कब मांगेगी ब्रितानी राजशाही जलियांवाला बाग़ क़त्ले आम पर माफ़ी!

गुनाह हो जाते हैं और उनके लिए माफ़ी मांग ली जाती है। यह एक सामान्य सी बात है। लेकिन कई बार यह भी होता है, कि लोगों को गुनाह का एहसास तो होता है लेकिन वे माफ़ी मांगने से कतराते हैं। इंग्लैंड के शाही परिवार ने जलियांवाला बाग़ क़त्लेआम के साथ कुछ ऐसा ही सुलूक किया है।

हाल ही में भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू महारानी एलिजाबेथ-द्वितीय को श्रद्धांजलि देने के लिए ब्रिटेन गईं थीं। वहां अन्य देशों के राष्ट्राध्यक्ष भी मौजूद थे। महारानी एलिजाबेथ-द्वितीय का हाल ही में निधन हुआ है। यह दिलचस्प है कि भारतीय राष्ट्रपति की लंदन यात्रा से एक सप्ताह पहले, भारत में ट्विटर पर, कोहिनूर और इसी तरह की चीज़ों को लेकर चर्चा चल रही थी। देश में कई लोगों को इस मौक़े पर ब्रिटिश उपनिवेशवाद के ज़ुल्म याद आ रहे थे। उन ज़ुल्मों के लिए लोग काफ़ी हद तक इंग्लैंड के शाही ख़ानदान को ही ज़िम्मेदार मानते रहे हैं। जलियांवाला बाग़ क़त्लेआम का दाग़, ज़ुल्मों की निशानी की तरह, नए महाराजा चार्ल्स-तृतीय के चमचमाते हुए ताज पर चस्पा है, जो उन्हें, उनकी दिवंगत मां से विरासत में मिला है।

इस ख़ौफ़नाक क़त्ले आम के लिए ब्रिटेन से माफी मांगने की बात लंबे समय से चली आ रही थी। यह क़त्ले 13 अप्रैल, सन् 1919 को अमृतसर के जलियांवाला बाग़ में हुआ था। उस समय भारत में अंग्रेज़ों (ईस्ट इंडिया कंपनी) की हुक़ुमत थी जिसकी बागडोर ब्रितानी राजशाही परिवार के हाथों में हुआ करती थी। लेकिन कई लोगों को माफ़ी मांगने की अपील पर एतराज़ है। उनका तर्क है कि ये क़त्ले आम किसी शाही आदेश पर नहीं बल्कि डायर नाम के ‘एक’ जनरल ने किया था। डायर को, उस हत्याकांड की जांच के लिए बने हंटर कमीशन (1919-20) की रिपोर्ट मिलने के बाद पद से हटा दिया गया था। मिशन ने इस नरसंहार में मारे गए लोगों को मुआवज़ा भी दिलवा दिया था। इस तरह अंग्रेज़ों ने अपने उस ‘सभ्यता मिशन‘ (सिविलाइज़ेशन मिशन) का पालन कर लिया था, जिसमें वे विश्वास करते थे।

लेकिन इस भयावह घटना को इस नज़रिये से देखना नैतिक और व्यावहारिक दोनों तरह से ग़लत है। हालांकि अंग्रेज़ सरकार ने सभी पीड़ित परिवारों को मुआवज़ा दिया था। दो विधवाओं अत्तर कौर और रतन देवी, जिनके पति इस घटना में मारे गए थे, को छोड़कर अन्य सभी पीड़ितों ने मुआवज़ा स्वीकार भी कर लिया था, लेकिन इनमें से कई लोगों को ये मुआवज़ा वचन-पत्र के रुप में मिला था जिसे बाद में किसी न किसी तकनीकी वजह से भुनाया नहीं जा सका था। यानी उन्हें धन राशि नहीं मिल सकी थी।

आम धारणा के विपरीत, इस नरसंहार के लिए सिर्फ़ जनरल डायर ही नहीं बल्कि पंजाब का तत्कालीन गवर्नर माइकल ओ’डायर भी, काफ़ी हद तक इस ज़िम्मेवार था। माइकल ओ’डायर ने, डायर को खुली छूट दी थी और खुलेआम उसकी कार्रवाई का समर्थन भी किया था। हालांकि बाद में, दोनों को उनके पद से हटा दिया गया था लेकिन उन्हें कोई अन्य सज़ा नहीं दी गई थी। यही नहीं, संसद और इंग्लैंड के प्रभावशाली हलक़ों में कई लोगों ने, न सिर्फ़ दोनों का समर्थन किया बल्कि उन्हें सम्मानित भी किया था। प्रसिद्ध अंग्रेज़ी अख़बार मॉर्निंग पोस्ट ने बार-बार लिखा कि डायर ‘भारत को बचाने वाला व्यक्ति’ था। इसके पहले अंग्रेज़ी लेखक रुडयार्ड किपलिंग भी यही कह चुके थे। मॉर्निंग पोस्ट ने डायर के लिए चंदा भी इकट्ठा किया गया था। चंदे में 26 हज़ार से ज्यादा स्टर्लिंग पौंड जमा हो गए थे।

