हिंदी को “थोपने” की कोशिश की गई तो एक बड़ा विवाद पैदा हो गया था जि आज भी महसूस किया जा सकता है। लेकिन समय के साथ हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री और हिंदी के मनोरंजन-चैनलों की वजह से भारत में हिंदी बोलने और समझने वालों की संख्या पहले की तुलना आज कहीं अधिक बढ़ गई है। आश्चर्यजनक बात ये है कि जिसे आज हम हिंदी कहते हैं उसे डेढ़ सौ साल पहले खड़ी बोली कहा जाता था जो ब्रज बोली होती थी। ब्रज भाषा दिल्ली और मेरठ के आसपास के क्षेत्रों में बोली जाती थी। हिंदी भाषा के विकास की यात्रा आसान नहीं रही है लेकिन हां इसका उदय तेज़ी से ज़रुर हुआ। हिंदी भाषा को सन 1880 और सन 1930 के दौरान यानी सिर्फ़ पचास वर्षों में इसे राष्ट्रीय महत्व मिल गया।
हिंदवी या हिंदी भाषा का आरंभिक उल्लेख 13वीं शताब्दी में मिलता है। प्रसिद्ध सूफ़ी शायर अमीर ख़ुसरो (1253-1325) हिंदवी या हिंदी में लिखा करते थे जो ब्रज भाषा हुआ करती थी और जो दिल्ली के आसपास के क्षेत्रों और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बोली जाती थी। 19वीं शताब्दी तक एक तरफ़ जहां फ़ारसी मुग़ल साम्राज्य के दरबार और अवध, जयपुर तथा ग्वालियर जैसी रियासतों की भाषा हुआ करती थी वहीं हरियाणवी (हरयाणा), अवधी (अवध) बुंदेलखंडी (बुंदेलखंड) जैसी ब्रज भाषा की कई बोलियां उत्तर भारत में लोकप्रिय थीं। हिंदी का अपना व्याकरण नहीं था इसलिए इसे यह पूरी तरह परिभाषित भाषा भी नहीं थी।
दरअसल ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने 19वीं शताब्दी में हिंदी भाषा की कहानी के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ा। इसका श्रेय स्कॉटलैंड के सर्जन और बहुभाषीविद जॉन बोर्थविक गिलक्रिस्ट (1759-1841) को जाता है। वह सन 1784 में ईस्ट इंडिया कंपनी की मेडिकल सेवा में शामिल हुए थे। देश के विभिन्न हिस्सों की यात्रा के दौरान उन्होंने पाया कि एक भाषा, जिसे वह हिंदुस्तानी कहते थे, उत्तर भारत के कई हिस्सों में बोली और समझी जाती है। उन्होंने फ़ौरन शब्दकोष पर काम करना शुरु कर दिया जिसका प्रकाशन सन 1786 में “ए डिक्शनरी-इंग्लिश एंड हिंदुस्तानी” नाम से हुआ। उन्होंने किताब के प्रारंभ में “ग्रामर ऑफ़ हिंदुस्तानी लैंगुएज” भी जोड़ा दिया । दिलचस्प बात ये है कि ये शुरुआती दौर में प्रकाशित उन पुस्तकों में से एक थी जो देवनागरी लिपी में छापी गई थी। छपाई के लिए इसके अक्षर इंडोलॉजिस्ट चार्ल्स विल्किंस (1750-1836) ने विकसित किए थे ।
