“ बालाकोट “ का नाम पूरे भारत में मशहूर है क्योंकि भारतीय वायु सेना ने यहां सन 2019 में हवाई हमला किया था लेकिन दो सौ पहले भी बालाकोट एक प्रसिद्ध युद्ध के लिए सुर्ख़ियों में था। तब सिख महाराजा रणजीत सिंह ने, धर्म प्रचारक से उग्रवादी बने सैयद अहमद बरेलवी की धर्मान्ध सेना को हराया था।
आधुनिक भारत में महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल में पंजाब सबसे शक्तिशाली साम्राज्य में से एक हुआ करता था।लेकिन कम ही लोग जानते हैं कि महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल के ऊरूज के दौरान सिखों को, धार्मिक उन्माद से भरे एक ताक़तवर दुश्मन से जूझना पड़ा था । वह धार्मिक उन्माद अरब के वहाबी आंदोलन के सिद्धांत से प्रेरित था।
सैयद अहमद बरेलवी का जन्म 29 नवंबर सन 1786 को अवध साम्राज्य के शहर रायबरेली (मौजूदा समय में उत्तर प्रदेश) में हुआ था। उसके शहर के नाम पर ही सैयद अहमद के नाम साथ बरेलवी जुड़ गया। 20वीं सदी के प्रसिद्ध पंजाबी लेखक शमशेर सिंह अशोक ने अपनी किताब “ वीर नायक सरदार हरी सिंह नलवा ” में दावा किया है कि सैयद अहमद बरेलवी के पूर्वज सरहिंद (अब भारत का पंजाब) से थे जहां वे मुग़ल गवर्नर वज़ीर ख़ान की सेवा में थे। बंदा सिंह बहादुर के नेतृत्व में जब सिख सेना ने सरहिंद पर कब्ज़ा कर लिया तब बरेलवी परिवार के पूर्वजों सहित वज़ीर ख़ान के कई अधिकारियों ने अवध में शरण ले ली थी, जहां सालों बाद सैयद अहमद बरेलवी का जन्म हुआ।
सैयद अहमद बरेलवी बचपन से ही वहाबीवाद के सिद्धांत में दिलचस्पी लेने लगा था। वहाबीवाद एक कट्टर आंदोलन था जिसकी बुनियाद अरब में इस्लाम के विद्वान मोहम्मद इब्न अब्द अल-वहाब ने सैयद अहद बरेलवी के जन्म के पहले इस्लाम के सुन्नी संप्रदाय में रखी थी। वहाबीवाद में इस्लाम के विशुद्ध रुप में वापसी, इसकी उत्पत्ति और ईश्वर की संपूर्ण प्रभुता पर ज़ोर दिया जाता था। इसमें सूफ़ी-संत पंथ पर प्रतिबंध था और तंबाकू, शराब के सेवन तथा दाढ़ी बनाने की मनाही थी। वहाबियों की मस्जिदें में सादगी दिखाई देती थी और सभी लोगों का नमाज़ में शरीक होना अनिवार्य था।
बहरहाल, समय के साथ सैयद अहमद बरेलवी एक अन्य विद्वान शाह वलीउल्लाह देहलवी से प्रेरित हो गया जो मुग़लों की राजधानी दिल्ली में रहते थे। उनकी विचारधार बहुत राजनीतिक, शियाओं, ग़ैर-मुस्लिमों और उन तमाम लोगों के विरुद्ध थी जो उनकी नज़र में नास्तिक थे। वयस्क होते होते सैयद अहमद बरेलवी के दिमाग़ पर देहलवी की विचारधारा पूरी तरह हावी हो गई।
25 साल की उम्र में सैयद अहमद बरेलवी, उत्तर भारत के उग्रवादी नेता के साथ जुड़ गया जिनका नाम आमिर ख़ान था और जो अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ उग्रवादी गतिविधियों को अंजम देते थे। लेकिन जल्द ही बरेलवी ने किन्हीं कारणों से उनका साथ छोड़ दिया हालंकि उसने उनसे राजनीतिक और सैन्य ज्ञान काफ़ी हासिल कर लिया।
