सन 1931 में बॉलीवुड की फ़िल्म आलम आरा के रिलीज़ के साथ जब सारा देश भारतीय सिनेमा के जन्म और और इसके विकास का जश्न मना रहा था तब देश के दूर-दराज़ के एक कोने में ख़ामोशी से एक क्रांति का जन्म हो रहा था। उस समय दूरद्रष्टी और रचनात्मक प्रतिभावाले रुपकुंवर ज्योति प्रसाद अगरवाला न सिर्फ़ असमी स्वतंत्रता सैनानी थे बल्कि असमी संस्कृति के अग्रदूत भी थे। तमाम कठिनाईयों के बावजूद अपने अथक प्रयासों से उन्होंने अकेले अपने दम पर असमी फ़िल्म उद्योग को जन्म दिया। ज्योति प्रसाद अगरवाला स्वतंत्रता सैनानी, कवि, नाटककार, संगीत निर्देश, संगीतकार और फ़िल्म निर्देशक थे।
जैसा कि नाम से ज़ाहिर है, ज्योति प्रसाद के पूर्वज असम मूल के नहीं थे। उन्होंने यहां बसकर असम की संस्कृति और विरासत को समृद्ध करने में योगदान दिया। सन 1811 में उनके पूर्वज नवरंग राम अगरवाला राजस्थान के मारवाड़ क्षेत्र से, असम आकर बस गए थे। तब उनकी उम्र 16 साल थी। वे गोलपाड़ा (पश्चिमी असम) और विश्वनाथ जैसी जगहों पर रहे और अंत में गोमिड़ी (ऊपरी असम) में आकर स्थापित हो गए जहां उन्होंने अच्छा ख़ासा कारोबार जमा लिया। उनका कारोबार डिब्रूगढ़ तक फैला हुआ था। उन्होंने दो शादियां की थीं और दोनों पत्नियां असम के जानेमाने परिवारों से संबंध रखती थीं। इस तरह से नवरंग राम अगरवाला असमी दामाद बन गए जिन्हें असम के लोगों का बहुत स्नेह मिला।
ज्योति प्रसाद अगरवाला की जीवनी ज्योति मनीषा में डॉ. प्रह्लाद कुमार बरुआ ने इस प्रसिद्ध परिवार के इतिहास के बारे में जानकारी दी है। उनके अनुसार नवरंग रामअगरवाला शिक्षा और अध्ययन के एक बड़े संरक्षक थे। उनके वंश ने भी उनकी इस विरासत को आगे बढ़ाया। उनके पुत्रों में से एक हरीविलास अगरवाला यायावर थे और ज्ञानी भी बहुत थे। उन्होंने भी एक असमी युवती से शादी की थी। उन्होंने कीर्तन घोष नामक किताब सन 1876 में छापी और इसे आम लोगों को मुहैया करवाया। कीर्तन घोष भजनों का संकलन है। ये भजन मध्यकालीन संत श्रीमंत शंकरदेव ने ईश्वर की स्तुति में लिखे थे जिसे लोग गाया करते थे। इस किताब के अलावा उन्होंने ब्रजा भाषा में लिखित राम विजय नट, दशम और भगवत जैसी किताबें भी छापीं। भगवत, भगवत पुराण का असमी रुपांतरण था जो श्री शंकरदेव ने 15वीं-16वीं शताब्दी में किया था। ये किताबें आम लोगों के लिये छापी गईं थी ताकि वे भी इन्हें पढ़कर ज्ञान प्राप्त कर सकें।
हरीविलास अगरवाला के भाई चंद्रकुमार अगरवाला, विष्णु प्रसाद अगरवालाऔर बहन जोगेश्वरी दोनों भी साहित्यिक क्षेत्र में सक्रिय थे। वे दोनों प्रकाशन में शामिल थे और इसके अलावा कई स्थानीय पत्रिकाओं और अख़बारों में लिखा भी करते थे। उनके भाई परमानंद अगरवाला को संगीत में गहरी रुचि थी और उन्होंने असम के प्रतिष्ठित परिवार की बेटी किरणमोई ककाती से शादी की थी जो ख़ुद अपने समय की एक प्रसिद्ध गायिका थीं। परमानंद अगरवाला और किरणमय काकती ज्योति प्रसाद अगरवाला के पिता-माता थे। ज्योति प्रसाद का जन्म तमुलबाड़ी चाय बागान (डिब्रूगढ़) में 17 जून सन 1903 को हुआ था। अगरवाला परिवार के कई चाय बागान थे और तमूलबरी चाय बागान इनमें से एक था।
