औरंगज़ेब की शहज़ादी मख़्फी: जो गाती थी प्रेम के तराने

“मैं कोई मुसलमान नहीं
मैं तो हूँ एक बुतपरस्त,
झुकता है सर मेरा सज़दे में
प्रेम की देवी की मूरत के सामने।

कोई ब्राह्मण भी नहीं हूँ मैं;
पहनी थी गले में जो अपने
पवित्र धागों की माला,
निकाल कर बाहर उसे
लपेट ली है मैंने अपनी जुल्फ़ो की लटें।”

(अंग्रेजी से अनुवाद: शिव शंकर पारिजात)

इसलाम के स्थापित मूल्यों और इसी तरह हिंदू धर्म के पवित्र चिन्हों को नकार कर प्रेम की देवी की हिमायत करने वाली उक्त पंक्तियां 17 वीं सदी के उस दौर में लिखी गयी हैं जब हिंदुस्तान के तख़्त पर अपनी कट्टर व संकीर्ण धार्मिक नीतियों के लिये बदनाम बादशाह औरंगज़ेब काबिज था। आपको यह जानकार जरूर थोड़ी और हैरानी होगी कि सूफ़ियाना अंदाज़ में ईश्वर को परम् सौंदर्य की प्रतिमूर्ति मान, प्रेम की देवी की इबादत में इस कलाम को लिखने वाली शायरा कोई और नहीं, खुद औरंगज़ेब की बड़ी बेटी शहज़ादी जेबुन्निसा है। शेरों-शायरी और गीत-संगीत से अपने पिता की नफ़रत के मद्देनज़र जेबुन्निसा ‘मख़्फी’ के छद्म नाम से अपने कलाम लिखा करती थी। फ़ारसी शब्द मख़्फी का अर्थ होता है छिपा हुआ, अर्थात गुमनाम।

जैबुन्निसा का जन्म 15 फरवरी, 1638 ई. में दौलताबाद में हुआ था। उस समय उसके दादा शाहज़हाँ हिंदुस्तान के बादशाह थे और शहज़ादा औरंगज़ेब दक्कन का वायसरॉय था। अपने चाचा सुलेमान शिकोह की तरह जैबुन्निसा उर्फ मख़्फी एक खुबसूरत, शिक्षित और सुसंस्कृत महिला थी जिसका गला बड़ा ही सुरीला था। वह अत्यंत उदार विचारों वाली थी। ‘लर्नेड मुगल वुमेन ऑफ औरंगज़ेब्स टाईम: जैबुन-निशा’ में सोमा मुखर्जी बताती हैं कि पवित्र कुरान के नियमों व सिद्धांतों की गहरी जानकारी के बावजूद वह अपने पिता की तरह धार्मिक कट्टर नहीं थी और अपने मज़हबी विचारों में उदार थी।

अपने पिता औरंगज़ेब की सख़्त नापसंदगी के बावजूद शायरी जेबुन्निसा के रग-रग में समायी हुई थी। गहरी अनुभूतियों से लबरेज़ उसकी कविताएं इतनी लयात्मक, रुहानी व आवेगों से परिपूर्ण होती थीं कि कोई भी वाहवाही करने के लिये मज़बूर हो जाता था। इसका सबसे माकूल उदाहरण है उसके 500 से भी ज़्यादा नज़्मों व गज़लों का संग्रह ‘दीवान-ए-मख़्फी’। इसके अलावे ‘जलवा-ए-खिज्र’ व ‘तजकिरा-ए-शरायत-ए-उर्दू’ भी जैबुन्निसा की शायरी के लाज़वाब नमूने हैं।

उदाहरण बताते हैं कि शायद अपने पिता के विचारों की ख़िलाफ़त जेबुन्निसा की फितरत बन गयी थी। खुले खयालात वाली जेबुन्निसा को अपने प्यार की ऐसी कीमत चुकानी पड़ी कि शायद ही इतिहास में कोई दूसरा उदाहरण देखने को मिले। उसने अपने मंगेतर को कैद में तिल-तिलकर दम तोड़ते हुए देखा, वहीं उसने अपनी नज़रों के अपने प्रेमियों का कत्ल होते हुए देखा। खुद उसे दिल्ली के सलीमगढ़ किले में 20 वर्षों तक कैदी की जिंदगी काटते हुए वहीं दम तोड़ने के लिये मज़बूर होना पड़ा। जाने-माने इतिहासकार जदुनाथ सरकार ने अपनी पुस्तक ‘ए शॉर्ट हिस्ट्री ऑफ औरंगजे़ब’ में इस बात का जिक्र किया है कि चूंकि औरंगज़ेब कविताई अर्थात शेरों-शायरी से नफ़रत करता था, इस कारण जेबुन्निसा को दरबार की कई सुविधाओं से वंचित कर दिया गया था।