आमिर ख़ान का साथ छोड़ने के बाद सैयद अहमद बरेलवी, दिल्ली में अपने धार्मिक गुरु वलीउल्लाह देहलवी के पुत्र शाह अब्दुल अज़ीज़ से मिलने गया। अज़ीज़ बरेलवी की प्रतिभा से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अपने भांजे शाह इस्माइल और दामाद मौलवी अब्दुल हई को धार्मिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए उनके पास भेज दिया।
जानेमाने परिवारों के दो अनुयायियों के मिलने के बाद बरेलवी की लोकप्रियता बढ़ गई और फिर उसके अनुयायियों की संख्या हज़ारों में पहुंच गई।
इसके बाद सैयद हमद बरेलवी ने पूरे भारत की यात्रा की और उत्तर-पश्चिम भारत, बिहार, हैदराबाद, मद्रास, बंगाल, बॉम्बे और अवध में हज़ारों लोगों को एकजुट किया। उसका आंदोलन जब व्यापक हो गया तब उसने भारत को एकजुट करके, पूरे भारत को ख़िलाफ़त में बदलने और ख़ुद उसका ख़लीफ़ा या पवित्र बादशाह बनने का ख़्वाब देख लिया। सन 1821 में वह हज करने मक्का गया, जहां वहाबी आन्दोलन के सरपरस्तों से मिलने के बाद मिशन को लेकर उसका इरादा और पुख्ता हो गया।
अपने मिशन के लिए बरेलवी ने, देश के अन्य हिस्सों में जाने के बजाय, सबसे पहले सिख साम्राज्य के ख़िलाफ़ जिहाद छेड़ने का फ़ैसला किया। उस समय सिख साम्राज्य पर महाराजा रणजीत सिंह का शासन हुआ करता था। इस्लाम के विद्वानों का कहना है कि जिहाद एक आध्यात्मिक शब्द है जिसका अर्थ और मक़सद अपने भीतर की भावनात्मक और सामाजिक बुराईयों से लड़ना और अपने धर्म का प्रचार करना है। लेकिन वहाबियों की कट्टरपंथी विचारधारा से प्रभावित बरेलवी ने अपनी आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए जिहाद उग्रवाद के रुप में इसका इस्तेमाल किया।
शमशेर सिंह अशोक जैसे कई सिख इतिहासकारों का मानना था कि ये अंग्रेज़ों की साज़िश का हिस्सा था। शमशेर सिंह अशोक के अनुसार रणजीत सिंह के साम्राज्य की बढ़ती ताक़त को देखने के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी ने बरेलवी को भेजा था। चूंकि सन 1809 में एंग्लो-सिख मैत्री-संधि हो चुकी थी जिसके तहत अंग्रेज़ पश्चिम सतलज पर लाहौर के साम्राज्य में सीधे दख़ल नहीं दे सकते थे। संधि की वजह से रणजीत सिंह स्वतंत्र रुप से कश्मीर और पूर्व-पश्चिम में अपना अभियान जारी रख सकते थे। रणजीत सिंह की विस्तारवादी योजना से घबराकर अंग्रेज़ों ने उनके साम्राज्य में अस्थिरता पैदा करने के लिये बरेलवी को भेजा था।
