भारतीय राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में ‘अशोक के सिंह’ हाल ही में चर्चा में रहे हैं। ‘अशोक के सिंह’, हमारे राष्ट्रीय ध्वज पर ‘अशोक चक्र’ और ‘अशोक चक्र पदक’ इस बात के कुछ उदाहरण हैं, कि कैसे भारत के गणतंत्र ने अपनी पहचान को मौर्य सम्राट से जोड़ने की कोशिश की है। कई भारतीय शहरों में ‘अशोक मार्ग’ से लेकर अशोक होटल और यहां तक कि एक अशोक विश्वविद्यालय इस बात के गवाह हैं, कि कैसे सम्राट अशोक की अखिल भारतीय स्तर पर पहचान है। भारतीय राष्ट्रीय चेतना में अशोक इतना व्यापक है, कि यह कल्पना करना कठिन है, कि उनके शासनकाल के लगभग दो हज़ार वर्षों बाद तक उनको इतिहास ने पूरी तरह भुला दिया था।पिछले सिर्फ़ 150 वर्षों में, पुरालेख, ग्रंथों और पुरातात्विक साक्ष्यों की खोज के ज़रिए हम, एक मुश्किल पहेली की तरह, अशोक के जीवन को थोड़ा-थोड़ा करके, जोड़ पाने में सफ़ल हुए हैं।
सम्राट अशोक ने 273 से लेकर 236 (ई.पू) तक भारतीय उपमहाद्वीप के विशाल क्षेत्रों पर शासन किया था। वह बौद्ध धर्म के संरक्षक थे। उन्होंने कई स्तूप, मठ और अन्य धार्मिक प्रतिष्ठान बनवाए थे। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है, कि उन्होंने अपने साम्राज्य के विभिन्न हिस्सों में, 30 तरह के कुछ अजीब शिला-लेख भी खुदवाए थे। लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया, साम्राज्य बना और ढह गया। मौर्य राजधानी पाटलिपुत्र इतिहास की परतों के नीचे दब गई, जिस पर आज पटना शहर मौजूद है। भारत में बौद्ध धर्म के पतन के साथ विभिन्न बौद्ध ग्रंथों में अशोक के संदर्भ भी भुला दिए गए। स्तूप और मठ भी वीरान हो गए और ज़मीन में दब गए।
समय के साथ भाषाएं और लिपियां बदल गईं। यहां तक कि पश्चिम में कंधार से लेकर पूर्व में धौली तक फैले अशोक के शिला-लेख भी पूरी तरह से भुला दिए गए। इतिहासकार राधा कुमुद मुखर्जी ने अपनी पुस्तक ‘अशोक’ (1962) में लिखा है, कि जब चीनी यात्री, फाह्यान और ह्वेनसांग ने चौथी और सातवीं शताब्दी में भारत का दौरा किया, तो उन्हें अशोक के शिला-लेखों को पढ़ने में मदद करने के लिए स्थानीय विशेषज्ञ तक नहीं मिले। भारत भर में, स्थानीय लोग जिन्हें अशोक के स्तंभ के बारे में कोई जानकारी नहीं थी, वे उन्हें ‘भीम के कर्मचारी’ के रूप में देखने लगे। इतिहासकार उपिंदर सिंह ने अपनी पुस्तक ‘दिल्ली: एन एन्सशिएंट हिस्ट्री’ (2006) में लिखा है, कि अशोक के स्तंभों को ‘भीम का डंडा’ या ‘भीम का गदा’ कहा जाता था। साथ ही अन्य स्तंभों को शिवलिंग के रूप में पूजा जाता था।