गिलक्रिस्ट के सुझाव पर सन 1800 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के गवर्नर जनरल लॉर्ड वेल्सले ने कंपनी के अधिकारियों को भारतीय प्रशासनिक मामलों में प्रशिक्षित करने के लिये कलकत्ता में फ़ोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना की। गिलक्रिस्ट इस कॉलेज के प्रधानाचार्य थे। उन्होंने देवनागरी लिपि में हिंदी और फ़ारसी लिपि में उर्दू भाषा का वर्गीकरण करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 18वीं सदी के अंतिम वर्षों में छपाई मशीनों के आने से हिंदी और मराठी भाषाओं में देवनागरी लिपि का प्रयोग होने लगा क्योंकि ये काम सबसे आसान था। बंगाल में सोराम्पोर मिशन प्रेस और तंजोर के राजा सरफोजी जिन्होंने सन 1807 में महारत्ता प्रिंटिंग प्रेस लगाई , जिन्होंने भारत में देवनागरी लिपि में छपाई का मार्ग-दर्शन किया था
सन 1820 के दशक के बाद से हिंदी परवान चढ़ने लगी थी। 30 मई सन 1826 को हिंदी भाषा के पहले समाचर-पत्र उदंत मार्तंड का कलकत्ता से प्रकाशन शुरु हुआ। कम ग्राहकों की वजह से एक साल बाद ही ये समाचार-पत्र बंद हो गया लेकिन आज भी उसी की याद में, 30 मई को “पत्रकारिता दिवस” मनाया जाता है। सन 1827 में भाषाविद रेव एडम ने “ हिंदी भाषा का व्याकरण” का प्रकाशन किया। आर.के.चौधरी जैसे हिंदी भाषा के इतिहासकार इसे 19वी शताब्दी की हिंदी व्याकरण की सबसे प्रभावकारी पुस्तक मानते हैं। इसकी वजह ये है कि स्कूल और कॉलेज में पहली भाषा के रुप में इसका अध्ययन करने वाले छात्र इसे पढ़ते थे। इस किताब से ही उन्होंने सीखा कि हिंदी भाषा कैसे सीखी और लिखी जाती है। दो साल बाद सन 1829 में रेव एडम ने “ हिंदी शब्दकोष” प्रकाशित किया जो हिंदी भाषा का पहला एक भाषी शब्दकोष था। आधुनिक हिंदी का ये आरंभिक चरण था।
आरंभिक दिनों में प्रेस की छपाई और प्रेस के द्वारा हिंदी के प्रसार की वजह से इस भाषा का विकास हुआ। हिंदी भाषा के विकास के अगले चरण का संबंध प्रतिस्पर्धात्मक राजनीति से जुड़ा था।
सन 1830 के दशक के बाद से ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत के विभिन्न प्रांतों में फ़ारसी की जगह स्थानीय भाषाओं का प्रयोग करना शुरु कर दिया। वो क्षेत्र जिन्हें आज हम हिंदी पट्टी (उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश) कहते हैं, वहां फ़ारसी की जगह उर्दू भाषा का प्रयोग होने लगा। सन 1860 के दशक में कई संगठन उर्दू के स्थान पर हिंदी के प्रयोग को लेकर आंदोलन करने लगे और यहीं से उर्दू-हिंदी विवाद शुरु हुआ। हिंदी के समर्थकों का तर्क था कि संस्कृतनिष्ठ हिंदी भाषा हिंदुओं की है जबकि फ़ारसी युक्त भाषा उर्दू मुसलमानों की है। अन्य लोगों का कहना था कि दोनो ही भाषाएं समान हैं और इन्हें कृतिम रुप से विभाजित किया गया है। ये विवाद आज भी जारी है।
हिंदी-उर्दू विवाद का आरंभ सन 1830 के दशक में हुआ था जब ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने प्रशासन के निचले स्तर पर फ़ारसी की जगह स्थानीय भाषाओं का प्रयोग शुरु किया।
हिंदी के समर्थन में आंदोलन सन 1882 में तब और तेज़ हो गया जब “भारतीय शिक्षा आयोग” ने भारत में शिक्षा की प्रगति की समीक्षा के लिये उत्तर प्रदेश और पंजाब का दौरा किया। हिंदी समर्थकों ने उर्दू के स्थान पर हिंदी भाषा के प्रयोग की मांग को लेकर आयोग में कई याचिकाए डालीं लेकिन सन 1883 में आयोग ने अपनी रिपोर्ट में इन मांगों को ख़ारिज कर दिया। इससे हिंदी समर्थक और उत्तेजित हो गए।
