भारत में लद्दाख़ आज सबसे लोकप्रिय पर्यटक स्थलों में से एक है। हर साल यहां बेतरतीब प्राकृतिक दृश्यों को देखने के लिये लाखों सैलानी आते हैं। लेकिन यहां आने वाले कुछ ही भारतीय सैलानियों को चेवांग रिनचेन के बारे में मालूम होगा, जिसकी निस्वार्थ बहादुरी और नेतृत्व की वजह से लद्दाख भारतीय संघ का हिस्सा बन सका।
सन 1948 में कश्मीर में कबायली हमले के दौरान 17 साल के चेवांग रिनचिन ने एक सैनिक स्वयंसेवी के रुप में नुब्रा घाटी (उत्तरी लद्दाख) से इस हमले का मुक़ाबला किया।
बाद में चेवांग भारतीय सेना एक बड़ा अधिकारी बना, जिसे बहादुरी के दूसरे सबसे बड़े सम्मान महावीर चक्र से सम्मानित किया गया, वो भी एक नहीं, बल्कि दो बार।
15वीं सदी से लद्दाख क्षेत्र पर नामग्याल राजवंश शासन करता था। लेकिन सन 1841 में डोगरा जनरल ज़ोरावर सिंह कहलुरिया ने लद्दाख पर कब्ज़ा कर लिया और जम्मू-कश्मीर रियासत में इसका विलय कर दिया। उस समय जम्मू-कश्मीर रियासत पर डोगरा महाराजाओं का शासन होता था। सन 1947 में आज़ादी मिलने के बाद रियासतों को भारत अथवा पाकिस्तान में शामिल होने का विकल्प दिया गया। कश्मीर के महाराजा हरि सिंह इस मामले में कोई फ़ैसला नहीं कर पा रहे थे। इस दुविधा का फ़ायदा उठाकर पाकिस्तान ने क़बायलियों से कश्मीर पर हमला करवा दिया। क़बायली घुसपैठिये गिलगिट, बालतिस्तान और स्कर्दू पर कब्ज़ा कर लद्दाख की तरफ़ बढ़ने लगे। उनकी योजना सामरिक रुप से महत्वपूर्ण नुब्रा घाटी पर कब्ज़ा करने की थी, जहां से कश्मीर घाटी में घुसा जा सकता था।
26 अक्टूबर सन 1947 को कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने अधिमिलन पत्र (Act of Accession) पर हस्ताक्षर किये, जिसके बाद भारतीय सेना घुसपैठियों से मुक़ाबला करने के लिये जम्मू-कश्मीर में दाख़िल हुई। भारतीय सेना की 161वीं ब्रिगेड के कुछ सैनिकों को उत्तरी लद्दाख के स्कर्दू क्षेत्र (अब पाक अधिकृत कश्मीर में) रवाना किया गया। इस बीच दूसरी डोगरा बटालियन के मेजर ठाकुर प्रीथि चंद को जम्मू-कश्मीर की सेना में स्थानीय स्वसंसेवियों को भर्ती करने के लिये लेह भेजा गया। लेह को श्रीनगर से जोड़ने वाले ज़ोजिला दर्रे से मेजर प्रीथि चंद 8 मार्च 1948 को लेह पहुंचे और वहां तिरंगा लहराया। इससे लद्दाख़ियों ने राहत की सांस ली।
स्थानीय वालेंटियरों की भर्ती के दौरान चेवांग रिनचिन नाम का, 17 साल का लड़का भी सहायक सेना में भर्ती हो गया। चेवांग का जन्म नुब्रा (लद्दाख़) के सुमुर गांव में 11 नवंबर सन 1930 को हुआ था। उसके पिता का नाम कुंज़ांग दोरजी था। चेवांग गांव के एक स्कूल में पढ़ता था, लेकिन स्कूल के स्तर के हिसाब से वह पढ़ाई में कहीं ज़्यादा होशियार था। इस बात का पता चलने पर एक ज़मींदार उसे पढ़ाई के लिये लेह ले गये। सन 1947 में जब कश्मीर पर क़बायली हमला हुआ था, तब चेवांग स्कूल में पढ़ाई कर रहे थे।
लेकिन चेवांग पढ़ाई को बीच में ही छोड़कर अप्रैल सन 1948 में 7वीं जम्मू-कश्मीर सहायक सेना के तहत नव गठित नैशनल गार्ड्स में भर्ती हो गये। स्थानीय पत्रिका कश्मीर सेंटिनल को सन 1996 में दिये एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा-
“मैं जानता था, कि मेरी पढ़ाई से कहीं महत्वपूर्ण मेरी मातृभूमि की हिफ़ाज़त थी!”
