ग़ाज़ियाबाद: हड़प्पा, निज़ाम और विजेता

हाल ही तक दिल्ली- राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (NCR) में ग़ाज़ियाबाद शहर को “अपराधों की राजधानी” माना जाता था लेकिन पिछले कुछ सालों में इसके चरित्र में बहुत बदलाव हुआ है। एक तरफ़ जहां ये शहर भविष्य की तरफ़ तेज़ी से क़दम बढ़ रहा है, लेकिन इसके सुनहरे और रोचक अतीत के बारे में बहुत कम लोग जानते है। इसका इतिहास लगभग 4500 साल पुराना है। इसका हैदराबाद के निज़ामों के साथ भी गहरा नाता क्यों रहा है ? यह भी एक अहम सवाल है।

ग़ाज़ियाबाद का नाम आसफ़ जाही वंश के संस्थापक और हैदराबाद के पहले निज़ाम मीर क़मरुद्दीन ख़ान आसफ़ जाह-प्रथम के बड़े पुत्र ग़ाज़ीउद्दीन ख़ान फ़िरोज़ जंग-द्वितीय (1709-1752) के नाम पर रखा गया था। आसफ़ जाह (शासनकाल 1724-1748) ने निधन से पहले, ये तय कर लिया था कि उनका पुत्र मुग़ल दरबार में एक स्थाई सदस्य बने । लेकिन ग़ाज़ीउद्दीन ख़ान, बादशाह अहमद शाह बहादुर के शासनकाल में जनरल के पद तक पहुंच गया। हालंकि ग़ाज़ीउद्दीन ख़ान न तो अपने पिता का उत्तराधिकारी बन पाया और न ही दक्क्न की दौलतमंद रियासत उसके हाथ लगी ।लेकिन दिल्ली से क़रीब 40 कि.मी. दूर ग़ाज़ियाबाद शहर की वजह से वह अमर हो गया।

लेकिन ग़ाज़ियाबाद का इतिहास कहीं अधिक प्राचीन है। ग़ाज़ियाबाद क्षेत्र यमुना की उपनदी हिंडन नदी के उपजाऊ मैदान पर स्थित है। ग़ाज़ियाबाद के ज़रा बाहर गढ़मुक्तेश्वर ब्लॉक में एक छोटा-सा गांव आलमगीरपुर है, जहां भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने 1958-59 में खुदाई की थी।

यहां ऐसी बस्ती के अवशेष मिले थे, जो हड़प्पा-सभ्यता (3300-1300 ई.पू.) के समय हुआ करती थी। खुदाई में छत की टाइल्स, बर्तन, कप, नलिकाएं, घनाकार पासे, मनका, टेराकोटा टिकिया, ठेले और एक कुबड़े सांड तथा एक सांप की छोटी मूर्तियां मिली थी। सबसे महत्वुपूर्ण बात ये है, कि यह सिंधू घाटी अथवा हड़प्पा सभ्यता के सुदूर पूर्वी क्षेत्र में है। इसकी खोज से पता चलता है, कि हड़प्पा सभ्यता कितनी फैली हुई थी।

सन1950 के दशक में ग़ाज़ियाबाद में आलमगीरपुर ही नहीं बल्कि मोहननगर, जिसे कसेरी टीला भी कहा जाता है, की भी खोज हुई थी। यहां खुदाई में भूरे रंग के सामान के अवशेष मिले थे। इतिहासकार इसे रंग-बिरंगे भूरे रंगों के सामान की संस्कृति मानते है जो 1500 ई.पू. के बाद हड़प्पा के पतन के बाद शुरु हुई थी। बाद में वेदिक काल में कुरु राजवंश ने इस क्षेत्र पर शासन किया जिसमें दिल्ली (इंद्रप्रस्थ), हस्थिनापुर, बाग़पत औऱ ग़ाज़ियाबाद क्षेत्र शामिल थे।

