राजा नाहर सिंह और बल्लभगढ़ की बग़ावत

1857 के विद्रोह के इतिहास के बारे में हम जब भी पढ़ते हैं, तो मेरठ, दिल्ली और झांसी आदि जैसे शहरों का ज़िक्र आता है,जो विद्रोह के प्रमख केंद्र थे। लेकिन कम ही लोग जानते हैं, कि हरियाणा का भी इसमें योगदान रहा है, ख़ासकर बल्लभगढ़ का।

ये बल्लभगढ़ के राजा नाहर सिंह थे, जिन्होंने विद्रोह में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। माना जाता है, कि वह मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र के बहुत विश्वास्पात्र थे और उन्होंने अंग्रेज़ों के चंगुल से बहादुर शाह ज़फ़र को छुड़ाने की भी कोशिश की थी।

हम यहां इस राजा की विरासत की पड़ताल करने की कोशिश कर रहे हैं, जो आज भी हरियाणा में मौजूद है।

दिल्ली से 56 कि.मी. दूर और अब फ़रीदाबाद ज़िले के हिस्से, बल्लभगढ़ पर किसी समय तेवतिया जाटों का शासन हुआ करता था। जाट शासकों का इतिहास सन 1705 से शुरु होता है।

तब पलवल (आधुनिक समय में हरियाणा में मौजूद) से आकर जाट ज़मींदार गोपाल सिंह सिही गांव (बल्लभगढ़ के पास) में बस गया था। सन 1707 में औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद मुग़ल साम्राज्य का पतन होने लगा था। इसकी वजह से क्षेत्रीय ताक़ते सिर उठाने लगी थीं। इनमें जाट भी शामिल थे, जो राजा राम (शासनकाल 1670-1688) के उदय के बाद एकजुट होने लगे थे। राजा राम पहला शासक था, जिसने औरंगज़ेब के ख़िलाफ़ बग़ावत की थी। फ़रीदाबाद के मुग़ल अफ़सर मुर्तुज़ा ख़ां ने सन 1710 में गोपाल को फ़रीदाबाद परगने का चौधरी बना दिया था।

सन 1711 में गोपाल के निधन के बाद, चरण दास ने चौधरी का ख़िताब हासिल कर लिया। कमज़ोर पडते मुग़ल प्रशासन को देखते हुए चरण दास ने मुर्तुज़ा ख़ां को चुंगी शुल्क देना बंद कर दिया, जिसकी वजह से सन 1714 में उसे गिरफ़्तार कर लिया गया। बहरहाल, उसके पुत्र बलराम सिंह तेवतिया (जन्म तिथि अज्ञात-सन 1753) ने हस्तक्षेप किया और फ़िरौती अदा करके चरण दास को रिहा करवा लिया।

इसके बाद बाप-बेटे दोनों मिलकर ख़ुद को मज़बूत करने लगे और सन 1720 आते आते मोहम्मद शाह (शासनकाल 1719-1748) के दौर में बलराम सबसे प्रभावशाली जाट नेता बन गया। बलराम से उत्पन्न ख़तरे को देखते हुए मुर्तुज़ा ख़ां ने भारी कर लगा दिये, जबकि ये अकाल का समय था। भारी कर के बढ़ाये जाने से नाराज़ बलराम ने मुर्तुज़ा की हत्या कर दी।

इसके बाद बलराम भरतपुर के महाराजा सूरजमल (शासनकाल 1755-1763) का ज़मींदार बन गया। बलराम ने अपनी बहन की शादी सूरजमल से करवा दी और सन 1739 में मोहम्मद शाह ने बलराम को नायब बक्शी तथा राव का ख़िताब दे दिया। ख़िताब मिलने की ख़ुशी में उसने फ़रीदाबाद के पास एक क़िला बनवाना शुरु किया जिसका नाम “बल्लभगढ़” रखा। ये बलराम का बिगड़ा रुप था। क़िले को उसने अपनी रियासत बन लिया। बलराम के परिवार ने अपना अधिकार क्षेत्र मथुरा (उत्तर प्रदेश), बल्लभगढ़, पलवल (हरियाणा), फ़तेहपुर तथा पाली (राजस्थान) तक बढ़ा लिया।