गौरतलब है कि जेबुन्निसा ने अपना छद्म नाम मख़्फी याने कि छिपा हुआ अर्थात गुमनाम क्या रख लिया, उसकी खुद की जिंदगी भी आधी हकीकत और आधा फसाना बनकर रह गयी। विडम्बना ये है कि तवारीख़ के पन्नों में उसके बारे में जितने ऐतिहासिक तथ्य उपलब्ध नहीं, उससे अधिक किस्से-कहानियां, दंत-कथाएं व अफवाहें मौजूद हैं। इस बात की पड़ताल करते हुए ‘दीवान-ए-मखफ़ी’ के अनुवादक द्वय मगनलाल और जस्सी डंकन वेस्टब्रुक बताते हैं कि जेबुन्निसा की जिंदगी के बारे में मुकम्मिल तौर पर जानकारी हासिल करना कठिन है; क्योंकि यह सिलसिलेवार ढंग से लिखी ही नहीं गई है। कारण, उसे अपनी जिंदगी के बाद के दिनों में अपने पिता के कोप का भाजन बनना पड़ा जिसके चलते उस समय के कोई भी दरबारी इतिहासकार उसके बारे में लिखने की हिमाकत नहीं कर पाये।

जेबुन्निसा की मौत के वर्षों बाद जब उसके नज़्म संकलित होकर दीवान की शक्ल में प्रकाशित हुए तब लोगों ने जाना कि मख़्फी क्या चीज थी, और, बाद में कई इतिहासकार व लेखक उसकी ओर आकर्षित हुए।

ऐसा नहीं था कि जेबुन्निसा के मुतल्लिक शुरू से औरंगज़ेब का नजरिया कठोर था। प्रारंभ में वह अपने पिता की अत्यंत चहेती बेटी थी और उसे न सिर्फ उच्च कोटि की शिक्षा मुहैय्या करायी गयी, वरन् कई मामलों में उसे अन्य शहज़ादियों के मुकाबले अधिक छूट भी प्राप्त थी। दरबार की सबसे काबिल उस्तानी अर्थात शिक्षिका हाफ़िजा मरियम को उसकी पढ़ाई-लिखाई की जिम्मेवारी दी गई थी। जेबुन्निसा ने  हाफ़िजा मरियम के साथ फ़ारसी के विद्वान मोहम्मद सईद अशरफ़ मजंदरानी की शागिर्दी में न सिर्फ अरबी, फ़ारसी और उर्दू, बल्कि अदबीयत (साहित्य) के साथ ज्ञान के अन्य क्षेत्र दर्शन, विज्ञान, गणित व नक्षत्र विज्ञान आदि में भी महारत हासिल की।

उसका दिमाग अपने पिता (औरंगज़ेब) की तरह कुशाग्र (तेज) था जिसके कारण मात्र 7 वर्ष की उम्र में पवित्र कुरान की सारी आयतें याद कर वह ‘हाफिज़ा’ बन गई जिससे खुश होकर औरंगज़ेब ने अपनी शहजादी व उसकी उस्तानी (शिक्षिका) को बतौर ईनाम 30-30 हज़ार सोने की मोहरें देने के साथ सार्वजनिक छुट्टी घोषित कर बहुत बड़ा जश्न भी आयोजित करवाया।

जेबुन्निसा के जीवनी लेखकों और इतिहासकारों ने उसे मुगल हरम की सबसे शक्तिशाली और शिक्षित महिला के रूप में चित्रित किया है। औरंगज़ेब जब हिंदुस्तान के तख़्त पर बैठा था, उस समय जेबुन्निसा की उम्र 21 वर्ष की थी। पर उसकी विद्वता, काबिलियत और मज़हबी मामलों में विशेषज्ञता के कारण औरंगज़ेब उससे कई मसलों पर सलाह-मशविरा किया करता था। उसके रुतबे का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि मुगल दरबार में उसके दाखिल होने के समय हरम की अन्य शहजादियां बादशाह के हुक्म से उसकी अगुआनी में खड़ी रहती थीं।