इसके बाद यहां मांडा, मौर्य, कुषाण, गुप्त, मुखारिस और गुर्जर प्रतिहारों जैसे हिंदू राजवंशों का शासन रहा। 11वीं सदी में भारत पर नौवें हमले के दौरान मोहम्मद ग़ज़नवी ने राजपूत सरदार हरिदत्त से ये क्षेत्र जीत लिया। हरिदत्त ने हारपुर या हरिपुर की स्थापना की थी, जिसे आज हापुड़ नाम से जाना जाता है और जो ग़ाज़ियाबाद के बाहरी इलाक़े में है।

हिंडन नदी के पास उपजाऊ ज़मीन की वजह से यहां लोग बस गए थे और अच्छी खेतीबाड़ी होती थी, लेकिन पानीपत और प्लासी की तरह ये जगह भी सेनाओं का युद्ध मैदान बन गया था। यहां कई ऐतिहासिक जंगें लड़ी गईं। 14वीं सदी में दिल्ली सल्तनत के पतन के दौरान मध्य एशिया से आए तैमूर (1336-1405) की सेना ने यहां ख़ूब लूटपाट की थी। दिसंबर सन1398 में तैमूर ने ग़ाज़ियाबाद से 18 कि.मी. दूर लोनी क़िले पर हमला कर इसे तबाह कर दिया और वहां रहने वालों का क़त्ल-ए-आम कर दिया। तैमूर 17 दिसंबर सन 1398 को सुल्तान नसीरउद्दीन महमूद शाह तुग़लक़ की सेना को हराकर दिल्ली में दाख़िल हुआ और पूरे शहर में लूटपाट मचा दी।

मुग़ल प्रभाव

16वीं सदी में दिल्ली पर मुग़लों का शासन हो गया और इसके साथ ही हिंडन नदी के तट पर नए सिरे से खेतीबाड़ी होने लगी, जिसकी वजह से इस क्षेत्र में ख़ुशहाली आ गई। ये बस्तियां मुग़ल बादशाह शाहजहां द्वारा शाहजानाबाद बनाने के बाद 17वीं सदी में यहां बाद हुईं। इस दौरान यमुना नदी के पूर्वी क्षेत्र पर पटपड़गंज और शाहदरा जैसे माल-ढुलाई और व्यापार केन्द्रों का भी विकास हुआ ।

मुग़ल दरबार में ग़ाज़ीउद्दीन फ़िरोज़ जंग-प्रथम (1649-1710) एक शक्तिशाली जनरल हुआ करता था , जिसने दक्कन में गोलकुंडा पर मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब की जीत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। ग़ाज़ीउद्दीन ने दिल्ली में मज़हबी पढ़ाई के लिए एक मदरसा भी बनवाया था, जो बाद में प्रसिद्ध दिल्ली कॉलेज बन गया, जिसे आज ज़ाकिर हुसैन कॉलेज के नाम से जाना जाता है। उसका पुत्र मीर क़मरउद्दीन ख़ान भी औरंगज़ेब के दरबार में वज़ीर था औऱ जो बाद में मशहूर निज़ाम-उल-मुल्क, आसफ़ जाह-प्रथम बना।

लेकिन सन 1707 में औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद मुगल साम्राज्य का पतन होने लगा और कमज़ोर बादशाह शासन करने लगे। मुग़ल दरबार की साजिशों से तंग आकर निज़ाम-उल-मुल्क सूबेदार की हैसियत से दक्कन चला गया, लेकिन उसका बड़ा पुत्र ग़ाज़ीउद्दीन फ़िरोज़ जंग-द्वितीय दिल्ली के मामले संभालता रहा।

सन 1738 में नादिर शाह के हमले के बाद ग़ाज़ीउद्दीन फ़िरोज़ जंग-द्वितीय दिल्ली छोड़कर ग़ाज़ीउद्दीन नगर में रहने लगा जिसे आज ग़ाज़ियाबाद कहते हैं। वहां उसने 120 कमरों की एक कारवां सराय बनवाई थी, लेकिन दुख की बात ये है कि आज वहां इसका कोई नाम-ओ-निशान नहीं है। हालांकि, कुछ प्रमाण ये बताते हैं , कि इस शहर की स्थापना गाज़ीउद्दीन खान फिरोज जंग तृतीय ( इमाद-उल-मुल्क) ने की थी। मगर सरकारी रिकॉर्ड्स में ये तो स्पष्ट है कि शहर की स्थापना सन 1740 में हुई थी।