यहां ओ‘डायर और सर शंकरण नायर के बीच मानहानि के मशहूर मुक़द्दमें का उल्लेख भी ज़रुरी है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेता, सर शंकरन नायर ने अपनी किताब “गांधी एंड एनार्की” (1922) में ओ‘डायर को पंजाब में अत्याचार करने के लिए सीधे रुप से ज़िम्मेवार ठहराया था। इसे लेकर ओ‘डायर ने उन पर मानहानि का मुक़दमा कर दिया था। ओ’डायर ने केस जीत लिया और जजों ने उसे हर्ज़ाने के रुप में 500 पौंड भी दिलवा दिए थे। हालांकि, अदालत के जज अंग्रेज़ थे। ओ‘डायर ने यह भी मान लिया था कि अदालत के फ़ैसले से जलियांवाला बाग़ हत्याकांड में, डायर की कार्रवाई को सही ठहराने के तर्क पर मोहर लग गई है।

सन 1927 में डायर की मृत्यु हो गई लेकिन ओ‘डायर आला शाही सर्किल में पूरे सम्मान के साथ मज़े करता रहा। आख़िरकार सन् 1940 में, कैक्सटन हॉल में भारतीय क्रांतिकारी उधम सिंह ने ओ’डायर की हत्या कर दी। लेकिन जिस तरह से डायर और ओ’डायर के साथ सम्मानजनक बर्ताव किया गया और उनके कुकर्मों को नाज़ायज़ तर्कों से सही ठहराया गया, उससे साफ़ ज़ाहिर होता है कि उस क़त्ले आम के पीछे सिर्फ़ कुछ अपराधी नहीं थे; बल्कि उपनिवेशवाद की एक पूरी विचारधारा थी। इसलिए, जब तक अंग्रेज़ आलाकमान माफ़ी नहीं मांगता, तब तक इस घटना के लिए उसे माफ़ नहीं किया जा सकता।

हो सकता है, कुछ लोगों को लगता हो कि ‘उच्च सांस्कृतिक क़द’ की वजह से, बकिंघम पैलेस से माफ़ी मांगने की अपील नहीं करनी चाहिए। लेकिन ब्रिटिश प्रधानमंत्री के आधिकारिक निवास “10 डाउनिंग स्ट्रीट” ने भी कभी माफ़ी नहीं मांगी, जो लंदन के वेस्टमिंस्टर शहर में पैलेस से थोड़ी दूरी पर ही स्थित है।

स्मरणीय रहे कि नरसंहार के समय ब्रिटेन के प्रधानमंत्री एच.एच. ऐसक्विथ थे। उन्होंने इस घटना को ‘हमारे पूरे इतिहास में सबसे ख़राब, सबसे भयानक, अपमानों में से एक’ बताया था। युद्ध मामलों के मंत्री विंस्टन चर्चिल थे। चर्चिल ने इसे ‘एक असाधारण भयानक घटना’ कहा था। चर्चिल ने डायर को समय से पहले सेवानिवृत्त करने में प्रमुख भूमिका निभाई थी। हालांकि चर्चिल के जीवनी लेखक विलियम मैनचेस्टर ने अपनी पुस्तक “द लॉस्ट लॉयनः विंस्टन स्पेंसर चर्चिल (1983)” में लिखा है कि चर्चिल, पद से हटाने के बजाय उसे ‘अनुशासित’ करना चाहते थे। लेकिन प्रधानमंत्री बनने के बाद भी चर्चिल ने अपने देश की ओर से माफ़ी नहीं मांगी थी।

लगभग एक सदी के बाद फ़रवरी, वर्ष 2013 में कई अनुरोधों के बाद डेविड कैमरन पहले ब्रिटिश प्रधानमंत्री थे जिन्होंने अमृसतर का दौरा किया। वहां बने स्मारक पर फूल चढ़ाए और अमृतसर क़त्लेआम को ब्रिटिश इतिहास की एक ‘बेहद शर्मनाक’ घटना बताया। बाद में अप्रैल, वर्ष 2019 में क़त्लेआम के शताब्दी वर्ष में, तत्कालीन प्रधानमंत्री थेरेसा मे ने नरसंहार को एक ‘शर्मनाक दाग़’ कहा। इस घटना को शर्मनाक बताने के सिवाय किसी भी अंग्रेज़ प्रधानमंत्री ने ‘माफ़ी’ जैसे शब्द का इस्तेमाल नहीं किया। अगर उन्होंने माफ़ी जैसे शब्द के आसपास के किसी शब्द का इस्तेमाल भी किया होता तो भी उसका कोई ख़ास मतलब नहीं निकलता क्योंकि ब्रिटिश साम्राज्यवाद का प्रतीक हमेशा राजशाही रहा है जिसके नाम पर औपनिवेशिक अत्याचार किया गया था; भले ही वह केवल प्रतीकात्मक क्यों न रहा हो। इसलिए माफ़ी की उम्मीद उन्हीं से की जा रही थी ।