19वीं शताब्दी में कहीं जाकर अशोक के इतिहास की दोबारा खोज हुई। विडंबना यह है, कि यह एक औपनिवेशिक शक्ति के उस विशाल भूमि को ‘समझने’ की इच्छा से संभव हुआ, जिस पर वह शासन कर रहा था। सन 1757 में प्लासी की युद्ध के बाद भारत का बड़ा हिस्सा ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के नियंत्रण में आ गया था। समय के साथ अंग्रेज़ सैन्य और प्रशासनिक अधिकारियों ने विभिन्न क्षेत्रों की स्थलाकृति, भूविज्ञान, इतिहास और संस्कृति का दस्तावेज़ तैयार करने के लिए भारत के हर के दूर-दराज़ के इलाकों की यात्रा की।
लेखक और इतिहासकार चार्ल्स एलन ने अपनी पुस्तक ‘अशोक: द सर्च फ़ॉर इंडियाज़ लॉस्ट एम्परर’ (2012) में इस बात का विस्तृत विवरण दिया है, कि कैसे इस अवधि के दौरान सम्राट अशोक इतिहास की गुमनामी से दोबारा उभरने लगे। सन 1809 में बिहार का सर्वेक्षण करने वाले अंग्रेज़ अधिकारी, फ़्रांसिस हैमिल्टन बुकानन ने बोधगया में एक बड़े मंदिर के अवशेषों के साथ-साथ, राजगीर के पास प्रसिद्ध नालंदा विश्वविद्यालय के अवशेषों को खोज निकाला। एक स्थानीय बौद्ध व्यक्ति ने उन्हें बताया, कि बोधगया मंदिर ‘धर्म अशोक’ नाम के राजा द्वारा बनाया गया था।
वर्ष 1818 में अशोक की पहेली के दो अत्यंत महत्वपूर्ण अंशों की खोज की गई थी। ओडिसा के अंग्रेज़ प्रशासक एंड्रयू स्टर्लिंग ने हाथीगुम्फ़ा गुफाओं और राजा खारवेल के शिला-लेख के साथ-साथ खंडगिरि नामक एक ऐतिहासिक पहाड़ी की खोज की। कुछ महीने बाद, भोपाल के पास तैनात एक अंग्रेज़ अधिकारी जनरल टेलर को ‘भीलसा टॉप्स’ के नाम से जाना जाने वाला टीला मिला, जिसके नीचे प्रसिद्ध सांची स्तूप था।
अगली खोज सीलोन (श्रीलंका) की ब्रिटिश कॉलोनी की पाक स्ट्रेट में हुई। सन 1819 में सर एलेक्ज़ेंडर जॉनस्टन, सीलोन के पहले ब्रिटिश मुख्य न्यायाधीश के रूप में सेवानिवृत्त होने के बाद, वापस लंदन जाते समय अपने साथ कई दुर्लभ पाली पांडुलिपियाँ ले गए, जिनका वह अंग्रेज़ी में अनुवाद करना चाहते थे। ‘महावंश’ ग्रंथ में ‘दर्मसोका’ नाम के एक भारतीय राजा का उल्लेख था जिसने श्रीलंका के साथ राजनयिक संबंध बनाए थे। ग्रंथ के अनुसार,
“जंबू-द्वीप के राजा दरमासोका ने राजा पेटिसा को यह लिखित संदेश भेजा था, कि उन्होंने बुद्ध की आज्ञाओं का पालन किया है और लंका के राजा को भी ऐसा करना चाहिए। इस भारतीय राजा के जीवन के वृत्तांत में एक पूरा अध्याय उस भारतीय राजा पर भी था, जिसने राजकुमार ‘प्रियदास’ के रूप में अपना जीवन शुरू किया और बाद में सम्राट ‘अशोक’ बन गया।”
इसका अंग्रेज़ी अनुवाद पहली बार सन 1833 में इंग्लैंड में प्रकाशित हुआ था।
इस बीच, सन 1823 में, राजपूताना के ब्रिटिश एजेंट कर्नल जेम्स टॉड ने गिरनार शिला-लेख की खोज की और वह दिल्ली और धौली में शिला-लेखों के साथ इसकी समानता देखकर दंग रह गए। लेकिन जब इन शिला-लेखों की खोज की गई थी, तब इन पर लिखी गई इबारत के बारे में किसी को जानकारी नहीं थी क्योंकि ब्राह्मी लिपि तब किसी को पढ़ना नहीं आती थी।