ज्योति प्रसाद का नाम उनके दादा हरीविलास अगरवाला ने रखा था और वह अपने भाई-बहनों में सबसे बड़े थे। बचपन से ही उनमें प्रतिभा दिखने लगी थी और उन्हें गाने, पढ़ने, अभिनय और कविता पढ़ने का बहुत शौक़ था। 14 साल की उम्र में उन्होंने सोनित कुनवारी नामक नाटक लिख दिया था। डिब्रूगढ़ में प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्होंने तेज़पुर गवर्नमेंट स्कूल में दाख़िला ले लिया जहां उन्होंने दसवीं तक पढ़ाई की। लेकिन उनकी नियति में स्वतंत्रता सैनानी बनना लिखा था सो वह फ़ाइनल परीक्षा नहीं दे सके। सन 1918 में ज्योति प्रसाद अपने पिता के साथ एक सम्मेलन में अहमदाबाद गए। वहां महात्मा गांधी के भाषण से वह बहुत प्रभावित हुए और उनके भीतर मातृभूमि के लिये प्रेम उमड़ आया।
सन 1921 में गांधी जी जब पहली बार असम आए थे तब वह अगरवाला परिवार के प्रसिद्ध निवास में ही रुके थे जिसे पोकी कहते हैं। मकान का नाम “पोकी” रखने की एक दिलचस्प वजह थी। तेज़पुर में ये पहला पक्का मकान था इसलिये इसका नाम पोकी (पक्का) पड़ गया। इस मकान की डिज़ाइन और शैली राजस्थानी और अहोम वास्तुकला का मिश्रण है। यह स्वतंत्रता सैनानियों के मिलने का एक महत्वपूर्ण स्थान बन गया था। यहां मदन मोहन मालवीय, मोती लाल नेहरु, अरुणा असफ़ अली, सी राजागोपालाचारी और भूपेन हज़ारिका जैसी हस्तियां ठहर चुकी थीं। उस समय स्वदेशी आंदोलन चल रहा था। तब गांधी जी की बातों से प्रभावित होकर अगरवाला परिवार ने अपने घर का सारा विदेशी सामान जला डाला था। उसी साल ज्योति प्रसाद पढ़ाई छोड़कर असहयोग आंदोलन में कूद पड़े थे।
ज्योति प्रसाद की जीवनी ज्योति मनीषा में डॉ. प्रह्लाद कुमार बरुआ लिखते हैं कि उसी साल बाद में ज्योति प्रसाद ने कलकत्ता के नैशनल स्कूल में दाख़िला ले लिया जिसकी स्थापना देशबंधु चिरंजन दास ने की थी। वहां से उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पास करने के बाद नैशनल कॉलेज में एडमिशन लेकर आई.ऐ. करने लगे लेकिन ये पढ़ाई पूरी नहीं हो सकी क्योंकि कॉलेज ही बंद हो गया।
पढ़ाई के इस पहले दौर के बाद वह वापस असम आ गए और वहां अपने प्रसिद्ध चाचा चंद्रकुमरा अगरवाला के स्थानीय अख़बार अशोमिया के प्रकाशन में हाथ बंटाने लगे। लेकिन इस काम से वह जल्द ऊब गए और सितंबर सन 1926 में आगे की पढ़ाई के लिये विदेश चले गए। ज्योति प्रसाद एडिनबरो विश्वविद्यालय में दाख़िला लेकर एम.ए. करने लगे लेकिन पढ़ाई जारी नहीं रख सके क्योंकि उन्हें आगे की पढ़ाई के लिये ज़रुरी ग्रेड नहीं मिले थे। इसके बावजूद ज्ञान अर्जित करने की उनकी लालसा कम नहीं हुई। उनका रुझान नृत्य, नाटक, गीत, कविताओं और सिनेमा की तरफ़ था। उन दिनों उन्होंने असम के कुछ मशहूर गानों की धुन बनाई थी जो आज ज्योति संगीत नाम से प्रसिद्ध हैं। ज्योति प्रसाद ने इस नयी टैक्नॉलॉजी को समझने की ठान ली जो उस समय सारे विश्व में प्रचलित थी। वह पढ़ाई के लिये जर्मनी चले गए जहां उनकी मुलाक़ात बंगाल के युवा कलाकार हिमांशु राय से हुई जिन्होंने बाद में अभिनेत्री देविका रानी के साथ मिलकर प्रसिद्ध फ़िल्म स्टूडियो बॉम्बे टॉकीज़ की स्थापना की। ज्योति प्रसाद और हिमांशु दोनों पर विश्व सिनेमा का जुनून सवार था। वहां सात महीने के दौरान ज्योति प्रसाद ने हिमांशु से फ़िल्म की तकनीक के बारे बहुत कुछ सीखा।