शासक बादशाह की बड़ी शहज़ादी होने के नाते जागीर के तौर पर उसे तीस हज़ारी बाग दिया गया था जहाँ उसका एक आलीशान महल था। पढ़ने-लिखने की शौकीन जेबुन्निसा ने वहाँ एक समृद्ध पुस्तकालय बनवाया था जिसके बारे में इतिहासकार जदुनाथ सरकार ने अपनी पुस्तक ‘ए शॉर्ट हिस्ट्री ऑफ औरंगज़ेब’ में लिखा है कि यह किसी भी निजी पुस्तकालय की तुलना में बढ़-चढ़कर था। जेबुन्निसा को अपने निजी खर्च के लिये सलाना 4 लाख की राशि मिलती थी जिसका एक अच्छा हिस्सा वह उत्कृष्ट साहित्य के श्रृजन व अनुवाद पर व्यय करती थी। इसके लिये उसने वज़ीफ़े पर विद्वानों तथा सुलेखकों (कैलिग्राफर्स) की नियुक्ति कर रखी थी। रहमदिल व धार्मिक विचारों वाली जेबुन्निसा जरूरतमंदों लोगों एवं हज़ यात्रियों की भी मदद करती थी।

खुद एक अच्छी कवियित्री होने के नाते जेबुन्निसा मुशायरों की शान मानी जाती थी। साथ ही वह शायरों को संरक्षण भी प्रदान करती थी। उसकी साहित्य-मंडली  में उस समय के अज़ीम शायर सरहिंद के नासिर अली सहित सैयब, शम्स वलीउल्लाह, अब्दुल बेदिल, कलीम कसानी, साहब तबरेजी के नाम आते हैं। मुशायरों में शिरकत करते समय वह इस बात का ध्यान जरूर रखती थी कि उसका चेहरा नकाब से ढंका हो।

अपनी हाज़िरजवाबी से जेबुन्निसा ने सबको कायल कर रखा था। इस संबंध में एक किस्सा यूं है कि उसकी शायरी व शोहरत से नाखुश औरंगजे़ब की शह पर एक बार नासिर अली नाम के एक पारसी शायर ने उसके सामने यह शर्त रखी कि उसके लिखे कलाम की पहली पंक्ति की जोड़ में वह तीन दिनों के अंदर दूसरी पंक्ति लिखकर दे, अन्यथा हमेशा के लिये शायरी करना छोड़ दे।

नासिर अली की लिखी पहली पंक्ति इस प्रकार थी: “है नामुमकिन ढूंढ पाना ऐसे मोती को/ जो सफेद भी हो और काला भी।” इसके तोड़ में जब जेबुन्निसा ने नियत समय में दूसरी पंक्ति लिखकर आगे बढ़ाई, तो उसकी काबिलियत के सभी कायल हो गये: “है जरूर नामुमकिन ढूंढ पाना ऐसे मोती को/ पर आंसुओं के उन मोतियों को छोड़कर/ जो टपकी हों काजल से भींगी किसी खुबसूरत आंखों से।

अपने नाम के शब्द का अर्थ-‘औरतों का गहना’-के अनुरूप जेबुन्निसा का सौंदर्य अप्रतिम था। परिधान के मामले में वह सादगी पसंद थी, पर उसके कपड़ें सुरुचिपूर्ण होते थे। आज महिलाओं के बीच लोकप्रिय अंगिया कुर्ती उसी की देन है। गहने के नाम पर वह अपने गले सिर्फ मोतियों की माला पहनती थी, जो उस पर खूब फबती थी। भले ही जेबुन्निसा सादगीपसंद थी, पर उसके शायराना दिल को अपनी खुबसूरती का ऐहसास था। तभी तो वह कह उठती है:

“जब भी उठाती हूँ मैं चेहरे से अपने नकाब,
तो मुरझाकर पीले पड़ जाते हैं गुलाब।”