सन 1750 में मुर्तुज़ा के बेटे अक़ीबत महमूद ने सिकंदराबाद में बलराम की हत्या कर दी, जहां वह (बलराम) लूटपाट करने गया था। हत्या के बाद क़िले पर बलराम के पुत्रों किशन और बिशन ने कब्ज़ा कर लिया। पानीपत के तीसरे युद्ध (1761) के बाद बल्लभगढ़ मुग़लों के हाथों में चला गया। इस युद्ध में जाट मराठा सेना का साथ दे रहे थे, जो हार गई थी। सन 1762 में सूरजमल ने क़िले पर दोबारा कब्ज़ा कर उसे उसके असली मालिकों को सौंप दिया।

एक दशक बाद अपने स्वतंत्र शासन की चाह में किशन का पुत्र अजीत मुग़ल बादशाह शाह आलम (शासनकाल 1760-1806) के दरबार में पहुंच गया और शाह आलम ने उसे “राजा” का ख़िताब दे दिया।

सन 1803 तक ये शासन परिवार के एक सदस्य से दूसरे सदस्य के हाथों जाता रहा। सन1803 में दूसरे एंग्लो-मराठा युद्ध के बाद सुर्जी-अंजनगांव संधि हुई। इस युद्ध में तब के जाट शासक हीरा सिंह ने मराठों का साथ दिया था। संधि के बाद अंग्रेज़ों ने हीरा सिंह को सत्ता से बेदख़ल कर, उसके उत्तराधिकारी के रुप में बहादुर सिंह को बल्लभगढ़ का शासक बना दिया।

इस बीच अंग्रेज़ों की देखरेख में बल्लभगढ़ पर परिवार के सदस्यों का शासन चलता रहा। ये सिलसिला राजा राम सिंह (शासनकाल 1825-1829) की बीमारी के बाद मृत्यु तक चलता रहा। राम सिंह की मृत्यु के बाद उसका नौ साल का पुत्र नाहर सिंह (जन्म 6 अप्रैल 1820) राज्य का कामकाज देखने लगा। बालिग़ होने तक इस काम में उसके चाचा नवल सिंह उसकी मदद करते रहे ।

इस दौरान नाहर सिंह एक अच्छे घुड़सवार और निशानेबाज़ बन गये। उन्होंने शिकार औऱ निशानेबाज़ी के शौक़ को जारी रखा। सन 1839 तक नाहर सिंह बल्लभगढ़ के 101 गांवों के शासक बन गये। हालांकि उनके शासनकाल के बारे में ज़्यादा जानकारी उलब्ध नहीं है ,लेकिन मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र को लिखे पत्रों से पता चलता है, कि उनका नज़रिया उदार था और वह कला के संरक्षक भी थे। उन्होंने अपने दरबार के कुछ संगीतकारों को उपहार में गांव भी दिये थे।

“प्रोसीडिंग ऑफ़ द इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस (खंड 52)” पुस्तक में इतिहासकार हरि सिंह द्वारा लिखे “राजा नाहर सिंह ऑफ़ बल्लभगढ़ एंड द रिवोल्ट ऑफ़ 1857” अध्याय के अनुसार ज़फ़र नाहर सिंह को अपना ख़ास मानते थे और उन्होंने उन्हें दिल्ली की सुरक्षा तथा अन्य ज़िम्मेदारियां सौंप रखी थीं।

दूसरी तरफ भारतीय उप-महाद्वीप के लगभग पूरे हिस्से पर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का कब्ज़ा होने लगा था और भारी कर तथा राजनीतिक दमन की वजह से अशांति का माहौल बन रहा था।

दस मई सन 1857 को मेरठ में विद्रोह हो गया। अंग्रेज़ों ने सेना के इस्तेमाल के लिये नयी ली-एनफ़ील्ड बंदूक़ें दीं, जिसके कारतूस में सूअर और गाय की चर्बी मिली हुई थी। इससे नाराज़ होकर मेरठ में सैनिकों ने विद्रोह कर दिया था।

12 मई सन 1857 को बाग़ी सैनिक दिल्ली पहुंचे और बहादुर शाह ज़फ़र को भारत का बादशाह घोषित कर दिया गया। इसके बाद बड़े पैमाने पर अंग्रेज़ों और उनकी संपत्ति की लूटपाट शुरु हो गई। स्थिति को देखते हुए राजा नाहर सिंह भी विद्रोह में शामिल हो गये। उन्होंने शुरु में फ़रीदाबाद के ज़िला अधिकारी विलियम फ़ोर्ड को मदद देने से इनकार कर दिया था, जो विद्रोह दबाने के लिये सैनिक जमा कर रहा था।