बर्लिन में रहने के दौरान ज्योति प्रसाद ने यूनिवर्सम फ़िल्म्स आक्तियंगसल्काफ़्त (UFA) नाम की कंपनी के साथ मिलकर अपने प्रसिद्ध नाटक सोनित कुंवारी पर अंग्रेज़ी में फ़िल्म बनाने की कोशिश की। ये नाटक उषा और अनिरुद्ध ( कृष्ण भगवान के पोते) के प्रेम की प्रसिद्ध लोककथा का आधुनिका रुप था। इस पर फ़िल्म बनाने का उनका प्रयास सफल नहीं हो सका। लेकिन इस अनुभव ने फ़िल्म बनाने की तकनीक के उनके ज्ञान में बढ़ौत्तरी ज़रुर की। भारत वापसी से पहले उन्होंने बेबीलोन, बग़दाद और तुर्की जैसे कई देशों की यात्रा की जिससे उनकी रचनात्मकता में और निखर आया।
सन 1930 में ज्योति प्रसाद ने फ़िल्म बनाने की अपनी पढ़ाई पूरी की और वापस भारत आ गए। बॉम्बे में क़दम रखते ही एक बार फिर वह राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल हो गए। वह अपने पश्चिमी परिधानों का त्यागकर खादी पहनने लगे। सन 1932 में उन्हें देशद्रोह के आरोप में 15 महीने की क़ैद और पांच सौ रुपया जुर्माना हुआ था। जेल जाने के बाद भी उनका मातृभूमि के प्रति प्रेम कम नही हुआ और वह सन 1942 में फिर भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय हो गए।
1931 में भारत ने पहली अमूक फ़िल्म आलम आरा बनाकर इतिहास रच दिया। इस फ़िल्म ने ज्योति प्रसाद के भीतर फ़िल्म बनाने की इच्छा को फिर ज़िंदा कर दिया। उसी साल भारतीय सिनेमा में एक और रिकॉर्ड बना। असम के ढुब्री ज़िले में गौरीपुर के ज़मींदार परिवार के प्रमातेश बरुआ ने कलकत्ता में अपना ख़ुद का स्टूडियो बरुआ फ़िल्म यूनिट और बरुआ स्टूडियो लगाया था। उन्होंने अपनी पहली फ़िल्म अपराधी का निर्माण किया था। ये पहली भारतीय फ़िल्म थी जो कृत्रिम लाइट में शूट की गई थी। इन दोनों घटनाओं ने ज्योति प्रसाद को प्रेरित किया और सन 1932 में जेल में रहने के दौरान उन्होंने पहली असमी फ़िल्म सती जयमति की स्क्रिप्ट लिखी। ये स्क्रिप्ट असमी साहित्य के मशहूर नाटककार लक्ष्मीनाथ बेज़बरुआ के एक नाटक पर आधारित थी।
अपनी किताब में डॉ.बरुआ लिखते हैं कि जेल से बाहर निकलने के बाद ज्योति प्रसाद ने गुवाहाटी से 310 कि.मी. दूर असम के विश्वनाथ ज़िले में गोहपुर में अपने परिवार के चाय बागान भोलागुड़ी टी ईस्टेट की चाय फ़ैक्ट्री को अपने ऑफ़िस में तब्दील कर दिया। इसका नाम उन्होंने चित्रबन रखा और बातोरी (असमी में समाचार) नाम के अख़बार में अभिनेताओं और अभिनेत्रियों के लिये विज्ञापन निकाला। उन्होंने अपने फ़िल्म सेट को वास्तविक रुप देने के लिये वैष्णवों के पूजा घरों और संपन्न परिवारें से शाही कपड़े, तलवार, ढ़ाल और एक्सोराई ( एक तरह की घातु की स्टैंडवाली ट्रे जो असम में बहुत पूजनीय मानी जाती है) और कई तरह के शाही फ़र्नीचर तथा ज़ैवर जमा करना शुरु कर दिया। उन्होंने फ़िल्म निर्माण के लिये लाहौर से टैक्नीशियन्स को चित्रबन बुलाया। यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि फ़िल्म के पुरुष किरदारों के लिये तो कई नाम आए लेकिन महिला किरदार के लिये कोई महिला उम्मीदवार नहीं आई। इसे समझा भी जा सकता है क्योंकि उस समय समाज में महिलाओं पर कई तरह की पाबंदियां थी। गांधीवादी विचारधारा में पले बड़े हुए ज्योति प्रसाद ने जयमति कुंवारी की कहानी इसलिये चुनी थी क्योंकि जयमति कुंवारी बहुत वीर और साहसी थी। वह अहोम राजा स्वर्गदेव गदाधर सिंघा की रानी थी। विरोधी राजा सुलिकफा के लोगों ने रानी को पकड़कर यातनाएं दी थीं। यातना से रानी की मौत हो गई लेकिन उसने अपने पति का पता-ठिकाना नहीं बताया वर्ना वो भी मारा जाता। ज्योति प्रसाद इस फ़िल्म के माध्यम से उस समय के पुरुष प्रधान समाज से महिलाओं को मुक्त करने के लिये असम में एक अलग तरह की क्रांति लाना चाहते थे। ज्योति प्रसाद बहुत ख़ुशक़िस्मत थे उनके इस काम में उन्हें असम के कुछ प्रमुख परिवारों का समर्थन मिला। राष्ट्रीय क्रांति के दौर में वह असम की महिलाओं की शक्ति और देशभक्ति को दिखाना चाहते थे।