सिर्फ़ दस दिन की बुनियादी सैन्य प्रशिक्षण के बाद चेवांग को एक स्थानीय सेना बनाने और उन्हें प्रशिक्षित करने के लिये कुछ डोगरा सैनिकों के साथ नुब्रा घाटी भेजा गया। इस सेना को नुब्रा गार्ड्स कहा जाता था। एक महीने के भीतर ही 28 सैनिकों की एक प्रशिक्षित टुकड़ी तैयार हो गई। इस बीच पाकिस्तानी क़बायली लद्दाख़ में बालतिस्तान पार कर चुके थे और उन्होंने करगिल तथा बियागडांगो (नुब्रा घाटी) पर कब्ज़ा कर लिया था औऱ वे उत्तरी लद्दाख़ में श्योक नदी के साथ-साथ आगे बढ़ रहे थे।
चेवांग और प्रीथि के भाग्य से मई सन 1948 में लेह में भारतीय वायु सेना स्थापित हो चुकी थी और वह सैनिकों, सैनिक सामान और रसद लाने ले जाने का काम कर रही थी। अगस्त सन 1948 के पहले हफ़्ते में चेवांग को नुब्रा घाटी में स्कुरु और चंगमार तथा श्योक नदी के उत्तरी तट (उत्तरी लद्दाख) की रक्षा करने की ज़िम्मेदारी सैंपी गई।
कर्नल जे. फ़्रांसिस (रिटायर्ड) की किताब ‘शॉर्ट स्टोरीज़ फ़्रॉम द हिस्ट्री ऑफ़ द इंडियन आर्मी सिंस अगस्त 1947’ (2013) के अनुसार इसी समय के दौरान चेवांग 28 युवकों के साथ श्योक नदी पार कर और कई चोटियों पर चढ़कर ला छुरुक (नुब्रा घाटी) में दुश्मनों की चौकी तक पहुंच गये। इस अचानक हमले से पाकिस्तानी घबरा गये और चेवांग और उसके साथियों ने कुछ ही समय में उन्हें वहां से खदेड़ दिया। चेवांग और उसके साथियों ने चौकी पर कब्ज़ा कर हथियार और गोलाबारुद भी अपने कब्ज़े में ले लिये।
लेकिन नुब्रा में तैनात सैनिकों के हथियार कम होते जा रहे थे, जिसकी वजह से कई सैनिकों को वापस लेह जाना पड़ा। एक मुलाक़ात में चेवांग ने कहा:
“मैंने भारी संख्या में लोगों को पलायन करते देखा, और मेरे लिये बिना संघर्ष किये दुश्मनों को तोहफ़े में अपनी ज़मीन देना बर्दाश्त नहीं था।.”