यहां यह जानना भी ज़रुरी है कि 19वीं सदी के लेखक मोहम्मद जाफ़र थानेसरी ने अपनी किताब “तारीख़-ए-अजीबा” में लिखा था कि बरेलवी के बहुत से अनुयाई इस बात को लेकर उलझन में थे कि उनके रहनुमा का पूरा ध्यान एक छोटे से क्षेत्र पंजाब पर ही क्यों है जबकि उनका आधार तो हिंदी-क्षेत्रों में है जिससे पंजाब बहुत दूर है। इसके अलावा पंजाब रणजीत सिंह के साम्राज्य में पश्चिमी सरहद में अलग थलग था जिस पर क़ाबू पाना मुश्किल था। बरेलवी के ज़्यादातर अनुयाई अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ जिहाद छेड़ना चाहते थे जो भारत के ज़्यादातर हिस्सों पर राज कर रहे थे।
बहरहाल, अप्रेल सन 1826 में बरेलवी और उसके लोग दिल्ली से कूच करके , कुछ समय बाद, सिंध और अफ़ग़ानिस्तान से होते हुए पेशावर घाटी पहुंचे जहां से उन्हें अपने मिशन की शरुआत करनी थी। तब पेशावर पर अफ़ग़ान बादशाह दोस्त मोहम्मद के छोटे भाई यार मोहम्मद ख़ान का शासन था जिसने सिखों का आधिपत्य स्वीकार कर लिया था। बरेलवी ने जब उससे मदद मांगी तो पहले तो उसने इनकार कर दिया लेकिन अपने दरबारियों की प्रबल धार्मिक भावनाओं को देखते हुए उसके सामने मदद करने के अलावा और कोई चारा नहीं बचा था।
इसके बाद बरेलवी ने हर्षनगर के एक गांव चारसद्दा में अपने खेमे गाड़ दिए । वहीं से वह स्थानीय पश्तून कबाईलियों को धर्मोपदेश देने लगा। उसने उनसे बड़ी संख्या में साथ आने और शरियत (इस्लामिक क़ानून) का पालन करने को कहा। शरियत कीआड़ में उसने पश्तून कबीलों से अपने मिशन के लिए चंदा भी मांगा। जल्द ही यूसुफ़ज़ई और मंदार सहित कई पश्तून कबीले बड़ी संख्या में उसके साथ गए।
कहा जाता है कि सन 1827 की शुरुआत में बरेलवी और उसके ग़ाज़ियों( धार्मिक-यौद्धा ) ने पहले अकोरा और फिर जहांगीरा में सिख सेनाओं पर हमला किया। रणजीत सिंह के जीवन पर सोहन लाल सूरी की किताब “उम्दात-उत-तवारीख़” के अनुसार सिख-सेना की ओर से हरी सिंह नलवा ने कमान संभाली जो उस समय सिख कमांडर इन चीफ़ और हज़ारा के सूबेदार थे। हालंकि ग़ाज़ियों की संख्या बहुत अधिक थी लेकिन वे युद्ध में प्रशिक्षित नहीं थे और वे खालसा सेना के सामने टिक नही पाए जो एंग्लो-फ़्रांसिसी शैली में प्रशिक्षित थी और जिसके पास सबसे बेहतर हथियार थे। सिखों ने गाज़ियों को दोनों बार आसानी से हरा दिया।
युद्ध के बाद हरी सिंह नलवा ने ग़ाज़ियो की तलाश शुरु की लेकिन उन्हें ख़ास सफलता नहीं मिली। चूंकि बरेलवी को उस क्षेत्र में स्थानीय कबीलों का समर्थन हासिल था औऱ वह छापामार युद्ध लड रहा था इसलिये उसे पकड़ना आसान नहीं था। कुछ समय तक शांति रही लेकिन एक बार फिर दोनों पक्षों की भिड़ंत हुई।
अंग्रेज़ सरकार द्वारा प्रकाशित पेशावर ज़िला गज़टियर (1897-1898) के अनुसार नलवा को सूचना मिली कि गाज़ी स्वात-क्षेत्र में सैदो शरीफ़ में जमा हुए हैं। नवला ने फ़ौरन शहर की चारों तरफ़ से घेराबंदी कर दी और उन पर हमला बोल दिया। ग़ाज़ी सैनिक इस अचानक हमले के लिए तैयार नहीं थे और बड़ी संख्या में सिख यौद्धाओं की तलवार का शिकार हो गए।
