शेर-ए-पंजाब महाराजा रणजीत सिंह द्वारा स्थापित सिख राज्य एक विशाल एवं समृद्ध साम्राज्य था। हालाँकि ये साम्राज्य ज्यादा लम्बे समय तक नहीं चल सका; मगर उस कम समय में भी इसने न सिर्फ पंजाब प्रांत के ज्यादातर हिस्से बल्कि हिमाचल, जम्मू और कश्मीर के पहाड़ी तथा पूर्व दिशा में ख़ैबर दर्रे तक के इलाके अपने अधिकार में ले लिए।
इतने बड़े साम्राज्य की वृद्धि और सफलता में एक शख्स का नाम अत्यंत महत्त्वपूर्ण है, जिन्होंने सिख साम्राज्य को ऊंचाइयों तक पहुँचाया। सन् 1791 में जन्में हरि सिंह नलवा सिख ख़ालसा फौज के कमांडर-इन-चीफ थे, जिनके नेतृत्व में सिख साम्राज्य ने एक के बाद कई युद्ध जीते और सिख साम्राज्य को नई बुलंदियों तक पहुंचाया।
उनका तमाम जीवन सैन्य उपलब्धियों से भरा हुआ था, जो जमरौद के निर्णायक युद्ध में, उनके शहीद होने तक जारी रहा। जब भी कहीं सरदार नलवा की शहादत का ज़िक्र होता है, तो उनकी अंतिम यादगार के तौर पर हमेशा पाकिस्तान के मौजूदा प्रांत ख़ैबर पख्तुनखवा के जमरौद किले में मौजूद उनकी समाधि के बारे में ही बात की जाती है। जबकि उसी दौरान उनके परिवारिक सदस्यों द्वारा उनकी गुजरांवाला शहर वाली हवेली में निर्मित उनकी दूसरी समाधि के बारे में कभी बात नहीं की जाती। मानो इतिहास ने भी सरदार नलवा की इस दूसरी समाधि के अस्तित्व और पहचान को भुला-सा दिया है।
एक योद्धा नेता
हरि सिंह नलवा के सैन्य जीवन की शुरुआत 14 साल की उम्र में सन् 1804 में महाराजा रणजीत सिंह के निजी रक्षक या सहायक के रुप में हुई थी। बहुत जल्द ही उन्होंने तरक्की की और रेजीमेंटल जनरल बन गए। उन्होंने कसूर, सियालकोट, अटक, मुल्तान और कश्मीर जैसे कई युद्ध जीते और सन् 1819 में वे पूरी सेना के कमांडर-इन-चीफ बन गए। सन् 1821 में उन्हें कश्मीर का सूबेदार (गवर्नर) बना दिया गया, जो कुछ ही समय पहले जीता गया था। वे अगले दो साल तक इस पद पर बने रहे।
सन् 1822 में उन्हें साम्राज्य के पूर्वी सीमांत प्रांतों की देखरेख के लिए कश्मीर से बुलवा लिया गया। सिख साम्राज्य के पूर्वी सीमांत प्रांतों में पाकिस्तान के मौजूदा ख़ैबर पख़्तूनख़वा प्रांत के इलाके आते थे। उस समय तक वे पश्तून इलाके, अफगानिस्तान के साथ लंबे राजनीतिक और सांस्कृतिक संबंधों की वजह से, राजनीतिक रुप से संगठित नहीं हो पाए थे। अगले कुछ सालों तक (सन् 1822-24) नलवा के नेतृत्व में सिखों ने इस क्षेत्र में मानसेहरा, नौशहरा और सिरीकोट के युद्ध जीते। सन् 1827 में चरमपंथी नेता सैयद अहमद बरेलवी सिख साम्राज्य के खिलाफ ज़िहाद के लिए इस क्षेत्र के पठानों को मनाने में सफल हो गया था। उस दौरान नलवा बगावत को नियंत्रित करने में व्यस्त थे। बरेलवी की पराजय और सन् 1831 में बालाकोट युद्ध में उसकी मौत के साथ ही बगावत का अंत हुआ।