पाकिस्तानी हमलावरों को हथियारों की कमी के बारे में भनक लग गई थी और अब उन्होंने खारडुंग-ला दर्रे के ज़रिये लेह को कब्ज़ाने की योजना बनाई। खारडुंग-ला दर्रा विश्व में वाहन से पार किये जाने वाले सबसे ऊंचे दर्रों में से एक है, जो 18,379 फ़ुट ऊंचा है। बहरहाल, इसके लिये पाकिस्तानी हमलावरों को सकुरु नाले से श्योक नदी पार करना ज़रुरी था।
हमलावरों ने श्योक नदी पार करने और खारडुंग-ला पहुंचने के लिये स्थानीय नौकाओं का सहारा लिया। दूसरी तरफ़ चेवांग ने छापामार युद्ध तकनीक अपनाते हुए, अपने सैनिकों को स्कुरु नाले में अलग-अलग पहाड़ी चोटियों से दुश्मनों पर गोलियां चलाने का आदेश दिया। इससे हमलावर भौचक्के रह गये और नतीजतन या तो वे गोलियों का निशाना बन गये या फिर नदी में बह गये।
गिलगिट में अपने सैनिकों का नेतृत्व कर रहे निवर्तमान पाकिस्तानी कर्नल मोहम्मद यूसुफ़ आबदी अपने संस्मरण बालतिस्तान पर एक नज़र में लिखते हैं-
“हमें ख़ुफ़िया ख़बर मिली, कि हमारे लगातार हमलों को चेवांग रिनचिन नाम के 17 साल के बहादुर लड़के ने नाकाम कर दिया। स्कुरु में अगर हम कामयाब हो जाते तो लेह पर कब्ज़ा करने में कोई दिक़्कत नहीं होती।”
चेवांग की बहादुरी और नेतृत्व क्षमता को देखते हुए उन्हें 25 अगस्त सन 1948 को स्थानीय सैनिक वालैंटियर से पदोन्नत कर नायब-सुबेदार बना दिया गया।
चेवांग ने अपनी सफलता को अपने प्रभाव के रुप में इस्तेमाल किया। उन्होंने लद्दाख में आगे बढ़ते हमलावरों से मुक़ाबले के लिये और ज़्यादा स्थानीय लोगों को सहायक सेना में भर्ती किया और उन्हें भारतीय सेना की मदद से आधुनिक हथियार चलाना भी सिखाया।
सितंबर सन 1948 में चेवांग को, नुब्रा घाटी में 17 हज़ार फ़ुट की ऊंचाई पर स्थित दुश्मन की चौकी “लामा हाउस” पर कब्ज़ा करने की चुनौती दी गई। वहां जाने के लिये दुर्गम इलाक़ो से होकर गुज़रना पड़ता था। चेवांग के लोगों ने बड़ी संख्या में हमलावरों को मार डाला, जबकि बचे हुए हमलावरों को अपने निक्कर-बनियान में ही भागना पड़ा।
इस हमले से आक्रमणकारी इस क्षेत्र में स्थित अपने मुख्य अड्डे को छोड़कर भाग खड़े हुए। वे अपने पीछे काफ़ी हथियार भी छोड़ गए, जिन्हें चेवांग के लोगों ने अपने कब्ज़े में ले लिया।
कश्मीर घाटी में तो पहले से ही भारतीय सैनिक डटे हुए थे, लेकिन अब वे लद्दाख में भी अपनी स्थिति धीरे-धीरे मज़बूत करने लगे। प्रीथि और चेवांग के प्रयासों से सन1948 में दिसंबर आते-आते नुब्रा गार्ड्स की ताक़त बढ़कर क़रीब तीन सौ जवान हो गयी थी। दुर्गम स्थानों में लड़ने की चेवांग की क्षमता को देखते हुए उन्हें बियागडांगडो पर कब्ज़ा करने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई।
चेवांग लगातार तीन दिन तक पैदल चले, जिसकी वजह से आधे लोगों के पांव ठंड से सुन्न पड़ गये थे। लेकिन इसके बावजूद 15 दिसंबर सन 1948 को चेवांग ने बियागडांगडो फ़तह कर लिया और इस कार्रवाई में कोई गंभीर रुप से ज़ख़्मी भी नहीं हुआ। इस सफलता के बाद उन्हें सुबेदार बना दिया गया।
लेकिन पाकिस्तानी हमलावर भी आसानी से हार नहीं मानने वाले थे। अपने अंतिम प्रयास के तहत वे श्योक नदी के दक्षिण में तेबे पहाड़ी क्षेत्र (ऊंचाई 21 फ़ुट) में जमा हो गये, जिसकी वजह से भारतीय सेना का आगे बढ़ना थम गया। नुब्रा घाटी में दक्षिण के अधिकतर क्षेत्रों में श्योक नदी बहती थी।