ग़ाज़ीउद्दीन के पिता निज़ाम-उल-मुल्क ने दक्कन में एक स्वतंत्र साम्राज्य की स्थापना की थी। सन 1748 में उनके निधन के बाद ग़ाज़ीउद्दीन ने दिल्ली छोड़कर अपने पिता के साम्राज्य को पाने की कोशिश की लेकिन इस मामले में उसके भाईयों ने बाज़ी मार ली। सन 1752 में औरंगाबाद में ग़ाज़ीउद्दीन का निधन हो गया और उसे वहीं दफ़ना दिया गया।

इस बीच ग़ाज़ीउद्दीन का पुत्र इमाद-उल-मुल्क (ग़ाज़ीउद्दीन फ़िरोज़ जंग-तृतीय) दिल्ली में वज़ीर के पद पर बना रहा और मुग़ल दरबार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा। इमाद-उल-मुल्क सन 1759 में मुगल बादशाह आलमगीर-द्वितीय की हत्या में भी शामिल था। आलमगीर-द्वितीय के शासनकाल में शाही परिवार और अवाम मे असंतोष बढ़ने लगा था और बादशाह दरबार के लोगों के बढ़ती ताक़त को भी नहीं समझ पा रहा था, जिन लोगों का वह ख़ुद सम्मान करता था। असम का गवर्नर रह चुके इमाद-उल-मुल्क ने इस हत्या के लिए मराठों के साथ सांठगांठ की थी।

युद्ध के मैदान के रुप में ग़ाज़ियाबाद ने रोहिल्ला सरदार नजीबउद्दौला और जाट शासक राजा सूरज मल की सेनाओं के बीच युद्ध भी देखा था। ये युद्ध 25 दिसंबर सन 1763 को हिंडन नदी के किनारे शाहदरा के पास हुआ था, जिसमें सूरज मल मारा गया था।

उसके अगले साल सन 1764 में बक्सर की लड़ाई के बाद, जिसमें ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने मुग़लों, अवध और बंगाल की संयुक्त सेना को हराया था, मुग़ल बादशाह शाह आलम-द्वितीय दिल्ली और इसके आसपास का इलाक़ा छोड़कर इलाहबाद चला गया जहां वह छह साल तक रहा। सन 1771 में मुग़ल बादशाह, मराठा सरदार महदजी सिंधिया की संरक्षण में दिल्ली वापस आया और ये क्षेत्र मराठों के नियंत्रण में हो गया। दूसरे एंग्लो-मराठा युद्ध के बाद सन 1803 में अंग्रेज़ों ने दिल्ली और इसके आसपास के क्षेत्रों पर कब्ज़ा कर लिया जिसमें ग़ाज़ियाबाद भी था।

विद्रोह के दौरान रणभूमि

अंग्रेज़ दिल्ली और इसके आसपास बसना शुरु हो गए थे। दिल्ली और मेरठ सैन्य छावनी के बीच एक छोटे से गांव के रुप में ग़ाज़ियाबाद पर अंग्रेज़ों का कब्ज़ा हो गया था। लेकिन सन 1857 के विद्रोह के दौरान चीज़ें बदल गईं। 30-31 मई सन 1857 को हिंडन नदी के तट पर स्थानीय क्रांतिकारियों और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच लड़ाई हुई। क्रांतिकारी अपने साथ दादरी और पिलखुवा जैसे पास के इलाक़ों से सेना लेकर आए थे। उन्होंने अंग्रेज़ों से जमकर लोहा लिया और अंग्रेज़ों के बहुत से सैनिक हताहत हुए, लेकिन जीत अंग्रेज़ों की हुई। इतिहास में इस युद्ध को “ग़ाज़ीउद्दीन नगर की लड़ाई” के रुप में जाना जाता है।