इसके बाद, सन् 1835 में नलवा का पेशावर किले और उससे सटे क्षेत्रों पर पूरी तरह नियंत्रण हो गया। सन् 1836 में उन्होंने अपने जीवन का अंतिम बड़ा हमला जमरौद पर किया। उस समय ये एक छोटा सा गाँव था, परंतु अपनी भौगोलिक स्थिति की वजह से इसका सामरिक महत्व था। ये गांव ख़ैबर दर्रे के मुहाने पर स्थित था, जो पहाड़ों के दक्षिणी तरफ स्थित था। जमरौद पर क्षेत्र के स्थानीय कबीले का एकाधिकार कायम था। इस क्षेत्र को जीतने के बाद नलवा ने वहां स्थित एक छोटे से किले की मुरम्मत करवाई और सिर्फ 54 दिनों में उसके आसपास किलेबंदी कर दी। इसका नाम उन्होंने ‘फतेहगढ़’ यानी ‘जीत का क़िला’ रखा। दूर से ये किला एक समुंदरी जहाज की तरह दिखाई देता है, जिसके चारों तरफ गहरी खाई बनाई गई थी। इसका कुछ हिस्सा आज भी मौजूद है।
निधन और पहला स्मारक
बहरहाल, अगले वर्ष, सन् 1837 में, अफगानिस्तान के कमांडर दोस्त मोहम्मद ख़ां के नेतृत्व में अफगान सैनिकों ने इस नए बने किले पर हमला कर दिया। दोस्त मोहम्मद ख़ां की सेना में सात हज़ार घुड़सवार सैनिक और बीस हज़ार कबायली थे। दूसरी तरफ किले में सिर्फ आठ सौ सिख सैनिक थे, जिसका नेतृत्व महां सिंह मीरपुरिया कर रहे थे, जो एक कश्मीरी ब्राह्मण थे। किन्तु बाद में उन्होंने सिख धर्म अपना लिया था। वे जनरल सरदार हरि सिंह नलवा के सैकंड-इन-कमांड जनरल थे। उस दौरान महाराजा रणजीत सिंह के पौत्र कंवर (राजकुमार) नौनिहाल सिंह के विवाह समारोह में विशेष तौर पर बुलाए गए अंग्रेज़ अधिकारियों, राजाओं तथा नवाबों को प्रभावित करने एवं उनके समक्ष शक्ति प्रदर्शन के लिए ख़ैबर क्षेत्र में तैनात बड़ी गिनती में सिख सैनिकों को लाहौर बुला लिया गया था।
उस समय हरि सिंह नलवा पेशावर किले में थे और बीमारी की स्थिति में हकीमों की सलाह पर वहां आराम कर रहे थे। जमरौद में हालात बिगड़ते देख महां सिंह मीरपुरिया ने सरदार नलवा के पास फौजी मदद के लिए लिखित संदेश भेजा। नलवा ने उसके पत्र के साथ ही अपनी ओर से एक पत्र लिख महाराजा के पास लाहौर भिजवा दिया और तुरंत फौजें जमरौद भेजने की मांग की। लाहौर से कोई जवाब न आने पर तथा जमरौद से महां सिंह की ओर से फौजी मदद के लिए आखिरी पत्र मिलते ही नलवा अपने दस हज़ार सैनिकों के साथ जमरौद रवाना हो गए, जिन्हें देखकर अफगान सैनिक पीछे हटने लगे।
वापस लौटते अफगान सैनिकों का नलवा ने पीछा किया, लेकिन तभी एक अफगान सैनिक ने मैचलॉक (माचिस की तीली से जलाकर चलाने वाली बंदूक) से उन पर गोली चला दी और नलवा घायल हो गए। जमरौद किले तक पहुंचते-पहुंचते नलवा की स्थिति गंभीर हो गई और फिर कुछ ही पलों बाद उनका 30 अप्रैल सन् 1837 को निधन हो गया।
उनका दाह संस्कार किले में ही किया गया और उनके मुंहबोले बेटे महां सिंह मीरपुरिया ने संस्कार की सारी रस्में निभाईं। बाद में नलवा की याद में किले में ही उनकी समाधि अथवा स्मारक बनाया गया।
सन् 1902 में अंग्रेज़ी शासन में, पेशावर के एक धनवान बाबू गज्जू मल कपूर ने इस समाधि की मुरम्मत करवाई, क्योंकि ये टूटने लगी थी। वैसे, समाधि के पास लगी पट्टिका पर गलत तारीख यानी सन् 1892 लिखा हुआ है।
