धुबरी: असम में बसा छोटा-सा पंजाब

धुबरी: असम में बसा छोटा-सा पंजाब

“जैसा देस वैसा भेस” इस कहावत को एकदम सही साबित किया है, असम में रहने वाले सिख समुदाए ने। असम की राजधानी गुवाहाटी से लगभग 235 किलोमीटर दूर धुबरी दरअसल सिखों की बस्ती मानी जाती है। लेकिन कमाल की बात यह है, कि यहां रहने सिखों और पंजाब के सिखों के बीच ज़मीन-आसमान का फ़र्क़ है। यहां के किसी सिख के घर जाने पर असम के रिवायती अंदाज़ में सुपारी या पान के साथ आपका स्वागत किया जाता है। सिख महिलाएं सिंदूर लगाती हैं, पारंपरिक असमिया पोशाक मेखला-चादर पहनती हैं, और साथ में एक छोटा कृपाण भी रखती हैं। यहां के सिख लोहड़ी के अलावा प्रसिद्ध असमिया त्योहार माघ बिहू भी मनाते हैं।

असम के सिखों से संबंधित इतिहास के अनुसार, धुबरी में चार अलग-अलग चरणों में सिखों का आगमन हुआ था, और फिर इस तरह आने वाले वर्षों में यहां सिख धर्म की नींव पड़ गई। धुबरी में सिख धर्म का सिलसिला 16 वीं शताब्दी से शुरु होता है, जब पहले गुरु, गुरू नानक (सन 1469-1539) यहां आए थे।

धुबरी के प्राचीन इतिहास की बहुत कम जानकारी मिलती है। पुरातन अभिलेख जैसे कलिका पुराण (10 वीं शताब्दी) और योगिनी पुराण (16 वीं शताब्दी) में उल्लेख मिलता है, कि ये जगह कामरूप के अंतर्गत आती थी, जिसपर सन 350-1100 तक वर्मन, म्लेच्छ और पाल राजवंशों का शासन रहा। कुछ दस्तावेज़ों में इस स्थान के नाम का उल्लेख पूर्वी भारत के एक प्रसिद्ध व्यापारी चांद सौदागर की कहानी से मिलता है, जहां एक महिला नेताई धुबुनी ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे एक बड़े पत्थर पर अपने कपड़े धोती थी। यहाँ मौजूद नेताई धुबुनीर घाट इसका गवाह है।

धुबुनीर घाट | विकिमीडिआ कॉमन्स

धुबरी में 15 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में उस युग की झलक मिलती है, जब बंगाल सल्तनत (14 वीं -16 वीं सदी) ने कुछ समय के लिए इसपर कब्ज़ा कर लिया था, जिसका प्रभाव यहां स्थित पनबाड़ी मस्जिद के रूप में देखा जा सकता है। इस दौरान धुबरी मछुवारों के छोटे-से गाँव और ब्रह्मपुत्र नदी पर एक व्यापारिक केंद्र के रुप में विकसित हुआ, जहां रेशम, मलमल आदि का आदान-प्रदान होता था, और इनकी ख़रीद फ़रोख़्त होती थी।

| विकिमीडिआ कॉमन्स

धुबरी के इतिहास में महत्वपूर्ण मोड़ तब आया, जब सन 1505 में अध्यात्म को समझने और एकता तथा एकेश्वरवाद के संदेश को फैलाने के लिये गुरू नानक यहां आये थे। गुरु नानक एकता और एक ईश्वर के सिद्धांत के प्रचार के लिये सफ़र किया करते थे, जिसे उदासी कहा जाता है। जन्मसखियों के रूप में जानी जाने वाली पवित्र सिख कहानियों के अनुसार नानक अपनी पहली उदासी (सन 1499-1506) के दौरन सन 1505 में,अपने दोस्त भाई मर्दाना के साथ, तराई क्षेत्र पार करके उत्तरी भारत और वाराणसी गये थे। शुरूआत में गुरू नानक,गंगा और महानंदा नदी के संगम पर स्थित पूर्व दिशा में मालदा(वर्तमान में पश्चिम बंगाल) की ओर गए थे, जहां उनका सूफ़ी-संतों के साथ सार्थक विचार-विमर्श हुआ था।

मालदा से गुरू नानक असम गये, जहां अहोम शासक सुहुंगमुंग (सन 1497-1539) का शासन हुआ करता था। पूर्व की तरफ़ आगे बढ़ते हुए वह धुबरी में ठहरे । कहा जाता है, कि यहीं पर उन्होंने डेरा डाला था, और साधना की थी तथा प्रसिद्ध भक्ति संत शंकर देव (सन 1449-1569) से मुलाक़ात भी की, जो बरपेटा (असम) से उनसे मिलने आए थे। दोनों ने आस्था, एकता के महत्व, प्रेम और समुदायों के बीच शांति के लिये एक राय की आवश्यकता पर चर्चा की थी। गुरू नानक की उदासी सन 1506 में पुरी (ओडिशा) में समाप्त हो गई, लेकिन कुछ कथाओं के अनुसार वह तलवंडी (पाकिस्तान में) में अपने घर वापस चले गये थे, जबकि कुछ कहानियों के अनुसार. उन्होंने अपनी यात्रा दोबारा शुरु की थी, जिसे उसकी दूसरी उदासी के रूप में जाना जाता है।