बदलाव की हवा

19वीं सदी के मध्य में ग़ाज़ियाबाद, मेरठ ज़िले का हिस्सा बन गया। ये एक ऐसा केंद्र बन गया जहां प्रसिद्ध मुस्लिम सुधारक सर सय्यद अहमद ख़ां ने अपने पुनरुत्थान आंदोलन के तहत एक शैक्षिक संस्थान की स्थापना की। सर सय्यद अहमद ख़ां इस आंदोलन के ज़रिए मुसलमानों के सामाजिक उत्थान के लिए दिन रात काम कर रहे थे।

19वीं सदी के अंत में जब दिल्ली और मुल्तान के बीच रेल सेवा शुरु हुई तो ग़ाज़ियाबाद में भी रेल्वे स्टेशन बन गया। तभी “ग़ाज़ीउद्दीन नगर” नाम को छोटा कर ग़ाज़ियाबाद कर दिया गया।

सन 1940 के दशक में यहां कारख़ाने और उद्योग लग गए और इस तरह एक औद्योगिक नगर के रुप में इसकी पहचान बन गई। विभाजन के बाद पाकिस्तान से आए व्यापारी यहां आकर बस गए और कारख़ानों की संख्या बढ़ गई। सन 1951 में यहां तीस कारख़ाने हुआ करते थे।

इसके कुछ साल पहले सन 1949 में ग़ाज़ियाबाद में शराब की भट्टियां बन गईं और यहां देश की मशहूर शराब बनने लगी। यहां शराब की भट्टी नरेंद्र नाथ मोहन ने डायर मेकिन एंड कंपनी लिमिटेड के साथ मिलकर लगाई थी। डायर मेकिन एंड कंपनी लिमिटेड इसके पहले सन 1855 में कसौली और सोलन में शराब की फ़ेक्ट्री लगा चुकी थी। इस कंपनी की स्थापना, एडवर्ड डायर ने की थी जो जलियांवाला नरसंहार के जनरल डायर का पिता था। सन 1967 में कंपनी का नाम मोहन मेकिन ब्रूरीज़ लिमिटेड हो गया और इसके बाद का इतिहास तो हम सब जानते हैं। दुनिया की मशहूर रम में से एक, “ओल्ड मोंक” की रचना ग़ाज़ियाबाद में ही हुई थी।

एक बड़े औद्योगिक नगर के रुप में ग़ाज़ियाबाद को उभरने में ज़्यादा समय नहीं लगा। इसकी वजह ये थी, कि ग़ाज़ियाबाद दिल्ली के क़रीब था, ये ऊपरी गंगा दोआब जैसी उपजाऊ ज़मीन और ग्रैंड ट्रंक रोड पर स्थित था। इस तरह ग़ाज़ियाबाद पूर्वी भारत का प्रवेश-द्वार बन गया था। व्यापारियों के लिए ये सब अनुकूल परिस्थितियां थीं।

सन 1960 में राज्य प्रशासन ने औपचारिक रुप से ग़ाज़ियाबाद को एक औद्योगिक क्षेत्र का दर्जा दे दिया जिससे स्थानीय अर्थ-व्यवस्था और मज़बूत हो गई। सन 1976 में ग़ाज़ियाबाद ज़िला बना दिया गया जिसमें, मेरठ और बुलंदशहर ज़िलों के कुछ क्षेत्र भी शामिल कर दिए गए । उत्तर प्रदेश में आज कानपुर के बाद ग़ाज़ियाबाद सबसे बड़ा औद्योगिक शहर है।

एक क्रांतिकारी का घर

ग़ाज़ियाबाद क्रांतिकारी दुर्गा वोहरा का निवास स्थान भी रह चुका है। दुर्गा वोहरा को दुर्गा भाभी के नाम से जाना जाता था। लाहौर में वह एक ट्रैन से यात्रा करने के लिए भगत सिंह की पत्नी बनी थी ताकि पुलिस उन्हें सामान्य नया शादीशुदा जोड़ा समझे और भगत सिंह को पहचाना न जा सके। क्रांतिकारी के रूप में भगत सिंह ने दिसंबर सन 1928 में अंग्रेज़ पुलिस अफ़सर जॉन सैंडर्स की हत्या कर दी थी और पुलिस रेल्वे स्टेशन सहित कई जगहों पर उनकी सरगर्मी से तलाश कर रही थी। भगत सिंह और दुर्गा वोहरा लाहौर से कलकत्ता जा रहे थे। दुर्गा वोहरा क्रांतिकारी भगवती चरण की पत्नी थीं और उन्होंने अपने अंतिम दिन ग़ाज़ियाबाद में ही बिताए थे।