हरि सिंह नलवा द्वारा बनवाया जमरौद किला सिख राज्य की समाप्ति के बाद सैनिक छावनी में तब्दील हुआ और देश के बँटवारे के बाद से ये पाकिस्तान सेना के नियंत्रण में आया। चूंकि ये संवेदनशील इलाका है, इसलिए यहां आम लोगों को आने की इजाज़त नहीं है।
पेशावर से करीब 15 कि.मी के फासले पर बाब-ए-ख़ैबर है। ये ख़ैबर दर्रे में प्रवेश का आधिकारिक प्रवेश मार्ग है। यहां से दाहिनी तरफ एक छोटी सी सड़क जाती है। ये सड़क करीब 1.3 कि.मी. दूर जाकर जमरौद किले के गेट नंबर दो पर ख़त्म होती है। हालांकि किले का यह द्वार अस्थाई रुप से बंद है, लेकिन सामान्य दिनों में अगर आप इस गेट से भीतर जाएं, तो आपको दाहिनी तरफ एक पुराना कुआं दिखाई देगा। माना जाता है, कि इसका निर्माण खुद हरि सिंह नलवा ने करवाया था। यहां से कुछ आगे बढ़ने पर छोटी सी सीढ़ियां हैं, जो ऊपर की तरफ जाती हैं।
ऊपर पहुंचने पर आपको एक छोटा-सा दरवाज़ा दिखाई देगा, जो नलवा की समाधि का द्वार है। इसके भीतर सीमेंट का छह इंच का सफेद चैकोर स्थल है, जिसके भीतर हरि सिंह नलवा की चार इंच की समाधि है। कहा जाता है, कि आज भी पाकिस्तानी सैनिक अधिकारी इस समाधि स्थल पर महान जनरल नलवा को पूरा सम्मान देते हुए दाखिल होते हैं।
नलवा की दूसरी समाधि- पैतृक शहर में एक स्मारक
हालांकि जमरौद समाधि किसी के लिए भी रहस्य या अनजान नहीं है, लेकिन कई लोगों को या तो इस बात की जानकारी नहीं है, कि हरि सिंह नलवा की एक दूसरी समाधि भी है, और अगर उन्हें दो समाधियों के बारे में पता भी है, तो यह पता नहीं है कि दूसरी समाधि कहाँ है।
इस बारे में जानने के लिए हमें 30 अप्रैल सन 1837 को, हरि सिंह नलवा के निधन के बाद हुई घटनाओं पर नजर दौड़ानी होगी। नलवा के निधन के फौरन बाद लाहौर दरबार को इस बारे में सूचना दी गई थी।
महाराजा रणजीत सिंह के सैन्य इतिहासकार दीवान अमर नाथ ने “ज़फरनामा रणजीत सिंह” में लिखा है, कि वह महाराजा जो अपनी मां के निधन पर नहीं रोया था, वे नलवा के निधन की ख़बर सुनकर फूट-फूटकर रोने लगे थे। दीवान अमर नाथ के अनुसार महाराजा ने दरबारी भाषा फारसी में कहा था, “आज सिख साम्राज्य का मजबूत स्तंभ ढह गया है और इस साम्राज्य में दरारें आ गई हैं।” महाराजा का ये कथन सही साबित हुआ और नलवा के निधन के एक दशक के भीतर ही उस विशाल सिख साम्राज्य का ऐसा पतन हुआ, जिसकी किसी ने कभी कल्पना भी नहीं की थी।
सरदार हरी सिंह नलवा की गुज़रांवाला शहर की आबादी सिविल लाईन के मुनीर चैक में मौजूद दूसरी समाधि तथा हवेली को लेकर पाकिस्तानी लेखकों तथा गुजरांवाला प्रशासन में भ्रम बना हुआ है। जिस के चलते उनके द्वारा सरदार नलवा की महलनुमा हवेली तथा उसमें मौजूद समाधि को भूलवंश महाराजा रणजीत सिंह का रैस्ट हाऊस अथवा उनकी शिकारगाह बता कर गुमराह किया जा रहा है।