इस बीच भारतीय उपमहाद्वीप में सिख धर्म फ़ैल गया। नानक के आगमन के एक सदी से भी अधिक समय बाद धुबरी में सिख धर्म की दूसरी लहर तब आई, जब सन 1666 में नौवें गुरु तेग बहादुर, बिहार से अपने अनुयायियों के साथ धुबरी पहुंचे। वे उन स्थानों की यात्रा पर निकले हुए थे, जहां गुरू नानक गये थे।वह उन लोगों के परिवारों के साथ फिर संपर्क करने के लिए यात्रा कर रहे थे, जो पहली उदासी के दौरान गुरू नानक से मिले थे। अपनी पत्नी गुजारी को पटना में छोड़कर, तेग बहादुर पूर्व की ओर चल पड़े, और पहले धुबरी में रुके और फिर ढ़ाका रवाना हो गये। 16वीं सदी में धुबरी,अहोम साम्राज्य का हिस्सा बन गया था, लेकिन अब अहोमों के बढ़ते प्रभाव का मुकाबला करने के लिए ये मुग़ल सेना का पड़ाव बन चुका था।

गुरुद्वारा शीशगंज, दिल्ली में मौजूद गुरु तेग़ बहादुर की तस्वीर | विकिमीडिआ कॉमन्स

दूसरी तरफ़ अहोम राजा चक्रध्वज सिंघा (सन 1663-1670) के विद्रोह को दबाने के लिए छठे मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब (सन 1658-1707) के अपने सेनापति राम सिंह (सन 1640-1688) को असम भेजा गया। राम सिंह को यहां सज़ा के तौर भेजा गया था, क्योंकि उसकी हिरासत से मराठा राजा छत्रपति शिवाजी (सन 1630-1680) और उनके बेटे फ़रार होने में कामयाब हो गये थे। सन 1667 में असम जाते समय पटना में राम सिंह की मुलाक़ात गुरू तेग बहादुर की पत्नी गुजारी से हुई, और वहीं से उन्हें तेग बहादुर की ढ़ाका में मौजूदगी के बारे में पता चला। फ़रवरी सन 1669 में राम सिंह ढ़ाका में तेग बहादुर से मिले, जहां राम सिंह ने युद्ध में साथ देने के लिए गुरू तेग बहादुर को राज़ी कर लिया। दोनों साथ-साथ धुबरी गए, जहां गुरू तेग बहादुर ने डेरा डाला, और राम सिंह को आशीर्वाद दिया, तथा उन्हें सलाह दी, कि समस्या का हल शांतिपूर्वक बातचीत से निकालने की कोशिश करें, और जबतक दुश्मन की तरफ़ से हमला न हो, खुद हथियार न उठाएं। राम सिंह दोबारा गुवाहाटी के पास रंगमती में मुग़ल सेना के पास चले गए।

तेग बहादुर के पूर्व दिशा की ओर प्रस्थान करने के बाद अहोम और मुगलों के बीच फ़रवरी सन 1669 से दिसंबर सन 1669 के बीच बातचीत चली । इस बीच दोनों पक्षों के बीच कुछ मामूली झड़पें भी हुईं। दिसंबर सन 1669 के अंत में गुरू तेग बहादुर दोबारा धुबरी आये, और उन्होंने मुग़लों और अहोम के बीच शांति वार्ता करवाई। बातचीत के बाद, दोनों पक्षों की सहमती से, अहोमों को गुवाहाटी वापस मिला। कहा जाता है, कि चक्रध्वज ने तेग बहादुर को गुवाहाटी आमंत्रित किया और कामाख्या मंदिर में उन्हें सम्मानित भी किया था।

गुरुद्वारा गुरु तेग़ बहादुर, धुबरी | विकिमीडिआ कॉमन्स

कई कहानियों के अनुसार गुरू तेग बहादुर के सुझाव पर धुबरी में दोनों पक्षों के सैनिकों ने मिलकर लाल मिट्टी से एकता के प्रतीक के रूप में एक टीला बनाया ।गुरू नानक की यात्रा की याद में बनाये गये उस टीले के लिये एक-एक फ़ौजी ने पांच-पांच ढ़ाल में लाल मिट्टी उठाकर वहां डाली। इसी टीले पर बाद में प्रसिद्ध गुरुद्वारा श्री गुरु तेग बहादुर साहिबजी बना। दिलचस्प बात यह है, कि ये वही स्थान था, जहां तेग बहादुर पहली बार ठहरे थे और जहां उनका अलौकिक शक्तियों वाली एक महिला से सामना हुआ था । उस महिला ने उन पर एक बड़ा पत्थर फेंका था, जो गुरू तेग बहादुर तक नहीं पहुंच पाया था । अंत में उस धोबन यानी महिला ने हार स्वीकार कर ली थी और तेग बहादुर की शिष्या बन गई थी।