इन शिला-लेखों पर लिखी इबारत के बारे में तब पता चला जब जेम्स प्रिंसेप ने ब्राह्मी लिपि की व्याख्या की। प्रिंसेप कलकत्ता टकसाल में एक जांच मास्टर के रूप में काम करते थे और एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ बंगाल द्वारा प्रकाशित जर्नल ऑफ़ द एशियाटिक सोसाइटी के संस्थापक संपादक भी थे। एशियाटिक सोसाइटी को कई प्रतिकृतियां और शिला-लेख, सिक्के और रिपोर्ट मिलती रहती थीं। सन 1833 के आसपास, एक संस्कृत विद्वान की मदद से, वह इलाहाबाद स्तंभ शिला-लेख के एक हिस्से को समझने में कामयाब रहे, जिसमें ब्राह्मी में राजा समुद्रगुप्त की उपलब्धियों का उल्लेख था। लेकिन उसी स्तंभ पर अशोक के शिला-लेख को समझना अब भी बाक़ी था।
सन 1837 था यूरेका क्षण यानी अनसुलझी पहेलियों को समझने का समय। लगभग चार साल के व्यापक अध्ययन के बाद, प्रिंसेप ने आख़िरकार शिला-लेख को समझने में कामयाबी हासिल कर ली। सांची से मिले शिला-लेखों के अंशों का अध्ययन करते हुए, उन्होंने देखा कि इनमें से अधिकांश शिला-लेख ‘सा दानम’ शब्दों के साथ समाप्त होते हैं और अंततः उन्होंने बाक़ी की लिपि को समझने के बाद अगले साल एशियाटिक सोसाइटी को अपनी रिपोर्ट सौंप दी। शिला-लेखों में देवनमपिया पियादसी नाम के एक राजा के फ़रमान दर्ज थे। जल्द ही सब कड़ियां मिलने लगीं। श्रीलंका के इतिहासकार जॉर्ज टर्नर ने प्रिंसेप को बताया कि पियादसी, दरअसल अशोक नाम के एक राजा की उपाधि है। इस खोज के साथ ही भारतीय इतिहास का एक नया अध्याय शुरु हुआ।
इस खोज के बाद प्रिंसेप ने अशोक के दो शिला-लेखों: गिरनार और धौली का तुलनात्मक अध्ययन किया जिनकी खोज पहले हो चुकी थी। गिरनार शिला-लेख, जो गुजरात में, गिरनार पर्वत की तलहटी में पाया गया था। कपड़े पर लिखा यह शिला-लेख, पहले से ही यानी सन 1835 में कैप्टन लैंग ने, बॉम्बे के रेवरेंड डॉ. जे.विल्सन के लिए खोजा था। रेवरेंड डॉ.विल्सन ने उसकी व्याख्या के लिए उसे प्रिंसेप को भेजा था। इसी तरह किटो ने भी धौली शिला-लेख की प्रतियां प्रिंसेप को भेजी थीं। इन दोनों अभिलेखों का अध्ययन बेशक़ीमती साबित हुआ। गिरनार शिला-लेख में अशोक के समकालीन दो विदेशी राजाओं ‘किंग एंटिओकस’ और ‘किंग टॉलेमी’ के नामों का उल्लेख था। प्रिंसेप ने इसकी व्याख्या फ़ारस के एंटिओकस सोटर, जिसने 281 से 261( ईपू.) तक शासन किया था, और उसके समकालीन, मिस्र के टॉलेमी में से एक के रूप में की। इसके साथ ही प्रिंसेप इस नतीजे पर पहुंचा था कि तीसरी सदी(ई.पू.) के मध्य में,कभी राजा अशोक का शासनकाल हुआ होगा।
एक तरफ़ जहां प्रिंसेप ने अशोक के शिला-लेखों के अध्ययन का रास्ता खोल दिया था, वहीं अशोक के अध्ययन में एक महत्वपूर्ण घटना सन 1852 में तब घटी जब ‘बौद्ध अध्ययन का पितामाह’ कहे जाने वाले फ्रांसीसी प्राच्यविद् (ओरिएंटलिस्ट) यूजीन बर्नौफ़ ने ‘ले लोटस दे ला बोने लोई’ या लोटस सूत्र प्रकाशित किया। इसमें उन्होंने ये बताने की कोशिश की कि बुद्ध 544 (ई.पू.) और अशोक 268 (ई.पू.) में हुए थे। बर्नोफ़ के पास ‘दिव्यदान’ या ‘दिव्य कहानियां’ के नाम से जाना जाने वाला एक संस्कृत ग्रंथ भी था, जो बीस कहानियों का एक संग्रह था, जिनमें से ‘अशोकवदान’ या ‘राजा अशोक का जीवन’ दस हज़ार छंदों में बयान किया गया था। आज हम दो ग्रंथों, ‘महावंश’ और ‘अशोकवादन’ के ज़रिए ही राजा अशोक के जीवन के बारे में जानते हैं।
