरबी-फ़ारसी के उच्च कोटि के विद्वान थे। यही कारण है कि हज़रत शाहबाज़ मोहम्मद और उनके स्थापित किये गये मदरसे की चर्चा डब्ल्यू. डब्ल्यू. हंटर, एम. मार्टिन, आर.आर. दिवाकर एवं सैयद हसन असकरी सरीखे विद्वानों ने अपनी पुस्तकों में की है।
डॉ. जटाशंकर झा अपनी पुस्तक ‘एज्युकेशन इन बिहार’ में हज़रत शाहबाज़िया को अति दयावान और ज्ञानी व्यक्तित्व कहकर संबोधित करते हैं। सभी वर्गों के लोग उनकी क़द्र करते थे। प्रो. हसन असकरी बताते हैं कि मदरसा शाहबाज़िया बिहार के दो सुप्रसिद्ध मदरसों में एक है जो जहांगीर के दौर में क़ायम हुआ था, जिसकी स्थापना मौलाना शाहबाज़ मोहम्मद ने की थी। झारखंडी झा के ‘भागलपुर दर्पण’ के अनुसार इस मदरसे में हिन्दू छात्र भी अरबी और फ़ारसी की तालीम हासिल करते थे। ऐतिहासिक विवरणों के अनुसार मदरसे का दायरा इतना विशाल था कि मुहल्ले का प्रत्येक घर मदरसा कहलाता था जिसमें बड़े-बड़े आलिम मुफ़्त तालीम देते थे।
हज़रत मौलाना शाहबाज़ मोहम्मद के अख़्लाक़ के बारे में मुफ़्ती शौकत अली फ़हमी ‘हिन्द और पाकिस्तान के औलिया’ में कहते हैं कि मध्य और पूर्वी भारत रुहानी शहंशाह व राहे तरीक़त के बादशाह हज़रत शाहबाज़ इस उप महाद्वीप के ऐसे क़ाबिले क़द्र बुज़ुर्ग हैं जिनकी ज़ात ए गिरामी पर यह मुल्क क़यामत तक फ़ख़्र करेगा। हज़रत ने किताबों की पांच सौ जिल्दें अपने दस्ते मुबारक से लिखीं। इनके अक़ीदतमंद न सिर्फ बिहार और बंगाल, बल्कि मध्य भारत और सारे उप महाद्वीप में फैले हुए हैं।
हज़रत मौलाना शाहबाज़ मोहम्मद की जीवनी पर प्रकाश डालते हुए शाहबाज़िया अदबी कौंसिल के अध्यक्ष रहे डॉ (प्रो.) एस.एम. रफ़ीक़ जामी ‘शाहबाज़-एअर्स-परवाज़’ और ‘शाहबाज़िया ज्योति’ में कहते हैं कि हज़रत शाहबाज़ का संबंध बुख़ारा शरीफ़ के सादात घराने से था जो पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद के वंशज थे। मदीना शरीफ़ में आपके दादा हुज़ूर को बशारत (स्वप्नादेश) हुई कि उनके सुपुत्र हज़रत मौलाना ख़त्ताबे मुहम्मद के वंश से एक पैदायशी वली अर्थात् एक उजात धर्मात्मा होंगे जिनका नाम शाहबाज़ मुहम्मद रखा जाना चाहिये। भागलपुर तशरीफ़ लाने के पहले आपने तीस वर्ष की उम्र तक तालीम हासिल की। इस बीच आपने हज किया और ज़ियारत भी की तथा बड़े-बड़े आलिमों, ज्ञानियों, सूफ़ियों व औलिया-अल्लाह से शिक्षा-दीक्षा भी प्राप्त की। आपके भागलपुर आगमन के बारे में हज के दौरान ही विलायत भागलपुर की बशारत (स्वप्नादेश) हुई कि उनको भागलपुर जाना है जहां उनका आस्ताना शरीफ़ मौजूद है। हज के बाद आप सरकार-ए-मदीना के हुक्म के मुताबिक सपरिवार भागलपुर के लिये चल पड़े और गया के ओसास-देवरा, मुंगेर व मुस्तफ़ापुर पुरैनी होते हुए सन 1578 में यहां तशरीफ़ लाये। पहले आपके रहने के लिये शागिर्दों ने कच्ची इमारतें और फूस की झोपड़ियां बनायीं थीं जो आज विशाल शाही इमारत के रूप में खड़ी हो गई हैं।
समय के साथ ख़ानक़ाह शाहबाज़िया की मस्जिद और मदरसा तथा अन्य इमारतों के निर्माण-पुनर्निमाण में बादशाहों, शहज़ादों और हाकिमों ने मदद की ।
यहां की शाही मस्जिद के पुनर्निर्माण में बादशाह शाहजहां का विशेष योगदान रहा है।