गुरुद्वारा गुरु तेग़ बहादुर, धुबरी में मौजूद वो जादुई पत्थर जो तेग़ बहादुर पर फेंका गया था | विकिमीडिआ कॉमन्स

बहरहाल गुरू तेग बहादुर दोबारा यात्रा पर निकल पड़े, लेकिन असम को लेकर अहोम और मुग़लों के बीच भीषण लड़ाई शुरु हो गई, जो बारह साल तक चली। प्रसिद्ध सरायघाट युद्ध ( सन1671 ) इसी का हिस्सा था, जिसमें अहोम शासकों की जीत हुई । आख़िकार यह टकराव सन 1682 में तब समाप्त हुआ जब गदाधर सिंह (सन1681-1696) के नेतृत्व में इटाखुली की लड़ाई ( सन 1682) के बाद अहोम ने असम को दोबारा हासिल किया।

सरायघाट का युद्ध | विकिमीडिआ कॉमन्स

विडंबना यह है, कि गुरू तेग बहादुर, जिन्होंने असम अभियान के दौरान औरंगज़ेब की सेना का मार्गदर्शन किया था, उसी औरंगज़ेब ने 24 नवंबर सन 1675 को तेग बहादुर के क़त्ल करने का आदेश दे दिया था, क्योंकि तब तक उनका उत्तर औऱ मध्य भारत में प्रभाव बढ़ता जा रहा था, जिसके कारण औरंगज़ेब उन्हें अपने लिये एक सामाजिक-राजनीतिक ख़तरा समझने लगा था। तभी से तेग बहादुर की शहादत की याद में शहीदी दिवस के वार्षिक कार्यक्रम में देशभर से कई सिख तीर्थ-यात्री धुबरी आते हैं।

19वीं शताब्दी की शुरुआत तक धुबरी एक सिख तीर्थ-केंद्र के रूप में स्थापित हो गया था। इसी दौरान यहां सिखों की तीसरी लहर के रूप में, महाराजा रणजीत सिंह के निहंग सैनिक आये थे। निहंगों ने अहोम शासक चंद्रकांता सिंह (सन 1811-1821) के लिए लड़ाई लड़ी थी। मुग़लों के साथ लगातार युद्ध, मोमोरिया विद्रोह (सन 1769-1805) और शाही परिवार में मतभेद की वजह से अहोम साम्राज्य कमज़ोर पडने लगा था, और इसी का फ़ायदा उठाते हुए, बर्मा के शासक बगीदाव के नेतृत्व में बर्मा के सैनिकों ने असम पर हमला कर दिया था। इनसे मुक़ाबला करने के लिये सन 1819 में क़रीब 500 सिख सैनिक असम आए थे।
सन 1820-1821 के बीच हदीरचाकी (बरपेटा ज़िला) में कई भीषण युद्ध हुए, और आख़िर में अहोम शासकों की हार हो गई। युद्ध के बाद कई निहंग सैनिक नगांव और धुबरी में बस गए, और उन्होंने स्थानीय असमिया महिलाओं से शादी करके उनकी संस्कृति अपना ली। इन सिख सैनिकों की बहादुरी का उल्लेख प्रसिद्ध असमिया उपन्यासकार रजनीकांत बोरदोलोई के उपन्यास ‘मनोमती’ ( सन 1900) में मिलता है।

धुबरी में सिख समुदाय द्वारा आयोजित शहीदी दिवस

ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की दख़लंदाज़ी की वजह से बर्मा के हमलावर भाग गये और सन 1826 में कंपनी ने असम को अपना संरक्षित राज्य बना लिया। इसके बाद धुबरी के साथ-साथ गुवाहाटी और शिलांग जैसे अन्य स्थानों में मज़हबी सिखों के रूप में, सिखों की चौथी लहर आई। ये सिख 19वीं और 20वीं शताब्दी के अंत में सफ़ाईकर्मी और सहायकों के रूप में आए थे, जो बाद में स्थानीय आबादी में घुल-मिल गये। धीरे-धीरे कृषि और स्थानीय व्यापार में इनका अच्छा ख़ासा दबदबा हो गया।
आज धुबरी सिख इतिहास का गौरवशाली गवाह है, जो न सिर्फ़ असम की समृद्ध संस्कृति और विरासत का हिस्सा बन गया है, बल्कि उस आबादी का भी हिस्सा बन गया है, जो असम के गौरवशाली अतीत का एक सुंदर अध्याय है।

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