भगवती चरण की, लाहौर में बम के परीक्षण के दौरान एक हादसे में मृत्यु हो गई थी। इसके बाद दुर्गा वोहरा मान्टसॉरी ट्रैंनिग लेनेके लिए मद्रास चली गईं और फिर वहां से लखनऊ गईं, जहां उन्होंने सन 1940 में लखनऊ मान्टसॉरी स्कूल खोला। ये स्कूल उन्होंने सन 1975 तक चलाया। इसके बाद वह ग़ाज़ियाबाद आ गईं जहां उन्होंने अपने जीवन के अंतिम 24 वर्ष बिताए। ग़ाज़ियाबाद में ही, सन 1999 में, 92 की उम्र में उनका निधन हो गया था।

नीली वर्दी की महिमा

ग़ाज़ियाबाद के इतिहास में भारतीय वायु सेना ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। भारत-पाक युद्ध के दौरान यहां 1965 में हिंडन एयर फ़ोर्स स्टेशन का उद्घाटन हुआ था। युद्ध के बाद दिल्ली क्षेत्र की सुरक्षा के लिए कुछ लड़ाकू विमानों को यहां रख दिया गया। तभी ग़ाज़ियाबाद के आसमान पर मिग-23 और मिग-27 विमान उड़ते नज़र आने लगे थे।

लेकिन 80 के मध्य दशक में परिंदों के टकराने से विमान हादसे होने लगे। शहर के बाहर बूचड़ख़ाने और कूड़ा डालने का मैदान बनने की वजह से बड़ी संख्या में परिंदे आने लगे थे, जिससे सैन्य विमानों और चालकों के लिए ख़तरा पैदा हो गया था।

इस तरह सन 1997 में लड़ाकू विमानों का अड्डा बंद कर दिया गया और इसकी जगह परिवहन हवाई जहाज़ और हेलिकप्टर रखे गए। हाल ही में हिंडन एयरबेस में कई बदलाव किए गये हैं जिसकी वजह से ये भारतीय वायु सेना का एक महत्वपूर्ण अड्डा बन गया है। आज हिंडन एशिया का सबसे बड़ा और दुनिया का आठवाँ बड़ा सैन्य हवाई अड्डा है।

व्यवसायिक और ढुलाई केंद्र

दिल्ली-एन.सी.आर. के विस्तार के साथ ही ग़ाज़ियाबाद में इंद्रापुरम और राज नगर एक्टेंशन जैसे रिहायशी इलाकों का उदय हुआ। सन 2018 में ग़ाज़ियाबाद 135 कि.मी. लंबे पूर्वी परिधीय एक्सप्रेसवे का हिस्सा बन गया। ये एक्सप्रेसवे ग़ाज़ियाबाद को हरियाणा में कुंडली और फ़रीदाबाद को जोड़ता है।

उसी साल 10.3 कि.मी. लंबी हिंडन एलिवेटेड रोड बनी जो राज नगर एक्टेंशन को राष्ट्रीय राजमार्ग 24 से जोड़ता है। इस सड़क का इस्तेमाल दिल्ली से मेरठ, मुरादाबाद, देहरादून और आसपास के इलाक़ों में जाने के लिए भी किया जाता हैं। ये भारत में सबसे लंबी एलिवेटेड रोड है। हाल ही में, गाज़ियाबाद में एक विमानपत्तन की भी स्थापना हुई, जिससे वो “टायर-३” शहर पिथोरागढ़, हुबली, कलबुर्गी और कन्नूर से जुड़ा।

इस तरह ग़ाज़ियाबाद ने अपने 4500 साल पुराने इतिहास के साथ, अपने आपको पुन्रजीवित कर लिया है और आधुनिक भविष्य की ओर अग्रसर हो चुका है।

मुख्य चित्र: हिंडन नदी ब्रिज, ब्रिटिश लाइब्रेरी

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