इस संबंध में ‘ऐमिनेंट मुस्लिम्स इन भागलपुर’ में क्षेत्रीय इतिहासकार सैयद शाह मंज़र हुसैन बताते हैं कि बादशाह शाहजहां ने यहां की मस्जिद और मदरसा की देखभाल के लिये 19 बीघा ज़मीन दी थी। बताते हैं कि शाहजहां के दिल में हज़रत शाहबाज़-ए-मुहम्मद के लिये विशेष श्रद्धा थी, क्योंकि जब वे शहज़ादे थे और ख़ुर्रम के नाम से जाने जाते थे, उन दिनों अपनी सौतेली मां मलिका-ए-हिन्दुस्तान नूरजहां की षड्यंत्रकारी चालों से अजिज़ होकर अपने पिता हुमायूं के ख़िलाफ़ बग़ावत पर उतर गये थे और बुरहानपुर से कूच कर बर्दमान के रास्ते राजमहल आ धमके थे। राजमहल में उन्होंने बंगाल के सूबेदार इब्राहीम खां फ़तेहगंज को राजमहल में हुए एक युद्ध में क़त्ल कर सूबे बंगाल पर अपना क़ब्ज़ा जमा लिया था । उन दिनों बंगाल सूबे में बिहार तथा ओड़िशा के प्रांत भी शामिल थे। ख़ुर्रम के साथ हुए युद्ध में पराजित फ़तेहगंज की सरकटी लाश को राजमहल से भागलपुर लाकर दफ़नाया गया जिसपर बना शानदार मक़बरा आज भी उन दिनों की गवाही दे रहा है। बग़ावत के दिनों में ख़ुर्रम (शाहजहां) ने हज़रत शाहबाज़ मोहम्मद के हुज़ूर में आकर दुआ मांगी थी। आगे चलकर शाहजहां दिल्ली के तख़्त पर आसीन हुए।
मदरसा शाहबाज़िया के पुनर्निर्माण में आमिल-ए-शहर मिर्ज़ा ग़ुलाम हुसैन ने भी हाथ बटाया था। बंगाल के नवाब तथा मुर्शिदाबाद के संस्थापक मुर्शिद क़ुली ख़ान ने जहां अपने हाथों से लिखकर यहां क़ुरान शरीफ़ भिजवाये, तो फ़र्रुख़ सियर ने आपको ‘क़दम-ए-रसूल पाक’ (पत्थर पर पैगम्बर मोहम्मद साहब के पवित्र पांवों के चिन्ह) पेश किये। फ़र्रूख़ सियार के आदेश से नवाब दलील खां ने यहां भव्य प्रवेश-द्वार (सलामी दरवाज़ा) और ज़ुलूख़ाना या घड़ी ख़ाना बनवाये, तो तत्कालीन हाकिम मिर्ज़ा इब्राहीम हुसैन खां ने तीनदरा की तामीर करवाई जिसमें सज्जादानशीन की बैठक है। ‘बिहार की सूफ़ी परम्परा’ शीर्षक पुस्तक में सैयद शाह शमीमुद्दीन बताते हैं कि हिन्दू राजाओं ने भी हज़रत शाहबाज़िया के प्रति श्रद्धा दिखाते हुए यहां कई इमारतें बनवायीं। आज जहां पर ख़ानक़ाह का मेहमानख़ाना है, वहां पहले खड़गपुर के राजा मरमिन्दर और राजा कश्यप राम लखनवी की बनवाई कई इमारतें मौजूद थीं। पहले ख़ानक़ाह के दरगाह परिसर में एक ऊंचे चबूतरे पर हज़रत शाहबाज़ का मज़ार जालियों से घिरा हुआ था जिसपर ख़ानक़ाह के 15 वें सज्जादानशीन मौलाना शाह इश्तियाक़ आलम के कार्यकाल में भव्य व सुन्दर गुम्बद से युक्त आलीशान दरगाह का निर्माण करवाया गया था।
प्रसिद्ध सूफ़ी व मानवता के उच्चतम मूल्यों के प्रतीक हज़रत शाहबाज़ के आस्ताने की तरह उनके नाम के साथ जुड़ा मदरसा शाहबाज़िया भी आज की तारीख़ में ताबनाक अर्थात् ज्योतिर्मय है। यह हज़रत शाहबाज़ मुहम्मद का अख़्लाक़ ही था कि बादशाह अकबर के ज़माने में अरबी व फ़ारसी भाषा का केन्द्र रहे भागलपुर का यह रूतबा अंग्रेज़ों के शासन काल में भी क़ायम रहा। भागलपुर में पुराने समय से ही क़ौमी एकता और अदब का माहौल रहा है। इसकी चर्चा करते हुए फ़्रांसिस बुकानन अपने ‘जर्नल’ (1910-11) में बताते हैं कि फ़रवरी के महीने में जिस दिन वे भागलपुर आये तो यहां के सारे बाशिंदे पूरी तरह से मुहर्रम के त्यौहार में मशगूल थे, जिस कारण उन्होंने उस दिन कोई कामकाज करना माक़ूल नहीं समझा।
बुकानन ने इस बात का ज़िक्र किया है कि मुसलमान तो मुसलमान, यहां के हिन्दू भी पूरी तरह से मुहर्रम में शिरकत कर रहे थे। भागलपुर में सदियों से क़ायम क़ौमी एकता का ज़िक्र करते हुए भागलपुर ज़िला गज़ेटियर कहता है कि यह ज़िला इस मामले में बिल्कुल बेजोड़ है कि यह विभिन्न धर्मों का संगम-स्थल हैं।यहां की दो बड़ी कौमें शांति और सद्भाव से रहती हैं तथा एक दूसरे के धार्मिक आयोजनों व त्योहारों में शरीक होती हैं।