क़त्लेआम के वक्त जॉर्ज-पंचम ब्रिटेन के महाराजा थे। उन्होंने और उनके बाद के राजाओं ने ख़ालिस ब्रिटिश शाही अंदाज़ में जलियांवाला बाग़ हत्याकांड पर चुप्पी बनाए रखने की कोशिश की थी। अक्तूबर 1997 में, भारतीय स्वतंत्रता की स्वर्ण जयंती के अवसर पर महारानी एलिजाबेथ-द्वितीय, तीसरी बार भारत की आधिकारिक राजकीय यात्रा पर आईं थीं। दिल्ली में आयोजित एक राजकीय भोज में उन्होंने जलियांवाला बाग़ को एक ‘तकलीफ़देह उदाहरण’ कहा था। अगले दिन सुबह महारानी और राजकुमार अमृतसर गए, जहां उन्होंने जलियांवाला बाग के स्मारक पर 15 मिनट बिताए। महारानी ने जूते उतारकर 30 सेकंड का मौन रखा और फूल चढ़ाए। दोनों ने विज़िटर्स बुक पर हस्ताक्षर किए, लेकिन उसमें कोई संदेश नहीं लिखा, मानो वे उन हत्याओं के लिए ‘आधिकारिक माफ़ी’ मांगने से कतरा रहे हों।

हालांकि इसकी पुष्टि करना मुश्किल है; लेकिन उस दिन वहां मौजूद कई लोगों ने बताया था, कि प्रिंस फिलिप ने बाग़ में लगी एक पट्टिका पर सवाल उठाया था जिसमें क़त्लेआम में दो हज़ार लोगों के मारे जाने का उल्लेख था। उन्होंने इसे ‘अतिश्योक्ति’ बताया और कहा कि वे उस समय डायर के बेटे के साथ नौसेना में थे। प्रिंस फ़िलिप का मानना था कि हो सकता है, कि मरने वालों की संख्या में घायलों को भी शामिल कर लिया गया हो।

हालांकि यह सवाल अपने-आप में बहस का विषय रहा है, क्योंकि अलग-अलग संगठनों ने मारे गए लोगों की संख्या अलग-अलग बताई थी। गृह मंत्रालय (1919) की रिपोर्ट संख्या 23, डीआर 2, के अनुसार 290 लोग मारे गए थे। जबकि सेना ने कहा था कि इस घटना में 200 से कम लोग मारे गए। जनरल डायर ने ख़ुद इस घटना के तुरंत बाद 200-300 लोगों को मारने का दावा किया था। पंजाब सरकार के गृह मंत्रालय (1921) और सेवा समिति ने अपने सर्वेक्षणों में क्रमशः 381 और 501 लोगों के मरने का दावा किया था। बहरहाल, एक संवेदनशील लम्हें में इस बात का उल्लेख करने की वजह से लोगों ने प्रिंस फ़िलिप की आलोचना की थी।

भारत में कई लोगों को महारानी की यात्रा बेमतलब लगी, क्योंकि उन्हें लगा था कि महारानी को भी जलियांवाला बाग़  क़त्लेआम के लिए उसी तरह माफ़ी मांग लेनी चाहिए थी, जिस तरह जर्मनी और जापान ने दूसरे विश्व युद्ध में मारे गए लोगों के लिए माफ़ी मांग ली थी। तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री इंद्र कुमार गुजराल जैसे कई लोगों ने इस बात को ये कहकर ख़ारिज करने की कोशिश की थी कि एलिज़ाबेथ, सन् 1952 में, भारत की आज़ादी के बाद महारानी बनीं थीं। इसलिए अमृतसर की हत्याओं में उनकी कोई भूमिका नहीं थी।

आज, नरसंहार से तबाह हुए परिवारों की तीसरी-चौथी पीढ़ी आ चुकी है। डायर पहले ही मर चुका है। भारतीयों को किसी व्यक्ति विशेष से नहीं, बल्कि उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद की नीति से माफ़ी की उम्मीद है जिसकी शह पर सेना के एक अधिकारी ने, उस दुर्भाग्यशाली दिन, बेहिचक एक भयावह निर्णय लिया था। इस साम्राज्यवाद की नुमाइंदगी इंग्लैंड का “ताज” करता है, जो संयोग से पहले महारानी एलिजाबेथ के सिर पर था और अब किंग चार्ल्स के सिर पर है। लंबे समय से ही उम्मीद की जा रही है, कि वह माफ़ी मांगेंगे। अतीत के ज़ख़्मों पर मरहम रखने के उन्हें कुछ तो करना होगा।

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