बरेलवी इस हार को बर्दाश्त नहीं कर पाया और उसने यह कहते हुए इसके लिए यार मोहम्मद ख़ान को ज़िम्मेवार ठहराया कि उसने सिखों की मदद की । नतीजतन बरेलवी ने यार मोहम्मद ख़ान के छोटे क़िले पर हमला कर दिया।
यार मोहम्मद इसे बचाने आया लेकिन वह इस बुरी तरह ज़ख़्मी हो गया कि पेशावर पहुंचने के पहले ही उसकी मौत हो गई। महाराजा रणजीत सिंह ने फ़ौरन उसके बड़े भाई सुल्तान मोहम्मद ख़ान को गवर्नर बना दिया और इस तरह पूरे कबीले का समर्थन हासिल कर लिया।
यार मोहम्मद की हत्या करने के बाद बरेलवी ने यार मोहम्मद ख़ान के एक अन्य विश्वासपात्र कावे ख़ान को भी मामूली बात पर क़त्ल कर दिया । इस हत्या से, अपना घरबार और परिवार छोड़कर बरेलवी के मिशन में शामिल होने आए भारतीय मुसलमान नाराज़ हो गए और उन्होंने ऐसे व्यक्ति के लिए लड़ने से इनकार कर दिया जो छोटी-सी बात पर किसी की भी जान ले सकता है। उन्हें समझ में आ गया था कि बरेलवी उनकी जान लेने से भी नहीं झिझकेगा। इस तरह क़रीब 600 ग़ाज़ी अपने नेता सैयद महबूब के साथ वापस घर लौट गए।
उसी समय पेशावर का नया सूबेदार सुल्तान मोहम्मद अपने भाई की हत्या का बदला लेने के लिए ग़ुस्से में सुलग रहा था लेकिन उसे पता था कि उसके लोगों में बरेलवी के बहुत से समर्थक हैं इसलिए वह कुछ नहीं कर सका। जल्द ही यानी सन 1830 में बरेलवी अपने पश्तून और भारतीय अनुयायियों के साथ आसानी से पेशावर के क़िले में दाख़िल हो गया। सुल्तान की सेना ने कोई प्रतिरोध नहीं किया क्योंकि ज़्यादातर सैनिक बरेलवी के समर्थक थे। सुल्तान ने, उसे मिलनेवाली 3000 रुपये सालाना पेंशन पर ग़ाज़ियों का क़ब्ज़ा स्वीकार कर लिया।
बरेलवी शहर में सिर्फ़ तीन दिन रुका। लेकिन उसने क़ाज़ी या शहर के मजिस्ट्रेट की ड्यूटी अपने अवध के साथी मौलवी मज़हर अली अज़ीमाबादी को सौंप दी। यही नहीं, उसने पश्तो क़बीलों के लिए फ़तवा भी जारी कर दिया कि दोनों पक्षों के बीच मज़बूत संबंध क़ायम करने के लिए वे अपनी लड़कियों की शादी भारतीय ग़ाज़ियों के साथ करें। लेकिन पश्तून ग़ाज़ी, किसी पश्तू की जगह एक भारतीय क़ाज़ी की नियुक्ति और उनकी निजी मामलों में बरेलवी की दख़लंदाज़ी से सहमत नहीं थे।
एक करिश्माई व्यक्ति और इस्लाम के रक्षक के रुप में बरेलवी की छवि बहुत ख़राब हो गई थी। 19वीं सदी के मशहूर भारतीय इतिहासकार सैयद मोहम्मद लतीफ़ ने अपनी किताब “हिस्ट्री ऑफ़ पंजाब” में लिखा है कि अपने भारतीय मालिक से तंग आ चुके पश्तूनों ने एक दिन पेशावर क़िले में कई भारतीय ग़ाज़ियों को मौत के घाट उतार दिया और इनमें से कुछ ही बच पाए। इस तरह जो लड़ाई “युद्ध-धर्म” के नाम पर शुरु हुई थी वह “क्षेत्र- युद्ध “ के अहम पर आकर ख़त्म हो गई।