जेबुन्निसा का दिल खुशमिजाज था और उसके दिन खुशगवार गुजर रहे थे। पर स्थितियां उस समय से बदलने लगीं जब औरंगजे़ब अपने पिता शाहजहां को बंदी बना और भाइयों की हत्या कर गद्दी पर बैठा। औरंगजे़ब की कट्टर धार्मिक नीतियों और संकीर्ण मानसिकता के कारण पूरे मुल्क में दहशत का साम्राज्य कायम हो गया। जो भी उसके राजनीतिक जोड़-घटाव के समीकरण के माफिक नहीं उतरा और जिसपर भी उसे बगावत की आशंका हुई, उसे अपने रास्ते से हटाने में उसने कोई भी गुरेज़ नहीं किया। यहाँ तक कि इस बिना पर उसने अपनी चहेती लाडली जेबुन्निसा को भी नहीं बख्शा। जेबुन्निसा का सूफ़ियाना मिजाज, उदारवादी धार्मिक विचार और शायराना अंदाज़ उसकी दुश्वारियों के सबब बने।

अपने चाचा और औरंगजे़ब के भाई दारा शिकोह के प्रति जेबुन्निसा का लगाव भी उसके मुतल्लिक अपने पिता की नाराजगी का कारण बना। दारा से जेबुन्निसा की नजदीकियों की एक वज़ह उसका (दारा शिकोह का) खुद एक अव्वल सूफ़ी शायर होना था और दूसरा महत्वपूर्ण कारण उसके  बेटे सुलेमान शिकोह का जेबुन्निसा का मंगेतर होना था। सुलेमान के साथ उसकी शादी खुद उसके दादा बादशाह जहांगीर ने तय की थी।

राजनीतिक समीकरण के हिसाब से औरंगजे़ब दारा शिकोह को अपना सबसे बड़ा प्रतिद्वंदी मानता था और उसके बेटे सुलेमान के बारे में उसे (औरंगजे़ब को) यह आशंका थी कि जेबुन्निसा से उसके निकाह हो जाने पर कहीं वह तख़्त का दावेदार न बन बैठे। फलतः समरूगढ़ की लड़ाई के दौरान जहाँ उसने दारा का सर कलम करवा डाला, वहीं सलीमगढ़ के किले में सुलेमान को कैद कर अफ़ीम का नशा देकर उसे तिल-तिलकर मरने को मजबूर कर डाला। इस तरह जेबुन्निसा ने अपनी आंखों के सामने अपने पहले प्यार को फ़ना होते देखा।

इसे मुगलिया इतिहास की विडंबना ही कही जा सकती है कि शहंशाह अकबर की बेटी आराम बानू, जहांगीर की बेटी निथार बानू, शाहजहां की बेटियां जहांआरा व रौशन आरा की तरह जेबुन्निसा को भी अकेली अविवाहित जिंदगी गुजारनी पड़़ी। पर शायर मिजाजी जेबुन्निसा का दिल रूमानी था। वह खुद के बारे में कहती भी है: “ऐसे तो हूँ मैं प्रेम-कथाओं की लैला/ करता है प्यार दिल मेरा जुनूनी मजनूं की तरह।” और, कहते हैं कि इसी रूमान में वह ऐसे दो शख़्स को दिल दे बैठी जो मुगलिया रवायत के अनुरूप शाही खानदान का न होने के कारण औरंगजे़ब के कोपभाजन बने।

जेबुन्निसा के रूमान अर्थात इश्क की दो वाक़यातों की बराबर बात होती है, हलांकि ऐतिहासिक दस्तावेजों में इसकी पुख़्ता चर्चा नहीं है। पहली कहानी है लाहौर के  युवा गवर्नर अकिल खां की और दूसरी पारसी शायर नासिर अली की। 1662 ई. में जब औरंगजे़ब एक बार बीमार पड़ा तो अपने चिकित्सकों की सलाह पर वह आबोहवा बदलने की खातिर लाहौर गया था जहाँ के शायरमिजाज युवा गवर्नर अकिल खां से जेबुन्निसा की आंखें दो-चार हो गयीं। पर बादशाह की नाराजगी को भांपते हुए पहले तो अकिल ने अपने कदम पीछे हटा लिये, पर बाद लुक-छिपकर शहज़ादी से मिलने लगा। इसी क्रम में उसे एक बार जब औरंगजे़ब ने उसे बाग में देखा, तो जेबुन्निसा के सामने ही उसे खौलती कड़ाही (देग) में तड़पाकर मारवा डाला। इसी तरह जेबुन्निसा के एक दूसरे शायर प्रेमी नासिर अली को भी औरंगजे़ब के हुक्म से मौत के घाट उतार दिया गया।