हिंदी समर्थक आंदोलन के दौरान बनारस आधुनिक हिंदी भाषा के मूल-स्रोत के रुप में उभरा। इसके दो कारण थे। एक तो ये कि बनारस में एक बड़ा शिक्षित मध्यम वर्ग था जो हिंदी बोलता था और दूसरा ये कि यहां कई बड़े प्रकाशन थे। हिंदी समर्थक स्थानीय शैक्षिक बोर्ड और स्कूलों पर पाठ्यक्रम में हिंदी को बढ़ावा देने के लिये ज़ोर डालने लगे। इन समर्थकों में अधिकतर स्थानीय स्कूल के शिक्षक हुआ करते थे।
भारतेंदु हरीशचंद्र (1850-1885) आधुनिक हिंदी भाषा के आरंभिक प्रतीकों (आइकन) में से एक थे। उन्हें आधुनिक हिंदी भाषा और हिंदी नाटक का जनक माना जाता है। सन 1877 में अपने भाषण “हिंदी की उन्नति पर व्याख्यान” में उन्होंने हिंदी को राष्ट्रीय भाषा बनाने की वकालत की। भारतेंदु का 35 वर्ष की अल्प आयु में सन 1885 में निधन हो गया लेकिन उनके विचार आज भी जीवित हैं। हिंदी भाषा के प्रसार-प्रचार में उनके योगदान के कारण हिंदी साहित्य के आरंभिक समय को “भारतेंदु युग” कहा जाता है। आज भी हिंदी भाषा को समर्पित उनके दोहे और कविताएं हिंदी भाषी क्षेत्रों में गूंजती हैं।
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल। बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।
सन 1880 के दशक में हिंदी उपन्यास का दौर शुरु हुआ। इनमें देवकी नंदन खत्री का चंद्रकांता उपन्यास बहुत लोकप्रिय हुआ। कल्पनाओं पर आधारित ये उपन्यास साहसी यौद्धाओं, राजकुमारियों और जासूसों के बारे में था। कहा जाता है कि चंद्रकांता उपन्यास इतना लोकप्रिय हो गया था कि इसे पढ़ने के लिये लोग देवनागरी सीखने लगे थे।
सन 1893 में बनारस में “नागरी प्रचारिणी सभा” की स्थापना हुई जो 20वीं सदी में हिंदी भाषा को बढ़ावा देने वाला सबसे प्रभावशाली संगठन बन गया। नागरी प्रचारिणी सभा ने हिंदी में पाठ्यक्रमों की पुस्तकें और साहित्य की किताबें छापीं। सभा ने भारत में कई बेहतरीन पुस्कालय खोले और श्रेष्ठ विद्वानों का नेटवर्क स्थापित किया। इसने प्रशासन में हिंदी भाषा के प्रयोग के लिये स्थानीय सरकार पर ज़ोर डालने का भी काम किया।
शताब्दी के अंत तक हिंदी भाषा और सशक्त होती गई। सन 1910 में इलाहबाद में “हिंदी साहित्य सम्मेलन” का आयोजन हुआ। ये सम्मेलन एक शक्तिशाली लॉबी ग्रुप के रुप उभर गया और इसने हिंदी कार्यकर्ताओं तथा महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरु जैसे राष्ट्रीय नेताओं के बीच पुल का काम किया। यूरोप में प्रथम विश्व युद्ध और भारत में स्वतंत्रता आंदोलन की वजह से देश के बड़े शहरों में हिंदी पुस्तकें पढ़ने वाले पाठकों की संख्या बहुत बढ़ गई।
