हमारी प्राकृतिक धरोहर और इसके संरक्षण की चुनौतियां 

भारत को उसकी समृद्ध संस्कृति और ऐतिहासिक धरोहर के लिए जाना जाता है लेकिन हर कोई ये नहीं जानता या फिर उन्हें इस बात का एहसास नहीं है कि भारत की विविधतापूर्ण और बहुमूल्य प्राकृतिक विरासत भी है। विविधतापूर्ण देश भारत में पूरे विश्व की ज़मीन का सिर्फ़ 2.4 प्रतिशत हिस्सा ही है लेकिन यहां अभिलिखित प्रजातियों में से 7-8 प्रतिशत प्रजातियां मिलती हैं। भारत में पेड़ों की 45 हज़ार से ज़्यादा और पशुओं की 91 हज़ार प्रजातियां पाई जाती हैं। लेकिन दुख की बात ये है कि कुछ मुहिमों और प्रयासों के सिवाय हमारी प्राकृतिक घरोहर कुल मिलाकर उपेक्षा का ही शिकार रही है और हमारे पर्यावरण को बहुत नुक़सान हो रहा है। क्या आपको पता है कि सन 2001 और सन 2018 के दौरान भारत ने 1.6 मिलियन हेक्टेयर भूमि पर लगे वृक्ष खो दिए है? ये भूमि गोवा के भौगोलिक क्षेत्र से चार गुना ज़्यादा है। लेकिन ऐसा क्यों है कि हमारी प्राकृतिक धरोहर पर गंभीर ख़तरा मंडरा रहा है? इससे पहले कि प्राकृतिक धरोहर का एक बड़ा हिस्सा हम खो दें, सवाल ये है कि हमें इसे बचाने के लिए क्या किया जाना चाहिये?

हमारे ऑनलाइन शो हेरिटेज मैटर्स के इस सत्र “सेविंग इंडियाज़ बोटनिकल हेरिटेज”, में हमने हमारे पर्यावरण और जैवविविधता पर मंडरा रहे ख़तरों पर चर्चा की। इसके अलावा हमने हमारी प्राकृतिक धरोहर के संरक्षण के लिए चल रही मुहिमों और बरसों से इसे हो रहे नुकसान से किस तरह बचाया जाय, इस पर भी चर्चा की। इस सत्र के लिए हमारे मेहमान थे नैचुरल हेरिटेज डिविज़न, इंटैक के प्रिंसिपल डायरेक्टर मनु भटनागर, पर्यावरण इतिहासकार डॉ. लुइज़ा रॉड्रिग्ज़ और बालीपारा फ़ाउंडेशन के सह-संस्थापक तथा मैनेजिंग सदस्य प्रबीर बैनर्जी। इन सभी ने पर्यावरण संरक्षण के विभिन्न क्षेत्रों में काम किया है और उनके अनुभव से हमें पर्यावरण संबंधी स्थितियों को समझने में मदद मिली और ये भी कि हम हमारी प्रकृति के प्रति कैसे और जागरुक हो सकते हैं।

वो कौनसे मुद्दे हैं जिससे हमारी प्राकृतिक धरोहर जूझ रही है?

आज के समय में जलवायु परिवर्तन और वनों की कटाई का हमारे पर्यावरण पर क्या प्रभाव पड़ा है, ये साफ़ ज़ाहिर है। लेकिन हमारे इतिहास से पता चलता है कि कैसे शहर बनाने और अन्य मूलभूत सुविधाओं के लिए बड़ी संख्या में पेड़ों को काटा गया है। प्रो. डॉ. लुइज़ा रॉड्रिग्ज़ ने 19वीं सदी की शुरुआत में पश्चिमी घाटों और वनों के वाणीज्यीकरण, पेड़ों और मालाबार के वनों की कटाई जैसे मुद्दों पर गहरा शोध किया है। उन्होंने इतिहास के इस अध्याय पर चर्चा की। उन्होंने हमें समझाने की कोशिश की कि कैसे भारत में अंग्रेज़ों के शासन के आने से पश्चिमी घाटों के बड़े-बड़े जंगल नष्ट हो गए थे। ये जंगल बहुत बड़े क्षेत्रों में फैले हुए थे। “पश्चिमी घाट लकड़ी की अच्छी क़िस्मों के लिए जाने जाते थे जिनमें टीक, ब्लैकवुड, बबूल और अन्य क़िस्मों की पेड़ शामिल थे। अंग्रेज़ों के शासन के आने के साथ ही पूरे परिदृश्य (पश्चिम घाटों का) का नवीनीकरण हो गया। अंग्रेज़ों के शासन में वनों की कटाई बढ़ गई। अंग्रेज़ों ने बॉम्बे में जहाज बनाने जैसी कई मूलभूत सुविधाएं वाली परियोजनाएं शुरु की थीं…19वीं सदी में भी इमारती लकड़ी अंग्रेज़ों के लिए बहुत महत्वपूर्ण हो गई थी।” उन्होंने बताया कि अंग्रेज़ों ने जहाज़ और सार्वजनिक भवनों का निर्माण किया था और रेल पटरियां बिछाई थीं। इन सभी के लिए बड़ी तादाद में लकड़ियों की ज़रुरत पड़ी थी जिसकी वजह से वनों की कटाई की गई। एक तरफ़ वनों की कटाई हो रही थी तो दूसरी तरफ़ बॉम्बे का विकास हो रहा था।