जेबुन्निसा के प्रति औरंगजे़ब की नाराजगी का एक कारण मराठा योद्धा छत्रपति शिवाजी को लेकर भी बताया जाता है। राव साहेब जी.के. (पूर्व डी.एस.पी., इंटेलिजेंस, भारत सरकार) अपनी पुस्तक ‘द डेलिवरेंस ऑर इस्केप ऑफ शिवाजी द ग्रेट फ्रॉम आगरा’  (1929) में इतिहासकार डोव के हवाले से बताते हैं कि औरंगजे़ब की शहजादी जेबुन्निसा मराठा योद्धा शिवाजी की बहादुरी के किस्से सुनकर उनसे प्रभावित हो गई थी। राजनयिक परिस्थितिवश कछवाहा राजपूत राजा जय सिंह की मध्यस्थता के कारण शिवाजी औरंगजे़ब के दरबार में जाने को तैयार हो गये, तो हरम की अन्य प्रमुख महिलाओं के साथ जेबुन्निसा भी पर्दे के पीछे से यह नज़ारा देख रही थी। शिवाजी के बैठने हेतु उचित स्थान नहीं दिये जाने पर भरे दरबार में उनकी प्रतिक्रिया देख उनकी जांबाजी पर शहजादी का दिल आ गया। बाद में अपनी प्यारी बेटी के अनुरोध पर औरंगजे़ब ने एक बार फिर शिवाजी को अपने दरबार में आमंत्रित किया। पर इस बार भी अपने को जन्मजात राजकुमार बताते हुए शिवाजी सिंहासन के पास जाकर बादशाह के समक्ष सर झुकाने से इनकार कर गये, जिसके कारण उन्हें नज़रबंद कर लिया गया जहाँ से वे बाद में फरार होने में सफल हो गये। कहते हैं कि औरंगजे़ब को इस फरारी में जेबुन्निसा की शह होने का शक हो गया था। इतिहासकार जदुनाथ सरकार ने भी ‘शिवाजी एण्ड हिज़ टाइम’ में औरंगजे़ब के दरबार में शिवाजी के साथ उचित व्यहवार नहीं किये जाने की चर्चा की है।

इस तरह उदार धार्मिक विचार से युक्त सूफ़ियाना रूझानों वाली शायराना मिजाज की मल्लिका जेबुन्निसा की खुशियां एक-एक कर औरंगजे़ब की संकीर्ण रुढ़िवादी मानसिकता की भेंट चढ़ती गयीं। उसके चहेते चाचाजान दारा शिकोह का सिर कलम कर दिया गया, उसके पहले प्यार सुलेमान शिकोह को तिल-तिलकर मरने पर मजबूर किया गया। यहाँ तक कि अकिल खां और नासिर अली को भी मौत के घाट उतार दिया गया। कहते हैं कि जेबुन्निसा औरंगजे़ब द्वारा फैलाये गये इस आतंक के साम्राज्य से ऊब चुकी थी और उससे खुद की व आवाम की निज़ात चाहती थी।

इस संबंध में ‘द ग्रेट मुगल एण्ड देयर इंडिया’ के लेखक, जो मुगल दरबार को नजदीकी से जानने वाले थे, डर्क कोलियर के कथन महत्त्वपूर्ण जान पड़ते हैं: जेबुन्निसा को सलीमगढ़ किले में इसलिये बंदी बनाकर नहीं रखा गया कि उसे सुलेमान शिकोह अथवा अकिल खां से इश्क था। वरन् उसे इसलिये बंदी बनाया गया क्योंकि वह औरंगजे़ब की दमनकारी नीतियों के खिलाफ थी और जब उसके छोटे भाई मोहम्मद अकबर ने बादशाह के विरुद्ध बगावत छेड़ी, तो जेबुन्निसा ने पिता की बजाय विद्रोहियों का पक्ष लिया। इस कवायद में विद्रोही तो मारे गये और उसे सलाखों के पीछे डाल दिया गया।

