मारवाड़ के ‘वीर’ दुर्गादास राठौर   

दुर्गादास ( 1638-1718) मारवाड़ी रईस थे और उनका संबंध राठौर राजवंश से था। जसवंत सिंह (1629-1678) और अजीत सिंह (1679-1724) के समय वह मारवाड़ के महाराजओं की सेवा में थे। इतिहासकार जदुनाथ सरकार और आर.सी. मजुमदार ने वीर दुर्गादास बहारी के कारनामों का बारे में बहुत तफ़सील से लिखा है।

मारवाड़ के शासक जसवंत सिंह का मुग़लों के लिए अभियान चलाते वक़्त अफ़ग़ानिस्तान में दिसंबर 1678 में निधन हो गया था।

मुग़लों के लिए अभियान चलाने के बावजूद औरंगज़ेब ने जोधपुर पर कब्ज़ा कर लिया था और उसे अपने अधीन करने के लिए फौज भी भेजी थी।

जसवंत सिंह की मृत्यू होने तक उनका कोई उत्तराधिकारी नहीं था लेकिन मौत के समय उनकी दो रानियां गर्भवती थीं। उन्होंने फ़रवरी सन 1679 में दोनों ने एक एक पुत्र को जन्म दिया लेकिन उनमें से सिर्फ़ एक पुत्र अजीत सिंह ही जीवित बच पाया। अजीत सिंह को मारवाड़ पर उसका जायज़ हक़ दिलवाने के मक़सद से, उसे दिल्ली लाया गया।

जसवंत सिंह के अत्तराधिकारी की मौजूदगी के बावजूद औरंगज़ेब ने उनका राज्य उनके भतीजे इंद्र सिंह को बेच दिया और ग़ैर-मुस्लिमों पर जज़िया (कर) भी लगा दिया। औरंगज़ेब के दरबार में राठौर वंश के दुर्गादास, रणछोड़दास और रघुनाथ भट्टी जैसे रईस चाहते थे कि राज्य का उत्तराधिकारी जसवंत सिंह के पुत्र अजीत सिंह को बनाया जाए लेकिन औरंगज़ेब ने उनका आग्रह नहीं माना। रईसों ने अजीत सिंह को मारवाड़ का राजा घोषित कर दिया।

यहीं नहीं औरंगज़ेब ने शिशु अजीत सिंह को नूरगढ़ जेल में बंद करने का भी आदेश दे दिया।

लेकिन राठौर रईसों ने इसका विरोध किया और वह अजीत सिंह को जोधपुर ले गए। इसके बाद अपने राजा को बचाने के लिए उनका संघर्ष शुरु हो गया जो 30 साल तक जारी रहा।

इन राठौर रईसों ने जोधपुर पर फिर कब्ज़ा कर लिया। इसके बाद औरंगज़ेब ने जोधपुर को दोबारा जीतने के लिये अपनी सेना भेज दी और उसने ख़ुद अजमेर में ढ़ेरा डाल दिया। सेना की अगुवाई शहज़ादे मोहम्द अकबर कर रहे थे लेकिन जल्द ही अकबर ने राजपूतों के साथ मिलकर अपने पिता के ख़िलाफ़ बग़ावत कर दी। इससे औरंगज़ेब न सिर्फ़ चौंक गया बल्कि उसकी जोधपुर पर कब्ज़े की मुहिम भी कमज़ोर पड़ गई।

बहरहाल, शहज़ादे अकबर की बग़ावत कामयाब नहीं हुई और उसने मोवाड़ तथा मारवाड़ में समय बिताना शुरु कर दिया। बाद में मई सन 1681 में दुर्गादास ख़ुद उसे मराठा राजा संभाजी के पास ले गए। शहज़ादा अकबर सन 1687 में फ़ारस चला गया लेकिन उसके पहले तक दुर्गादास उसके ही साथ रहे। शहज़ादा अकबर के पुत्र बुलंद अख़्तर और बेटी सफ़ियत उन्निसा की परवरिश राजपूतों ने की। इस दौरान औरंगज़ेब के ख़िलाफ़ राजपूतों का विरोध जारी रहा।

दुर्गादास के मारवाड़ लौटने पर मारवाड़ में मुग़ल प्राशासकों के लिए स्थिति नियंत्रण के बाहर होने लगी। उन्होंने स्थिति से निपटने के लिए राजपूतों को छोटेमोटे क्षेत्र या राजस्व में हिस्सा देने की पेशकश की। औरंगज़ेब ख़ुद अपने पोते-पोतियों की वापसी के लिए बातचीत कर रहा था। सन 1696 में अचानक दुर्गादास ने सफ़ियत उन्निसा, को बिना शर्त मुग़ल दरबार में भेजकर सबको चौंका दिया। दुर्गादास ख़ुद औरंगज़ेब के पोते-पोती की देखभाल करते थे और इससे उनके मृदुल व्यवहार तथा चरित्र का पता चलता है।

दुर्गादास ने सफ़ियत उन्निसा को इस्लाम की शिक्षा भी दिलवाई और क़ुरान पढ़ना भी सिखवाया।

इस बात से औरंगज़ेब न सिर्फ़ ख़ुश हुआ बल्कि प्रभावित भी हुआ। औरंगज़ेब ने ख़ुश होकर दुर्गादास को मनसब देने की पेशकश की और पोते की वापसी के लिए बातचीत शुरु कर दी। लेकिन दुर्गादास ने कोई भी निजी फ़ायदा लेने से इनकार कर दिया। बातचीत काफ़ी लंबे समय तक चलती रही और दुर्गादास अजीत सिंह को मारवाड़ का राजा बनाने की अपनी मांग पर डटे रहे।

तब तक अजीत सिंह भी बड़ा हो गया था और युद्ध विराम चाहता था। सन 1698 में उसे जालोर, संचोर और सिवाना की जागीरें तथा मुग़ल सेना में मनसब मिल गया । इसके बाद 1701 तक शांति रही और फिर औरंगज़ेब ने मारवाड़ पर कब्ज़े के लिए अपने रईसों को भेज दिया। सन 1701 से लेकर 1705 तक राजपूतों ने अपनी स्वायत्तता बनाए रखी लेकिन आख़िरकार मुग़लों ने मारवाड़ पर कब्ज़ा कर ही लिया। दुर्गादास ने भी गुजरात में एक छोटी सी मनसब और एक पद स्वीकार कर लिया।

दरअसल सच्चाई तो ये थी कि वे वक़्त का इंतज़ार कर रहे थे।

मार्च 1707 में औरंगज़ेब की मौत के कुछ हफ़्तों के भीतर दुर्गादास और अजीत सिंह ने मारवाड़ लौटकर मुग़ल सेना को बर्ख़ास्त कर दिया। अजीत सिंह की आख़िरकार ताजपोशी हो गई और इस तरह दुर्गादास का उद्देश्य भी पूरा हो गया।

मारवाड़ को पाने के बाद दुर्गादास ने संन्यास ले लिया और उज्जैन जाकर बस गये। उन्होंने अपने अंतिम दिन भी उज्जैन में ही बिताये।

18वीं शताब्दी में जोधपुर के शासकों ने उज्जैन में उस स्थान पर लाल बलुआ पत्थर की एक भव्य नक़्क़ाशीदार छतरी बनवाई जहां उनका अंतिम संस्कार हुआ था।

दुर्गादास को, वफ़ादार , उदार, कर्मठ और सादा मिज़ाज व्यक्ति की तरह जाना जाता था। आज भी राजस्थान के गांवों और शहरों में उनकी बहादुरी और क़ाब्लियत के क़िस्से सुनाये जाते हैं।

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