लेकिन दुख की बात ये है कि आज भी हालात पहले की तरह ही हैं। वनों की कटाई उन समस्याओं में एक समस्या है जिससे आज हमारा पर्यावरण जूझ रहा है। प्राकृतिक धरोहर के संरक्षण से संबंधित कई परियोजनाओं से जुड़े मनु भटनागर ने चौंकाने वाली कुछ परिस्थितियों के बारे में बताया। उन्होंने कहा कि जलवायु परिवर्तन की वजह से इन दिनों मौसम में तेज़ी से बदलाव हो रहे हैं। बरसात का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि कैसे पहले बारिश हर जगह संतुलित तरीक़े से हुआ करती थी लेकिन अब बारिश बहुत और अक़्सर होती रहती है। शहरों में बाढ़ का आना भी एक मसला है।

भटनागर के अनुसार जलवायु के गर्म होने की वजह से हमारे शहरों में गर्मी बढ़ रही है और हम भवन बनाकर और पेड़ काटकर इस समस्या में और इज़ाफ़ा कर रहे हैं। उन्होंने बताया कि पिछले पांच सालों में एक करोड़ से ज़्यादा पेड़ काटे गए हैं। हम इमारती लकड़ियों के लिए पहाड़ों पर लगे पेड़ों को काट रहे हैं, हमारी नदियां नकाफ़ी हैं, हवा दूषित है, हमारे वन्य जीव लुप्त होते जा रहे हैं, जीवों की प्रजातियां विलुप्त होती जा रही हैं- ये तो समस्याओं में से बस कुछ ही समस्याएं हैं। “हम गंभीर स्थिति में हैं, हम कई संकटों के बीच रह रहे हैं।” उन्होंने ये भी बताया कि कैसे हम हमारी प्राकृतिक पूंजी को राष्ट्रीय पूंजी में शामिल नहीं करते हैं। अर्थव्यवस्था का विश्लेशण करते समय प्रकृति को हुए नुकसान को इसमें शामिल नहीं किया जाता हालंकि किया जाना चाहिए क्योंकि इसका हमारी अर्थव्यवस्था पर सीधा प्रभाव पड़ता है।

पूर्वी हिमालय पर संरक्षण के लिए कई मुहिमों का नेतृत्व कर रहे प्रबीर बैनर्जी ने भी कई महत्वपूर्ण बातों पर प्रकाश डाला। उन्होंने बताया कि लोग वन्यजीव के संरक्षण की बात करते हैं लेकिन वे भूल जाते हैं कि वन्यजीव तो एक घटक मात्र है, दरअसल ज़रुरी है पर्यावरण के संरक्षण की, जैवविविधता, संस्कृति और परिदृश्य को बचाने की। उन्होंने कहा कि हाल ही के अध्ययन से पता चला है कि भारत के सकल घरेलू उत्पाद का साठ प्रतिशत का संबंध सीधे जैवविविघता से है। “संरक्षण, परिदृश्य और धरोहर की परिकल्पना आपस में इतनी गुथी हुई कि लोगों को ये समझ में नहीं आता कि इसके प्रति समग्रतात्मक रवैया बहुत ज़रुरी है।”

हमारी प्राकृतिक धरोहर को बेहतर ढंग से बचाने के लिए क्या किया जाना चाहिए?

इसके पहले भी संरक्षण की कई बड़ी परियोजनाएं चलाई गई हैं जैसे बाघ-संरक्षण औऱ साइलेंट वैली संरक्षण परियोजना लेकिन हमारे सत्र में हमने पूर्वी हिमालय में बालीपारा फ़ाउंडेशन द्वारा चलाई गई परियोजनाओं का उदाहरण लिया। पिछले 15 सालों में बालीपारा फ़ाउंडेशन कई संरक्षण कार्यक्रमों में क्षेत्र के स्थानीय लोगों के साथ काम करता आ रहा है। प्रबीर बैनर्जी का मानना है कि क्षेत्र के स्थानीय लोगों के साथ काम करना एक बेहतर तरीक़ा है क्योंकि वे लोग उनकी प्राकृतिक धरोहर और आसपास के इलाक़े को बेहतर समझते हैं। क्षेत्र की समृद्ध विविधता का ज़िक्र करते हुए बैनर्जी ने कहा कि इस क्षेत्र में चार सौ से ज़्यादा जातीय समुदाय हैं, चालीस से ज़्यादा बोलियां हैं और तीन सौ से ज़्यादा उप-बोलियां हैं। यहां पवित्र चोटियां, नदियां, प्राणी और उपवन भी हैं।