नाहर ने दिल्ली की पश्चिमी सीमा की कमान संभाल ली। उन्होंने दिल्ली से लेकर भरतपुर तक सैनिक चौकियां बना दीं जिसका केंद्र बल्लभगढ़ में होता था। इसकी वजह से अंग्रेजों को पश्चिमी दिशा से पुराने शहर में दाख़िल होने में बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ा। ब्रिटिश कमांडर जॉन लॉरेंस ने भारत के निवर्तमान गवर्नर जनरल लॉर्ड कैनिंग को पत्र लिखा, जिसमें उसने बल्लभगढ़ को दिल्ली का लोहे का दरवाज़ा बताया। उसने लिखा था-

बल्लभगढ़ के राजानाहर सिंह की शक्तिशाली फ़ौज ने पूर्व और दक्षिण सीमा की ज़बरदस्त सुरक्षा कर रखी है और अगर हमें चीन या फिर इंग्लैंड से और सैनिक नहीं मिलते, तो सैनिकों की इस दीवार को तोड़ना बहुत मुश्किल है।

रेवाड़ी के राव तुला राव और फ़र्रुख़नगर के नवाब अहमद अली ख़ान जैसे हरियाणा के अन्य स्थानों के कई महत्वपूर्ण नेताओं ने भी विद्रोह कर दिया। उनके पास विद्रोही सैनिक आने लगे थे। स्थानीय गूजर और मेवात सहित तीसरी घुड़सवार सेना और 32वीं पैदल सेना बल्लभगढ़ की सेना से मिल गई थी, जिसकी मदद से नाहर ने 25 मई सन 1857 को पहले पलवल और फिर फ़तेहपुर तथा पाली पर कब्ज़ा कर लिया। दिलचस्प बात ये है, कि ये दोनों स्थान नाहर के वंशजों के थे जिन पर अंग्रेज़ों ने कब्ज़ा कर लिया था।

एकांट्स एंड पेपर्स ऑफ़ द हाउस ऑफ़ कामंस, वाल्यूम 18 (1859) के अनुसार इस दौरान नाहर सिंह पत्रों के ज़रिये लगातार बहादुर शाह ज़फ़र के संपर्क में थे। इन पत्रों से हमें दोनों के बीच बातचीत के बारे में थोड़ी बहुत जानकारी मिलती है। इन पत्रों से पता चलता है, कि नाहर सिंह का कब्ज़े में लिये गये क्षेत्रों तथा मार्गों पर पूरा नियंत्रण था। हमें ये भी पता चलता है, कि त्यौहारों के मौक़ों पर दोनों एक दूसरे को बधाई देते थे तथा नाहर सिंह ईद पर ज़फ़र और उसके परिवार के ख़ास सदस्यों को सोने के सिक्के दिया करते थे।

इस बीच अंग्रेज़ों को कई भारतीय रियासतों से सैन्य मदद मिलने लगी। सैन्य मदद के सिलसिले में जब एक रियासत (नाम अज्ञात) का संदेशवाहक संदेश लेकर जा रहा था, तब उससे नाहर सिंह को इस बारे में पता चल गया। इसके पहले कि अंग्रेज़ दिल्ली पर कब्ज़ा करें, इसका नतीजा भांप कर नाहर सिंह ने दस सितंबर सन 1857 को लंदन में लॉर्ड एलनबोरो को पत्र लिखकर संरक्षण और सुरक्षा मांगी। एलनबोरो सन 1842 से लेकर सन 1844 तक भारत का गवर्नर जनरल रह चुका था और जब नाहर क़रीब बीस साल के थे तब वह एलनबोरो से मिले थे। ये पत्र मशहूर ऑक्शन कंपनी बोनहाम्स (नीलामी करने वाली कंपनी) में रखा हुआ है। कंपनी के सूची-पत्र में लिखा है-

लगता है कि गिरफ़्तारी की स्थिति में अंग्रेज़ों को झांसा देने के उद्देश्य से एक चाल के रुप ये पत्र लिखा गया था……क्योंकि वह भारत की आज़ादी के प्रति पूरी तरह निष्ठावान था।

14 सितंबर सन 1858 को अंग्रेज़ों ने हमला किया और कश्मीरी गेट से दिल्ली में दाख़िल हो गये। भीषण लड़ाई के बाद 24 सितंबर सन 1858 को अंग्रेज़ों ने दिल्ली पर कब्ज़ा कर लिया। दिल्ली पर कब्ज़े के बाद अपने अंतिम स्थान ज़फ़र महल जाते समय बहादुर शाह ज़फ़र हुमांयू के मक़बरे में छुप गये। ज़फ़र को लेने नाहर सिंह बल्लभगढ़ से रवाना हो गये, लेकिन ज़फ़र के विश्वासपात्र मिर्ज़ा इलाही बक्श ने बादशाह को मक़बरे से और आगे न निकलने की सलाह दी। इसी मक़बरे में अंग्रेज़ों ने बहादुर शाह ज़फ़र और उसके परिवार के सदस्यों को गिरफ़्तार कर लिया। उन्हें गिरफ़्तार करने वाले मेजर विलियम हडसन ने बहादुर शाह के पुत्रों की हत्या कर दी।