इसी तरह यहां के अदबी माहौल का उल्लेख करते हुए बुकानन बताते हैं कि भागलपुर में उनकी मुलाक़ात एक क़ाज़ी और उनके भाई से हुई जो बहुत ही सम्मानित परिवार से थे। इनके परिवार के अधिकांश लोग मौलवी थे। बुकानन ने उन दिनों यहां अरबी और फ़ारसी के बहुत सारे अच्छे विद्वानों के मौजूद होने की भी चर्चा की है। डब्ल्यू. डब्ल्यू. हंटर अपने ‘स्टेटिस्टिकल अकाउंट आॉफ़ बंगाल’ में जानकारी देते हैं कि औरंगज़ेब के शासनकाल के प्रारंभिक दौर में भागलपुर में शेख़ रज़ीउद्दीन नाम के एक शख़्स रहा करते थे जिनके बारे में ‘मासिर-आलमगिरी’ लिखता है कि अपनी विद्वता एवं बहुमुखी प्रतिभा के धनी होने के कारण काफ़ी मशहूर थे। शेख़ रज़ीउद्दीन ‘फ़तवा-ए-आलमगिरी’ के प्रणेताओं में एक माने जाते हैं।
मदरसा शाहबाज़िया जहांगीर के दौर में क़ायम हुआ था जो इसके ख़र्च में भी योगदान करते थे। जहांगीर के बाद शाहजहां ने भी इस सिलसिले को क़ायम रखा। धनवान लोगों द्वारा प्रदत्त जागीरों की आय से भी मदरसे का काम चलता था। शाह शूजा ने हज़रत शाहबाजिया के बड़े बेटे मौलाना मोहम्मद सलाम को मदरसे के भवन निर्माण के लिये कहलगांव परगना में 500 बीघा ज़मीन दी थी। इसके अलावे इस मदरसे को समय-समय पर फौजदारों के द्वारा भी परवाना जारी कर ज़मीन और वज़ीफ़े दिये गये हैं। इन फौजदारों में आलमगीर औरंगज़ेब के समय के मुताबिक़ हाजी मुहम्मद दीवान, बहादुर शाह के समय में मुताबिक़ मुहम्मद बेग, फ़र्रुख़ सियर के समय में दिलेर खां और अब्दुल्ला खां आदि के नाम महत्वपूर्ण हैं।
ख़ानक़ाह शाहबाज़िया की तरह यहां का क़ुतुबख़ाना (पुस्तकालय) भी महत्वपूर्ण है। एएसआई की एक रिपोर्ट के अनुसार यहां कई पुरातन पांडुलिपियां और ग्रंथ संग्रहित हैं। जैसा कि पहले कहा गया है हज़रत शाहबाज़ मोहम्मद ने ख़ुद अपने हाथों से 500 किताबें लिखी हैं। वहीं मदरसा के हज़रत मुल्ला अहसानुल्लाह ने हज़रत शाहबाज़ मोहम्मद की 60 अहम हदीस शरीफ़ की व्याख्या फ़ारसी में लिखी जिसे ‘सित्तीन शरीफ़’ यानी साठ हदीसों का संकलन कहा जाता है।
हज़रत शाहबाज़-ए-मुहम्मद के चार पुत्र थे जिन्होंने उनके बाद मदरसे को संभाला। सबसे बड़े बेटे मौलाना मोहम्मद सलाम के समय यहां छात्रों की संख्या 150 थी। सलाम के बाद अब्दुल लतीफ़, मौलाना तक़ी, मोहम्मद अफ़सूम, हाफ़िज़, मौलाना अक़ील और मौलाना मुबाहुद यहां के उत्तराधिकारी हुए। मौलाना तक़ी के समय यहां 200 छात्र नामांकित थे। वहीं अफ़सूम के समय में 80 और हाफ़िज़ के समय मात्र 60 छात्र यहां तालीम हासिल कर रहे थे।
हज़रत शाहबाज़-ए-मुहम्मद का सलाना उर्स अरबी कैलेंडर के अनुसार सफ़र महीना 15,16,17 तारीख़ (अमूमन नवम्बर-दिसंबर) में होता है। इस मौक़े पर यहां बहुत बड़ा मेला लगता है जिसमें देश के कोने-कोने से आकर श्रद्धालू शिरकत करते हैं और पूरा आस्ताना रंगीन रौशनियों से नहा उठता है।
समय के फ़ासले तय करते हुये ख़ानक़ाह शाहबाज़िया की मस्जिद और मदरसा आज भी अपनी शोहरत की बुंलदियों पर है। वर्तमान में हज़रत मौलाना इश्तियाक़ आलम यहां के सज्जादानशीन हैं।
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