सन 1920 के दशक से हिंदी प्रेस और साहित्य में महिलाओं की आवाज़ सुनी जाने लगी। इसके पहले हिंदी प्रेस और साहित्य पुरुष प्रधान ही होता था। इतिहासकार फ़्रांसेस्का ओरसिनी ने अपनी पुस्तक “हिंदी पब्लिक डोमैन- 1910-1940” (2009) में लिखा है कि कैसे जब अधिक से अधिक महिला शिक्षित होती गईं, महिलाओं की शिक्षा के लिये हिंदी एक आदर्श भाषा मानी जाने लगी क्योंकि इस भाषा का संबंध भारतीय संस्कृति से था। जहां लड़कों की शिक्षा का माध्यम अंग्रेज़ी और उर्दू भाषा होती थी ताकि उन्हें रोज़गार मिल सके, वहीं लडकियों की पढ़ाई का माध्यम अमूमन हिंदी होती थी।
महिलाओं के शिक्षित होने से हिंदी में महिलाओं की कई पत्रिकाएं प्रकाशित होने लगीं जिनमें गृहलक्ष्मी (1909), स्त्री दर्पण (1909), आर्य महिला (1971) चांद (1922) और माधुरी (1922) प्रमुख पत्रिकाएं थीं। यॉर्क यूनिवर्सिटी की प्रो. शोभना निझावन अपनी किताब “वीमन एंड गर्ल्स इन द हिंदी पब्लिक स्फ़ीयर” में लिखती हैं कि कैसे इससे महिला-साहित्य में बदलाव आया। अब महिलाओं की पत्र-पत्रिकाओं में मध्यम वर्गीय महिलाओं को नैतिक सलाह देने का चलन समाप्त हो गया था। इनमें देश-दुनिया के राजनीतिक समाचारों के अलावा सामाजिक सुधारों पर लेख भी छपने लगे थे। “स्त्री दर्पण” ने अपने विज्ञापनों में दावा किया कि ‘वह एकमात्र ऐसी पत्रिका है जो महिलाओं को उनके धर्म के अलावा उनके अधिकारों के बारे में भी बताती है क्योंकि अगर पति, भाई और पिता महिलाओं के साथ जनवरों जैसा आचरण करते रहे तो वे देश के कल्य़ाण को प्रोत्साहित नही कर सकते।’
सन 1920 और सन 1930 के दशक को “हिंदी साहित्य का स्वर्णिम युग” माना जाता है। इस युग में मुंशी प्रेमचंद, मैथली शरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा और सुभद्रा कुमारी चौहान जैसे लेखक और कवि पैदा हुए। इनमें मुंशी प्रेमचंद अपने समय के सबसे प्रमुख हिंदी लेखक थे जो संस्कृतनिष्ठ हिंदी के विरोधी थे। उनका कहना था कि भाषा ऐसी होनी चाहिये जिसे आम लोग समझ सकें।
इस बीच हिंदी भाषा ने राजनीतिक रुप से भी अपनी पैठ जमा ली थी। इसे प्रभावशाली नेताओं का समर्थन मिलने लगा था। कांग्रेस के नेता हिंदी के प्रबुद्ध लोगों को रिझाने के लिये देश भर में आयोजित साहित्य सम्मेलनों में जाने लगे थे। सन 1947 में भारत-विभाजन के साथ ही हिंदी-उर्दू विवाद, अंतिम रूप से हिंदी के पक्ष समाप्त हो गया।
सन1949 में स्वतंत्र भारत की संविधान सभा ने हिंदी को राजभाषा के रुप में मान्यता दे दी हालंकि अहिंदी भाषी क्षेत्रों में इसका पुरज़ोर विरोध हुआ। इसके विरोधियां का मानना था कि उन पर हिंदी लादी जा रही है। बहरहाल ये विवाद आज भी जारी है। इस बात को अनदेखा नहीं किया जा सकता कि हिंदी भाषा ने 70 साल की लंबी यात्रा की है। ये आश्चर्य की बात है कि कैसे एक स्थानीय बोली भारत में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा बन गई। इसका श्रेय उन समर्पित और दृढ़ संकल्प लोगों को जाता है जिन्होंने जन्म लेनेवाले राष्ट्र की नब्ज़ को पहचानकर हिंदी भाषा के प्रसार-प्रचार के लिये प्रयास किये।
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