बरेलवी के पास पेशावर छोड़ने के अलावा कोई और विकल्प नहीं बचा था। उसने कश्मीर जाने का फ़ैसला किया। उसने सुना था कि वहां के स्थानीय लोग उसका समर्थन करने के लिए तैयार हैं। इस तरह उसने पेशावर घाटी और उसके आसपास के इलाक़ों को जीतने की अपनी योजना को त्यागकर कश्मीर में ख़िलाफ़त स्थापित करने का फ़ैसला किया।
बरेलवी अपने बाक़ी साथियों के साथ कश्मीर रवाना हो गया और मार्च सन 1831 तक बालाकोट (अब पाकिस्तान के ख़ैबर पख़्तूनख़्वा प्रांत में मनसेहरा में एक शहर) पहुंच गया । बालाकोट से ही कश्मीर के लिए रास्ता निकलता है। वहां पहुंचने पर सिख सेना के कई बाग़ी मुस्लिम सैनिकों ने बरेलवी से भेंट की और कुछ हथियार भी जमा किए जिनका इस्तेमाल लड़ाई में किया जा सकता था।
बरेलवी शहर में कुछ दिन रुका और उसने घोषणा कर दी कि अल्लाह ने उसे इंसानियत के ख़लीफ़ा के रुप में भेजा है और यह कि उसे कोई हथियार छू नहीं सकता। लेकिन उसे ये नहीं पता था कि पंजाब के राजकुमार कुंवर शेर सिंह, कमांडर हरी सिंह नवला और जनरल ज्यां बैपटिस्ट वेंचुरा के नेतृत्व में एक बड़ी सिख सेना पहले से ही उसका इंतज़ार कर रही थी।
रणजीत सिंह के दरबार के एक अन्य वृत्तांत लेखक दीवान अमरनाथ ने अपनी किताब “ज़फ़रनामा रणजीत सिंह” में लिखा है कि बालाकोट का निर्णायक युद्ध अप्रैल सन 1831 में लड़ा गया था । दिन भर चले युद्ध में सभी ग़ाज़ी मारे गए और बरेलवी का सिर क़लम कर दिया गया। युद्ध के बाद बरेलवी का सिर धड़ के साथ रखकर, इस्लामिक रीति-रिवाज के तहत दफ़्न कर दिया गया। हालंकि सिख इतिहास में उसे उग्रवादी माना जाता है लेकिन कई लोग उसे इस्लाम के नाम पर शहीद होनेवाला मानते थे। ये लोग उसे एक ऐसा नेता मानते थे जिसने अपने धर्म और लोगों के लिये लड़ने की हिम्मत दिखाई।
ऐसा माना जाता है कि विद्रोह कुचले जाने के बावजूद स्थित पूरी तरह एकता क़ायम नहीं हो सकी ।जल्द ही पश्तून कबीलों में लंबा संघर्ष शुरु हो गया जो सिख साम्राज्य के ख़त्म होने के बाद भी जारी रहा। उनका पहला संघर्ष डोगरा राजपूतों की कश्मीर रियासत के ख़िलाफ़ और दूसरा संघर्ष अंग्रेज़ सरकार के ख़िलाफ़ चला जो सन 1897 तक जारी रहा।
हालंकि एंग्लो-अफ़ग़ान युद्ध के दशकों बाद तक क्षेत्र में शांति रही लेकिन फिर क्षेत्र में इसी तरह का आंदोलन शीतयुद्ध के बाद शुरु हो गया। इस क्षेत्र में, उग्रवादी संगठन नए रूप में पैदा हो गए जो बरेलवी से प्रेरित होने का दावा करने लगे, ख़ासकर उस उग्रवादी आंदोलन से जो दो शताब्दी पहले शुरु हुआ था। जैसा कि कहा जाता है, “कुछ चीज़े समय के साथ नहीं बदलती हैं ।“
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