प्रेमचंद…देश के लोकप्रिय लेखक, उनकी ज़िन्दगी का ऐसा पहलु, जो शायद आपने पहले न सुना हो। वास्तविकता से परिपूर्ण उनकी कथायें इतनी सच मालूम होती थी की इस ‘कथा सम्राट’ को हिंदी सिनेमा में इसी वास्तविकता की वजह से ठुकराया गया। असल में सन था मई 1934 जिस साल प्रेमचंद हिंदी फिल्म जगत में अपनी किस्मत आज़माने मुंबई पहुंचे। पटकथा लेखक के तौर पर उनकी पहली फिल्म मोहन भवनानी द्वारा निर्देशित, ‘मिल मज़दूर’ थी। यह कहानी मिल मज़दूरों के दयनीय स्थिति पर लिखी गयी थी। फ़िल्म में प्रेमचंद ने एक पात्र भी निभाया था।
इस फ़िल्म ने मज़दूरों के दर्द को ऐसी आवाज़ दी कि तत्कालीन ब्रिटिश सरकार घबरा गयी और उसने इस फ़िल्म को प्रतिबंधित कर दिया।
किसी तरह यह फ़िल्म लाहौर, दिल्ली और लखनऊ के सिनेमा हॉल में रिलीज़ हुई और इस फ़िल्म का मज़दूरों पर ऐसा असर हुआ कि हर तरफ विरोध के स्वर गूंजने लगे। पूरे पंजाब में इसे देखने मज़दूर निकल पड़े। बताया गया हैं कि लाहौर के इंपीरियल सिनेमा में भीड़ को नियंत्रित करने के लिए मिलिट्री तक बुलानी पड़ी! ये फिल्म ज़बरदस्त हिट हुई और सरकार के लिए मुसीबत बन गई। दिल्ली में इसे देख एक मज़दूर मिल मालिक की कार के आगे लेट गया। फिर कुछ राजनीति के बाद इस फ़िल्म को थियेटर से हटा दी गयी। प्रेमचंद समझ गए कि फ़िल्म इंडस्ट्री में उनकी बात कोई नहीं सुनेगा। बहुत निराश मन से वो वापस बनारस लौट गए।
प्रेमचंद ने तब अपने एक दोस्त को चिट्ठी लिखी थी जिसमें वो लिखते हैं – ‘‘सिनेमा से किसी भी तरह की बदलाव की उम्मीद रखना बेइमानी है। यहां लोग असंगठित हैं और इन्हें अच्छे-बुरे की पहचान नहीं है। मैंने एक कोशिश की लेकिन, मुझे लगता है कि अब इस दुनिया (फ़िल्मी) को छोड़ना ही बेहतर है।’’ उसके बाद 1935 में वो बनारस लौट गए। उसके बाद उन्होंने ‘सिनेमा और साहित्य’ पर तीखे लहजे में एक आलोचनात्मक निबंध लिखा, जिसमें उन्होंने कहा कि “फ़िल्म इंडस्ट्री सिर्फ मुनाफ़ा कमाने के लिए काम करती है”। दुर्भाग्य से आज ‘मिल मजदूर’ की एक भी कॉपी कहीं नहीं बची है।
गौरतलब है कि सत्यजित रे ने उनकी दो कहानियों पर यादगार फ़िल्में बनाईं। 1977 में ‘शतरंज के खिलाड़ी’ और 1981 में ‘सद्गति’। प्रेमचंद के निधन के दो साल बाद सुब्रमण्यम ने 1938 में ‘सेवा सदन’ उपन्यास पर फ़िल्म बनाई जिसमें एम्.एस. सुब्बालक्ष्मी ने मुख्य भूमिका निभाई थी। 1977 में मृणाल सेन ने प्रेमचंद की कहानी ‘कफ़न’ पर आधारित ‘ओका ऊरी कथा’ नाम से एक तेलुगु फ़िल्म बनाई, जिसको सर्वश्रेष्ठ तेलुगु फ़िल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। 1963 में ‘गोदान’ और 1966 में ‘गबन’ उपन्यास पर लोकप्रिय फ़िल्में बनीं। 1980 में उनके उपन्यास पर बना टीवी धारावाहिक ‘निर्मला’ भी बहुत लोकप्रिय हुआ था।
अफ़सोस, हिंदी सिनेमा ने ‘कथा सम्राट’ की महत्वपूर्णता को देरी से समझा, वरना शायद आज हमारे सिनेमा का रुख कुछ और ही होता।