एक तरफ़ जहां इस मौर्य राजा के मूल्यवान साहित्यिक साक्ष्य थे वहीं पुरातात्विक साक्ष्य सन 1879 के आसपास तब उभरने लगे जब भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के तत्कालीन महानिदेशक सर अलेक्जेंडर कनिंघम ने एक बड़ा काम किया। उन्होंने सभी उपलब्ध शिला-लेखों को ‘कॉर्पस इंस्क्रिप्शनम इंडिकारम’ के पहले खंड में संकलित किया। इस काम का उद्देश्य इन सभी अभिलेखों को लोगों के लिए सुलभ कराना था। दरअसल, अशोक के शिला-लेखों के साथ ,कुछ अन्य शिला-लेखों को समर्पित यह पूरा खंड, अशोक शिला-लेखों के माध्यम से, अशोक के इतिहास का सबसे प्रारंभिक कार्य माना जाता है।
इस बीच, अशोक के शिला-लेखों की खोज जारी रही और बाद के दशकों में, अशोक के कई अन्य शिला-लेख देश के विभिन्न कोनों से प्रकाश में लाए गए, जैसे कि सन 1882 में भगवान लाल इंद्रजी ने, सोपारा शिलालेख खोजा ,सन 1889 में कैप्टन लेघ ने मनसेहरा शिला-लेख और सन 1891 में लुईस राइस ने मैसूर में तीन लघु शिला-लेख की खोज की। इनके अलावा अन्य लोगों की खोज भी सामने आई। अशोक के शिला-लेखों की खोज 20वीं शताब्दी में भी जारी रही। वास्तव में, अशोक से जुड़ी कुछ सबसे महत्वपूर्ण खोज 20वीं शताब्दी की शुरुआत में की गई थीं। सन 1905 में, अशोक के सारनाथ स्तंभ की खोज एफ.ओ. ओरटेल द्वारा करवाई गई खुदाई के दौरान हुई थी। सिंह वाला स्तंभ आज देश का राष्ट्रीय चिन्ह है। कुछ अन्य शिला-लेख आंध्र प्रदेश, कर्नाटक से लेकर अफ़ग़ानिस्तान तक पाए गए हैं।
लेकिन जो आश्चर्यजनक बात है, वह यह कि हम अब भी अशोक के जीवन से जुड़े विभिन्न सूत्रों की खोज कर रहे हैं। उदाहरण के लिए, सबसे आश्चर्यजनक खोजों में से एक, सन 1990 के दशक के अंत में हुई थी जब कर्नाटक के कनगनहल्ली में, सन 1994 और सन 1998 के बीच खुदाई की गई थी। इसमें कई मूर्तियों के अलावा एक स्तूप और एक शिला मिली थी, जिस पर राजा के साथ एक महिला (उनकी रानी) की छवियां उकेरी गई थीं। साथ ही महिला परिचारकों से घिरी हुई एक छवि मिली थी। इस शिला पर एक शिला-लेख भी उकेरा गया था, जिस पर राण्यो अशोक (राजा अशोक) लिखा हुआ था। कहा जाता है कि इस शिला पर बनी छवि, अशोक से जुड़ी पहली छवि थी।
आज भी अशोक से जुड़ी बहुत कुछ चीज़ें है जिनकी खोज होनी बाक़ी है। उनकी राजधानी पाटलिपुत्र के अवशेष, अन्य शिला-लेखों, स्तूपों और स्तंभों से प्राप्त सुराग़ों की छानबीन अभी होनी हैं। यह खोज कब होगी….यह समय ही बताएगा।
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