भारत विविध भाषाओं और लिपियों का देश है। इनमें से हर एक कीअपनी ख़ासियत है। इनकी उत्पत्ति प्राचीन भारत में हुई थी।प्राचीन काल की ऐसी ही एक लिपि कदंब लिपि थी, जिसे कन्नड़ और तेलुगू लिखने के लिए तैयार की गई पहली लेखन प्रणाली माना जाता है।
कदंब लिपि दक्षिणी ब्राह्मी लिपियों में सबसे पुरानी है। ये लिपियां ब्राह्मी लिपि से ही विकसित हुई थी। तीसरी सदी (ई.पू) में बनी ब्राह्मी लिपि को देश की लेखन प्रणालियों का अग्रदूत माना जाता है। विद्वान रिचर्ड सॉलोमन के अनुसार,
“ब्राह्मी लिपि पूरी तरह से विकसित अखिल भारतीय राष्ट्रीय लिपि के रूप में तीसरी सदी (ई.पू) में सामने आई थी, और लिपि के रुप में, पूरे इतिहास में इसकी भूमिका जारी रही। ये भारत और इसके बाहर के सभी आधुनिक भारतीय लिपियों का आधार बनीं। इस तरह अगर हम प्राचीन काल में सिंधु लिपि, उत्तर-पश्चिम में खरोष्ठी और मध्य और आधुनिक काल में फ़ारसी-अरबी और यूरोपीय लिपियों के अपवाद को छोड़ दें, तो भारत में लेखन का इतिहास सही अर्थों में ब्राह्मी लिपि और उसके बुनियादी इतिहास का पर्यायवाची है।”
धीरे-धीरे, यानी पहली और तीसरी सदी के दौरान, ब्राह्मी लिपि में क्षेत्रीय आधार पर बदलाव होने लगे। ये लिपियां दिखने में मूल ब्राह्मी लिपि से अलग लगने लगी थीं। हालांकि ये लिपियां ब्राह्मी लिपि का ही रुप थीं, लेकिन समय के साथ वे अलग स्थानीय लिपियों के रुप में विकसित हो गईं।चौथी सदी में शक्तिशाली गुप्त-राजवंश के दौरान, ब्राह्मी लिपि के क्षेत्रीय रूप विकसित होने जारी रहे। इस दौरान न सिर्फ़ ब्राह्मी लिपि के उत्तरी और दक्षिणी रुप अलग-अलग थे, बल्कि अन्य क्षेत्रीय रुपों में भी निकलकर आए। इनमें से एक रुप मध्य भारत में भी उभरा था। ऐसी ही एक लिपि जो दक्षिणी क्षेत्र में लगभग 5वीं सदी में, कदंब राजवंश के दौरान विकसित हुई,वह थी कदंब लिपि।
सवाल ये है कि ये कदंब शासक कौन थे, जिनके शासनकाल में ये लिपि विकसित हुई और ये लिपि कैसी थी ?
लगभग सन 325 से लेकर सन 550 तक शासन करने वाले कदंब शासकों को कर्नाटक का सबसे पुराना शाही राजवंश माना जाता है। इस राजवंश को मयूर शर्मा ने स्थापित किया था। उनका शासन उत्तरी कर्नाटक और कोंकण के क्षेत्रों तक फैला हुआ था। बनवासी नगर उनकी राजधानी थी। दिलचस्प बात यह है, कि कदंब पहले शासक थे, जिन्होंने प्रशासनिक स्तर पर कन्नड़ भाषा का इस्तेमाल किया था। इस राजवंश के शासन के दौरान ब्राह्मी लिपि में बड़े बदलाव हुए, जिसके नतीजे में कदंब लिपि अस्तित्व में आई। शुरुआती ब्राह्मी से अलग, गोल अक्षर और लहरदार रेखाएं इस लिपि की विशेषता थी। जितना भी हम इस राजवंश के बारे में जानते हैं, वह उनके शिलालेखों के माध्यम से ही जानते हैं, जिनकी भाषा तो संस्कृत और कन्नड़ थी, लेकिन लिपि कदंब थी।
विद्वानों के अनुसार, कदंब लिपि, जिसे “आदिम पुरानी कन्नड़ लिपि” के रूप में भी जाना जाता है, वो ”पुरानी कन्नड़” भाषा के रुप में विकसित हुई थीI इसका उपयोग 9वीं से 11वीं सदी के बीच किया जाता था। बाद में “मध्य कन्नड़” (12वीं-17वींसदी) आई, और 18वीं सदी के बाद “आधुनिक कन्नड़” भाषा का जन्म हुआ।
इस लिपि में लिखे गए कुछ महत्वपूर्ण शिलालेख हैं; हलमिडी, तालगुंडा और गुडनापुर। हलमिडी शिलालेख को कन्नड़ भाषा का सबसे पुराना शिलालेख माना जाता है। यह लगभग 5वीं-6वीं सदी का हैI कदंब वंश से जुड़े शिलालेख को प्रशासनिक भाषा के रूप में कन्नड़ के उपयोग का सबसे पहला प्रमाण माना जाता है। इस शिलालेख की खोज प्रसिद्ध इतिहासकार एम.एच. कृष्णा ने सन1936 में कर्नाटक के हासन ज़िले के हल्मीडी गांव के पास की थी।
इस लिपि में लिखा गया एक अन्य महत्वपूर्ण शिलालेख कदंब राजा शांतिवर्मन का तालगुंडा स्तंभ शिलालेख है। 5वीं सदी के आसपास के इस शिलालेख में संस्कृत में चौंतीस छंद हैं, जो कदंब लिपि में लिखे गए हैं। यह कर्नाटक के तालगुंडा गांव के उत्तर-पश्चिम में प्रणव लिंगेश्वर मंदिर के खंडहरों के पास मिला था। शिलालेख में कदंब वंश का विस्तृत विवरण हैं, जिसमें हमें कदंब राजा शांतिवर्मन के समय की एक झलक मिलती है।
दिलचस्प बात यह है, कि शिलालेख में यह भी उल्लेख है, कि कैसे राजवंश का नाम उनके घर के पास के कदंब के पेड़ के नाम पर रखा गया था, जिसकी उन्होंने बहुत देखरेख की थी।शिलालेख की खोज मैसूरु में पुरातत्व अनुसंधान के तत्कालीन निदेशक बी.एल. राइस ने सन 1894 में की थी और सन 1895 भारत-विशेषज्ञ जॉर्ज ब्यूहलर ने इसे प्रकाशित किया था। कदंब लिपि को, कन्नड़ और तेलुगू की पहली लेखन प्रणाली माना जाता है। दरअसल कदंब लिपि लगभग 7वीं सदी से लेकर 1300 सदी तेलुगु-कन्नड़ लिपि में विकसित हुई। तब तक, तेलुगु-कन्नड़ वर्ण माला में शायद ही कोई अंतर रहा होगा आज कदंब लिपि में लिखे शिलालेख, वर्षों से इसके समृद्ध विकास की कहानी कह रहे हैं।
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