बालीपारा फ़ाउंडेशन चार हज़ार हेक्टेयर भूमि पर फैली पांच लाख प्राकृतिक संपदा की देखभाल करता है जिसकी वजह से असम में सात देशज समुदायों के दस हज़ार से ज़्यादा लोगों का जीवन प्रभावित हुआ है। बैनर्जी के अनुसार हम स्थानीय लोगों को उन्हें सिखाने के लिए बल्कि उनसे सीखने के लिए अपने कार्यक्रमों में शामिल करते हैं। उन्होंने कहा कि फ़ाउंडेशन ने प्रकृतिअर्थ शब्द इजाद किया है जिसका मतलब होता है प्रकृति और अर्थशास्त्र के बीच परस्पर निर्भरता। फ़ाउंडेशन इसी के सिद्धांत पर काम करता है।

हमारी प्राकृतिक संपदा के संरक्षण में स्थानीय लोगों को शामिल करने का महत्व बताते हुए बैनर्जी ने कहा, “एक चीज़ जो हमने सीखी वो ये कि आप परिदृश्य के संरक्षक हैं इसलिए आपकी संस्कृति और आपकी धरोहर समुदाय हैं। इन समुदायों के पास सदियों पुराना पारंपरिक ज्ञान है। हमें उनसे सीखना होगा लेकिन हां, प्रक्रिया को आसान और तेज़ बनाने में हम विज्ञान के माध्यम से उनकी मदद कर सकते हैं, हम दस्तावेज़ तैयार करने में उनकी मदद कर सकते हैं।”

मनु भटनागर ने जल और नदी प्रबंधन की परियोजनाओं पर काम किया है। पचास ज़िलों में गंगा नदी का नक़्शा बनाने की हाल ही की परियोजना के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा कि हमारी नदियों को फिर से भरना बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि आज वे बुरी स्थिति में हैं। नदियां प्रदूषित हैं और उनका पानी कम होता जा रहा है क्योंकि लोग नदियों से पानी निकालते हैं। उन्होंने कहा कि प्रदूषण संबंधी समस्याओं के हल के अलावा इस तरह के कार्यक्रम की नीतियां भी नदी जलाशयों पर केंद्रित हैं। इसके अलावा इन नीतियों के ज़रिए नदी के बहाव को फिर बहाल करने और उसे पुनर्जीवित करने के उपाय भी खोजे जा रहे हैं।

चूंकि नदियां परिदृश्य की धमनियां होती हैं, इसलिए वे खेतीबाड़ी की पोषक होती हैं, इसमें जलीय जीवन होता है और कई समुदायों की इससे रोज़ी रोटी चलती है। भटनागर के अनुसार बेहतर तरीक़े से जल प्रबंधन बहुत ज़रुरी है। हमारी नदियों का स्वस्थ रहना बहुत ज़रुरी है। “हमें हमारी सभी गतिविधियों के पहलुओं में जैवविविधता को मुख्यधारा में लाने की ज़रुरत है, ये चाहे शहरी इलाक़े हों, विकास हो या फिर मकान बढ़ाने हों। यहां तक कि कृषि-जैवविविधता में भी बहुत कुछ करने की ज़रुरत है।”

डॉ. रॉड्रिग्ज़ का मानना है कि वनस्पति शास्त्र और इतिहास जैसे विषयों के बीच अंतर्विषयक दृष्टिकोण एक बढ़िया तरीक़ा हो सकता है। उन्होंने कहा कि भारत की वनस्पति पर अंग्रेज़ों ने जो पुरालेख तैयार किये थे वो बहुत विस्तृत और व्यापक हैं। अंग्रेज़ों के बाद इस तरह का प्रलेखन तैयार करने का कोई प्रयास नहीं हुआ है। तो इस तरह प्रलेखन और शोध से हमें हमारी प्राकृतिक धरोहर को समझने में मदद मिल सकती है। डॉ. रॉड्रिग्ज़ का सुझाव था कि लोगों को हमारी समृद्ध जैवविविधता के बारे में जागरुक करने के लिए प्रदर्शनियों और सेमिनारों का आयोजन तथा बाग़ों और पार्कों के बारे में जानकारी देना आदि बेहतर तरीक़े हो सकते हैं।

हम बहुत तेज़ी से हमारी प्राकृतिक धरोहर को खोते जा रहे हैं और स्थिति जितनी दिखाई देती है उससे कहीं ज़्यादा भयावह है। हम आशा करते हैं कि जो लोग हमारी प्राकृतिक संपदा के संरक्षण के लिए काम कर रहे हैं, उनसे प्रेरणा लेकर, हम पर्यावरण के प्रति और अधिक जागरुक बनेंगे और इसके फलने-फूलने में मदद करेंगे।

ये सत्र अंग्रेज़ी में हमारे चैनल पर दिखाया गया है। आप इस सत्र की पूरी परिचर्चा अंग्रेज़ी में यहां देख सकते हैं-

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