जेबुन्निसा की जिंदगी के अंतिम 20 साल दिल्ली के सलीमगढ़ किले की ऊंची-ऊंची के अंदर निर्जन एकांत में बेहद तनहाई में व्यतीत हुए। उसकी जिंदगी के आखिरी दिनों के दर्द बरबस उसकी नज़्मों में छलक उठते हैं: “अरे ओ मख़्फी/बहुत लम्बे हैं अभी तेरे निर्वासन के दिन/और शायद उतनी ही लम्बी है/तेरी अधूरी ख़्वाहिशों की फेहरिस्त/अभी कुछ और लम्बा होगा तुम्हारा इंतजार।” इन दिनों में हालात ऐसे हो गये कि जब सगे-संबंधियों व चाहने वालों ने भी उससे खैरोआफ़ियत (कुशल-मंगल) तक पूछना छोड़ दिया, तो उसके दिल से आह निकल उठी: “शायद तुम रास्ता देख रही हो/कि उम्र के किसी मोड़ पर/किसी दिन/लौट सकोगी अपने घर/लेकिन बदनसीब/घर कहां बच रहा तुम्हारे पास।”

अंततः सलीमगढ़ किले की ऊंची दीवारों के अंदर ही 64 वर्ष की आयु में सात दिनों की बीमारी के बाद जेबुन्निसा ने 26 मई, 1702 ई. को अपनी अंतिम सांसें ली। उस समय उसका पिता औरंगजे़ब दक्कन के दौरे पर था।  भले ही जीतेजी जेबुन्निसा की कई ख्वाहिशें अधूरी रह गयीं हों, पर मरने के बाद उसे उसकी पसंदीदा जगह कश्मीरी दरवाज़ा के निकट तीस हज़ारी में दफनाया गया।

अपनी मृत्यु के बाद जेबुन्निसा का नाम तकरीबन 22 वर्षों तक गुमनामी के अंधेरे में खोया रहा और लोग उसकी शख्सियत से गाफ़िल रहे। जब 1724 ई. में जेबुन्निसा की बिखरी रचनाओं को संग्रहित कर ‘दीवान-ए-मख़्फी’ का प्रकाशन हुआ तब पूरी दुनिया को उसकी सलाहियत का इल्म हुआ। उसके नज़्मों खासकर सूफ़ी कलामों की लोकप्रियता इस कदर बढ़ती गयी कि सूफ़ी-संतों के मजारों-दरगाहों और जलसों में  इन्हें पूरी अकीदत के साथ गाया जाने लगा जिसका सिलसिला आज तक जारी है। समय-समय पर उसके दीवान के कई संस्करण प्रकाशित हुए जिनमें 1913 ई. में मगनलाल व जेस्सी डंकन वेस्टब्रुक का अंग्रेजी अनुवाद प्रमुख है। जेबुन्निसा के कलामों की पाण्डुलिपियां पेरिस के नेशनल लाइब्रेरी, ब्रिटिश म्यूजियम के लाइब्रेरी और तुविंगर यूनिवर्सिटी (जर्मनी) सहित कोलकाता के एशियाटिक सोसायटी के आर्काइव में सहेज कर रखे हुए हैं।

जेबुन्निसा की त्रासदी भरी जिंदगी पर रूचिर गुप्ता ने ‘द हिड्न वन-द अनटोल्ड स्टोरी ऑफ औरंगजे़ब्स डाऊटर’, पॉल स्मिथ ने ‘प्रिंस दारा शिकोह एण्ड हिज नीस प्रिंसेस जेब-उन-निशा (मख़्फी)-टू सूफ़ी पोएट्स मार्टियर्स अंडर द फंडामेंटालिस्ट मुगल एम्परर ऑफ इंडिया, औरंगजे़ब’ तथा के. क्रायनिक व इंजुम हामिद ने ‘कैप्टिव प्रिंसेस जेबुन्निसा, डाऊटर ऑफ एम्परर औरंगजे़ब’ में विस्तार से प्रकाश डाले हैं।

आज भले ही जेबुन्निसा उर्फ मख़्फी का नाम बीते दिनों की बात हो गयी है, पर उसके लिखे नज़्म मानों आज भी जमाने से और खासकर खुदा से अपने उन ख़ताओं के हिसाब मांग रही है जो उसने कभी की ही नहीं:

“अगर इंसाफ के दिन खुदा कहे
कि तुम्हें हर्जाना दूंगा
उन तमाम दुखों का
जो जीवन भर तुमने सहे
तो क्या हर्जाना दे सकेगा वह मुझे
जन्नत के तमाम सुखों के बाद भी
वह एक शख़्स तो उधार ही रह जायेगा
खुदा पर तुम्हारा।”
(अनुवाद: ध्रुव गुप्त)

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