24 दिसंबर को चेवांग अपने साथियों के साथ तेबे पहाड़ी पहुंचे, जिससे पाकिस्तानी चौंक गये। चेवांग के सैनिकों ने जहां गोलीबारी शुरु कर दी, वहीं चेवांग लाइट मशीन गन से दुश्मनों पर गोलियां बरसाने लगे। इसके बाद हाथों से भी लड़ाई हुई। इस हमले में कुछ हमलावर या तो मारे गये या फिर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।
एक जनवरी सन 1949 को संयुक्त राष्ट्र ने हस्तक्षेप किया और युद्ध रोक दिया गया। हालांकि भारत ने बालतिस्तान और स्कर्दु पर फिर कब्ज़ा करने का मौक़ा गंवा दिया, लेकिन उसके कब्ज़े में लद्दाख का अधिकतर हिस्सा आ गया जिसमें नुब्रा और श्योक घाटियां भी शामिल थीं।
फ़्रांस के लेखक क्लॉड अर्पी अपनी किताब ‘हेव यू हर्ड एबाउट दिस इंडियन हीरो?’ (2011) में लिखते हैं कि लद्दाख के युद्ध में चेवांग की सफलता का राज़ अधिक ऊंचाई और बेहद ठंडे मौसम में लड़ने की कुशल तकनीक की उनकी समझ थी।
चेवांग ने सेना के स्टील के हेल्मेट की जगह बेलक्लावा (बंदर टोपी) और सैनिक बूट की जगह लद्दाखी जूते ‘पैबोस’ का इस्तेमाल किया, जो हल्के और गर्म भी थे, जिनके पहनने से शीत-दंत नहीं होता और पांव सुन्न नहीं पड़ते थे।
बहादुरी और नेतृत्व क्षमता के लिये चेवांग को सन 1952 में महावीर चक्र से सम्मानित किया गया, जो बहादुरी का दूसरा सबसे बड़ा सम्मान होता है। ये सम्मान पाने वाले वह आज भी सबसे कम उम्र के सैनिक हैं।
लेकिन कहानी यहीं ख़त्म नहीं हुई। चूंकि चेवांग अपनी ज़मीन और वहां के स्थानों को अच्छी तरह जानते थे, इसलिये सन 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान उन्होंने दौलत बेग ओल्डी की भी रक्षा की। दौलत बेग ओल्डी तब सुर्ख़ियों में आया, जब सन 2013 में भारतीय वायु सेना का परिवहन विमान सी-130 जे हरक्यूलिस यहां उतरा। तब से दौलत बेग ओल्डी वायु सेना के महत्वपूर्ण हवाई अड्डों में से एक है। चेवांग को बहादुरी के लिये सेना मैडल भी मिला था।
सन 1965 भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान चेवांग ने उत्तरी लद्दाख में चुलुंखा क्षेत्र की रक्षा की थी, जिसके लिये उन्हें मेंशन्ड- इन- डेसपेचेज़ (प्रेषणों में उल्लेखित) पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
सन 1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान चेवांग की बहादुरी एक बार फिर तब सामने आई, जब उन्होंने तुर्तुक गांव (करगिल के पास) पर कब्ज़ा किया और पाकिस्तान के कब्ज़े वाले 800 कि.मी. के क्षेत्र को आज़ाद करवाया। इसके लिये उन्हें पदोन्नत कर स्थाई रुप से अफ़सर बना दिया गया। सन 1999 में ऑपरेशन-विजय के दौरान तुर्तुक में भी युद्ध हुआ था।
ये क्षेत्र सन 1971 ऑपरेशन के दौरान कब्ज़े में लिया हुआ सबसे बड़ा हिस्सा माना जाता है। इस सैन्य अभियान में न तो रसद और न ही तोपों की ज़रुरत पड़ी थी। इसके अलावा कोई सैनिक हताहत भी नहीं हुए थे।
इस शौर्य के लिये दूसरी बार चेवांग को महावीर चक्र प्रदान किया गया था। इस सम्मान के साथ ही वह भारतीय सेना के सबसे अलंकृत अफसरों में से एक बनें। चेवांग, कर्नल के पद से सन 1986 में भारतीय सेना से सेवानिवृत्त हुए और एक जुलाई सन 1997 को उनका निधन हुआ।
लद्दाख में चेवांग की स्मृति में कई स्मारक हैं और सन 2019 में, पूर्वी सेक्टर में उनके नाम पर एक सुरंग का नाम रखा गया था । आज भी देश की सेवा के लिये वह युवा लद्दाखियों के प्रेरणा स्रोत हैं।
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