डॉ. उमाकांत हज़ारिका ने अपनी किताब पॉलिटिक्स ऑफ़ लव एंड नैशनलिज़्म में उन महिलाओं का ज़िक्र किया है जिन्होंने सामाजिक बंधनों को तोड़कर ज्योति प्रसाद की फ़िल्म में काम करने का साहस दिखाया था। इसमें सबसे प्रमुख नाम है एडियू हैंडीक जिन्होंने जयमति कुंवारी का किरादार निभाया था। उनके किसी रिश्तेदार ने उन्हें ज्योति प्रसाद से मिलवाया था और तब वह बमुश्किल 16 साल की थीं। पहले वह अभिनय को लेकर शंकित थी लेकिन ज्योति प्रसाद की कुशल देखरेख में उन्होंने धीरे धीरे कैमरे के सामने चलना, बोलना और अभिनय करना सीख लिया। उनके अभिनय और सामाजिक बंधनों को तोड़ने के लिये उनकी बहुत प्रशंसा हुई थी। लेकिन इस दुस्साहस की उन्हें भारी क़ीमत चुकानी पड़ी। शूटिंग पूरी होने के बाद उन्हें असम के गोलाघाट ज़िले के उनके गांव पानीडिहिंगिया में घुसने नहीं दिया गया। यहां तक कि उनके परिवार ने भी उनका बहिष्कार कर दिया और उन्हें तबेले में रहना पड़ा। उनके गांव के लोग उनकी शादी नहीं होने दे रहे थे क्योंकि उनका मानना था कि जो महिला फ़िल्म में किसी पुरुष को अपना पति कह चुकी हों, उससे कौन शादी करेगा। मोहिनी राजकुमारी, दिनेश्वरी राय भुय्यन, माकुन, ब्रेतेश्वरी राजकुमारी और राजेश्वरी हज़ारिका जैसी अन्य अभिनेत्रियां हालंकि ऐसे संभ्रांत परिवारों से आती थीं जिन्होंने फ़िल्म में काम करने के लिये उनका उत्साह बढ़ाया था लेकिन उन्हें भी समाज की नाराज़गी झेलनी पड़ी थी। इन महिलाओं को सारी ज़िंदगी कठिनाईयों का सामना करना पड़ा लेकिन उन्होंने ज्योति प्रसाद के साथ मिलकर असम की महिलाओं की मुक्ति का रास्ता खोला और सामाजिक तथा सांस्कृतिक नज़रिया बदलने में मदद की।
काफ़ी जद्दोजहद के बाद जयमति फ़िल्म आख़िरकार 10 मार्च सन 1935 में कलकत्ता के रौनक सिनेमा हॉल में रिलीज़ हुई। फ़िल्म के प्रेमियर में प्रमेतेश बरुआ भी आए थे और फ़िल्म से बहुत प्रभावित हुए थे। इस फ़िल्म में कुछ ख़ामियां थीं जिन्हें ठीक करके और कुछ बदलाव के साथ ज्योति प्रसाद ने ,न 1949 में फिर रिलीज़ की। फ़िल्म में कुछ गाने डाले गए थे और इन गानों के संगीत में असम के पारंपरिक वाद्ययंत्रों का प्रयोग किया गया था। जयमति के बाद ज्योति प्रसाद के सामने वित्तीय संकट आ गया लेकिन फिर भी उन्होंने एक और यादगार फ़िल्म इंद्रमालती बनाई जो सन1939 में रिलीज़ हुई थी। इस फ़िल्म में भी उन्होंने महिला कलाकार लिए थे हालंकि उनके लिए भी फ़िल्म में काम करना आसाना नहीं था। ज्योति प्रसाद और भी फ़िल्में बनाना चाहते थे लेकिन कैंसर जैसी बीमारी की वजह से ये संभव नहीं हो सका और अंतत: 17जनवरी सन 1951 में अपने पैतृक घर पोकी में उनका निधन हो गया। रुपकुंवर ज्योति प्रसाद अगरवाला ने आधुनिकीकरण, कला, संस्कृति, महिलाओं की साममाजिक और आर्थिक आज़ादी का जो मार्ग प्रशस्त किया था वो आज भी असम के हर पहलुओं में नज़र आता है। असम में उनकी पुण्यतिथि हर साल शिल्पी दिवस के रुप में मनाई जाती है।
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