20वीं सदी के प्रसिद्ध सिख विद्वान बाबा प्रेम सिंह होती मरदान ने “जीवन इतिहास-हरि सिंह नलवा” किताब में सरदार हरी सिंह नलवा की गुज़रांवाला शहर में मौजूद समाधि का जिक्र करते हुए लिखा है, कि 30 अप्रैल 1837 को नलवा के शहीद होने के पश्चात् उनके पालित पुत्र महां सिंह मीरपुरिया द्वारा उनका संस्कार करने के कुछ दिनों बाद उनके बड़े सुपुत्र जवाहर सिंह नलवा (बीबी राज कौर के बड़े सुपुत्र) जमरौद से अपने पिता की समाधि की कुछ भस्म (राख) गुजरांवाला ले आए तथा हरि सिंह नलवा की दूसरी पत्नी बीबी देसा ने अपने पति की समाधि उनके बाग की बारादरी से 12 कदमों की दूरी पर उस भवन के सामने बनवाई, जहां वे स्वयं निवास करती थीं।
मौजूदा समय उक्त हवेली, बारादरी तथा सरदार नलवा की एक ऊँचे थड़े पर निर्मित समाधि आज भी मौजूद है और पिछले लंबे अर्से से वहां आज सैंट मेरी काॅनवेंट गर्ल्स स्कूल मौजूद है ।
हरि सिंह नलवा द्वारा गुजरांवाला में बनाई गई उक्त हवेली, बारादरी तथा बाग के बारे में बैरन चाल्र्स हूगल ने ‘ट्रेवल्ज़ इन कश्मीर एंड पंजाब’ में तथा लैफ्टीनेंट विलियम बार ने ‘जनरल आॅफ ए मार्च फ्राॅम दिल्ली टू काबुल’ में लिखा है, कि यह महाराजा रणजीत सिंह के शेष सभी सरदारों, राजाओं तथा जनरलों द्वारा बनाई गई हवेलियां एवं रिहायशी किलों से कहीं ज्यादा आकर्षक तथा खूबसूरत थी। एतिहासिक दस्तावेजों के अनुसार 8 फरवरी 1837 को यूरोपियन यात्री बैरन चाल्र्स हूगल तथा जी.टी. वाईन ने हरि सिंह नलवा की गुजरांवाला की उक्त हवेली देखी और ये दोनों यात्री उनकी मेहमान-नवाज़ी तथा मेलजोल के ढंग से बहुत प्रभावित हुए।
हुगल गुजरांवाला को ‘गुजराऊली’ नाम से संबोधित करते हुए लिखते हैं, कि हरि सिंह नलवा का राजमहल गुजराऊली के किले में स्थित था (इस किले का काफी हिस्सा आज भी मौजूद है), यहां एक खूबसूरत और विशाल संतरों, मालटों तथा विभिन्न प्रजातियों के फूलों का बाग था। लैफ्टीनेंट विलियम बार ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि हरि सिंह नलवा के महल की तीन मंज़िलें थीं और उसे बड़े शहाना तरीके से सजाया गया था। इस बाग में सरदार साहिब (हरि सिंह नलवा) ने तीन शेर भी पाले हुए थे। जिनकी खुराक तीन बकरे रोज़ाना थी।
सरदार नलवा के देहांत के बाद उनकी दूसरी पत्नी बीबी देसा तथा उनके सुपुत्रों-पंजाब सिंह नलवा तथा अर्जन सिंह नलवा को उक्त सिविल लाईन वाली हवेली, बाग तथा बारादरी मिल गई। जबकि उनकी पहली पत्नी बीबी राज कौर के सुपुत्रों-जवाहर सिंह नलवा तथा गुरदित्त सिंह नलवा ने गुजरांवाला के मौजूदा बाजार कसेरा वाली हरि सिंह नलवा की पैदायशी हवेली में अपनी रिहायश रखी।
देश के विभाजन के बाद एक मुस्लिम धार्मिक गुरु हजरत हाफिज गुलाम रसूल इस हवेली में रहने लगे तथा उनके निधन के बाद वहां उनकी दरगाह बना दी गई, जो आज भी मौजूद है।
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