इस बीच बहा दुर शाह ज़फ़र गिरप़्तारी की सूचना मिलने पर नाहर सिंह तुरंत अपने मज़बूत गढ़, बल्लभगढ़ के क़िले में चले गये जहां से उन्होंने अंग्रेज़ सेना से जंग जारी रखी।

अंग्रेज़ों ने नाहर से बातचीत की पेशकश की। चार घोड़ों पर सवार अंग्रेज़ अफ़सर बल्लभगढ़ पहुंचे और उन्होंने कहा, कि ज़फ़र के साथ समझौते की बातचीत चल रही है और जिसमें नाहर की मौजूदगी ज़रुरी है।

छह दिसंबर सन 1857 को नाहर पांच सौ घुड़सवार सैनिकों के साथ दिल्ली रवाना हो गये ,लेकिन जैसे ही वह दिल्ली मे दाख़िल हुए, अंग्रेज़ों ने उन पर हमला कर उन्हें घर दबोचा। हमले में उनके सभी सैनिक मारे गये। अगले दिन अंग्रेज़ों ने बल्लभगढ़ इलाक़े पर धावा बोल दिया और तीन दिन तक मारकाट चलती रही जिसमें स्थानीय निवासियों को भी नहीं बख़्शा गया। नाहर पर मुक़दमा चला और उन्हें फांसी की सज़ा हो गई।

9 जनवरी सन 1858 को दिल्ली में चांदनी चौक स्थित उनकी हवेली के सामने ही नाहर और उसके ख़ास तीन साथियों-कुशाल सिंह, गुलाब सिंह और भूरा सिंह को फांसी पर लटका दिया गया। तीन महीने बाद ही नाहर अपना 36वां जन्मदिन मनाने वाले थे। कहा जाता है, कि नाहर सिंह का शव उनके परिवार को नहीं सौंपा गया था। आख़िरकार परिवार के शाही पुजारी ने राजा नाहर सिंह का पुतला बनाकर गंगा नदी के किनारे उनका अंतिम संस्कार किया।

बहादुर शाह ज़फ़र को म्यांमार के रंगून शहर में निर्वासित कर दिया गया, जहां सन 1862 में देहांत हो गया।

नाहर सिंह के साम्राज्य पर कब्ज़ा करने के बाद अंग्रेज़ों ने उसकी बेवा रानी किशन कंवर के लिये पांच सौ रुपये मासिक पेंशन तय कर दी और उन्हें बल्लभगढ़ में रहने की इजाज़त दे दी। लेकिन गांव का मालिकाना हक़ फ़रीदकोट के राजा महाराजा वज़ीर शाह (शासनकाल 1849-1874) को दे दिया गया। आज़ादी के बाद एक नवंबर सन 1966 को बल्लभगढ़ नये राज्य हरियाणा का हिस्सा बन गया।

जिस दिन राजा नाहर सिंह को फांसी दी गई थी आज भी उस दिन को हरियाणा में “बलिदान दिवस” के रुप में मनाया जाता है। उनके सम्मान में भारत सरकार ने एक डाक टिकट भी जारी किया गया था।

चांदनी चौक में नाहर सिंह की हवेली के बारे में कोई ख़ास जानकारी उपलब्ध नहीं है। फ़रीदाबाद के एक क्रिकेट स्टेडियम, दिल्ली में वज़ीरपुर डिपो के पास एक सड़क, दिल्ली मैट्रो के वायोलेट लाइन मैट्रो स्टेशन और बल्लभगढ़ में भारतीय वायु सेना के एक लॉजिस्टिक स्टेशन का नाम नाहर सिंह के नाम पर रखा गया है। इतिहास और पर्यटन में दिलचस्पी रखने वालों के लिये बल्लभगढ़ का नाहर सिंह महल आज भी आकर्षण का केंद्र है।

हर साल नवंबर के महीने में हरियाणा पर्यटन विभाग राजा नाहर सिंह महल में, सांस्कृतिक समारोह का आयोजन करता है।

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